Book Title: Agam 25 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VARIANTRATHI समाचार्य - जैनधर्मदिवाकर-पूज्य-भी-बासीलालति विजिल-भाव्यमबलकन चूर्णिभाष्यावचूरिसमलङ्कृत श्रीबृहत्कल्पसूत्रम् Shree Bruhatkalpa Sutram MOISTANSAR संस्कृत-पास्ता जैनागमनिष्णात-मियब्यास्थानि पण्डितमुनि भीकन्हैयालालजी-महाराजः उद्यधुरमेवा निवासि-भूतपूर्व देवस्थानकमिश्नर-गर्लडिवावंशभूषण भोहिमतासहजी-महोदषभदाव्यक्षाहाध्येल HindAGA भ० मा० ० म्या जैनशास्त्रोद्धारसमितिभमुखः श्रष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मालदासमाहे-महोदयः बीर वर्मशाला विकमा माया marwar-लखाकृति शक्षिा ११०० मूल्यम-२०-२ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः ॥ मनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य-श्री-घासीलालवति - मिचित-भाष्यपालकृत चूर्णिभाष्यावचूरिसमलङ्कृतं श्रीबृहत्कल्पसूत्रम् Shree Bruhatkalpa Sutram नियोजका संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि पण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः उदयपुरमेवाडनिवासि-भूतपूर्वदेवस्थानकमिश्नर-गलुंडियावंशभूषण श्रीहिम्मतसिंहजी-महोदयप्रदत्तद्रव्यसाहाध्येन प्रकाशक: अ. भा. श्वे० स्था• जैनशास्रोद्धारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः प्रथमा-मावृत्तिः प्रति ११०० वीर संवत . ईस्वीसन् विकम-संपत २०१५ - २४२५ मूल्यम-२०-.. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानु :શ્રી અ. ભા. ધે, સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, है. गरेडिया पारा, श्रीन air, पासे, रा . (सौराष्ट्र) Published by; Shri Akhil Bharat s. S. Jain Shastrodhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra) w. Rly. India. + ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिविपुला च पृथ्वी ।१॥ (इरिगीतछन्दः ) करते अवज्ञा जो हमारी, यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तत्त्व कुछ, फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई, तत्त्व इससे पायगा । है काल निरवधि विपुल पृथ्वी, ध्यानमें यह लायग। ॥१॥ भूस्य ; ३. २०-०० પ્રથમ આવૃત્તિઃ પ્રત ૧૧૦૦ વીર સંવત્ : ૨૪૯૫ વિક્રમ સંવત્ ૨૦૨૫ स्वीसन : १८६८ : भुद्र : વૈદ્ય, શ્રાત્રિભુવનદાસ શાસ્ત્રીજી શ્રી રામાનંદ પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, स्या रोड, महापा-२२. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिम्मतसिंहजी पिताश्री शहाजी मोडीलालजी गलुन्डिया (१) हरिसिंहजी (२) रुगनाथसिंहजी (१) चन्द्रसेन (२) कुसलसिंह (३) शिवसिंह (४) भोपालसिंह जगन्नाथसिंहजी प्रतापसिंह चेतनसिंह सुमेरसिंह Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रोः ॥ गलुंडिया परिवार का संक्षिप्त जीवनचरित्र स्वातंत्र्य और स्वाभिमान का अमर पुजारी मेवाड, भारतीय गौरवगरिमा को आरावली की गिरिमालाओं को तरह उन्नत और अडोल रखने के लिये सदैव कटिबद्ध हो रहा है । इस वीर भूमि की भव्य गौरवगाथाओं से भारतीय इतिहास का अन्धकारमय युग भी जगमगा उठता है। स्वतन्त्रता और स्वाभिमान के बलिवेदी पर सर्वस्व अर्पण कर देने में इस भूमि की समानता करने वाला संसार भर में कोई दूसरा दृष्टि गोचर नहीं होता। अतः मातृभूमि की स्वतन्त्रता और आत्मगौरव के लिये निरन्तर जूझने वाले मेवाड का भारतीय इतिहास में सर्वोपरि स्थान है। ऐसे गौरवान्वित प्रदेश के इतिहास का जब हम अध्ययन करते हैं तो यह स्पष्ट झलक उठता है कि इन स्वतन्त्रा के पुजारियों के महान् सहयोगी और परामर्श दाता ओसवाल जाति के महापुरुष ही रहे हैं । इस जाति का केवल मेवाड ही नहीं किन्तु समस्त राजस्थान के निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। अपने देश और स्वामी के प्रति वफादार रहने वाले जैन वीरों में गर्लडिया परिवार का गौरवान्वित स्थान रहा है। इस परिवार का इतिहास बहुत पुराना हैं । कहा जाता है कि राठोडवंशीय राजपूत घुड़िया शाखा में राजा चन्द्रसेन ने कन्नोज नामक नगर में भट्टारक श्री पूज्य शांति सूर्यजी के पास सं. ७३५ में जैनधर्म ग्रहण किया था। इससे उस समय घुड़िया से गुगलियाँ गोत्र की स्थापना हुई। इसके बाद राठौडवंशीय लोग मंडोवर आये । इस वंश के शाह कल्लोजी को अपनी वीरता के कारण गढसहित ग्राम गळंड जागीर में मिला । ये वहीं रहने लगे। उनके वंशज गजुंडियां गढपति के नाम से प्रसिद्ध हुए । यहीं से गलंडियाँ गोत्र की उत्पत्ति हुई । गलंडिया परिवार अपनी वीरता के लिये प्रसिद्ध है। एक समय- का प्रसंग है कि होलकर सिंधियाँ की सेना जो पटेल सेना के नाम से प्रसिद्ध थी वह समय समय पर मेवाड के गावों में छापा मार कर लूट पाट किया करती थी। उसने एक बार वेगू नामक गाँव पर चढाई कर दी । अचानक गांव पर हमला हुआ जानकर ग्राम निवासी घबझकर इधर उधर प्राण बचाकर भागने लगे । गाँववालों को भागते देखकर गलुंडिया परिवार का एक व्यक्ति सामने आया Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और दोनों हाथों में तलवार लेकर पटेल सेना का कड़ाई के साथ सामना- करने लगा। पटेल सेना उस वीर सेनानी का सामना न कर सकी । अपनी सेना के एक एक वीर को मरता देख वह वहाँ से भाग गई गलुंडियाँ वीर विजयी हुआ। राजपूत इस ओसवाल वीर सेनानी के रणकौशल को देखकर दंग रह गये । उसकी भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे। ___शाह कल्लोजी के वंश में शा, शूरोजी बडे प्रसिद्ध व्यक्ति हो गये । आप बडे उदार चरित्र वाले तथा दानी सज्जन थे। कहते हैं कि मंडोर के प्रधान भण्डारी समरो जी को मांडू के बादशाह ने पकड़ कर कैद कर लिया था । उस समय उसे अठारह लाख रुपये देकर सूरोजी ने छुडवाया । सूरीजी के लिये इस परिवार में ऐसी भी एक किवंदती चली आती है कि 'एक बार जगन हजारी नाम का सुप्रसिद्ध मांत्रिक (चारण) दिल्ली में रहता था। उसका यह नियम था कि जो एक लाख रुपया भेंट करे वह उसी के घर भोजन करता था। भामाशाह की माता ने तीन बार जगन हजारी को जिमाया और प्रत्येक बार एक-एक लाख रुपयों की दक्षिणा दी। एक बार जगन हजारो को भामाशाह की माता ने कहा-जगन हजारी जी ! क्या मेरा जैसा एक लाख रुपये दक्षिणा देकर जीमाने वाला घर आपने अन्यत्र भी कहीं देखा है। हजारोजी ने झट उत्तर देते हुए कहा - सेठानी जी ! संसार केवल एक दानी पर नहीं चलता। संसार में एक से एक महापुरुष पड़े हैं। ___ उन्हें खोजने का हमारे पास समय नहीं। फिर भी अवसर आने पर ऐसे व्यक्ति को अवश्य बताऊँगा । सेठानी ने कहा--यदि ऐसा ही है मैं उस दानी सज्जन का अवश्य दर्शन करूँगी। और उस व्यक्ति के दान से चौगुना दान आपको दूंगी । जगनहजारी वहाँ से चल दिया । वहाँ से जब चले तो रास्ते में सोच ही रहे थे कि किसके पास चलूं। तब तक रास्ते में हरी भरी सस्यश्यामला दिगन्त व्यापी खेती के ऊपर उनकी दृष्टि आकृष्ट हो गई । सुन्दर कूँवा देखकर बोले-यह कौन सा गाम है, और इन क्षेत्रों का कौन सौभाग्यशाली मालिक है ? किसीने बतलाया-आपको मालूम नहीं यह 'गलुंड' ग्राम है, यहाँ के मालिक युद्धवीर के वंशज दानवोर सूराजी हैं सूराजी का नाम सुनते ही हजारी जी बोले-अरे ? सूगजी? तब क्या है, ये तो अपने ही यजमान हैं। इन घोड़ों को इस सस्य में छोड़ दो। तुम लोग नहाओ धोओ। इनके साथ ३०० सौ घुड़सवार चलते रहते थे, इनके वे ३०० सौ घोड़े छोड़ दिये और सब कोई नहाने लगे। इस तरह इनको मन मानी कार्यवाही देख कर रक्षकों ने सूराजी को सूचना दी। वे बोले–मैं आता हूँ। तुम जाकर उनसे प्रार्थना करो १ जिसके देवत्ता भाराधित हो वह ऐसा दृश्य दिखा सकता है । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि-घोड़ों को बन्धवा दीजिये और हम लोग खुद ही काट कर सस्य सहित घास इनको खिला देते हैं। इस तरह सस्य रौदे नहीं जायेंगे और घोड़ों को सुन्दर चारा मिल जायगा। हजारी जी मान गए और खुश हुए। बाहरी ! अक्लने कैसी युक्ति निकाल ली जिससे मेरी इज्जत की भी कदर हुई। घोड़ों को भी मन चाहा चारा मिल गया और बरबादी भी बची। मैंने तो दानवीरता की परीक्षा की थी, युद्ध वीरता की सनद तो इनके पूर्वज प्राप्त कर ही चुके हैं। मालूम पड़ता है दूसरी परीक्षा में भी ये सर्व प्रथम आवेंगे। क्योंकि नीति बतलाती है यः काकिणीमप्यपथप्रयुक्तां निवारयेन्निष्कसहस्रतुल्याम् । कार्य तु कोटिष्वपि मुक्तहस्तः तं राजसिंहं न जहाति लक्ष्मीः॥ जो चतुर अर्थतन्त्र का पण्डित काकिणी को २० (कौड़ी की काकिणी होती है, चार काकिणी का एक पैसा बनता है) भी अनवसर में लापरवाही से जाते हुए देखकर उसको मूल्यवान मोती समझकर खर्च में नहीं जाने देते हैं और समयोचित कार्य के अवसर पर कोटि के कोटि द्रव्य को मुक्त हस्त से खरचते हैं, ऐसे राजसिंह को लक्ष्मी नहीं छोड़ती है। इतने में सूराजी सामने आगए और आदर सत्कार के साथ बोले-आज का निमन्त्रण दलबल के साथ मेरे घर का स्वीकृत हो। मैं आप से एक बार उपकृत तो हो जाऊँ, बड़े कामों में विघ्न होता ही रहता है कृपा करें । . हजारी जी बोले हाँ हाँ स्वीकृत होगा और अवश्य होगा, लेकिन....सूराजी बोले । लेकिन क्या है तन मन धरा धाम न्योछावर करने के लिये सेवक खड़ा है सिर देकर भी निमन्त्रण स्वीकार करवाने का इरादा बाँधकर आया हैं । हजारी जी बोले-निमन्त्रण की दक्षिणा में अगर तेरी पत्नी तेरे परिवारों के सामने अपने हाथ से तेरा सर काट के दे, और किसी के नेत्रों से अश्रुपात न हो तो....सुराजो ने ऐसा ही किया । इन्हें भोजन के उपरान्त दक्षिणा में सर मिल गया । वाह वाह धन्यवाद कहकर हजारो जी सर को रुमाल में बान्धते हुए बोले- 'बाई-वीर पत्नी तूं है, जरा ठहर जाना, मुझे लौटकर आने देना, और खुद की परीक्षा देने देना, फिर सती होने की व्यवस्था करवाना । .. यों सुराजी के पत्नी को समझा कर जगन हजारी उसी समय लौटते पांवों से भामाशाहू की माता के पास पहुँचे, भामाशाह भी भोजन के लिए इष्ट मित्रों के साथ बैठ रहे Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | हजारी जी सब के समक्ष भामाशाह के माता के हाथ में सुशजी का सर जो कि ताजे खून से लथपथ था, देते हुए बोले तूं दानवीर की माता है और तेरे सामने दुनियाँ में अपने आपको अकेला दानवीर समझने वाला तेरा लड़का भामाशाह भी अपने बन्धुवर्गों के साथ मौजूद ही है, फिर देर किस बात की । तेरे ब्राम्ह से फिलहाल सूराजी के पास मैं पहले पहल गया और तेरी शर्त सुनायीतो सुराजी ने कहा - भला कौन ऐसा गंवार होगा जो आपकी मांग पूरी नहीं करें जब कि एक दान के बदले चौगूना दान मिलने वाला है, सौभाग्य की बात है तो मेरा दान चौगुने शर्तका पहला सिद्ध होगा । यो अर्जू मिन्नत करके अपना सर दान में दे दिया है इतना ही नहीं जिसकी छाया प्रवल शत्रुसैन्य व्यूह में दुश्मन नहीं पा सका उस वंशज का सर है । कुछ अधिक ही इसका बदला मिलना चाहिये । चौगुना देने की तो तूं ने सौगन्द ले ही चुकी है। ला उतना ही ला, देर मत कर । सुराजी के पत्नी को सती होने में इतनी ही देर है कि मैं लौटकर जल्दी जाऊँ और सिर लोटा दूँ । भामाशाह उनकी माता और जनसमुदाय यह सब देखकर चकित हो गया और हाथ जोड़ कर हजारी जी के पाँव में पड़े । दानवीर का गर्व उतर गया । हजारी जी इनको दानवीर के नाटक खेलने वाला कह कर लौट गये और जाकर सुराजो के पत्नी से बोले – लेलो अपने पति का सर । इसे जोड़ दो । घड़ से सर जुड़ गया । जगन हजारीजीने सूराजीकी पत्नी की खूब खूब प्रशंसा की । सरजुड़ते ही सूराजी उठकर खड़े हो गये । जयजय कार हो गया । सूराजी के बाद पीढ़ी दरपीढ़ी में साहजी शिवलाल जी हुए जो महाराणा स्वरूपसिंह जी सा० के दरबार का अमात्य - प्रधान थे, इनके देहान्त पर इनकी पत्नी श्रीमती अमृताबाईजी जिन्दा ही सती हुई जिनकी छतरी उदयपुर में गंगू पर बनी हुई है । अभी भी सभी वर्ग अपने कार्य की पूर्ति के लिये वहाँ जाते हैं और सामायिक की मिन्नत लेते हैं । सा० जी शिवलाल जी के कोई सन्तान न होने से महाराणा स्वरूपसिंह जी सा० उनके नाम पर सा० जी गोपाल लालजीको गोद रख के मेवाड़ का प्रधान बनाना चाहते थे जैसा कि सती माता का फरमान था । किन्तु सा० जी गोपाल लालजी पिता श्री सा० जी चम्पा लालजी साहब का एक मात्र पुत्र थे अतः गोददेने से इनकार हो गये पितृभक्ति के ब सा० जी गोपाललाल जी रुक गये । सा० जी गोपाललालजी के एक ही पुत्र सा० श्री मोडी - लाल जो सा० थे जिन्होंने सालह उमरावों की वकालत की और महाराणा फतेहसिंह जी के सलाहकार नियुक्त हुए बाद में महाराणा फतेहसिंह जी ने इन्हें जहाज पुर के हाकिम Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाये | जहाजपुर कोटा बुंदी सरहद पर है, यहाँ फौजें रहती थी, यहाँ के हाकिम राणा के नीचे राणा के बराबर का समझे जाते हैं । जहाजपुर मेवाड राज्य की रीढ समझा जाता है । 1 सा० जी मोडीलालजी सा० के हरिसिंहजी रुगनाथजी, हिम्मतसिंहजी, ये तीन पुत्र हुए। इनमें हरिसिंहजी पिता के साथों साथ 'खमनोर ' के हाकिम राणाजी के द्वारा नामजद हुए । रुगथसिंहजी सा० पिताजी को हाकिम बनने पर सोलह उमरावों की बकालत करने लगे । ये बड़े भद्र पुरुष थे। इन्होंने खान दान, धर्म समाज की पूर्ण सेवा की । हरिसिंहजी सा० को एक ही पुत्री भँवरबाई है । रुगनाथसिंहजी सा० को भी एक ही पुत्र जगन्नाथसिंहजी है । श्री हिम्मतसहजी सा० के चार पुत्र- शिवसिंहजी, कुशलसिंहजी, चन्द्र सिंहजी, भूपालसिंहजी तथा एक पुत्री विजयनन्दिनी हैं । श्री हिम्मतसिंह सा० की दो शादियाँ रीयांवाले सेठ के घराने में हुई, रीयां का घराना" मारवाड के ढाई घर में से एक घर समझा जाता है, किसी समय जरूरत से जोधपुर दरवार को द्रव्य सहायता देते समय रीयां से जोधपुर खजाने तक रुपयों से भरे हुए गाड़ा का ताँता लगा दिया था । पहली शादी सेठ भैरववक्षजी की पुत्री मोहनकुंवरजी से हुई इनका श्री हिम्मतसिंहजी सा० के विद्याध्ययन के समय में ही देहांत हुआ। आपका नियमित अध्ययन पिता श्री के देहान्त के बाद शादी हो जाने पर १८ साल की उम्र में प्रारम्भ हुआ । दूसरी शादी सेठ प्यारेलालजी रीयांवाले अजमेर निवासी की पुत्री माणककुंवर के साथ हुई, इन्हीं से ये उपर्युक्त सन्तान हुए । श्री हिम्मतसिंहजी सा० अपने परम पूज्य पिता श्री के अत्यन्त प्रिय पुत्र थे, इस कारण वे अपने जीवन काल में बाहर जुदा रखकर अपनी पढाई नहीं करवा सके। आप पिता श्री के साथ ही रहते थे, इस कारण स्कूल के दरेक विषय को पढाई नहीं हो सकी, सिर्फ हिन्दी और अंग्रेजी की पढाई मास्टर घर पर आकर करवाता था, पिता श्री के जीवन काल में जाकर शादी तो हो चुकी थी। बाद में पिता श्री का स्वर्गवास हो गया । तब ये स्कूल जाकर विद्याध्ययन करने लगे । मैट्रिक देहली रामजस हाईस्कूल से पास की । इण्टर अजमेर गवर्मेन्ट कॉलेज से की बी. ए. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से तथा एम. ए. राजनीति में और एल. एल. बी. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में लखनऊ विश्वविद्यालय से सन् १९३३ ई० में उत्तीर्ण हुए । इसके साथ साथ फौजी परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में पास की। इनकी प्रथम नियुक्ति फौज में हुई, किन्तु इन्होंने उस वक्त के रियासती वातावरण में रहना पसन्द नहीं किया । वहाँ से Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकलकर अजमेर में आकर वकालत सन् १९३८ तक की । तत्पश्चात् मातुश्री के आग्रह से महाराणा सा० श्री भूपालसिंहजी ने हाकिम के पद पर नियुक्त किया । इसके बाद मेवाड़ राज्य में अनेक पदों पर काम किया । महाराणा स० ने इनको सेवा की सराहना में इनको और इनकी पत्नी को सोना पांव में पहनने की इज्जत बक्सी । राजस्थान बनने पर प्रतापगढ रियासत के एडमीनिस्टेस्टर बने, फिर टौंक के कलक्टर ( जिलाधीश ) बने । इसके पश्चात् डाइरेक्टर ओफ रिलीपएडीस्नल कमीश्नर रहे । अन्त में देवस्थान कमीश्नर पद से रिटायर हो गये । तब से जयपुर में रहने लगे, और वहाँ गलुंडिया भवन का आकाशवाणी के आमने सामने निर्माण करवाया, एक बगीचा माणक वाटिका नामका अजमेर रोड पर और एक बंगला गोपाल वाडी में भी बनवाया । इनके बड़े लड़के शिवसिंहजी सा० के दो पुत्र प्रताप सिंहजी सुमेरसिंहजी तथा एक पुत्रो नीताबाई हैं । श्री शिवसिंहजी की शादी अहमदनगर निवासी उत्तमचन्द्रजी रामचन्द्रजी बोगावत जो कि लोकसभा के एक सदस्य थे, उनकी सुपुत्री के साथ हुई । श्री शिवसिंहजी जयपुर में उद्योग ( इण्डस्ट्री) का कार्य कर रहे हैं, जिनकी दो शाखाएँ शिवइंजिनियरिंग और कमल इंजिनियरिंग हैं | श्री हिम्मतसिंहजी सा० के द्वितीय पुत्र कुशलसिंहजी प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट पद पर जयपुर में हैं । इनके एक ही पुत्र चेतनसिंहजी है इनकी शादी मणासा निवासी वकील सा० श्री जमुनालालजी जैन की पुत्री से हुई है। तृतीय और चतुर्थ पुत्र श्री चन्द्रसिंह और भूपाल सिंह जयपुर में फिलहाल विद्याभ्यास कर रहे हैं । श्री हिम्मतसिंहजी सा० के बड़े भ्राता रघुनाथसिंहजी के सुपुत्र श्री जगन्नाथ सिंहजी उदयपुर गोपाल भवन में रहते हैं और कृषिकार्य सुचारु रूप से चला रहे हैं - इनकी शादी उज्जैन निवासी वापूलालजी की पुत्री से हुई है । इनके तीन पुत्र और दो पुत्रियां हैं । उदय पुर का गोपालभवन बंगला हिम्मतसिंहजी सा० के पितामह के नाम से प्रसिद्ध है । श्री हिम्मतसिंहजी को पाँच बहनें थी । श्रीमती रूप कुँवर बाईजी की एक ही पुत्री श्रीमती आनन्द कुँवर बाई है, जिसकी शादी रतलाम निवासी सेठ वर्धमानजी पीतलिया से हुई । २- द्वितीय बहन श्री सज्जन बाईजी के पुत्र भूरेलालजी वया राजस्थान के मन्त्री पद पर रहे जो कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता 1 द्वितीय पुत्र श्री गणेशलालजी जिनकी धर्म में अच्छी लगन है । ३- तृतीय बहन गुलाब कुँवरजी मुनि को अङ्गीकार किया है। इनके एक पुत्र मोहनलालजी वया तथा एक पुत्री Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ف तेज कुँवर हैं । चतुर्थ बहन मोहनकुँवरजी इनकी शादी रीयांवाले सेठ घनश्यामदासजी के साथ हुई थी, इनकी स्मृति में भूपाल पुरा उदयपुर में मोहनज्ञानमन्दिर का निर्माण हुआ । जिसमें सब कुटुम्बियों के साहाय्य और सहयोग रहे हैं । यह भवन उपाश्रय और पुस्तकालय के काम में आ रहा है । ५ पाँचवी बहन चन्द्रकुँवर उदयपुर गोपाल भवन में रहती है और धर्मध्यान करती हैं । श्री हिम्मतसिंहजी सा० की माता श्री श्रीमती सुन्दरवाई अपने जीवन काल में खूब धर्मध्यान करती थी ८५ पच्चासी वर्ष की अवस्था में कालधर्म को प्राप्त हुई । इन्हीं के धर्मध्यान के सुसंस्कार का यह सुपरिणाम है कि आगे के सन्तति भौतिक सुख साधनों से भरपुर होकर भी जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज (जो कि बत्तीस के बत्तीस स्थानकवासी जैन आगम की टीका सम्पन्न करके व्याकरण, साहित्य कोष न्याय आदि समूचे उपयुक्त शब्दजाल ऊपर अस्सी से ऊँची उमर में भी लेखनी चला रहे हैं) की सेवा से भक्ति के साथ आध्यात्मिक उन्नति सम्मुख हो रही है । श्री हिम्मतसिंह जी का आग्रह है कि इन गुरुचरणों की सेवा में, इनके शुभ आदेश का बची पालन उमर अब जाय । करने आय ॥१॥ Page #13 --------------------------------------------------------------------------  Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આધમુરબ્બીશ્રીએ શ્રી શાંતિલાલ મગળદાસભાઈ અમદાવાદ. (સ્વ.) શેઠશ્રી શામજીભાઇ વેલજીભાઇ વીરાણી–રાજકાટ (સ્વ.) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર – અમદાવાદ. શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વીરાણી-રાજકાટ. વચ્ચે બેઠેલા લાલાજી કિશનચંદજી સા. જૌહરી ઉભેલા સુપુત્ર ચિ. મહેતામચન્દ્રજીસા. નાના – અનિલકુમાર જૈન (દાયત્તા ) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રીઓ (સ્વ.) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિઆ ભાણવહ. (સ્વ.) શેઠ રંગજીભાઈ મોહનલાલ શાહ અમદાવાદ, She is in શ્રી વિનોદભાઈ વીરાણી (સ્વ) શેઠશ્રી દિનેશભાઇ કાંતિલાલ શાહ . અમદાવાદ, કને શેઠશ્રી જેસિંગભાઈ પાચાલાલભાઈ અમદાવાદ સ્વ, શેઠશ્રી આત્મારામ માણેક્ષાલ અમદાવાદ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રીઓ શ્રી વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ રાજકેટ, કોઠારી હરગોવિંદ જેચંદભાઈ રાજકોટ, પટેલ ડોસાભાઈ ગોપાલદાસ મુ. સાણંદ (જી. અમદાવાદ) શેઠશ્રી મિથીલાલજી લાલચંદજી સા, લુણિયા તથા શેઠશ્રી જેવંતરાજજી લાલચંદજી સા. (સ્વ.) શેઠશ્રી ધારશીભાઇ જીવણલાલ બારસી, સ્વ. શ્રીમાન શેઠશ્રી મુકનચંદજી સા. માલિયા પાલી મારવાડ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આદ્યમુરબ્બીશ્રીએ સ્વ. શેઠશ્રી હરિલાલ અનેપચદ શાહુ ખંભાત. श्रीमान् शेठ सा. चीमनलालजी सा. ऋषभचंदजी सा. अजीतवाले (सपरिवार) વચ્ચે બેઠેલા મેાટાભાઇ શ્રીમાન્ મૂલચ ંદજી જવાહીરલાલજી અરડિયા ૨ બાજુમાં બેઠેલા ભાઈ મિશ્રીલાલજી ખરડિયા ૩ ઉભેલા સૌથી નનાભાઈ પૂનમચંદ ખરડિયા स्व. शेठ ताराचंदजी साहेब गेलडा मद्रास. ૧ અમીચંદભાઈ ત્યા ૨ ગીરધરભાઈ આંટવિયા श्रीमान् सेठश्री खीमराजजी सा. चोरडिया Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्यावचूरिसमलकृतम् श्रीबृहत्कल्पसूत्रम्. Page #19 --------------------------------------------------------------------------  Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ س كم م बृहत्कल्पसूत्रस्य विषयानुक्रमणिका प्रथमोदेशकः सूत्रसं. -विषयः पृष्ठसं. मङ्गलाचरणम् मलम्बप्रकरणम् २-५ १ मिग्रन्थनिम्रथीनाम् अभिन्नाऽऽमतालप्रलम्बग्रहपनिषेधः ।। २ २ , भिन्नाऽऽमतालप्रलम्बग्रहणानुज्ञा । २ . ३ निम्रन्थानां पकतालप्रलम्बाभिन्नाभिन्नग्रहणानुज्ञा । ३ ४ निर्ग्रन्थीनां पक्कतालप्रलम्बाऽभिन्नग्रहणनिषेधः । ३ ५ निर्ग्रन्थीनां भिन्नेऽपि तालप्रलम्बे विधिभिन्नग्रहणानुज्ञा, अविधिभिन्नग्रहणनिषेधश्च ॥इति प्रलम्बप्रकरणम् ॥ मासकल्पपकरणम् ६ निर्ग्रन्थानां सपरिक्षेपाऽबाहिरिकग्रामादौ हेमन्तग्रीष्मकालविषय कैकमासवासानुज्ञा । ७ निम्रन्थानां सपरिक्षेपसबाहिरिकग्रामादौ हेमन्तग्रीष्मकालविष यकद्विमासवासविधिः । ८ निर्ग्रन्थीनां सपरिक्षेपाऽबाहिरिकप्रामादौ हेमन्तग्रीष्मकाल विषयकद्विमासवासानुज्ञा । ९ निम्रन्थीनां सपरिक्षेपसबाहिरिकग्रामादौ हेमन्तग्रीष्मकालविषयकमासचतुष्ट बासानुज्ञा। ॥ इति मासकल्पप्रकरणम् ॥ १० निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनामेकवगडादियुक्तोपाश्रये एकत्रवासनिषेधः । ११ ११ , मनेकवगडादियुक्तोपाश्रये एकत्रवासानुज्ञा । ११ १२ निग्रन्थीनामापणगृहरथ्यामुखादिस्थाने वासनिषेधः । १३ निम्रन्थानां तथाविधस्थाने वासानुज्ञा । १४ निर्ग्रन्थीनामपावृतद्वारोपाश्रयवासनिषेधः । १५ निग्रन्थानामपावृतद्वारोपाश्रयवासानुज्ञा । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रसं विषयः पृष्ठसं. १५ १६ निर्ग्रन्थीना मन्तर्लिप्तघटीमात्रकधारणानुज्ञा । १७ निर्ग्रन्थानां तन्निषेधः १५ १६ १८ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां चेलचिलिमिलिकाधारणानुज्ञा । १९ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनामुदकतीरे स्थाननिषदनादिसर्व कार्यनिषेधः । १६ २०-२१ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां सचित्रकर्मोपाश्रयवा सनिषेधः, अचित्रकर्मीपाश्रयवासानुज्ञा च । २२-२३ निर्ग्रन्थीनां सागारिकाड निश्रया वा सनिषेघः, सागारिकनिश्रया च वासानुज्ञा । २४ निर्मन्थानां सागारिकस्यनिश्रया अनिश्रया वा वासानुज्ञा । 59 २५-३० ॥ सागारिकापाश्रयमकरणम् ॥ २५ निर्मन्थनिर्ग्रन्थीनां सागारिकापाश्रयवासनिषेधः । २६ असागारिको पाश्रयवासानुज्ञा । २७-२८ निर्ग्रन्थानां स्त्रीसागारिकापाश्रयवासनिषेधः, पुरुषसागारिका - 99 २१ * पाश्रयवासानुज्ञा च । २९ - ३० निर्ग्रन्थीनां पुरुषसागारिकापाश्रयवा सनिषेधः, स्त्रीसागारिकोपाश्रयवासानुज्ञा च । इति सागारिकोपाश्रयप्रकरणम् । ३१ निर्मन्थानां प्रतिबद्धोपाश्रयवा सनिषेधः । ३२ निर्ग्रन्थीनां प्रतिबद्धोपाश्रयवा सानुज्ञा । ३३ निर्ग्रन्थानां गृहस्थगृहमध्यतो गमनागमनयुक्तोपाश्रयवास निषेधः । ३४ पूर्वोतोपाश्रये निर्ग्रन्थीनां वासानुज्ञा । ३५ भिक्षोरधिकरणव्यवशमनोपदेशः । १८ ३६ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थोनां वर्षाकालविहारनिषेधः । ३७ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां हेमन्तग्रीष्मकालविहारानुज्ञा । ३८ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वैराज्यविरुद्धराज्ये गमनागमननिषेधः, तत्करणे प्रायश्चित्तविधिश्च । १८ १९ १९ २० २२ २२ २३ x x x x x २४ २४ २६ २८ २८ २९ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रसं. विषयः ३९ निर्ग्रन्थानां भिक्षार्थगतानां वस्त्राधुपनिमन्त्रणे वस्त्रादिग्रहणविधिः ३१ ४० एवं विचारभूमिविहारभूमिगतानामपि वस्त्रादिग्रहणविधिः । ३१ ४१ - ४२ एवमेव निर्ग्रन्थीनां वस्त्रादिग्रहणे विधिः । ३१-३२ ४३ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां रात्रौ विकाले वा अशनादिग्रहणनिषेधः । ३३ वस्त्रादिग्रहणनिषेधः । ३३ ४४ पृष्ठसं. 19 11 99 ४५-४६ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां रात्रौ विकाले वा अध्वगमननिषेधः, संखडि - प्रतिज्ञया - अध्वगमननिषेधश्च । ३४ ४७ निर्ग्रन्थस्य रात्रौ विकाले वा एकाकिनो बहिर्विचारभूमौ विहारभूमौ वा निष्क्रमण प्रवेशनिषेधः, आत्मद्वितीयस्य त्वनुज्ञा । ४८ एवं निर्ब्रन्या अपि निषेधः, तस्या आत्मद्वितीयाया आत्मतृतीयायाश्चानुज्ञा । ४९ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां चतुर्दिक्षु अङ्गमगधाचार्य क्षेत्रविहरणमर्यादा । ॥ इति बृहत्कल्पे प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥ १ ॥ ॥ अथ द्वितीयोदेशकः ॥ ॥ उपाश्रयप्रकरणम् ॥ १ निर्मन्थनिर्ग्रन्थीनां शाल्यादिबी जाकीर्णोपाश्रयवासनिषेधः । राशिपुञ्जादिरूपेण स्थितशाल्यादियुक्तो- । पाश्रये हेमन्तग्रीष्मकालवासानुज्ञा । ३ एवमुपाश्रयवगडायां राशिपुञ्जादिरूपेण स्थितशाल्यादियुक्तोपाश्रये निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वर्षावासानुज्ञा । ४ उपाश्रयवगडा स्थापितसुरासौवीर विकट कुम्भयुक्तोपाश्रये वासनिषेधः, अन्योपाश्रयाभावे एकद्विरात्रोपरि वासे प्रायश्चित्तविधिश्च । ४१-४२ ५ एवमेव शीतोदकोष्णोदकविकट कुम्भयुक्तोपाश्रयविषयेऽपि निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थीनां वासनिषेधः, वासे प्रायश्चित्तविधिश्च । ६ एवं वगडास्थित सार्वत्रिक ज्योतिर्युक्तोपाश्रये निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वासनिषेधः, वासे प्रायश्चित्तविधिश्च । ७ एवं सर्वरात्रिकदीपविषयेऽपि सूत्रम् । १-१२ 33 ३५ ३६ ३७ ३९-४६ ३९ ४० ४१ ४२ ४३ ४३ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. विषयः पृष्ठलं ८ एवं कगडाविकीर्णपिण्डकलो चकादियुक्तो पाश्रयेऽपि वासनिषेधः । ४४ ९ वगडायामेकत्र राशिपुञ्जादिरूपेण स्थितपिण्डकलोचकादियुक्तोपाश्रये निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां हेमन्तग्रीष्मकालवासानुज्ञा । ४५ १० एवं वगडायां कोष्ठपल्लादिस्थितपिण्डकादियुक्तोपाश्रये वर्षावासानु । ४५ ११ निर्ग्रन्थी नामघ आगमनगृहादिषु वासनिषेधः । ४६ १२ निर्मन्थानां च तत्र वासानुज्ञा । ४६ ॥ इत्युपाश्रयप्रकरणम् ॥ || सागारिक ( शय्यातर) प्रकरणम् ॥ ४७-५३ १३ अनेकशय्यातरेषु सत्सु तम्मध्यादेकशय्यातरस्थापनविधिः । ४७ १४ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां बहिर निर्द्धता संसृष्टसंसृष्टसागा रिक पिण्डग्रहण निषेधः । ४७ १५ एवं बहिर्निर्हता संसृष्टसागारिकपिण्डग्रहणनिषेधः, बहिर्निर्हत संसृष्ट सागारिकपिण्डग्रहणानुज्ञा च । १६ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थ्यो हिर्मिर्हता संसृष्ट सागारिककपिण्डस्य संसृष्टकरणे प्रायश्चित्तविधिः । १७-१८. सागारिकस्याऽऽहृतिकाया ग्रहणाग्रहणविधिः । १९ सागारिकस्य निर्हृतिकाया ग्रहणाग्रहणविधिः । २० सागारिकस्यांशिका विषये ग्रहणाग्रहणविधिः । १३-२४ २१ - २३ सागारिक पूज्यभक्तस्य निषेधप्रकाराः । २४ सागारिकपूज्य स्वायत्तीकृत-तत्प्रदत्ताहारस्य ग्रहणानुज्ञा । ॥ इति सागारिकप्रकरणम् ॥ २५ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां पञ्चविधवस्त्रधारणानुज्ञा । २६ एवं पञ्चविधरजोहरणधारणानुज्ञा । ४८ ४८ ४८ ४९ ५० ५१-५२ ५२ ५३ ५४ ॥ इति बृहत्कल्पे द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥ २ ॥ ॥ अथ तृतीयोदेशकः ॥ १ निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये निर्ग्रन्थानां स्थामनिषदनादिकरण निषेधः । ५६-५७ २ एवं निर्ग्रन्थानामुपाश्रये निर्ग्रन्थीनां स्थाननिषदनादिकरण निषेधः ५८ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रसं. विषयः । ३ निम्रन्थीनां सलोमचर्माधिष्ठामनिपेषः ।। १ निन्यानां सोमवाधिष्ठाने विधिप्रकार। .. ५ निग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां कृत्स्नालखण्डित चर्मधारणनिषेधः । ६ ,, अकृत्स्न(खण्डित)चर्मधारणाऽनुज्ञा । ७ एवं , , कृत्स्नाकृत्स्नवस्त्रधारणे क्रमेण निषेधोऽनुज्ञा च ८ एवं ,, , अमिन्नवस्त्रधारणनिषेधः ।। ९ , , भिन्नवस्त्रधारणानुज्ञा । १० निम्रन्थानाम् अवग्रहानन्तकाऽवग्रहपट्टकधारणनिषेधः। ६४ ११ निर्ग्रन्थीनां तद्धारणानुज्ञा । .. .... १२ आहारार्थ गृहस्थगृहप्रविष्टाया निम्रन्थ्या वस्त्रप्रयोजने।। तद्ग्रहणविधिः । १३ प्रथमप्रव्रजतो निर्ग्रन्थस्य रजोहरणादिग्रहणविधिः। १४ एवं प्रथमप्रव्रजन्त्या निर्ग्रन्थ्या रजोहरणादिग्रहणविधिः । १५ निम्रन्थनिम्रन्थीनां वर्षाकालप्राप्तवस्त्रग्रंहणनिषेधः, ऋतुबद्धकाल प्राप्तवस्त्रग्रहणानुज्ञा च ।.. १६ निम्रन्थनिर्ग्रन्थींनां यथारास्निकवस्त्रग्रहणानुज्ञा । १७ एवं , शय्यासस्तारकस्यापि यथारास्निकग्रहणानुज्ञा . १८ १८ एवं , यथारास्निककृतिकर्मानुज्ञा । १९ निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनाम् अन्तरद्वारे (गृहस्यान्तरालमार्गे) स्थाननिषद नादिकरणनिषेधः, अपवादे व्याधितादौनां तत्करणानुज्ञा च । १७ .. २० एवमन्तरगृहे चतुःपञ्चगाथाख्यानादिनिषेधः । । ७२ २१ एवमन्तरगृहे भावनासहितपञ्चमहाव्रताख्यानादिनिषेधः ।। . ७३ २२-२५ प्रातिहारिकसागारिकसत्कशय्यासंस्वारकपकरणम् ७४-७५ २२ निम्रन्थनिम्रन्थीनां प्रातिहारिकसागारिकसत्कशय्यासस्तारक , मदत्त्वा विहारनिषेधः। .. ७४ २३- एवं पूर्वोक्तशय्यासंस्तारकं यथांवस्थितरूपेमाऽदत्त्वा विझरनिषेधः । ७४ २४ पूर्वोक्तशय्यासंस्तारकं यथावस्थितरूपेण दत्त्वा विहारानुज्ञा । ७४ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रसं विषयः २५ पूर्वोक्तशय्यासंस्तारके विप्रणष्टे किं कर्त्तव्यमिति तद्विधिः । । इति प्रातिहारिकसागारिकसत्कशय्या संस्तारकप्रकरणम् । अवग्रहप्रकरणम् ७६--७९ २६-३० २६ पूर्वस्थितश्रमणानां गमने तत्काल समागतश्रमणानामवग्रहानुज्ञापनाविधिः । २७ एवं पूर्वस्थितश्रमणानां गमने तदुपाश्रयस्थिताऽचित्तवस्तुजातस्य परिभोगे पूर्वस्थितश्रमणविषयैवाऽवग्रहस्यानुज्ञापना भवतीति कथनम् । २८ अव्याष्टतादिवसतेः पूर्वस्थितश्रमण विषयैवावग्रहस्यानुज्ञापना भवतीति कथनम् । २९ व्यापृतादिवसतेर्द्वितीयवारमवग्रहानुज्ञापना कर्त्तव्या । ३० भिन्यादिनिकटवर्त्तिस्थानेष्वपि अवग्रहस्य पूर्वानुज्ञापनैव भवति । पृष्ठसं. ७५ १ अनुद्घातिकाधिकारः । २ पाराञ्चिकाधिकारः । ३ अनवस्थाप्याधिकारः । ४ - ९ प्रत्राजन - मुण्डापन - शिक्षणोपस्थापन - - संभोग-संवासाधिकारे पण्डकादित्रयाणां षड् निषेधसूत्राणि । १० अविनीतादित्रयाणां वाचनानिषेधः । ११ विनीतादित्रयाणां वाचनानुज्ञा । १२ दुष्टादयखयो दुस्संज्ञाप्याः । १३ अदुष्टादयस्त्रयः सुसंज्ञाप्याः । १४ ग्लाननिर्ग्रन्थ्याः पित्रादिना धारणे पुरुषस्पर्शानुमोदने प्रायश्चित्तविधिः । ७६ ७७ ७७ ७८ ७९ ॥ इत्यवग्रहमकरणम् । ३१ ग्रामादीनां बहिः सैन्यनिवेशे स्थिते निर्मन्थनिर्ग्रन्थीनां भिक्षाचर्याविधिः । ८० ३२ ग्रामादिषु सर्वतः समन्तात् क्षेत्रावग्रहप्रमाणाधिकारः । ॥ इति बृहत्कल्पे तृतीयोदेशकः समाप्तः ॥ ३॥ ॥ अथ चतुर्थोद्देशकः ॥ ง ८१ ८२ ८५ ८९ ८९ ९१ ९२ ९३ ९३ ९४ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ सुत्रस विषयः पृष्ठसं. १५ एवं निम्रन्थस्य मात्रादिना धारणे स्त्रीस्पर्शानुमोदने प्रायश्चित्तविधिः । ९५-९४ १६ निम्रन्थनिग्रन्थीनां कालातिक्रान्ताहारकरणनिषेधः । ९५-९५ १७ , , क्षेत्रातिक्रान्ताहारकरणनिषेधः । १८ निम्रन्थस्यानाभोगेनाचित्तानेषणीयपानभोजनप्राप्ती किंवा कर्त्तव्यमिति तद्विधिः। १९ कल्पस्थिताऽकल्पस्थितानामाहारकल्पविधिः । २० भिक्षोः स्वगणादन्यगणावक्रमणेच्छायां तद्विधिः ।। २१-२२ एवं गणावच्छेदकस्य, आचार्योपाध्यायस्य च पूर्वोक्तो विधिः। १०१ २३-२५ भिक्षु- गणावच्छेदका-ऽऽचार्योपाध्यायानां संभोगप्रतिज्ञया न्यगणावक्रमणेच्छायां तद्विधिप्रदर्शकाणि त्रीणि सूत्राणि । १०२-१०६ २६-२८ भिक्ष-गणावच्छेदका-ऽऽचार्योपाध्यायानामन्याचार्यो-.. पाध्यायोदेशनेच्छायां तद्विधिप्रदर्शकाणि त्रीणि सूत्राणि । १०७-११० २९ मृतभिक्षुशरीरपरिष्ठापनविधिः । ३० कृताधिकरणव्यवशमनमन्तरेण भिक्षोभिक्षार्थगमनादि सर्वव्यवहारनिषेधः, तत्प्रायश्चित्तविधिश्च । . ..... १११ ३१ परिहारकल्पस्थितभिक्षोरधिकारः। ११३ ३२-३३ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां मासमध्ये द्वित्रिवारं पञ्चमहानद्युत्तरणनिषेधः। ११६ कुणालानगरी स्थितैरावतीसदृशान्यनद्युत्तरणानुज्ञा च. . ३४ तृणपुजाधाच्छादिततथाविधोपाश्रये हेमन्तग्रीष्मकालवासनिषेधः । ११८ ३५ तृणपुञ्जाद्याच्छादितान्यविधोपाश्रये हेमन्तग्रीष्मकालवासानुज्ञा । ।११८ ३६ तृणपुञ्जाद्याच्छादिततथाविधोपाश्रये वर्षावासनिषेधः । ३७ तृणपुञ्जाद्याच्छादितान्यविधोपाश्रये वर्षावासानुज्ञा । ॥ इति बृहत्कल्पे चतुर्थोदेशकः समाप्तः॥४॥ ॥अथ पञ्चमोद्देशकः॥ . १ स्त्रीरूपेण निर्ग्रन्थस्य देवकृतोपसर्गः। १२०-१२० २ पुरुषरूपेण निर्घन्ध्या देवकृतोपसर्गः । १२० ११९ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. सूत्रसं० विषयः ३ स्त्रीरूपेण निर्ग्रन्थस्य देवीकृतोपसर्गः । ४ पुरुषरूपेण निर्ग्रन्ध्या देवीकृतोपसर्गः । ५ भिक्षोर्व्यवशमिताधिकरणमन्तरेणान्यगणग पनेच्छायां तद्विधिः । ६ ९ उद्गतवृत्तिकाऽनस्तमितसंकल्पस्य भिक्षोरधिकारे सूत्रचतुष्टम्। १२२-१२५ १० निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थ्यो रुद्गालाधिकारः । ११ भिक्षार्थं गृहस्थगृहप्रविष्टस्य भिक्षोः पात्रे प्राणबीजादिपाते तत्परिभोगापरिभोगे विधिः । १२ एवं सचित्तोद का दिपाते तत्परिभोगापरिभोगे विधिः । १३ निर्ब्रम्ध्याः पशुपक्षिशरीरेण स्वकीयेन्द्रियजातस्पर्शेऽब्रह्मविषयानुमोदने प्रायश्चित्तविधिः । १४ एवं निर्मन्ध्याः पक्षुपक्षिशरीरेण स्वकीयस्रोतोऽवगाहे अब्रह्मविषयानुमोदने प्रायश्चित्तविधिः । १५ निर्मन्ध्या एकाकिनीत्वेन स्थितिनिषेधः । १६ एवमेकाकिन्या आहारार्थगृहस्थगृहप्रवेशनिषेधः । १७ एवमेकाकिन्या विचारभूमि विहारभूमिगमननिषेधः । १८ एवमेकाकिन्या ग्रामानुग्रामविहारनिषेधः । १९ निर्ग्रन्ध्या अचेलिकात्वनिषेधः । २० एवमपात्रिकात्वनिषेधः । २१ एवं व्यत्सृष्टकायिकात्वनिषेधः । २२ निर्ग्रन्ध्या ग्रामादेर्बहिरूर्ध्वबाहुत्वेनाऽऽतापनानिषेधः । पृष्ठसं० १२१ १२१ १२२ २३- ३३ निर्ग्रन्ध्याः स्थानायतिकायासनेन स्थितिनिषेधविषये एकादश सूत्राणि । ३४ निर्ग्रन्थीनामा कुश्च नपट्टधारणपरिभोगनिषेधः । ३५ निर्ग्रन्थानामा कुञ्चनपट्टधारणपरिभोगानुज्ञा । ३६-३७ निर्ग्रन्थीनां सावष्टम्भासने निषदननिषेधः, निर्ग्रन्थानां च तादृशासननिषदनानुज्ञा । ३८ - १९ निर्ग्रन्थीनां सविषाणपीठफलके स्थाननिषदननिषेधः, निर्म १२६ १२७ १२८ १२८ १२९ १२९ १२९ १३० १३० १३० १३१ १३१ १३३-१३४ १३५ १३५ १३५ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रसं० विषयः न्थानां च तदनुज्ञा । ४०-४१ निर्ग्रन्थीनां सवृन्ताला बुघारणनिषेधः, निर्ग्रन्थानां च तदनुज्ञा । ४२-४३ निर्ग्रन्थीनां सवृन्तिकपात्र के सरिकाधा रणनिषेधः, निर्ग्रन्थानां च तदनुज्ञा । ४४-४५ निर्ग्रन्थीनां दारुदण्डकपादप्रोञ्छनकधारणनिषेधः, निर्ग्रन्थानां च तदनुज्ञा । ४६ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां परस्परं मोकपानाचमननिषेधः ४७ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां संग्रहित भोजनजाताहारकरणनिषेधः । ४८ एवं संग्रहिताऽऽलेपनजा तेनाऽऽलेपनविलेपननिषेधः । ४९ एवं संग्रहित तैलघृतादिना गात्राभ्यङ्गनिषेधः । ५० एवं संग्रहित कल्काद्या लेपनजातेन उपलेपोद्वर्त्तननिषेधः । ५१ परिहारकल्पस्थितस्य बहिः स्थविरवैयावृत्त्याद्यर्थं गतस्य तपोदोषे प्रायश्चित्तविधिः । ५२ निर्ग्रन्ध्याः पुलाकभक्तग्रहणविधिः । ॥ इति बृहत्कल्पे पञ्चमोद्देशकः समाप्तः ||५|| ॥ अथ षष्ठोदेशकः ॥ १ निर्मन्थनिर्ग्रन्थीनां षडूविधाऽवचनभाषणनिषेधः । २ कल्पस्य प्राणातिपाता दिवादरूपषड्विधप्रस्ताराधिकारः । पृष्ठसं. १३६ ३ निर्ग्रन्थस्य स्वस्यासामर्थ्ये पादसंलग्नस्थाणुप्रभृतेर्निष्कासनं निर्ग्रन्थ्या कल्पते इत्यधिकारः ४ एवमक्षिगतप्राणादिविषयकं सूत्रम् । ५ - ६ एवमेव निर्ग्रथ्याः स्वस्या असामर्थ्ये पादाक्षिगतस्थाणुप्राणादेनिष्कासनं निर्ग्रन्थस्य कल्पते इत्यधिकारे सूत्रद्वयम् । ७ निर्ग्रन्थस्य दुर्गविषमादिस्थाने प्रस्खलन्त्याः पतन्त्या निर्मन्ध्याः ग्रहणं कल्पते, इत्यधिकारः । १३६ १३७ १३७ १३८ १३८ १३९ १४० १४१ १४२ १४२ १४५ १४६ १४९ १५० १५० - १५१ १५१ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० सूत्रसं विषयः ८ एवं स्वेदपङ्कादिषु अवकर्षन्त्या अवडत्या निर्मन्ध्या ग्रहणमपि निर्ग्रन्थस्य कल्पते, इत्यधिकारः । ९ एवं नावाधारोहणेऽपि सूत्रम् । १०- १४ एवमेव क्षिप्तचित्त - दीप्तचित्त-यक्षाविष्टोन्मादप्राप्तो - पसर्गप्राप्तनिर्ग्रन्थया ग्रहणं निर्ग्रन्थस्य कल्पते, इत्यधिकारे पञ्च सूत्राणि । १.५ १८ एवं साधिकरण- सप्रायश्चित्त-भक्तपानप्रत्याख्याता -ऽर्थजातनिर्ग्रन्या अपि ग्रहणं निर्ग्रन्थस्य कल्पते, इत्यधिकारे चत्वारि सूत्राणि । १९ कल्पस्य षडूविधपरिमन्धुप्रकरणम् । २० षड्विधकल्पस्थितिप्रकरणम् । २१ शास्त्रसमाप्तिः । ॥ इति बृहत्कल्पे षष्ठोद्देशकः समाप्तः ||६|| IZZINE ZXZZZZZX ॥ इति बृहत्कल्पसूत्रस्य विषयानुक्रमणिका समाप्ता ॥ ZZZZZZZZZZZZZZR पृष्ठसं १५१ १५२ १५२ १५३ १५४ १५५ १५६ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालव्रतिविरचितं चूर्णिभाष्यावचूरीसमलङ्कृतम् श्रीबृहत्कल्पसूत्रम् । मङ्गलाचरणम् (मालिनीवृत्तम्) भविजनहितकारं, ज्ञानवित्तैकसारम् , कृतभवभयपारं नष्टकर्मारिभारम् । भघहरणसमीरं, दुःखदावाग्निनीरम् , .. विमलगुणगभीरं, नौमि वीरं सुधीरम् ॥१॥ (मालावृत्तं-इन्द्रवज्रा) बृहद्भिरिदैश्च जिनैर्गणीशै,-स्तथा पुरा पूर्वधरैः प्ररूपितः । तैरेव पूर्व चरितो बृहन् यः, कल्पो बृहत्कल्प इति प्रसिद्धः ॥२॥ __ (अनुष्टुबू वृत्तम्) बृहत्कल्पस्य तस्यैव, भाष्यं चूर्ण्यवचूरिका । शास्त्रसारं समादाय, घासीलालेन तन्यते ॥३॥ अथेह शास्त्रादौ पूर्वमनुगमः कर्त्तव्यः, अनुगमः इति किम् ? गमनं गमः ज्ञानमित्यर्थः अनु-भगवदचनमनुसृत्य यो गमः सोऽनुगमः । स च द्विधा-नियुक्त्यनुगमः, सूत्रानुगमश्च, तत्र नियुक्त्यनुगमः पद्यादिरूपः, सोऽत्र नाधिकृतः । सूत्रानुगमः सूत्ररूपः, स चात्र प्रसङ्गप्राप्तः शास्त्रस्य गणधरैः प्रायः सूत्ररूपेण प्रथितत्वात् इति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्च स्खलितादिदशदोषविनिर्मुक्तं भवितुर्महति, ते च सूत्रोच्चारणदोषा यथा सवलितं १ मिलितं २ चैव, व्यविद्धाक्षरमेव च ३। हीनाधिकाक्षरे द्वे ५ च, व्यत्यानेडितमेव च ६।" ॥१॥ अपरिपूर्णमित्येक ७-मपरिपूर्णघोषकम् ८ अकण्ठोष्ठविप्रमुक्त ९-मगुरुवाचनाऽऽगतम् १० ॥२॥ इति तत्र संवलितम्-यद् अन्तराऽन्तरा पदादि मुक्त्वा उच्चारणम् १ । मिलितम्-यत् अन्यान्यस्य उद्देशस्याध्ययनस्य वा आलापकादि संमेल्योच्चारणम् २ । व्याविद्वाक्षरम् यद् विपर्यस्तरत्न Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पसूत्रे मालागतरत्नवत् विपर्यस्ताक्षरविन्यासपूर्वकमुच्चारणम् ३ । हीनाक्षरम्- यद् सूत्रगताक्षरेभ्यः कानिचिदक्षराणि हीनानि कृत्वा उच्चारणम् ४ । अधिकाक्षरम्-यत् सूत्रे स्वबुद्धयाऽक्षराणि अधिकानि संयोज्योच्चारणम् ५। व्यत्यानेडितम्-यत् एकस्य शास्त्रस्य वचनेऽन्यान्यशास्त्रवचनानां संमिश्रणं कृत्वोच्चारणम् ६ । अपरिपूर्णम् -यद् मात्रापदचरणबिन्दुवर्णादिभिरपरिपूर्णतयोच्चारणम् ७। अपरिपूर्णघोषम् यद् उदात्तानुदात्तस्वरितरूपैः घोषैरपूर्णमुच्चारणम् ८ । अकण्ठोष्ठविप्रमुक्तम् - यत् कण्ठौष्टताल्वादिभिरविमुक्तमेवेति वर्णानां कण्ठोष्ठसंलग्नत्वेनाव्यक्तमस्पष्टमुच्चारणम्, अथवा वर्णानां कण्ठोष्ठादितत्तत्स्थानरहितमेवोच्चारणम् ९। अगुरुवाचनागतमिति-अगुरुवाचनोपगतम् यद् गुरुप्रदत्तवाचनया न प्राप्तं, गुरुतो वाचनामप्राप्यैवोच्चारणम् १०। इति । इत्यादिदोषरहितं सूत्रमुच्चारणीयमित्यस्य शास्त्रस्य प्रथमं सूत्रमाह'नोकप्पई' इत्यादि । सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा आमे तालपलंबे अभिन्ने पतिगाहित्तए ॥सू० १॥ छाया—नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रंन्थीनां वा आमं तालप्रलम्यं अभिन्न प्रतिप्रहोतुम् ॥सू० १॥ चूर्णी-'नो कप्पइ'न कल्पते निग्गंथाणं निर्ग्रन्थानाम्,-निर्-निर्गताः ग्रन्थात् बाह्याभ्यन्तररूपात्, तत्र बाह्यो ग्रन्थः क्षेत्र वास्तु-हिरण्य-सुवर्ण-धन-धान्य-द्विपद-चतुष्पद-कुप्य-रूपो नवविधः, आभ्यन्तरः-राग-द्वेष-क्रोध-मान-माया-लोभ-हास्य-रत्यरति-मिथ्यात्व-वेद-भय-शोक-जुगुप्सारूपश्चतुर्दशविधः, ताभ्यां द्विविधाभ्यामपि ग्रन्थाभ्यां निर्गता निम्रन्थाः श्रमणास्तेषाम् , एवं निग्गंथीणं निम्रन्थीनां पूर्वोक्तलक्षणवतीनां साध्वीनां आमे आमम् अपकम् , यत् तालपलंबे, तालपलम्बम् , तलो वृक्षविशेषस्तत्र भवं तालं वृक्षविशेषसम्बन्धि, पलम्ब-प्रलम्बते इति प्रलम्बं प्रकर्षेग लम्ब वा प्रलम्बं लम्बायमानमाकृतितो दीर्घ कदलीफलादिकं अभिन्ने अभिन्नं, भिन्नं द्रव्यतो भावतश्च द्विविधम् , तत्र द्रव्यतो भिन्नं क्षुरिकादिना विदारितं, भावतो. भिन्नं व्यपगतजीवमचित्तमित्यर्थः तद्विपरीतम् अभिन्नं शस्त्रापरिणतत्त्वेन सचित्तमित्यर्थः, तादृशं तालप्रलम्बं पडिगाहित्तए प्रतिग्रहीतुम्-आदातुं न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः, आमफलस्य सचित्तत्वसद्भावात् । सू० १॥ अथ यादृशं तालप्रलम्बं कल्पते तदेव प्रदर्शयति-'कप्पई' इत्यादि । मूलम् -कप्पइ निग्गेथाणं वा निग्गंथीण वा आमे तालपलम्बे भिन्ने पडिगाहित्तए ॥५० २॥ छाया-कल्पते निग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा आमं तालप्रलम्ब भिन्न प्रतिग्रहीतुम् ॥सू०२। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णि भाष्यावचूरी उ० १ सू० २-५ प्रलम्बप्रकरणम् ३ चूर्णी - कप्पइ कल्पते निग्गंथाणं निर्ग्रन्थानां निम्गंथीणं निर्ग्रन्थीनां पूर्वप्रदर्शितस्वरूपाणां साधूनां साध्वीनां च आमे आमं अपक्कं तालप्रलम्बं वृक्षविशेषस्य लम्बं फलं कदलीफलादिकं यदि भिन्नं द्रव्यतो भावतश्च शस्त्रपरिणतमचित्तं भवेत्तदा पडिग्गा हित्तए प्रतिग्रहीतुम् कल्पते भिन्नस्य शस्त्रपरिणतत्वेन सचित्तत्वदोषराहित्यात् ॥ सू० २॥ पूर्वं सामान्येन निषेधो विधिश्च प्रदर्शितः, साम्प्रतं विशेषमाह - ' कप्पड़' इत्यादि । मूलम् - कप्पर निम्गंथाणं पक्के ताळपलंबे भिण्णे वा अभिण्णे वा पडिगा - हित्तए | सू० ३ ॥ छाया -कल्पते गिर्ग्रन्थानां पक्वं तालप्रलम्बं भिन्नमभिन्नं वा प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू०३॥ चूर्णी -- कप्पड़ कल्पते निग्गंथाणं निर्ग्रन्थानां श्रमणानां पक्के तालपलंबे पक्वं तालप्रलम्बं कदलीफलादिकं दीर्घफलं भिण्णे वा अभिण्णे वा भिन्नं वा अभिन्नं वा द्विविधमपि पडिगाहिप्रतिग्रहीतुं कल्पते । पकमिति यदचित्तं तत् कल्पते, साधूनामाकृतिजनितदोषाभावात् ॥सू०||३|| अथ निर्ग्रन्थीनां पकस्याप्यभिन्नस्य ग्रहणे निषेधमाह - 'नो कप' इत्यादि । मूलम् - नो कपइ निग्गंथीणं पक्के तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए ||४॥ छाया-- - नो कल्पते निर्मन्थीनां पक्वं तालप्रलम्बं अभिन्न प्रतिग्रहीतुम् ॥सू०४ ॥ चूर्णी - नो कप्पइ नो नैव कल्पते निम्गंथीणं निर्ग्रन्थीनां साध्वीनां पक्के तालपलंबे पकमपि तालप्रलम्बं यत् अभिन्ने अभिन्नम् अविदारितं अखण्डमित्यर्थः, तत् पडिगाहित्तए प्रतिग्रहीतुं न कल्पते, निर्ग्रन्थीनां तदाकृतिजन्यदोषप्राप्तिसद्भावात् ॥ सू०४॥ साम्प्रतं पक्वस्य तालप्रलम्बस्य ग्रहणे साध्वीनां विधिं प्रदर्शयति - ' कप्पर' इत्यादि । मूलम् - कप्पइ निग्गंथीणं पक्के तालपलंबे भिन्ने पडिगाहित्तए, सेवि य विभिण्णे नो चेवणं अविहिभिण्णे ॥ सू० ५ ॥ छाया -कल्पते निर्ग्रन्थीनां पक्वं तालप्रलबं भिन्नं प्रतिग्रहीतुम्, तदपि च विधिभिन्न नैव खलु अविधिभिन्नम् ॥ ० ५|| चूर्णी- - कप्पड़ कल्पते निग्गंथीणं निर्ग्रन्थीनां पक्के तालपलंबे पक्वं तालप्रलम्बं भिण्णे भिन्नं खण्डितं यदि भवेत्तदा पडिगाहेत्तर प्रतिग्रहीतुं कल्पते, किन्तु सेवि य णं तदपि च भिन्नमपि च खलु यदि विहिभिन्नं विधिभिन्नं विधिना उचितप्रकारेण फलकर्त्तनविधिना यदि भिन्नं भवेत्तदा कल्पते नो चेवणं नैव खलु अविहिभिन्नं अविधिभिन्नं कल्पते, विधिभिन्न मिति किमव्याकारविशेषमधिकृत्य खण्डितं न भवेत् तत् अविधिभिन्नं तु यत् कमप्याकारविशेषमधिकृत्य खण्डितं भवेत्तन्न कल्पते इति भावः ||सू०५॥ अत्र गाथात्रयमाह भाष्यकार: " Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रे भाष्यम्-पढमे आममभिन्नं, तालप्रलंब निसेहियं दुण्डं । बीए भिन्नग्गहणं, आणत्तं समण-समणीणं ॥१॥ तइए निग्गंथाण, भिण्णमभिण्णं च पक्कमाण । निग्गंथीण चउत्थे, पकं पि निसेहियमभिण्णं ॥२॥ कप्पइ य एत्थ भिण्णं, विहिभिण्णं तंपि णो अविहिभिण्णं समणीण य छ ब्भंगा, जो सुद्धो सो य गहियव्वो ॥३॥ छाया-प्रथमे आममभिन्नं तालप्रलम्ब निषिद्धं द्वयानाम् । द्वितीये भिन्नग्रहणम् , आक्षप्त श्रमण-श्रमणीनाम् ॥१॥ तृतीये निग्रन्थानां, भिन्नमभिन्नं च पक्वमाक्षप्तम् । निर्ग्रन्थीनां चतुर्थे, पक्कमपि निषिद्धमभिन्नम् ॥२॥ कल्पते चात्र (पञ्चमे) भिन्न, विधिभिन्नं तदपि नो अविधिभिन्नम् । श्रमणीनां षह भङ्गा, यः शुद्धः स च ग्रहीतव्यः ॥३॥ अवचूरी--पढमे इति । पढमे प्रथमे सूत्रे आममभिन्नं तालप्रलम्ब दुहं द्वयानां श्रमणानां श्रमणीनां च निसेहियं निषिद्धमिति । बीए द्वितीये सूत्रे समगसमणीणं, श्रमण-श्रमणीनां साधूनां साध्वीनां च भिण्णग्गहणं भिन्नग्रहणं भिन्नस्य तालप्रलम्बस्य ग्रहणम् आदानम् आणत्तं भाजप्तम्-आज्ञाविषयीकृतं भगवतेति ॥१॥ तइए तृतीये सूत्रे निर्ग्रन्थानां साधूनां पक्के पक्कं तालप्रलम्ब भिन्नमभिन्नं च आज्ञप्तम् । चउत्थे चतुर्थे सूत्रे निम्रन्थीनां पक्वमपि तत् अभिन्नं निषिद्धम् ॥२॥ 'एत्य' अत्र पञ्चमे सूत्रे निर्ग्रन्थीनां भिन्नं कल्पते किन्तु तंपि तदपि भिन्नं तालप्रलम्बमपि विहिभिन्न विधिभिन्न विधिना समुचितप्रकारेण नतु केनाप्याकारविशेषेण भिन्नं खण्डितं भवेतदा कल्पते नो अविहिभिण्णं अविधिभिन्नम्, अविधिना अनुचितप्रकारेण, केनापि आकारविशेषेण भिन्नं भवेत्तदा नो नैव कल्पते । अत्र श्रमणीनां प्रलम्बग्रहणे छ भंगा षड् भङ्गा भवन्ति तत्र यो भङ्गो ग्रहणविषये शुद्धो भवेत् सो गहियन्यो स ग्रहीतव्यः नान्य इति ॥३॥ के ते षड् भङ्गाः ? इति तान् प्रदर्शयति भाष्यकार:-'समणीणं' इत्यादि भाष्यम्-समणीणं छ भंगा, होति य जे ते इहं पवुच्छामि । पढमो दोहि अभिण्णं, दवेणं तह य भावेणं (१) ॥४॥ अविहि-विही य दवे, बीओ तइओ य होइ दो भंगा (३)। भावेण य दवेण य, भिण्णमभिणं चउत्थो य (४) ॥५॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्यावचूरी उ० १ सू०६ प्रलम्बप्रकरणम् ५ भावेणं भिण्णं पुण, दवेणं अविहिभिण्ण पंचमओ (५)। छट्ठो य भावभिण्णं, तंपि य दव्वेण विहिभिण्णं (६) ॥६॥ छाया-श्रमणीनां षडू भङ्गा भवन्ति च ये तान् इह प्रवक्ष्यामि । प्रथमो द्वाभ्यामभिन्नं द्रव्येण तथा च भावेन (१) अविधिविधी च द्रव्ये द्वितीयस्तृतीयश्च भावतो द्वौ भङ्गौ (३)॥४॥ भावेन च द्रव्येण च, भिन्नं अभिन्नं चतुर्थश्च (४) ॥५॥ भावेन भिन्नं पुनद्रव्येणाविधिभिन्न पञ्चमकः (५)। षष्ठश्च भावभिन्न, तदपि च द्रव्येण विधिभिन्नम् (६) ॥६॥ अवचूरी--'समणीणं' इति । समणीणं श्रमणीनां प्रलम्बग्रहणविषये षड् भङ्गा ये भवन्ति तान् इह 'पवुच्छामि' प्रवक्ष्यामि कथयिष्यामीति भाष्यकारवचनम् । तानेव दर्शयति-पढमो इत्यादि, तत्र षट्सु भङ्गेषु प्रथमो भङ्गः पूर्वोक्तं प्रलम्बं दोहि द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां यथा 'दव्वेण य भावेण य' द्रव्यतो भावतश्च यत्र अभिन्नं भवेत्स प्रथमो भङ्ग इत्यर्थः (१)। अविहिविही य दवे' द्रव्ये द्रव्यविषये प्रथमविधिः, ततश्च विधिर्यथा-पूर्वोक्तं भावतो यद् अभिन्नं तत्, द्वितीये भङ्गे-अविधिभिन्नं, तृतीये भङ्गे-विधिभिन्नम् , इत्येवं 'बीओ तइओ य' द्वितीयस्तृतीयश्चेति ‘होति दो भंगा' द्वौ भङ्गौ भवतः (३)। 'भावेण यदव्वेण य भिण्णमभिण' क्रमशो यथासंख्यं भावेन भिन्नं, द्रव्येण अभिन्नम् , इत्येवं चतुर्थो भङ्गो भवति (४) । भावेणं भिण्णं पुण भावेन भिन्नमपि 'दव्वेण अविहिभिण्णं' द्रव्येण तद् अविधिभिन्नं भवति, इत्येषः 'पंचमओ' पञ्चमो भङ्गो भवति (५) । 'छट्ठो य' षष्टश्च भङ्गः-भावभिण्णं भावतो भिन्नं, तंपि य' तदपि च दवेण विहिभिण्णं' द्रव्येण विधिभिन्नम् , इत्येष षष्ठो भङ्गः (६) । एष भङ्गः भ्रमणीनां ग्राह्यो भवतीति भावः। षण्णां भङ्गानां कोष्ठकमिदम् - १-द्रव्यतो भावतश्च अभिन्नम् । २-भावतः अभिन्नं-द्रव्यतः अविधिभिन्नम् । ३-भावतः अभिन्नं द्रव्यतः-विधिभिन्नम् । ४-भावतः भिन्न-द्रव्यतः-अभिन्नम् ५-भावतः भिन्न-द्रव्यतः-अविधिभिन्नम् । ६-भावतः भिन्नं द्रव्यतः विधिभिन्नम् । । इति प्रलम्बप्रकरणम् । __पूर्व प्रलम्बग्रहणविधिरुक्तः, सम्प्रति वसतिनिवासविधिमाह, तत्र पूर्वसूत्रेणाऽस्य कः सम्बन्धः ! इति सम्बन्धं प्रदर्शयति भाष्यकारः-'आहारो' इत्यादि । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पसूत्रे भाष्यम् -आहारो पुव्वुत्तो, सो य कहिं भुंजर समुवविस्स । इय वसहीविहिमेत्थ य, वन्नेइ एस संबंधो ॥७॥ छाया-आहारः पूर्वमुक्तः स च कुत्र भुज्यते समुपविश्य । इति बसतिविधिमत्र च वर्णयति एष सम्बन्धः ॥७॥ अवचूरिः—'आहारो'इति । पूर्वं पूर्वसूत्रे आहारः उक्तः, स चाहारः कुत्र समुपविश्य भुज्यते इति, एतदवलम्ब्य अत्र च वसतिविधि 'वन्नेई' वर्णयति । एष पूर्वसूत्रेणास्यसम्बन्ध इति ॥७॥ इत्यनेन सम्बन्धेन निम्रन्थानां निम्रन्थीनां च ऋतुबद्वादिकाले एकस्मिन् क्षेत्रे कियन्तं कालं वस्तुं कल्पते ? इति प्रदर्शयितुकामः सूत्रकारः प्रथमं निर्ग्रन्थसूत्रमाह-‘से गामंसि बा' इत्यादि । मूलम्--से गामसि वा णगरंसि वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा आगरंसि वा दोणमुहंसि वा निगमंसि वा आसमंसि वा संनिवेसंसि वा संवाहंसि वा घोसंसि वा अंसियंसि वा पुडभेयगंसि वा रायहाणिसि वा सपरिक्खेसि अबाहिरियसि कप्पइ निग्गंथाणं हेमंतगिम्हासु एगं मासं वत्थए, ॥६॥ छाया-अथ ग्रामे वा नगरे वा खेटे वा कर्बटे वा मडम्बे वापसने वा आकरे या द्रोणमुखे वा निगमे वा आश्रमे वा संनिवेशे वा संवाहे वा घोषे वा असिकायां वा पुटभेदने वा राजधान्यां वा सपरिक्षेपे अबाहिरिके कल्पते निम्रन्थानाम् हेमन्तग्रीष्मेषु पकं मासं वस्तुम् ।।सू ६॥ चूर्णी :-से गामंसि वा इति । 'से' अथ ग्रामे-गम्यो गननीयः प्रापणीयो वा अष्टादशानां कराणां यः स ग्रामः, प्रसते बुद्धयादिगुणान् इति वा ग्रामः,पृषोदरादिना सिद्धिः, तस्मिन् ग्रामे, नगरे वा, 'नयरे' इत्यस्य नकरे इति छाया, तत्र करः अष्टादशविधो राजदेयो भागः, स न विद्यते यत्र नकरम्-नगरम् , पृषोदरादित्वात् ककारस्य गकारः, नत्रो लोपाभावश्चेति, तस्मिन् नगरे, खेटे वा खेटः धूलिया कारपरिक्षितजननिवासः तस्मिन् , कर्बटे वा, कर्बटः कुत्सितनगरम्, तस्मिन् वा, मडने वा-मडम्बो यस्य सर्वतश्चतुर्दिक्षु सार्द्धगव्यूतपर्यन्तं प्रामादिकं न भवति सः, तस्मिन् वा, पत्तने वा, पत्तनं द्विविध-जलपत्तनं स्थलपत्तनं च, यत्र नावादिना गम्यते तत् जलपत्तनम्, यत्र शकटघोटकादिभिर्गम्यते तत् स्थलपत्तनम् , तस्मिन् एतादृशे द्विविधेऽपि पत्तने वा, आकरे वा, आकरः खनिः लोहताम्ररूप्याद्युत्पत्तिस्थानं, यत्र लोकाः प्रस्तरधातुधमनादिना लोहताम्ररूप्यादि संपादयन्ति तस्मिन् तादृशे स्थाने वा, द्रोणमुखे वा द्रोणमुखम्-द्रोणः परिमाणविशेष इति परिमाणस्य परिमितजलरूपस्य मुखं, यत्र समुद्रस्य ऊर्मयः यथासमयमागच्छन्ति Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्यावचूरी उ० १ सू० ६-७ वसतिनिवासविधिः ७ तत् जलस्थलेति द्विप्रकारयुक्तं स्थानं तस्मिन् , निगमे वा-निगमः नेगमानां वणिजकानां स्थानं, निगमे भवा नैगमाः इति व्युत्पत्त्या तस्मिन्, आश्रमे वा आश्रमः प्रथमतस्तापसैरावासितः पश्चादपरेऽपि जना आगत्य संवसन्ति, तादृशं स्थानं तस्मिन् , संनिवेशे वा, संनिवेशः यत्र जनसमुदायरूपः सार्थों व्यापारादिनिमित्तं प्रस्थितः सन् अन्तरान्तरा वासमधिवसति सः, तस्मिन् तादृशे स्थाने, संवाहे वा संवाहः यत्र कृषीवला अन्यत्र कर्षणं कृत्वा, वणिजो वा, वाणिज्यनिमित्तमन्यतः धान्यादिकं संवाह्य-आनीय-पर्वतादौ विषमे स्थाने धान्यादिकं कोष्ठागारादौ च प्रक्षिप्य वसन्ति सः, तस्मिन् तादृशे स्थाने, घोषे वा-घोषः आभीरपल्ली तस्मिन् , अंशिकायां वा अंशिकानाम यत्र प्रामस्याधं तृतीयश्चतुर्थो वा भाग आगत्य वसति, ग्रामांशत्वाद् अंशिका प्रोच्यते सा तस्यां वा, पुटभेदने वा, पुटभेदनं पुटानां कुङ्कुमादिपुटानां यत्र नानादिग्भ्य आनीय विक्रयार्थ भेदनं क्रियते, तत् तस्मिन् तादृशे स्थाने वा, राजधान्यां वा, राजधानी यत्र राजा वसति सा तस्यां वा, एतादृशे पूर्वोक्तस्वरूपे प्रमादौ सपरिक्षेपे कण्टकवृत्तिभित्यादिपरिक्षेपयुक्ते, पुनश्च अबाहिरिके बाहिरिका यस्य प्रामादेः परिक्षेपाद् बहिर्गृहपतिर्भवेत् सा, न विद्यते बाहिरिका बहिर्जनबसतिः 'पुरा' इति प्रसिद्धा यस्य प्रामादेः स अबाहिरिको ग्रामादिः, तस्मिन् एतादृशे ग्रामादौ निम्रन्थानां श्रम गानां हेमन्तप्रीष्मेषु हेमन्तादिग्रीष्मान्तेषु ऋतुबद्धकालसम्बन्धिषु भष्टसु मासेषु मधे एकं मासं यावत् वस्तुम् अवस्थातुं कल्पते ततोऽधिकनिवासेऽतिपरिचयेनाऽनादरसंभवः, स्त्र्यादीनां वारं वारं दर्शनभाषणादिना संयमात्मोभयविराधनादयो दोषाः संभवन्ति, अधिककालवासेन भद्रकगृहस्थानां श्रमणोपरि गाढतरः स्नेहः संजायते, तेनाधाकर्मादिदोषदुष्टमशनादि प्रतिलाभयन्ति, कदाचित्ततो विहारे तेषां गाढतरस्नेहसम्बधेन ते पुरुषाः स्त्रियो वा विरहदुःखदुःखिता अपि भवेयुः, अधिकनिवासे क्षेत्रमपि नीरसं भवति, इत्याद्यनेके दोषाः श्रमणानामापतन्ति ततः ऋतुबद्धकाले ग्रामादौ एकमेव मासं यावद् वस्तुं कल्पते नाधिकमिति । आगाढकारणे तु कल्पते तत् प्रदर्श्यते-यदि आचार्यादीनां शरीरदौर्बल्येन तत्प्रायोग्य भक्तपानादिकं तदासन्नग्रामादौ दुरापं भवेत् तदा कियत्कालं यावत्, तथा साधुर्वा ग्लानो जायते, अन्यत्र औषधभैषज्यादि सुलभं न भवेत् तेन कारणेन मासादधिकं यावत्कालपर्यन्तं ग्लानः प्रगुणीभूतो न भवेत्तावत्कालपर्यन्तमपि तत्र वस्तुं कल्पते । यदि ग्लानः प्रगुणीभूतो भवेत्तदा तदैव तस्मात् स्थानान्निर्गन्तव्यमिति तात्पर्यम् ।।सू० ६॥ अथ ग्रामादिवासविषयेऽन्यमपि विधि प्रदर्शयति सूत्रकारः --'से गामंसि वा' इत्यादि । मूलम् –से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि सपाहिरियसि कप्पा निग्गंथाणं हेमंतगिम्हासु दो मासे वत्थए, अंतो इक्कं मास, बाहिं इक्कं मासं, अंतो वसमाणाणं अंतो भिक्खायरिया, बाहिं बसमाणाणं बाहिं मिक्खायरिया ॥५० ७॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्करूपसूत्रे छाया- - अथ ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा सपरिक्षेपे सबाहिरिके कल्पते निर्मन्थानां हेमन्तग्रीष्मेषु द्वौ मासौ वस्तुम् । अन्तः पकं मासं बहिरेकं मासम्, अन्तर्वसताम् अन्तर्भिक्षाचर्या, बहिर्वसतां बहिर्भिक्षाचर्या ॥ सू० ७|| ८ चूर्णी - ' से गांमंसि वा' इति । अथ ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा, ग्रामत आरम्य राजधानी पर्यन्तं सर्वत्र ग्रामादौ पूर्वप्रतिपादित स्वरूपे सपरिक्षेपे - परिक्षेपसहिते, सबाहिरिके परिक्षेपाद् बहिर्जननिवाससहिते निर्ग्रन्थानां हेमन्तग्रीष्मेषु ऋतुबद्धकालसंबन्धिषु अष्टसु मासेषु द्वौ मासौ मासद्वयपर्यन्तं वस्तुं कल्पते । पूर्वमेकमासं यावत् निवासः प्रोक्तः, अस्मिन् सूत्रे च द्वौ मासौ, इति प्रोक्तं तत्कथम् ? अत्राह – पूर्वसूत्रे सपरिक्षेपे सति बाहिरिकारहितत्वेन एकं मासमेव निवासः कथितः अत्र तु यद् ग्रामादि सबाहिरिकं भवेत्तत्र द्विमासमपि वस्तुं कल्पते, इत्येवं दर्शयति सूत्रकारः - अंतो इक इति, सबाहिरिके ग्रामादौ अन्तः - प्रामादिपरिक्षेपमध्ये एक मासं, बहिश्च एकं मासं यावत् वस्तुं कल्पते, तत्रापि अन्तर्वसता परिक्षेपान्तर्निवासं कुर्वतां निर्ग्रन्थानां अन्तरेव परिक्षेपमध्ये एव भिक्षाचर्या करणीया भवेत्, बहिः परिक्षेपाद्वहिर्भागे जनवसतौ वसत निर्ग्रन्थानां बहियाँमाद्वहिरेव बाह्यवसतावेव भिक्षाचर्या करणीया भवेत् इत्येष विशेषोऽत्र बोध्यः ॥ ग्रामाद्यन्तर्वसद्भिर्निर्ग्रन्थैर्मासकल्पे परिपूर्णे सति ग्लानादिकारणवशात्तदन्यत्र विहरणं कर्त्तु न शक्यते तदा द्वितीये मासे बाहिरिकायां संक्रमणं कर्त्तव्यम्, पीठफलकाद्यपि तत्रैव ग्रहीतव्यं नाभ्यन्तरतो बहिनेंतव्यम्, यदि बाहिरिकायां पीठफलकादि न लभ्यते तदा अन्तरुपाश्रयस्वामिनं पृष्ट्वा तदाज्ञया नेतुं कल्पते, न त्वनापृच्छ्येति । यद्यनापृच्छय नीयते तदा स्तेनाहृतादिनानाविधदोषसंभवः, संयमात्मविराधनाऽपि भवितुमर्हति ॥ सू०७ || पूर्व निर्ग्रन्थानामृतुबद्धकालसम्बन्धिनिवासविधिः प्रोक्तः, साम्प्रतं निर्ग्रन्थीनां स प्रोभ्यते'से गामंसि वा' इत्यादि । मूलम् - से गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा सपरिक्खेवंसि अबाहिरियंसि कप्पइ निम्गंथीणं हेमंतगिम्हासु दो मासे बत्थए | सू० ८ ॥ छाया- - अथ ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा सपरिक्षेपे सबाहिरिके कल्पते निर्मन्थोन हेमन्तग्रीष्मेषु द्वौ मासौ वस्तुम् ॥० ८ ॥ चूर्णी - ' से गामंसि वा' इति । अथ ग्रामे वा यावत् राजधान्यां सपरिक्षेपे अबाहिरिके बाह्यवसतिरहिते निर्ग्रन्थीनां ऋतुबद्धकाले अष्टमासरूपे द्वौ मासौ यावत् वस्तुं कल्पते । ननु निर्ग्रन्थानामेतादृशे ग्रामादौ एकं मासं यावदेकत्र वसनमनुज्ञातं, निर्ग्रन्थीनां च द्वौ मासौ इति कोऽत्र हेतु:, महाब्रतानि तु समानान्येव द्वयानाम् ? इत्यत्राह - इयानां महात्रतेषु समानेष्वपि तासां मासे मासे विहरणे स्त्रीशरीरत्वादनेके दोषाः समापतन्ति ततो भगवता निर्ग्रन्थीभ्यो द्विमासं यावदेकत्र निवासकरणमनुज्ञातमिति ॥सू० ८ ॥ ܕ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्यावचूरी उ० १ सू० ९ वसतिवासविधिः ९ साम्प्रतं सबाहिरिकग्रामादौ निर्ग्रन्थीनां वासविधिमाह--' से गामंसि वा' इत्यादि ॥ मूलम् - से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि सबाहिरियंसि rous निग्गंथीणं हेमंत गिम्हासु चत्तारि मासे वत्थए, अंतो दो मासे, बाहिं दो मासे, अंतो वसमाणीणं अंतो भिक्खायरिया, बाहिं वसमाणीणं बाहिं भिक्खायरिया || सू० ९ || छाया - अथ ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा सपरिक्षेपे सबाहिरिके कल्पते निर्ग्रन्थीनां हेमन्तग्रीष्मेषु चतुरो मासान् वस्तुम्, अन्तद्वैौ मासौ, बहिछौ मासौ, अन्तर्वसतीनामन्तभिक्षाचर्या, बहिर्वसतीनां बहिभिक्षाचर्या ॥ सू० ९|| चूर्णी - ' से गामंसि वा' इति । अथ ग्रामे वा यावत् - राजधान्यां वा सपरिक्षेपे सबाहिरिके बहिर्जन निवासयुक्ते ग्रामादौ निर्ग्रन्थीनां हेमन्तग्रीष्मेषु ऋतुबद्धकालसम्बन्धिषु अष्टसु मासेषु चतुरो मासान् स्थातुं कल्पते, कथमित्याह - अंतो दो मासे इति, अन्तः परिक्षेपयुक्तग्रामाद्यभ्यन्तरे द्वौ मासौ यावत् स्थातव्यम्, तदन्तरं द्वौ मासौ च बहिरिति बाहिरिकायां परिक्षेपाद्वहिर्गृहपङ्क्तिरूपायां जनवसतौ द्वौ मासौ यावत् स्थातव्यम् । तत्रापि अन्तर्वसतीनां परिक्षेपाभ्यन्तरे वसतीनां वासं कुर्वन्तीनां निर्ग्रन्थीनाम् अन्तरेव परिक्षेपाभ्यन्तरे एव भिक्षाचर्या करणीया, बहिर्वसतीनां बाहिरि - कायां स्थितानां निर्ग्रन्थीनां च बहिरेव भिक्षाचर्या कर्त्तव्या किन्तु अन्तःस्थितानां बहिर्भिक्षाचर्या कर्त्त न कल्पते इति ॥ सू० ९ ॥ ७ अत्राह भाष्यकार : - ' बाहिरिय ' ० इत्यादि । भाष्यम् -- बाहिरियरहियगामा, - इए य हेमंत गिम्हमासेसुं । atus निग्गंथाणं, एगं मासं च वत्थेउं ॥ ८॥ बाहिरियस हियगामा, - इए य मास पकप्पे । अंतोठियाण अंतो, भिक्खा बाहिं च वज्झाणं ॥ ९ ॥ एगत्थाहियवासे, सिणेहबंधो तहेव अस्सद्धा । आहाकम्मरगहणं, विराहणं संजमत्ताणं ॥ १० ॥ एवं निग्गंथीणं, दुगुणं निथकालमाणाओ । भव्या रक्खा, - निमित्तमेयं च आणतं ॥ ११ ॥ छाया – बाहिरिकार हितग्रामादिके व हेमन्तग्रीष्ममासेषु । कल्पते निर्ग्रन्थानां, एक मार्स व वस्तुम् ॥ ८॥ बाहिरिकासहितग्रामादिके च मासद्विकं प्रकल्पते । अन्तः स्थितानामन्तो भिक्षा बहिश्च बाह्यानाम् ॥९॥ एकत्राधिकवासे स्नेहबन्धस्तथैव अश्रद्धा । आधाकर्मग्रहणं, विराधनं संयमात्मनोः ॥ १०॥ एवं निर्ग्रन्थीनां द्विगुणं निर्ग्रन्थकालमानात् । ब्रह्मव्रतादिरक्षानिमित्तमेतच्च आज्ञप्तम् ॥११॥ २ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपचरी'बाहिस्यिः ' इति । बाहिरिकारहितग्रामादिके सपरिक्षेपे सति अबाहिरिके प्रामादिके ग्रामादारभ्यः राजधानीपर्यन्तस्थाने हेमन्तग्रीष्ममासेषु हेमन्तादिग्रीष्मान्तेषु ऋतुबद्धकालसम्बन्धिषु अष्टसु मासेषु निर्ग्रन्थानामेकं मासं वस्तुं कल्पते, निम्रन्थानामेकं मासं यावदेकर स्थानवासस्य कल्पत्वात् ॥८॥ तथा-'बाहिरियसहिय०' इति । सपरिक्षेपे सति सबाहिरिके परिक्षेपाद बहिर्जननिवाससहिते प्रामादौ मासद्विकं द्वौ मासौ यावद्वस्तुं प्रकल्पते, तादृशस्थानस्य वसतिद्वययुक्तत्वात् , तत्रापि यदि प्रामाधन्तस्तिष्ठेयुस्तदा तेषामन्तःस्थानां निर्ग्रन्थानां भिक्षा-भिक्षाचर्या अन्तः प्रामाद्यभ्यन्तरे एव कर्तुं कल्पते, नतु बाहिरिकायाम् , यदि च बहिस्तिष्ठेयुस्तदा बाह्यानां बहिःस्थितानां तेषां बहिः बाहिरिकायामेव भिक्षाचर्या कत्तुं कल्पते, नतु ग्रामाद्यभ्यन्तरे, इति निर्ग्रन्थानां तत्र वासविधिविज्ञेयः ॥९॥ अधिकवासनिषेधे कारणमाह 'एगत्थाहियः' इति । एकत्र एकस्मिन् प्रामादौ अधिके वासे सति निम्रन्थानां बहवो दोषा भवन्ति, तथाहि-प्रथमं तत्र स्नेहबन्धः श्रावकश्राविकादिभिः सह जायते तज्जन्यो दोषः, तथा चाधिके वासे तत्रत्यानां मनसि निर्ग्रन्थान् प्रति अश्रद्धा जायते यदेते कियन्तं कालमत्र स्थास्यन्ति ! कदा गमिष्यन्तीत्यादि, पुनश्च स्नेहबंधेन रूयादिसंसर्गे ब्रह्मवतेऽपि शङ्का भवेत् , तथा स्नेहवशात् आधाकर्माहारग्रहणमपि जायते, इत्यादिकारणेन निम्रन्थानां संयमस्य आत्मनश्च विराधनमवश्यम्भावि, तस्माच्छास्त्रोककालादधिकं न बस्तव्यमिति ॥१०॥ एवं' इति एवम् अनेनैव रीत्या निम्रन्थीनां निर्ग्रन्थकालमानात् निम्रन्थानां वासविधौ यत् कालमानं मासरूपं द्विमासरूपं च प्रोक्तं तस्मात् द्विगुणम् एकमासस्थाने मासद्विकम् , द्विमासस्थाने मासचतुष्टयमित्येवंरूपं द्विगुणं कालमानं कथितम् , तथाहि-निर्ग्रन्थीनामबाहिरिके प्रामादौ, द्वौ मासौ यावत् स्थातुं कल्पते, सबाहिरिके ग्रामादौ च चतुरो मासान् यावत् स्थातुं कल्पते इति भावः । अन्यो विधिभिक्षाचर्यारूपो निम्रन्थसमान एव विज्ञेयः । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च समानेऽपि श्रामण्ये कथमेषो भेदः प्रतिपादितः । तत्राह-ताश्च स्त्रीजातीयाः सन्ति ततस्तासां ब्रह्मवतादिरक्षानिमित्तमेतद् आज्ञप्तं भगवतेति । ___ तदधिके वासे च ये निम्रन्थविषये दोषाः प्रोक्तास्ते तु निग्रन्थीनामप्यनिवार्या एव भवन्ति ततः शास्त्रोक्तसमयादधिकं ग्रामादौ कुत्रापि नैव वस्तव्यमिति भावः । ग्लानत्वादिकारणे तु यावत्कालं ग्लानत्वं न निवर्तते तावत्कालं तत्र वस्तुं कल्पते, ग्लानत्वे निवृत्ते नैकमपि दिवसं तत्र स्थातव्यम् , अन्यत्र गन्तव्यमेवेति भावः ॥११॥ ॥ इति मासकल्पप्रकरणम् ॥ पूर्व निर्ग्रन्थानां निम्रन्थीनां च मासकल्पविधिः प्रोक्तः, सम्प्रति तेषामेकस्थाने. वस्तुं न कल्पते, इति विधिमाह-'से गामंसि वा' इत्यादि । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्यावचूरी उ० १ सू० १०-१२ वसतिवासविधिः ११ सूत्रम्--से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा एगवगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा एगयओ वत्थए ।सू० १०॥ छाया-अथ ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा पकवगडाके एकद्वारके एकनिष्क्रमणप्रवेशके नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा एकतो वस्तुम् ॥ सू० १०॥ चूर्णी---'से गामंसि वा' इति । अथ ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा एकवगडाके 'वगडा' इति देशी शब्दः परिक्षेपवाची, एका वगडा-परिक्षेपः प्राकारो यस्य तत् एकवगडाकम्. तस्मिन् एकप्राकारयुक्ते, ग्रामादौ इत्यर्थः, एवम्-एकद्वारे एकमेव द्वारं यस्य ग्रामादेस्तद् एकद्वारम्, तस्मिन्-एकद्वारयुक्ते, एकनिष्क्रमणप्रवेशके एकं एकमेव निष्क्रमणं निस्सरणमार्गः, एक एव च प्रवेशः-प्रवेशमार्गो यस्य तत् एकनिष्क्रमणप्रवेशकं तस्मिन् एकनिष्क्रमणप्रवेशयुक्ते ग्रामादौ इत्यर्थः, यस्य ग्रामादेः निर्गन्थानां निम्रन्थीनां च निष्क्रमणं प्रवेशश्च एकेनैव द्वारेण भवेत् तादृशे ग्रामादौ निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च द्वयानां एकतः-एकत्र वस्तुं स्थातुं न कल्पते । अत्र चतुर्भङ्गी भवति । __ यथा-१- एका वगडा-एकं द्वारम् । २-एका वगडा-अनेकानि द्वाराणि । ३-अनेका वाडा-एकं द्वारम् । ४-अनेका वगडा-अनेकानि द्वाराणि । अत्र चतुर्थो भङ्गः शुद्धः, स ग्राह्य इति ॥ सू० १०॥ यद्येवं तर्हि कीदृशे ग्रामादौ वस्तुं कल्पते ! इति प्रदर्शयति-'से गामंसि वा' इत्यादि । सूत्रम्--से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा अभिणिवगडाए अभिनिद्वाराए अभिणिक्खमणपवेसाए कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गथीणं वा एगयो वत्थए ॥१० ११॥ छाया-अथ ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा अभिनिवगडाके अभिनिद्वारके अभिनिष्क्रमणप्रवेशके कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा एकतो वस्तुम् ॥ सू० ११ ॥ चूर्णी -'से गामंसि वा' इति । अथ ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा अभिविवगडाके अभिशब्दोऽनेकार्थः, नि-शब्दो नियतार्थकः वगडाशब्दः प्राकारार्थक इति, अभि-अनेका, नि-नियता वगडा-प्राकारो यत्र तत् अभिनिवगडाक, तस्मिन् अनेकनियतपरिक्षेपयुक्त ग्रामादौ, तथा अभिनिद्वारे-अनेकद्वारयुक्ते अभिनिष्क्रमणप्रवेशके-अनेकनिष्क्रमणप्रवेशमार्गयुक्ते प्रामादौ तत्र निम्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च एकतः एकत्र एतादृशे एकस्मिन् ग्रामादौ वस्तु कल्पते ॥ सू० ११॥ अत्राह भाष्यकारः- 'खेत्ते' इत्यादि । भाष्यम्--खेत्ते संकुचिए खलु, निक्खमणं तह पवेसणं एग । तत्थेगस्थ ठियाणं, गमणागमणे य बहुदोसा ॥१२॥ तम्हा अणेगवगडा, अणेगदारा भवंति जत्थेव । तत्थेव निवसियव्वं, भिक्खासण्णाइमुलभत्थं ॥१३॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रे छाया -क्षेत्रे संकुचिते खलु निष्क्रमण तथा प्रवेशनमेकम् । तत्रैकत्र स्थितानां, गमनागमे च बहुदोषाः ॥१२॥ तस्मात् अनेकवगडा अनेकद्वाराणि भवन्ति यत्रैव । तत्रैव निवस्तव्यं, भिक्षासंशादिसुलभार्थम् ॥१३॥ अवचूरी -'खेत्ते' इति । क्षेत्रे संकुचिते खलु निश्चयेन यत्र निष्क्रमण तथा प्रवेशनं चैकं भवति तत्र तस्मिन् क्षेत्रे ग्रामादौ एकत्र स्थितानां निम्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च गमनागमने बहुदोषा बहवः दोषाः संभवन्ति ॥१२॥ तस्मात् कारणात् यत्र अनेका वगडा अनेकानि द्वाराणि च यत्रैव यस्मिन्नेव ग्रामादौ भवन्ति तत्रैव निर्ग्रन्थैः निर्ग्रन्थीभिश्च निवस्तव्यं निवासः कर्त्तव्यः, नान्यत्र । किमर्थमित्याहभिक्षासंज्ञादिसुलभार्थम् , तत्र-भिक्षा-भिक्षाचर्यार्थगमनं, संज्ञा-संज्ञाभूमौ गमनं तत आगमनं चैतद् द्वयमपि सुलभं भवति तदर्थ तत्र वस्तव्यम् , तत्र साधुसाध्वीनां परस्परं संपर्काभावादिति ॥१३॥ ____ अथ निम्रन्थीनां कीदृशे उपाश्रये वस्तुंन कल्पते ? इत्येवं प्ररूपयितुमाह-'नो कप्पइ निग्गयीणं' इत्यादि। सूत्रम्--नो कप्पइ निग्गंथीणं आवणगिहंसि वा रत्थामुहंसि वा, सिंघाडगंसि वा चउक्कंसि वा चच्चरंसि वा अंतरावर्ण सि वा वत्थए ॥सू० १२॥ छाया -नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां आपणगृहे वा रथ्यामुखे वा शृङ्गाटके या चतुष्के वा चत्वरे वा अन्तरापणे वा वस्तुम् ॥ सू० १२॥ चूर्णी -'नो कप्पई' इति । नो न कल्पते तावत् निम्रन्थीनाम् आपणगृहे वा 'दुकान' इति प्रसिद्धे, यत् खलु गृहम् आपणमध्ये वर्तते, आपणैः समन्तात्परिक्षिप्तं भवति, अथवा मध्यभागे यद् गृहं द्वाभ्यामपि पार्श्वभ्यां यस्याऽऽपणा भवन्ति तद् आपणगृहं तस्मिन् , रथ्यामुखे वा रथ्या इति मार्गः, रथ्यायाः पार्श्वे यद् गृहं तद् रथ्यामुखम् । तच्च त्रिविधम्-रथ्याभिमुखम् १, रथ्याबहिर्मुखम् २, रथ्योभयतोमुखम् ३ । तत्र यद् गृहं रथ्यायाः पार्थे वर्त्तते तद् रथ्याभिमुखम् १, यस्य पृष्ठतो रथ्या वर्तते तद् रथ्याबहिर्मुखम् २, यस्यैकं द्वारं रथ्यायाः पराङ्मुखम् , एकं द्वारं च रथ्याया अभिमुखं भवेत् तत् रथ्योभयतोमुखम् ३ । अथवा यस्माद् गृहाद् रथ्या प्रवहति तद् रथ्यामुखमुच्यते, अथवा यस्य गृहस्य मुखं रथ्यायां राजमार्गे भवति तद् रथ्यामुखम् , तस्मिन् , तथा शृङ्गाटके वा शृङ्गाटकं तावत् त्रिकोणाकारः फलविशेषः, तदाकारेण यत्र मागों भवति तत्, मार्गत्रयमिलनस्थानमित्यर्थः, तस्मिन् शृङ्गाटकस्थिते गृहे । चतुष्के-चतुष्कं पुनश्चतुर्णा मार्गाणां संमिलनस्थानम् , यत्र चत्वारो मार्गा आगत्य मिलन्ति तत्स्थानं चतुष्कं व्यपदिश्यते, तस्मिन् चतुष्कस्थिते गृहे वा, चत्वरे वा-चत्वरं नाम यत्र षण्णां मार्गाणां संमेलनं भवति तत् , तस्मिन् चतुष्कस्थिते गृहे वा, अन्तरापणे वा-अन्तरापणस्तावत् यत्र अन्तरन्तो Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्यावचूरी उ० १ सू० १३-१५ वसतिवासविधिः १३ मध्ये-मध्ये आपणा भवन्ति स हट्टमार्ग इत्यर्थः, स च · एकपार्श्वन द्वाभ्यां वा पार्श्वभ्यां यत्र भवेत् तत्, अथवा यद् गृहं स्वयमेव आपणरूपं तद् अन्तरापणमुच्यते, यत्र एकेन द्वारेण आपणव्यवहारः क्रियते, द्वितीयेन तु द्वारेण पुनर्गृहकार्य विधीयते तद् गृहम् अन्तरापणम् , तस्मिन् । एतेषु पूर्वोक्तेषु उपाश्रयेषु निम्रन्थीनां वस्तुं न कल्पते । एतेषु उपाश्रयेषु वसन्तीनां निम्रन्थीनां जनसमुदायस्य गमनागमनबाहुल्यात् स्वाध्यायादि न सम्यग् जायते, तथा अनेकविधजनावलोकने परिणयनादिमहोत्सवाद्यवलोकने च पूर्वस्मृति संभवाच्चित्तवृत्तौ विकारसंभवः, कामुकजनद्वारा निर्ग्रन्थ्या अपहरणमपि संभवेत् , इत्यादिकारणैः संयमात्म-विराधनासंभवादेतादृशेषु उपाश्रयेषु निम्रन्थीनां वासः प्रतिषिद्धःः ॥१२॥ पूर्वोक्तेषु उपाश्रयेषु निम्रन्थानां वस्तुं कल्पते इति प्रदर्शयति-कप्पई' इत्यादि । सूत्रम्--कप्पइ निग्गंथाणं आवणगिहंसि वा जाव अंतरावणंसि वा वत्थए ॥सू०१३॥ छाया -कल्पते निग्रन्थानां आपणगृहे वा यावत् अन्तरापणे वा वस्तुम् ॥सू०१३॥ चूर्णी-'कप्पई' इति । कल्पते निर्ग्रन्थानाम् आपणगृहे वा यावत् अन्तरापणे वा, यावत् पदेन रथ्यामुखे वा शङ्गाटके वा चतुष्के वा चत्वरे वा, इति संग्रहः । साध्वीसूत्रे कथितेषु सर्वविधेषु उपाश्रयेषु साधूनां वस्तुं कल्पते, पुरुषत्वेनः तेषां दोषाभावात् ।। सू० १३ ॥ अत्राह भाष्यकारः-'आवणगिहाइएसुं' इत्यादि । भाष्यम्-आवणगिहाइएसुं, निग्गथीहि न तत्थ वसियवं । पुरिसाणं आवाओ, निग्गंथीणं भवेज्ज दोसढें ॥१४॥ निग्गंथाणं कप्पइ, पुव्वुत्तेसु य समग्गठाणेसु । तेसिं पुरिसत्तणओ, नो दोसा पुरिससंसग्गा ॥१५॥ छाया -आपणगृहादिकेषु निम्रन्थीभिर्न तत्र वस्तव्यं । पुरुषाणामापातो निम्रन्थीनां भवेद् दोषार्थम् ।१४। निर्ग्रन्थानां कल्पते पूर्वोक्तेषु च समग्रस्थानेषु । तेषां पुरुषत्त्वतो नो दोषाः पुरुषसंसात् ॥ १५॥ अवचूरी-'आवणगिहाइएसुं' इति । आपणगृहादिषु पूर्वोक्तेषु स्थानेषु निर्ग्रन्थीभिस्तत्र न वस्तव्यम्, यतस्तत्र पुरुषाणामनेकविधानामपशब्दादिवादिनामपि आपात आगमनं भवति स च निम्रन्थीनां स्त्रीजातित्वेन दोषाय भवतीति ॥१४॥ निर्ग्रन्थानां च पूर्वोक्तेषु समग्रस्थानेषु आपणगृहादिषु वस्तुं कल्पते, यतस्तेषां पुरुषत्वेन पुरुषसंसर्गात् नो-नैव केचिदपि दोषा भवेयुरिति ॥१५॥ पुननिर्ग्रन्थीनामुपाश्रयविधि प्रदर्शयति-'नो कप्पइ....अवंगुय.' इत्यादि । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रे सूत्रम् - नो कप्पइ निग्गंथीणं अवंगुयदुवारिए उवस्सए वत्थए । एगं पत्थारं अंतो किच्चा एगं पत्थारं बाहिं किच्चा ओहाडियचिलिमिलियागंसि एवं णं कप्पइ वस्थए ॥सू, १४ ॥ छाया-नो कल्पते निग्रन्थीनामअपावृतद्वारके उपाश्रये वस्तुम् । एकं प्रस्तारम् अन्तः कृत्वा, एकं प्रस्तारं बहिः कृत्वा अवघाटितविलिमिलिकाके एवं खलु कल्पते वस्तुम् ॥सू०१४॥ चूर्णी - 'नो कप्पई' इति । नो-न कल्पते निम्रन्थीनां अपावृतद्वारके अपावृतं - अपगतम् आवृतम्-आवरणं कपाटादिकं यत्र तद् अपावृतम्- तादृशं द्वारं यस्य तत् अपावृतद्वारकम्, तस्मिन् तादृशे उपाश्रये वस्तुम्, कपाटाद्यावरणरहिते उपाश्रये निर्ग्रन्थीनां वस्तुं न कल्पते, यत् उपाश्रये कदाचिद् रोगादिवशाद् अप्रावरणत्वमपि तासां स्यात् अतस्तादृशे उपाश्रये साध्वीना. मावासो निषिद्धः । अथापवादमाह-प्रामान्तराद् विहृत्य सन्ध्यासमये ग्राम प्राप्तास्तत्समयेऽन्योपाश्रयाऽभावे एकरात्रं द्विरात्रं वा कल्पते तत्र तदा एष विधिः-एकं प्रस्तारं वस्त्रकटादिकम् भन्तः उपाश्रयमध्ये कृत्वा बद्ध्वा, एकं-द्वितीयं प्रस्तारं वस्त्रादिकं बहिः उपाश्रयबाह्यभागे-कृत्वा बद्धा अवघाटितचिलिमिलि काकं-अववाटिता विस्तारिता चिलिमिलिका-जवनिका 'पडदा' इति प्रसिद्धा, अथवा मशकदानो-(मच्छरदानी)- ति प्रसिद्धा यत्र तत् तस्मिन्, तत्र स्थविरां पुनरेका निर्ग्रन्थीमुपाश्रयद्वारे प्रतिहारिकारूपेण रात्रौ स्थापयेत्, एवम् अनया रीत्या खलु तत्रवस्तुं कल्पते ॥ सू० १४ ॥ निम्रन्थानां तु अन्योपाश्रयाभावे पूर्वोक्तोपाश्रयेऽपि स्थातुं कल्पते इति प्रदर्शयति'कप्पई' इत्यादि । सूत्रम्--कप्पइ निगंथाणं अगुयदुवारिए उबस्सए वत्थर ॥ सू० १५॥ छाया--कल्पते निर्ग्रन्थानामपावृतद्वारके उपाश्रये वस्तुम् ॥१५॥ चूर्णी -'कप्पइ' इति सूत्रं स्पष्टार्थम् । यतो निर्ग्रन्थाश्च पुरुषत्वेन ते धृतिबलादिसंपन्ना भवन्ति तस्माद् अपावृतशरीरत्वमपि तेषां न विरुध्यते ततस्तेषामन्योपाश्रयाभावेऽपावृतद्वारके उपाश्रयेऽपि वासो विहित इति ॥ सू०१५॥ अत्राह भाष्यकारः- 'अव्वाउडदुवारे' इत्यादि भाष्यम् -अबाउडदुवारे, निग्गंथीहिं न तत्य वसियव्वं । इत्थित्तणेण बंभे, रक्खा पुण दुल्लहा जत्थ ॥१६॥ अन्नबाणाभावे चिलिमिलि काउं च तत्थ वसियन्वं । निगंथाणं कप्पइ, पुरिसत्तणओ य नो हाणी ॥१७॥ छाया-अप्रावृतद्वारे निर्ग्रन्थीभिर्न तत्र वस्तव्यम् । स्त्रीत्वेन ब्रह्मणि रक्षा पुनलभा यत्र ॥१६॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AmAAAAAAAAAAM. चूर्णिमायावचूरी उ० १ सू० १६-१९ वसतिवासविधिः १५ मन्यस्थानाभावे, चिलिमिलिं कृत्वा च वस्तव्यम् । निर्ग्रन्थानां कल्पते, पुरुषत्वेन च नो हानिः ॥१७॥ __अवचूरी-'अव्वाउडद्वारे' इति । अप्रावृतद्वारे उपाश्रये निर्ग्रन्थी भिस्तत्र न वस्तव्यं न वासः कार्यः, स्त्रीत्वेन तत्र वसन्तीनां नानाविधजनदृष्टिपातादिसंभवात्, यत्र स्थाने ब्रह्मणि ब्रह्मव्रते रक्षा पुनर्दुर्लभा भवति तस्मादप्रावृतद्वारे निर्ग्रन्थीनां वासो निषिद्धः ॥१६॥ ____ अपवादे-विकाले विद्वत्यागतानामन्यस्थानाभावे एकद्विरात्रार्थ निवास आवश्यको भवेत्तदा तत्र चिलिमिलिं-वस्त्रादिना चिलिमिलिकां कृत्वा तत्र वस्तव्यम् । निम्रन्थानां च तत्र वासः कल्पते यतस्तेषां पुरुषत्वेन पुरुषशरीरत्वेन नो हानिः न काचिदपि हानिरतस्तेषां तादृशे उपाश्रये वासो विहित इति । निर्ग्रन्थानामप्येतदपवादिकं सूत्रम्, तेन अन्यस्थानाभावे साधूनां तत्र एकद्विरात्रार्थ वासः कल्पते, न तु ततः परमिति भावः ॥ सू० १७॥ पूर्व चिलिमिलिकया प्रावृते उपाश्रये निर्ग्रन्थ्यो वसन्ति तत्र रात्रौ मात्रकं विना कायिक्यादिव्युत्सर्जनार्थ बहुशो बहिर्निर्गमप्रवेशं कुर्वन्त्यो निर्ग्रन्थ्यो दुःखपूर्वकं निर्गच्छन्ति प्रविशन्ति च तस्मात् कायिक्यादिव्युत्सर्जनार्थ घटीमात्रकमावश्यकमिति घटीमात्रकधारणविधिप्रतिपादकं सूत्रमाह-'कप्पई' इत्यादि। सूत्रम्-कप्पइ निग्गंधीणं अंतोलित्तं घडिमत्तयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ सू०१६॥ छाया-कल्पते निर्ग्रन्थीनां अन्तलिप्तं घटोमात्रकं धर्तुं वा परिहत्तुं वा ॥सू. १६ चूर्णी-कप्पई'-इति । कल्पते निग्रन्थीनां अन्तर्लिप्त-अन्तर् मध्ये लिप्तं श्लक्ष्णपदार्थलेपेन श्लक्ष्णीकृतं घटीमात्रकं घटी-लघुघटः, तत्संस्थानकं मात्रकं काष्ठपात्रं धत्तुं पार्वे स्थापयितुम्. परिहर्तुम् उपभोक्तुं कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । अन्तर्लिप्तमिति विशेषणं-अन्तर्लिप्ते श्लक्ष्णे पात्रे कायिक्यादिलेपसंश्लेषणाभावात् संमूर्छिमोत्पत्त्यभावप्रदर्शर्नार्थभिति--।। सू०१६॥ पूर्व निर्ग्रन्थीनां घटीमात्रकधारणं प्रोक्तं, तत्तु निम्रन्थानां न कल्पते, इति प्रदर्शयितुमाह'नो कप्पई' इत्यादि । ___सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गथाणं अंतोलित्तं घडिमत्तयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥सू०१७॥ ___ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानामन्तर्लिप्तं घटीमात्रकं धर्तुं वा परिहत्तुं वा ॥सू. १७॥ चूर्णी- 'नो कप्पइ' इति । पूर्वोक्तमन्तर्लिप्तं घटीमात्रकं निर्ग्रन्थानां धर्नु परिहत्तुं वा न कल्पते । तेषां तद्भिन्नाकारकं सामान्यं काष्ठपात्रं कायिक्यादिनिमित्तं कल्पते, यतः साधूनां पात्रचतुष्टयं कल्पते तत्र त्रीणि पात्राणि अशनादिनिमित्तम् , चतुर्थ च कायिक्यादिनिमित्तं ते स्थापयन्तीतिघट्याकारकं मात्रकं तेषां न कल्पते, तदाकारावलोकनेन मनोविकारसंभवादिति भावः ॥सू०१७ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्कल्पसूत्रे पूर्व निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां कायिक्यादिनिमित्तं घटीमात्रकधारणाऽधारणे विधिनिषेधश्च प्रोक्तः, तत् कायिक्यादि आहारादि च चिलिमिलिकाप्रावृते स्थाने एव कर्त्तव्यं भवेदिति सा चिलिमिलिका कस्य वस्तुनो भवितुमर्हतीति तत् प्रदर्शयितुमाह-'कप्पइ' इत्यादि । सूत्रम्-कप्पइ निग्गथाण वा निग्गंथीण वा चेलचिलिमिलियं धारित्तए वा, परिहरित्तए वा ॥ सू० १८॥ छाया -कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थोनां वा चेलचिलमिलिकां धत्तुं वा परिहर्नु पा ॥ स्.१८ ॥ चूर्णी-'कप्पई' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा द्वयानामपि चेलचिलिमिलिकां चेलमिति वस्त्रं, तस्य तेन निर्मितां वा चिलिमिलिकां धतु परिहतुं च कल्पते इति सूत्रार्थः, यतो वस्त्ररज्जुकटवंशदलादि. चिलिमिलिकासु केवलं वस्त्रचिलिमिलिकैव कल्पते, रज्ज्वादिचिलिमिलिकासु मत्कुणमशकादिलघुजन्तूनामुत्पत्तिसंभवात् ताः दुष्प्रतिलेल्या भवन्ति तेन संयमात्मविराधनाऽवश्यम्भाविनीति ॥ सू०१८॥ पूर्वमनावृतस्थाने आहारादिकं कुर्वतः निर्ग्रन्थान् निर्ग्रन्थींश्च कश्चित् सागारी मा पश्यतु, इति विभाव्य चिलिमिलिका क्रियते, इति प्रतिपादितम् , साम्प्रतमनावृतस्थानप्रसंगाद् उदकतीरे स्थाननिषदनादिनिषेधं प्रतिपादयन्नाह-'नो कप्पइ....दगतीरंसि' इत्यादि । सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण बा दगतीरंसि चिट्ठित्तए वा निसीइत्तए वा, तुयट्टित्तए वा निदाइत्तए वा पयलाइत्तए वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारित्तए, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिढवित्तए, सज्झायं वा करित्तए, धम्मजागरियं वा जागरित्तए, काउस्सग्गं वा करित्तए, ठाणं वा ठाइत्तए ॥ सू० १९॥ छाया -नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा उदकतीरे स्थातुं वा निषत्तुं वा त्वग्वर्तयितुं वा निद्रायितुं वा प्रचलायितुं वा अशनं वा पानं वो खाद्य वा स्वाधं वा आहर्तुम्, उच्चारं वा प्रस्रवणं वा खेलं वा सिङ्घाणं वा परिष्ठापयितुम्, स्वाध्यायं वा कर्तुम्, धर्मजागरिकां वा जागरितुम्, कायोत्सर्ग वा कर्तुंम्, स्थानं वा स्थातुम् ।।सू. २०॥ चूर्णी-'नो कप्पई' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च उदकतीरे स्थाननिषदनादि किमपि कार्य कर्तुं न कल्पते इति सूत्राशयः । तत्र किं किं न कर्त्तव्यम् ? इति प्रदर्शयति-'दकतीरंसि वा' उदकतीरे अत्र उदकशब्देन उदकस्थानं गृह्यते तेन उदकस्य नदीतडागादेः तीरम् उदकतीरम्, यत्राऽऽरण्यका ग्रामेयका वा पशवः मनुष्याः स्त्रियो वा जलार्थिनोऽवतरीतुकामा उत्तरीतुकामा वा तत्र स्थितं साधु दृष्ट्वा तिष्ठन्ति निवर्तन्ते भयोद्विग्ना वा भवन्ति, तथा यत्र स्थितं साधुं दृष्ट्वा मत्स्यकच्छपादयो जलचरास्त्रस्यन्ति बिभ्यति तादृशं स्थानमुदकतीरं कथ्यते, नतु यत्र जलं नीयते Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यावचूरी उ० १ सू० २०-२३ वसतिवासविधिः १७ तद् उदकतीरं, न वा यावान् भूभागो जलपूरेण आक्रम्यते तद् उदकतीरम्, न वा यावन्तं प्रदेशं तरङ्गाः स्पृशन्ति तद् उदकतीरम्, नो वा यावान् प्रदेशो जलेन स्पृष्टो भवति तद् उदकतीरमिति भावः । तस्मिन्, तत्र चिट्ठित्तए वा स्थातुं ऊर्ध्वस्थानेनाऽवस्थातुम्, निसीइत्तए वा निषत्तं वा उपवेष्टुम्, तुयट्टित्तए वा त्वग्वर्त्तयितुं वा कायमायतं कृत्वा पार्श्वपरिवर्तनं कर्तुम् निद्दाइत्तए वा निद्रायितुं वा सुखप्रतिबोधावस्थारूपया निद्रया शयितुम्, पयलाइत्तए वा प्रचलायितुं वा यत्र स्थितेनैव निद्रायते सा प्रचला कथ्यते, स्थितस्य निद्रातुम्, तथा असणं वा अशनादिचतुर्विधमाहारं वा आहरित वा आह कर्तुम्, पुनश्च उच्चारादिकं परिष्ठापयितुम्, तत्र उच्चारं प्रस्रवणं, खेलं कफलक्षणं श्लेष्माणम् सिंघाणं नासिकामलम्, एतानि शरीरसम्बन्धिमलानि परिहवित्तए परिष्ठापयितु परित्यक्तुम्, तथा सज्झायं वा करितए स्वाध्यायं सूत्रार्थोभयपरिवर्तनरूपं कर्तुम्, पुनश्च धम्मजागरियं वा जागरित्तए धर्मजागरिकां तत्त्वविचारणारूपां जागरितुं कर्तुम् काउस्सगं वा करित्तए कायोत्सर्ग लोगस्स गुणनपूर्वकं कायनिश्चेष्टतारूपं कर्तुम् ठाणं वा ठाइत्तए स्थानं वा यत्र एकस्थाने पादमारोप्य ऊर्ध्वस्थितेन कार्योत्सर्गः क्रियते तत् स्थानमिति कथ्यते, तत् तादृशं कायोत्सर्ग स्थातुं - कर्तुं निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वां नो कल्पते इति । उदकतीरे स्थानादिकं कुर्वतो निर्मन्थादेराज्ञाभङ्गादिका दोषाः समापद्यन्ते ॥ १९ ॥ अत्राह भाष्यकार : - 'दगतीरे' इत्यादि । भाष्यम् – दगतीरे ठाणाइ य, नो करणिज्जं भवेज्ज साहूणं । तत्थ अणेगे दोसा, तेणं पावंति पच्छित्तं ॥१८॥ जीवाणं जलपाणे, जमंतराओ जणे य उड्डाहो । सिंगाणा य हणणं, विराहणं : संजमप्पाणं ॥ १९॥ छाया - दकतीरे स्थानादि च नो करणीयं भवेत् साधूनाम् । तत्रानेके दोषाः तेन प्राप्नुवन्ति प्रायश्चित्तम्॥ १८ ॥ जीवानां जलपाने यद् अन्तरायः जने च उड्डाहः । ङ्गादिना च हननं, विराधनं संयमात्मनोः ॥ १९ ॥ अवचूरी - 'दगतीरे' इति । उदकतीरे जलाशयसांनिध्ये स्थानादि स्थाननिषदनादि सूत्रोक्त सर्वं साधूनां साध्वीनां च करणीयं नो भवेत् न कर्त्तव्यमित्यर्थः । यतस्तत्र स्थानादि - करणे अनेके वक्ष्यमाणा दोषा भवन्ति तेन कारणेन ते प्राप्नुवन्ति प्रायश्चित्तम् ॥ १८ ॥ दोषा यथा जीवानां जलपानेऽन्तरायो भवेत्, तथा जने लोकमध्ये उड्डाहः अपवादः निन्दनं भवेत्, पशवश्च शृङ्गादिना साधुसाध्वीनां हननमपि कुर्युः, इत्यादिना संयमात्मनोः संयमस्यात्मनश्च विराधनं जायते इति भाष्यार्थः ॥ १९ ॥ 3 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAAAAAAAAAA पूर्व निम्रन्थ-निम्रन्थीनामुदकतीरे स्थानादिकरणं निषिद्धम् । सम्प्रतिः चित्रकमलोपाकावे निम्रन्थनिर्ग्रन्थीभिर्न वस्तव्यमिति सचित्रकर्मोपात्रप्रनिषेधमाह-'नो कप्पइ० सचित्तकम्मे इत्यादि। -सूत्रम्--नो कप्पइ निगंयाण वा निग्गंथीण वा सचित्तकम्मे उबस्सर वस्थए ॥० २०॥ कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गयीण वा अचित्तकम्मे उवस्सए वत्थए । म०२१॥ छाया- नो कल्पते निग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा सचित्रकर्मणि उपाश्रये वस्तुम् ॥सू० २०॥ कल्पते. मिग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा अचित्रकर्मणि उपाये वस्तुम् ॥सू० २१॥ चूर्णी-'नो कप्पइ' इति । निग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा सचित्रकर्मणि चित्रकर्ममा स्वहितेः उपाश्रये वस्तुं न कल्पते, तत्र चित्राणि भिल्यादौ रक्तपीतादिशामाद्रव्येण मनुष्य-खी-प्रकार पक्षि-नदी-पर्वत-गृह-वृक्ष-लतादीनामाकृतिरूपाणि, है सहिते; चित्रिते. उपाश्रये साधुसाध्वीनां निकासो निषिद्धः, यतः सचित्रोपाश्रये वसतां साधूनां साध्वीनां च हास्य कौतुककेलिभुक्तभोगस्मृतिमनोविकाराधनेकदोषाणां संभका, अतो मुनिभिस्तक कासो न विधातल्या ॥सू०२१।। एवं चित्रकर्मरहिते उपाश्रये साकुसाध्वीनां कातुं कल्पते इतिः द्वित्तीयसूत्रार्थः ॥स. २२॥ पूर्वोक्तचित्रकर्मरहिते उपाश्रये साधुसाध्वीनां वासः कल्पते, तत्रापि साध्वीनां सागारिकविश्वा वस्तुं कल्पते, न त्वनिश्रयेति प्रदर्शयन् सूत्रद्वयमाह-'नो कपइ० सागारिय.०' इत्यादि । सूत्रम्--नो कप्पइ मिग्गंथीणं सामारियअमिस्साए वथए । मु०२२॥ कप्पइ निग्गंथीणं सागारियणिस्साए वत्थए । ७० २३॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थीमा सागारिकानिश्रका वस्तुम् ॥ २२॥ कल्पते निर्ग्रन्थीना सागारिकनिश्रामा क्याम् ॥२३॥ चूर्णी-'नो कप्पई' इत्यादि । चित्रक्रमरहित्ते उपाश्रयेऽपि निम्रन्थीनां सागारिकाऽनिश्रया सागारिकस्य शय्यातरस्य उपाश्रयस्वामिनः अनिश्रया, निश्रेति आलम्बनम् शय्यातरस्यालम्बनं विनेत्यर्थः, आलम्बनं यथा-भो शय्यातर ! वयमत्र निवसमस्तवाऽऽज्ञयाऽतोऽस्माकं त्वया निरीक्षणं कर्तव्यम्, इति कथनं, तेन विना निम्रन्थीनां तत्र. वस्तुं न कल्पते ॥ सू०२२॥ 'कप्पई' इति सागारिकनिश्रया शय्यातराऽऽलम्बनेन निर्ग्रन्थीनां तत्र वस्तुं कल्पते, इति ॥ सू०२३॥ अत्राह भाष्यकारः–'सागारियनिस्सं' इत्यादि । भाष्यम्--सागारियनिस्सं जइ, अक्किच्या साहुणीउ चिट्ठति । पावंति आणभंगे, तम्हा निस्साए वसियव्वं ॥२०॥ निस्साकरणे सो पुण, तासिं रक्खं करेइ दुष्टाओ । सावयतेणाइत्तो, रक्खणमिह होइ तक्कज्जं ॥२१॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसतिवासविधिः १९ पावचूरो उ० १ सू० २४-२६ छाया - सागारिकनियां यदि अकृत्वा साध्यस्तिष्ठन्ति । प्राप्नुवन्ति आशाभङ्गान् तस्मात् निश्चया वस्तव्यम् ॥२०॥ निश्राकरणे स पुनस्तासां रक्षां करोति दुष्टात् । श्वापदस्तेनादितः, रक्षणमिह भवति तत्कार्यम् ॥२१॥ अवचूरी - 'सागारियणिस्सं' इति सागारिकनिश्रां शय्यातरस्याऽऽलम्बनम् अकृत्वा यदि साध्यः उपाश्रये तिष्ठन्ति तदा आज्ञाभङ्गान् तीर्थकराज्ञाविराधनादिदोषान् प्राप्नुवन्ति । तस्मात् कारणात् साध्वीभिः निश्रया सागारिकमिश्रया वस्तव्यम् ||२०|| यतः निश्राकरणे स शय्यातरः पुनः दुष्टात् दुष्टजमात् कामुकादिदुष्ट पुरुषात् तासां रक्षां करोति, एवं करणे न कोऽपि तासां काश्चिदपि बाधामुत्पादयितुं शक्नोति, तथा श्वापदस्तेनादित:- श्वापदेभ्यः हिंस्रपश्वादिभ्यः चौरादिभ्यश्च तासामिह उपाश्रये रक्षणं रक्षाकरणं तत्कार्यं तस्य तत् कार्यमेव भवति ॥ २१ ॥ उक्त निर्ग्रन्थीनां सागारिकनिश्रया संवसनम्, साम्प्रतं निर्ग्रन्थानां तु सागारिकस्य निश्रयाऽनिश्रया वा वस्तुं कल्पते इति प्रदर्शयति- 'कम्प' इत्यादि । सूत्रम् -- कप्पइ निग्गंथाणं सामा रियल्ल णिस्साए वा अणिस्साए वा वत्थए | २४| छाया -कल्पते निर्ग्रन्थानां सागारिकस्य निश्रया का अनिश्रया वा वस्तुम् ॥ ० २४ ॥ चूर्णी - 'कप्पड़' इति । मिर्ग्रन्यानां यत् श्वापदस्मादिबहुल क्षेत्रं भवेत्तत्र तेभ्यो रक्षादि"कारणे सति सागरिकस्य शय्यतरस्य निश्रया आलम्बनेन 'वयमत्र वसामः अस्माकं रक्षा त्वया कर्त्तव्या ' स्यादिरूपेण गृहस्थस्यालम्बनं कृत्वा वस्तुं कल्पते, अथ चाऽसति पूर्वोक्ते कारणे सागारिकस्यानि - श्रयाऽपि वस्तुं कल्पते, पुरुषत्वेन स्वभावत एव धृतिबला दिसंपन्नत्वात्तेषाम्, निर्ग्रन्थीनां तु कारणे कारणे वा सामारिक निश्रां विना न कदापि वस्तु कल्पते, इति द्वयोः सूत्रयोर्भिन्नत्वम् ॥ २४ ॥ पूर्वं निर्ग्रन्थानां सागारिकस्य निश्रयाऽनिश्रया वा भिवासः प्रोक्तः, साम्प्रतं गृहस्थवस्तुजातरूपसागारिकसहितै उपाश्रये निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीमां दयानामपि वस्तुं न कल्पते, इति प्रतिपादयति-'नो कप्पइ० सागारिए' इत्यादि । सूत्रम्--नो कप्पर निग्गंथाणं वा निग्गंधीणं वा सामारिए उवस्सए वत्थए | २५ | छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थानां या निग्रन्थीनां वा सागारिके उपाश्रये वस्तुम् ॥सू: २५|| 'चूर्णी - 'नो कप' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च सांगारिके - भगारिण इदं वस्तुजातं बागारिक, आगारिकेण सहितः सागारिकः, यंत्रोपाश्रये गृहस्थस्य वस्त्राभूषण खष्ट्रापल्यङ्कादिगृह- सामग्री वर्त्तते सः सामारिक उपाश्रयः कथ्यते, तस्मिन् वस्तुं न कल्पते इति । सागारिकं द्विविधम्द्रव्यसामारिकं मानसामारिकं च तत्र द्रव्यसागारिकं बनाभूषणादिवस्तु जातम्, भावसागारिकम् - ईक्लेशादिमयो मनोभावः, यत्र गृहस्थानां तदुपाश्रयविषये परस्परं मनसि ईर्ष्या क्लेशादिभावः परम्परागत आधुनिको वा संभवेत्तादृश उपाश्रयो भावसागारिकः प्रोच्यते, भत्र चतुर्भङ्गी यथा Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० (१) द्रव्यतः सागारिकः- भावतोऽपि सागारिकः । (२) द्रव्यतः असागारिकः- भावतः सागारिकः । (३) भावतः असागारिकः - द्रव्यतः सागारिकः । (४) द्रव्यतः - असागारिकः- भावतोऽपि असागारिकः । एषु चतुर्षु भङ्गेषु अन्तिमो भङ्गो ग्राह्यः । बृहत्कल्पसूत्रे एवम्भूते सागारिके उपाश्रये वसतां द्वयानां निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीनां तद्गतविला सिवस्तुजाता बलोकनेन मनोविकारादिना संयमविराधना, तद्गतवस्तुजातस्य चौर्यादिना च आत्मविराधना संभवे - दिति ॥ सू०२५ ॥ अत्राह भाष्यकारः - 'सागारियवसहीए' इत्यादि । भाष्यम् -- सागारियवसहीए, वसमाणाणं हवंति बहुदोसा । मोहेण पुव्वसरणं, तेणागमणं च तग्गहणे ॥२२॥ छाया - सागारिकवसतौ वसतां भवन्ति बहुदोषाः । मोहेन पूर्वस्मरणं, स्तेनाऽऽगमनं च तद्ग्रहणे ॥२२॥ अवचूरी – 'सागारियत्रसहीए ' इति । सागारिकवसतौ गृहस्थवस्तुजातसहितोपाश्रये वसतां निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च बहुदोषाः बहवो दोषाः संयमात्मविराधनारूपा भवन्ति, कथमित्याह- मोहेन तद्गतवस्त्राभूषणपल्यङ्काद्यवलोकनेन पूर्वस्मरणं पूर्वस्य गृहस्थावस्थारूपपूर्वकालस्य स्मरणं भवेत्, यत् - 'ममापि एतादृशानि सुन्दराणि वस्त्राभूषणादीनि आसन्' इत्यादिस्मरणेन संयमविराधना भवेत् । तथा तत् तस्य वस्त्राभूषणादिवस्तुजातस्य ग्रहणे ग्रहणार्थं स्तेनागमनं स्तेनानां चौराणामागमनं भवेत्, तैर्वस्तुजातं चौरितं वा भवेत् तेन साधुसाध्वीविषये गृहस्थस्य शङ्का जायते ततः सः साधु साध्वीं वा राजपुरुषैर्ग्राहयेत् तेन आत्मविराधनासंभवः, तस्माद्धेतोः सागारिकोपाश्रये साधु-साध्वीनां वस्तुं न कल्पते इति भावः ॥ २२॥ पूर्वं सागारिके उपाश्रये साधुसाध्वीभिर्निवासो न कर्त्तव्य इति प्रोक्तम्, सम्प्रति सागारिकरहितोपाश्रये निवासः कल्पते इत्याह- ' कप्पर' इत्यादि । सूत्रम् - कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अप्पसागारिए उबस्सए वत्थए । २६ । छाया -- कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अल्पसागारिके उपाश्रये वस्तुम् ॥ चूर्णी - 'कप्पड़' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनाम् अल्पसागारिके, अत्र अल्पशब्दः अभाव1 वाची तेन असागारिके सागारिकं गृहस्थसम्बन्धिवस्त्रभूषणादिवस्तुजातं, तद् यत्र न विद्यते सः अल्पसागारिकः, तस्मिन् गृहस्थसम्बन्धिवस्तुरहिते उपाश्रये वस्तुं कल्पते, तत्र पूर्वोक्तदोषाऽसंद्भावात् ॥ सू० २६॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुणिभाष्यावचूरी उ० १ सू० २३-३१ वसतिवासविधिः २१ पूर्व सागारिकोपाश्रये वासो निषिद्धः, असागारिके च वासो विहितः, साम्प्रतं निर्ग्रन्थानां स्त्रीसागारिकोपाश्रये, निर्ग्रन्थीनां च पुरुषसागारिकोपाश्रये वासस्य कल्पाकल्पविधि सूत्रचतुष्टयेन प्रतिपादयन् प्रथमं निर्ग्रन्थविषयकं सूत्रद्वयमाह-'नो कप्पइ० इत्थीसागारिए' इत्यादि । सूत्रम्--नो कप्पइ निग्गंथाणं इत्थीसागारिए उवस्सए वत्थए । सू०२७॥ कप्पइ निग्गंथाणं पुरिससागारिए उवस्सए वत्थए । सू०२८॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां स्त्रीसागारिके उपाश्रये वस्तुम् ॥ सू० २७॥ कल्पते निर्ग्रन्थानां पुरुषसगारिके उपाश्रये वस्तुम् ॥ सू० २८॥ चूर्णी-'नो कप्पई' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां साधूनां स्त्रीसागारिके उपाश्रये वस्तुम् , तत्र स्त्रीभिः मनुष्यतिर्यस्त्रीभिर्यः सागारिकः स्त्रीसागारिकः यत्रोपाश्रये स्त्रियो वसन्ति खण्डनपेषणादिकार्य कुर्वन्त्यस्तिष्ठन्ति गमनागमनं वा कुर्वन्ति, अथवा यत्रोपाश्रये स्त्रीणां प्रवेशनिर्गममार्गो वा भवेत्, अथवा तिर्यकत्रियो यत्र गोमहिण्यजादिरूपाः तिर्यस्त्रियस्तिष्ठन्ति बद्धा भवन्ति वा सोऽपि स्त्रीसागारिकः प्रोच्यते, तस्मिन् स्त्रीसंसोपेते उपाश्रये साधूनां वस्तुं नो कल्पते, तत्र वासे साधूनां ब्रह्मवतभङ्गप्रसङ्गात् ॥ सू० २७॥ अथ पुरुषसागारिके निर्ग्रन्थानां वासः कल्पते इति द्वितीयं सूत्रमाह - 'कप्पई' इत्यादि कल्पते निर्ग्रन्थानां पुरुषसागारिके उपाश्रये वस्तुम्। साधूनां पुरुषशरीरत्वेन पुरुषसंसर्गे दोषाऽसंभवात्, इदमपवादिकं सूत्रम्, तेन विशुद्धाऽन्योपाश्रयाभावे एकद्विरानं यावद् यतनया तत्र वस्तुं कल्पते नाधिकमिति विज्ञेयम् ॥ सू० २८॥ अत्राह भाष्यकारः- 'इत्थी' इत्यादि । भाष्यम्--इत्थी दुविहा वुत्ता, माणुस्सित्थी तहेव तेरित्थी । दुविहावि जत्थ चिट्ठइ, वसिउं नो कप्पइ जईणं ॥२३॥ थीसागारियवासे, बंभे दोसा तहा य उड्डाहो । कप्पइ पुंवसहीए, एत्थंपि य एगदुगरत्तिं ॥२४॥ छाया - स्त्री द्विविधा प्रोक्ता, मानुषस्त्री तथैव तिर्यकस्त्री। द्विविधाऽपि यत्र तिष्ठति, वस्तुं नो कल्पते यतीनाम् ॥२३॥ स्त्रीसागारिकवासे, ब्रह्मणि दोषाः तथा च उड्डाहः । कल्पते वसतौ, अत्रापि च एकद्विकरात्रम् ॥२४॥ अवचूरी-'इत्थी' इति । अत्र स्त्रीसागारिके उपाश्रये निर्ग्रन्थानां वासो निषिद्धः, तत्र स्त्री द्विविधा प्रोक्ता तद्यथा-मानुषस्त्री तिर्यक्स्त्री च, एवं द्विविधाऽपि स्त्री यत्र तिष्ठति, पुरुषस्त्रियो रन्धनकुट्टनादिकार्य कुर्वन्त्यो निवसन्ति, तथा तिर्यस्त्रियश्च गोमहिष्यजादिरूपाः बद्धा अबद्धा वा यत्र तिष्ठन्ति तत्र यतीनां निर्ग्रन्थानां वस्तुं न कल्पते ॥२३॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतः साधूनां स्वीसागारिकवासे ब्रह्मणि ब्रह्मवते दोषाः संभवेयुः, तथा च आहः-लोके भिन्दा जायते यदेते साध्वः स्त्रीसागारिके उपाश्रये वसन्ति तेन ज्ञायते नैतेषां ब्रह्मवतं विधद्धम्, स्त्रीसंसर्गे पुरुषाणां मनोविकारादेवश्यम्भावादिति, यतः संयमात्मविराधनादयोऽनेके दोषास्ततो निम्रन्थामां त्रीसागारिके उपाश्रये वासी भगवता निषिद्धः । अथापवादमाह-अन्योपाश्रयालाभे पुंवसतौ पुरुषसागारिके निर्ग्रन्थानां वस्तुं कल्पते, किन्तु अत्रापि च एकद्विरात्रं यावत् वस्तुं कल्पते नाधिकम्, आधिक्येन पुरुषसंसर्गेऽपि पुरुषाणां सविकारनिर्विकारादिभिरनेकदोषसंभवादिति ।२४। पूर्व निर्ग्रन्थानां स्त्रीसागारिकोपाश्रये वासो निषिद्धः, पुरुषसागारिकोपश्रये चापवादेन विधिः प्रोक्तः, साम्प्रतं निम्रन्थीनां वासावासविधि प्रदर्शयितुमाह -'नो कप्पइ०' इत्यादि । सूत्रम्--नो कप्पइ निगंथीणं पुरिसंसागारिए उवस्सए वत्थए ॥ सू०२९॥ कप्पई मिग्गंथीणं इत्थीसागारिए उवस्सए वत्थए ॥ सू०३०॥ - छाया -नी कल्पते निप्रन्थीनां पुरुषसागारिके उपाश्रये वस्तुम् ।।सू०२९॥ कल्पते निन्थीनां स्त्रीसागारिके उपाश्रये वस्तुम् ॥सू०३०॥ चूर्णी - 'नो कप्पई' इति । यथा निर्ग्रन्थानां स्त्रोसागारिके उपाश्रये वासनिषेधः प्रोक्तस्तथैवान निर्ग्रन्थीनां पुरुषसागारिके उपाश्रये वासनिषेधः प्रोच्यते, तथाहि-निर्ग्रन्थीनां पुरुषसागारिके पुरुषसहिते उपाश्रये यत्र पुरुषाः वार्तालापं कुर्वन्ति क्रीडन्ति लेखनादिकार्य च कुर्वन्ति, सद्गतमार्गेण गमनागमनं वा कुर्वन्ति तादृशे उपाश्रये, तथा तिर्यक्पुरुषा अपि गोमहिषाजाश्वादिरूपा बद्धा अबद्धा वा भवेयुस्तादृशे उपाश्रये निर्ग्रन्थीनां वस्तुं न कल्पते, स्त्रीजातीनां पुरुषजातिभिः संसगोऽपि नोचितः, कदाचिन्मनुष्याणां मनोविकारादिसंभवे बलात्कारादिना संयमात्मविराधनासंभवात् ।सू०२९॥ ___अथापवादमाह-'कप्पई' इत्यादि । अन्योपाश्रयाभावे निम्रन्थीनां स्त्रीसागारिके स्त्रीजनसंयुक्त उपाश्रये वस्तुमल्पकालाय कल्पते । यथा निर्ग्रन्थानां स्त्रीसागारिके पूर्व दोषाः प्रोक्तास्त एवाऽत्र निम्रन्थीसूत्रे पुरुषसागरिके वैपरी येन वा बोद्धव्या इति ।। सू० ३०॥ पूर्व समुच्चयेन विभागेन च स्त्रीपुरुषसागारिकप्रतिश्रयापरपर्याया शय्या प्रतिपादिता, संप्रति सागारिकप्रतिबद्धोपाश्रयविषये निम्रन्थानां निषेधं निग्रन्थीनां च विधिं प्रतिपादयितुकामः प्रथम निर्ग्रन्थानां प्रतिबद्धशय्यायां वासनिषेधमाह-'नो कप्पइ० पडिबद्धसेज्जाए' इत्यादि । सूत्रम्--नो कप्पइ निगंथाणं पडिबद्धसेज्जाए बत्थए ॥३१॥ छाया -नो कल्पते निर्ग्रन्थामा प्रतिबद्धशय्यायां वस्तुम् ॥३१॥ चूर्णी-'नो कप्पई'- इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां प्रतिबद्धशय्यायां, शय्येति वसतिः उपाश्रय इत्यर्थः, प्रतिबद्धेति गृहस्थगृहेण सह एकभित्यादिरूपेण संबद्धा सा प्रतिबद्धा कथ्यते, एतादृशी शय्या-उपाश्रयः प्रतिबद्धशय्या, तस्यां वस्तुं निर्ग्रन्थानां न कल्पते इति सूत्राशयः । प्रतिबद्धोपाश्रयो द्विविधः द्रव्यप्रतिबद्धः भावप्रतिबद्धश्चेति । तत्र द्रव्यतः प्रतिबद्धः वलभीकाछ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वावचूरी उ० १ सू० ३२-३४ वसतिवासविधिः ३ मिन्नादि स्मिन उपाश्रये गृहस्थगृहेण सार्द्धं संबद्धं भवेत् गृहस्थगृहस्य उपाश्रयस्य चाच्छादानामिष्ठं भितिर्वा एका भवेत्, यत्र स्थितैर्गृहस्थस्त्रीपुरुषाणां शब्दादि श्रूयते एष द्रव्यतः प्रतिबद्धः । भाक्तः प्रतिबद्ध चतुर्विधः - प्रस्रवण - स्थान - रूप- शब्दभेदात् । एते चत्वारो भेदा भावप्रति+ वृद्धो भवन्ति । यत्रोपाश्रये साधूनां गृहस्थस्त्रीपुरुषाणां च एकैव कायिकी भूमिर्भवेत् स प्रतक्णप्रतिबद्धः प्रथमः १, यत्रैकमेवोपवेशनस्थानं भवेत् स स्थानप्रतिबद्धो द्वितीयः २, यत्रः स्त्रीणां रूपसौन्दर्यादि विलोक्यते स रूपप्रतिबद्धस्तृतीयः ३, यत्र पुनः स्थितैः स्त्रीणां भाषाभूषणपदन्या सादिशब्दा: रहस्यशब्दाश्च श्रूयन्ते स शब्दप्रतिबद्ध चतुर्थः ४ । अत्र द्रव्यभावसंयोगे चरवासे भङ्गाः भवन्ति तथाहि - द्रव्यतः प्रतिबद्धो न भावतः १, भावतः प्रतिबद्धो न द्रव्यतः २, द्रव्यतो भावतश्च प्रतिबद्धः ३, न द्रव्यतो न भावतः प्रतिबद्ध: ४ । अत्र चतुर्थो भङ्गोऽनुज्ञाता, उभयथा प्रतिबद्धत्वात् । अत्र तु प्रतिबद्धोपाश्रये निवासविषयो निषेधो विहितः । प्रतिबद्धोपाश्रये वसतां निर्गन्धानामाज्ञा भङ्गादयो दोषाः समापतन्ति । साधवो द्विविधाः प्रोक्ताः - भुक्तभोगिनः अभुक्त भोगिनश्च तत्र ये भोगान् भुक्त्वा पश्चात् प्रव्रजितास्ते भुक्तभोगिनः, ये च कुमारावस्थायामेव प्रव्रजितास्ते अभुक्तभोगिनः प्रोच्यन्ते । अत्र चतुर्विधे भावप्रतिबद्धे दोषा इमे - प्रस्रवणप्रतिबद्धे - कायिक्यादिकरणे अकस्मात् गृहस्थां साधूनां चैकत्रागमनं संभवेत् १, स्थानप्रतिबद्धे स्वाध्यायादिसमये द्वयानामेकत्रोपवेशनं भवेत् २, रूपप्रतिबद्धे - स्त्रीणां रूपसौन्दर्यानचेष्टाद्यवलोकनं भवेत् ३, शब्दप्रतिबद्धे - स्त्रीणां हसित-गीत-कन्दित- कूजित - प्रेमालापादिशब्दश्रवणं भवेत् ४ । एतेन भुक्तभोगिनां भुक्तभोगस्मूतिर्जायते, अभुक्तभोगिनां कौतुकादि जायते, तेन ब्रह्मवते शङ्काकाङ्क्षादिना व्रतभङ्गदोषप्रसङ्गः । तत्र, वसतां निर्ग्रन्थानामाज्ञा भङ्ग मिथ्यात्वानवस्थादयोऽनेके दोषाः संभवन्ति, अतः प्रतिबद्धायां बसौ निर्मन्थानं बासो न कल्पते इति भावः ॥ सू० ३१ ॥ पूर्वं प्रतिबद्धशय्यायां निर्ग्रन्थानां वासो निषिद्धः, साम्प्रतं निर्ग्रन्थीनां तत्र वासः कल्पते इति विधि प्रदर्शयति- ' कप्पइ० षडिबद्ध ० ' इत्यादि । सूत्रम् -- कप्पर निग्गंथीणं पडिबद्ध सिज्जाए वत्थए || सू० ३२ || छाया - कल्पते निर्ग्रन्थीनां प्रतिबद्धशय्यायां वस्तुम् ॥३२॥ चूर्णी - 'कप्पड़' इति । निर्ग्रन्थीनां प्रतिबद्धशय्यायां वस्तुं कल्पते इति सूत्रार्थः । नबु पूर्वोक्तस्वरूपायां प्रतिबद्ध शय्यायां तु निर्ग्रन्थीनामपि पूर्वोक्ता एव दोषाः संभवन्ति तर्हि कथं तासां 'कल्पते' इति प्रोक्तम् ? तत्राह-निर्ग्रन्थीनां केवलस्त्रीजनप्रतिबद्धोपाश्रये सम्बन्धिजनप्रतिपाश्रये वा वस्तुं कल्पते इति सूत्रकाराभिप्रायो बोध्यः, तत्र केवलस्त्रीजन - सम्बन्धिजन - प्रतिबद्ध न द्रव्यभावभेदभिन्नस्यापि तस्य निर्दोषत्वसद्भावात् साध्वीनां द्रव्यक्तः स्त्रीप्रतिबद्धे उपाश्रये Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · बृहत्कल्पसूत्र निवासः कल्पते, यतः पूर्व साध्वीनां सागारिकनिश्रया वस्तुं कल्पते इति प्रतिपादितम् , तासां शीलरत्नरक्षाया आवश्यकत्वात्, अत्र सागारिकाः मातृष्वसृ-भगिनी-भ्रातृजाया-मातृ-पितृ-भ्रातृपितामही-मातामही-प्रभृतिसम्बन्धिजनरूपा विज्ञेयाः, तत्प्रतिबद्धे उपाश्रये साध्वीभिर्वस्तव्यं नत्वन्यस्मिन् पतिपल्यादिप्रतिबद्धे दुष्टजनप्रतिबद्ध वा, यतस्तत्र वसन्तीनां शीटरत्नरक्षा सुलभा भवति, सम्बन्धिजनाः समर्थाः सन्त उपसर्गकारकान् दुष्टजनान् निवारयन्ति अतो निर्ग्रन्थीनां निदोषे प्रतिबद्धोपाश्रये निवसनमावश्यकमिति ज्ञात्वैव भगवता निम्रन्थीभ्यः प्रतिबद्धोपाश्रये वासो विहित इति । भावतः प्रस्रवण- स्थान-रूप-शब्द-भेदाच्चतुर्विधे प्रतिश्रये वसन्तीनां साध्वीनां पूर्वोक्ता एव दोषाः समापतन्त्येवेति तादृशे प्रतिबद्ध उपाश्रये साध्वीभिर्न कदाऽपि वस्तव्य. मिति तात्पर्यम् ॥ सू० ३२॥ पूर्व निर्ग्रन्थसूत्रे प्रतिबद्धोपाश्रयो निषिद्धः, तत्प्रसङ्गात् यत्रोपाश्रये गृहस्थगृहमध्यमार्गेण गमनागमनं भवेत् सोऽपि प्रतिबद्ध एव कथ्यते, इति निर्ग्रन्थानां तादृशे उपाश्रये वस्तुं न कल्पते इति निषेधसूत्रमाह-'नो कप्पइ०' गाहावइ० इत्यादि । सूत्रम्-- नो कप्पइ निग्गंथाणं गाहावइकुलस्स मज्झंमज्झेणं गंतु वत्थए ॥ सू०३३॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां गाथापतिकुलस्य मध्यमध्येन गत्वा वस्तुम् ॥सू०३३॥ चूर्णी-'नो कप्पइ' इति । निर्ग्रन्थानां साधूनां गाथापतिकुलस्य गृहस्थगृहस्य मध्यमध्येन - मध्यमार्गेण गत्वा उपाश्रये गम्यते निर्गम्यते च, एवमुपलक्षणात् यस्योपाश्रयस्य मध्य मार्गेण गृहस्थाः स्वगृहे प्रविशन्ति निर्गच्छन्ति वा तादृशे उपाश्रये वस्तुं न कल्पते । तत्र निवासे गमनागमनसमये साधूनां गृहस्थप्रक्रियायां दृष्टिपातो भवेत् , गृहस्थानामुपाश्रयमार्गेण गमनागमने ते साधूनामाहारोपवेशननिषदनादिप्रक्रियां पश्यन्ति तेन तेषां परस्परं तत्तत्प्रक्रियाणां समालोचनासंभवस्ततः परस्परं द्वेषकलहादिसंभवः, साधूनां तत्रस्थस्त्रीरूपदर्शने मोहोदयो वा भवेत् , ततः श्रामण्ये शङ्काकाङ्क्षाद्यनेके दोषाः समापतन्ति तस्मादेतादृशे उपाश्रये निर्ग्रन्थानां वस्तुं न कल्पते ॥सू० ३३॥ निम्रन्थीनां पूर्वोक्ते उपाश्रये कारणसद्भावाद् वस्तुं कल्पते इति निर्ग्रन्थीसूत्रमाह-'कप्पइ० गाहावइ०' इत्यादि । सूत्रम्--कप्पइ निग्गंथीणं गाहावइकुलस्स मज्झमज्झेण गंतुं वत्थए ॥सू०३४॥ छाया-कल्पते नि न्थीनां गाथापतिकुलस्य मध्यमध्येन गत्वा वस्तुम् ॥सू०३४॥ चूर्णी – 'कप्पइ' इति । निम्रन्थीनां गाथापतिकुलस्य मध्यमध्येन गत्वा उपाश्रये गम्यते निर्गम्यते एतादृशे उपाश्रये वस्तुं कल्पते । ननु निर्ग्रन्थसूत्रप्रोक्ता दोषास्तु साध्वीनामेव समापतन्ति तर्हि कथं तासां 'कल्पते' इति विधिरुक्तः ? अत्राह-निर्ग्रन्ध्यः स्त्रीत्वेन स्वभावत एव Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिमायावचूरी उ० १ सू० ३६ अधिकरणोपशमनविधिः २५, मृदुमुग्धहृदया भवन्ति, लोके च शीललुण्टाका विषयलोलुपा धूर्त्ता जना अनेकविधवचनचाटुत्वेन ता मोहयन्ति, बलात्कारं वा कुर्वन्ति, इत्यादिकारणवशात्तासां संबन्धिजनासन्नत्वेन निदोषे तादृशे उपाश्रयेऽपि वस्तुं कल्पते इति प्रोक्तम् ॥सू० ३५॥ अत्राह भाष्यकारः-'सीलस्स' इत्यादि । भाष्यम्--सी लस्स रक्खणहं, निग्गंथीणं पकप्पए तत्थ । अप्पडिबद्धे वासे,को तासिं रक्खणं कुज्जा ॥२५॥ छाया-शीलस्य रक्षणार्थ, निर्ग्रन्थीनां प्रकल्पते तत्र । अप्रतिबद्धे वासे, कस्तासां रक्षणं कुर्यात् ॥२५॥ अवचूरी--'सीलस्स' इति । निर्ग्रन्थीनां शीलस्य ब्रह्मव्रतस्य रक्षणार्थ रक्षानिमित्त तंत्र प्रतिबद्धोपाश्रये, तथा यत्र सम्बन्धिजनगाथापतिकुलमध्यमार्गेण गमनागमनयुक्ते उपाश्रये वा वस्तुमवस्थातुं प्रकल्पते युज्यते तत्र मूलगुणभूतब्रह्मव्र तरक्षायाः सुशक्यत्वात् । अन्यथा अप्रतिबद्धाधुपाश्रयवासे उपसर्गोत्पादकेभ्यो दुष्टजनेभ्यस्तासां रक्षणं कः कुर्यात् ! अतो निम्रन्थीनां प्रतिबद्धोपाश्रये वस्तुं कल्पते इत्युक्तम् ॥२५॥ । अत्र पूर्वापरसूत्रयोः सम्बन्धमाह भाष्यकारः-निग्गंथाण.' इत्यादि । भाष्यम्--निग्गंथाणमकप्पं, निग्गंथीणं च कप्पमिह वुत्तं । एयं असदहतो, करेज्ज जइ सोऽत्थ अहिगरणं ॥२६॥ तत्थ य किं कायव्वं, उवसमियव्वं च होइ अहिगरणं । एसो संबंधो इह, सुत्तेणं पुव्वभणिएणं ॥२७॥ छाया -निर्ग्रन्थानामकल्प्यं, निर्ग्रन्थीनां च कल्प्यमिहोक्तम् । पतद् अश्रद्दधानः कुर्यात् यदि सोऽत्र अधिकरणम् ॥२६॥ तत्र च किं कर्त्तव्यम, उपशमितव्यं च भवति अधिकरणम् । एष सम्बन्ध इह, सूत्रेण पूर्वभणितेन ॥२७॥ अवचूरी-'निग्गंथाग' इति । निर्ग्रन्थानां गाथापतिकुलस्योपाश्रयमार्गेण गमनागमनयुक्ते उपाश्रये संवसनम् अकल्प्यम् अकल्यत्वेन प्रतिपादितम्, इह तत्रैव तादृशे एव उपाश्रये निम्रन्थीनां च संवसनं कल्प्यमुक्तं-कल्यत्वेन प्रतिपादितम् । एतद्-वैषम्यं साधुसंघे कश्चित्साधुः अश्रद्दधानः तत्राश्रद्धां कुर्वाणी विवादग्रस्तो भूत्वा यदि तत्र साधुमण्डल्याम् अधिकरणं कलहं कुर्यात् तत्र कलहविपये किं कर्त्तम् ? तत्राऽऽचार्य आह–'उपसमियव्वं' इत्यादि, तदुत्पन्नमधिकरणं भगवद्वचनश्रद्धावता साधुना साध्वाचारं विभाव्य उपशमितव्यं भवति स स्वावनतत्वेनाधिकरणस्योपशमं कुर्यादिति भावः, इत्यधिकरणस्योपशमनसूत्रमत्र प्रोच्यते । इह अत्र विषये पूर्वभणितेन सूत्रेण सह एष सम्बन्धः ।। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्कल्पत एतेन सम्बन्धेनायातमिदमधिकरणोपशमनसूत्र प्रस्तौति-'भिक्खू य' इत्यादि । सूत्रम्--भिक्खू य अहिगरणं कटु तं अहिगरणं विओसवित्ता विओस वियपाहुडे, इच्छाए परो आढाइज्जा इच्छाए परो नो आढाइज्जा, इच्छाए परो अब्भुटिज्जा इच्छाए परो नो अब्भुद्विज्जा, इच्छाए परो वंदिज्जा इच्छाए परो नो वंदिज्जा, इच्छाए परो संभुंजिजा इच्छाए परो नो संभुंजिज्जा, इच्छाए परो संवसिज्जा इच्छाए परो नो संवसिज्जा, इच्छाए परो उपसमिज्जा इच्छाए परो नो उवसमिज्जा, जो उवसमइ तस्स अत्थि आराहणा, जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा, तम्हा अप्पणा चेव उपसमियव्वं । से किमाहु भंते ! ? उवसमसारं सामण्णं ॥ सू०३५॥ छाया -भिक्षुश्च अधिकरणं कृत्वा तद् अधिकरणं व्यवशमय्य व्यवशमितप्राभृतः इच्छया पर आद्रियेत इच्छया परो नो आद्रियेत, इच्छया परः अभ्युत्तिष्ठेत् इच्छया परो नो अभ्युत्तिष्ठेत्, इच्छया परो वन्देत इच्छया परो नो वन्देत, इच्छया परः संभु. छजीत इच्छया परो नो संभब्जीत. इच्छया परः संवसेत, इच्छया परो न संवसेत, इच्छया पर उपशाम्येत् इच्छ्या परो नो उपशाम्येत्, य उपशाम्यति, तस्य अस्ति आराधना, यो नोपशाम्यति तस्य नास्ति आराधना, तस्मात् आत्मनैव उपशमितव्यम्, तत् किमाहुः भदन्त ! ? उपशमसारं श्रामण्यम् ॥स्०३५॥ चूर्णी-'भिक्खूय' इति । भिक्षुस्तावत् सामान्यसाधुः चकारात् आचार्य उपाध्यायश्च, अधिकरणम्-अधिक्रियते नरकगतिगमनयोग्यतां प्राप्यते आत्मा येन तत् अधिकरणम् कलहः प्राभृतमित्येकोऽर्थः तत् कृत्वा तथाविधव्यक्षेत्रादिसांनिध्योपबंहितात् कषायमोहनीयोदयाद् अपरश्रमणेन सह कलहरूपम् अधिकरणं विधायेत्यर्थः तदनन्तरं स्वयमन्योपदेशेन वा तस्य कलहस्य ऐहिकपारलौकिकप्रत्यवायबाहुल्यं परिभाव्य तद् अधिकरणं कलहरूपम् व्यवशमय्य वि-विविधैःअनेकैः प्रकारैः स्वापराधप्रतिपत्तिपूर्वकं मिथ्यादुष्कृतदानेन अवशमय्य-उपशमं प्रापय्य तदनन्तरं व्यवशमितप्राभूतः-विशेषेण अवशमितम् उपशान्तीकृतम् अवसानं प्रापितं प्राभृतं कलहो येन स व्यवशमितप्राभृतो दूरीकृतकलहो भवेदित्यर्थः, तथा च गुरु सन्निधौ स्वदुश्चरितमालोच्य तत्प्रदत्तप्रायश्चित्तं च यथावत् प्रतिपद्य पुनस्तदकरणायाभ्युत्तिष्ठेत् । अथ येन सह कलहरूपम् अधिकरणम् उत्पन्नम् स यदि उपशमं नीयमानोऽपि नोपशाम्यति तदा किं कुर्यात् ! इत्यत आह—'इच्छाए परो आढाएज्जा' इत्यादि, इच्छया-यथास्वरुच्या यथेच्छमित्यर्थः, पर:-अन्यों द्वितीयः श्रमण आदियेत वा, इच्छया-यथास्वरुचि स्वेच्छानुसारं परः-अन्यो द्वितीयः साधुः नाद्रियेत वा, पूर्ववत् सम्भाषणादिभिरादरं विदध्याद् वा न वेति भावः, एवम् इच्छया स्वेच्छानुसारं परः-अन्यो द्वितीयः साधुः तम्-उपशामकम् साधुम् अभ्युत्तिष्ठेत् तस्य अभ्युस्थानं कुर्याद् वा, इच्छया-स्वेच्छानुसारं परः-अन्यो द्वितीयः साधुर्नाऽभ्युत्तिष्ठेत्-अभ्युत्थानं Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिमायावचूरो उ० १ सू० ३७-३८ विहरणविधिः २७ " " न वा कुर्यात् इच्छया पर:- द्वितीयः साधुस्तं साधुं वन्देत वा, इच्छया परः अन्यः श्रमणो न वन्देत वा, इच्छया परः साधुस्तेन साधुना सह संभुञ्जीत - एकसार्थं भोजनं दानग्रहणसंभोगं वा कुर्यात् वा, इच्छया परः अन्यो द्वितीयः साधुर्न संभुञ्जीत - एकमण्डल्यां भोजनं तेन सह न वा कुर्यात् इच्छया परः साधुस्तेन साधुना सह संवसेत् -सम् एकीभूय - एक स्मिन् उपाश्रये वसेद्वा, इच्छया परः साधुः न वा संवसेत् - - एकीभूय एकत्रोपाश्रये न वसेद् वा, इच्छया परः साधुः उपशाम्येद् वा इच्छया परः श्रमणो नोपशाम्येद् वा परम्, तत्र यः श्रमण उपशाम्यति कषायतापाऽपगमेन निर्वृतिमुपैति उपशमं प्राप्नोतीत्यर्थः, तस्य सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानादीनामाराधना भवति, यः पुनः साधुः नोपशाम्यति उपशमं न प्राप्नोति तस्य साधोस्तेषां सम्यग्दर्शनादीनां नास्ति आराधना, तस्मात् कारणात् एवम् उक्तरीत्या विचिन्त्य -विभाव्य आत्मनैव उपशान्तव्यम् उपशभो विधेयः । शिष्यः प्राह 'से किमाहु अंते' हे भदन्त ! से तत् किमत्र विषये कारणमाहुः उक्तवन्तः तीर्थकरप्रभृतयः ? आचार्य आह - 'उवसमसारं सामन्नं' उपशमसारम् - उपशमः सारो यत्र तत् उपशमसारमेव श्रामण्यं भवति, नोपशमरहितं श्रामण्यमित्यर्थः, उपशमवर्जितस्य श्रामण्यस्य निष्फलत्वादिति भावः । तथा चोक्तम् - 'सामन्नऽणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होंति । मन्नामि उच्छुपुष्कं व निष्फलं तस्स सामन्नं ॥ १ ॥ श्रामण्यमनुचरतः कषाया यस्य उत्कटा भवन्ति । मन्ये इक्षुपुष्पमिव निष्फलं तस्य श्रामण्यम् ॥ १ ॥ इति ॥ सू० ३५|| अथ पूर्वोक्ताऽधिकरणसूत्रेण सहास्य वर्षावासगमननिषेधसूत्रस्य कः सम्बन्ध: ? इत्यत्राह भाष्यकारः -- ' किच्चा' इत्यादि । भाष्यम् - किच्चा कलहं गच्छर, आगच्छ वा पुणो य खामेउं । वासावासे नेवं, करणिज्जं एस संबंधो ॥ २८ ॥ अवचूरी - 'किच्चा कलहं ' इति । केनापि साधुना सहाधिकरणे समुत्पन्ने तयोर्द्वयोर्मध्ये विवेकिना भिक्षुणा 'उपशमसारं श्रामण्यम्' इति गुरूपदेशमभिसंधाय तदधिकरणं क्षमापनादिना उपशमितम् किन्तु येन सहाऽधिकरणं समुत्पन्नं स उपशाम्यमानोऽपि नोपशान्तो भवेत् स कषायानुबद्धमनाः श्रमणोऽन्यत्र ग्रामादौ 'कलहं किच्चा' अधिकरणं कृत्वा गच्छति, अथवा यः पूर्वमनुपशान्तः सन् अन्यत्र ग्रामादौ गतः स तत्र तस्य मतिपरिवर्तनेन शुभपरिणामवशात् स्वयम्, अन्यसाधूपदेशेन वा येन सहाधिकरणं जातं भवेत्तं साधुं 'खामेउं ' क्षमयितुं स्वापराधं क्षमापनार्थम् गच्छति, अथवा अन्यत्र गतः स सांवत्सरिकक्षमापनाकाले आसन्ने समायाते सति विचारयेत् - 'यन्मया तदधिकरणं न क्षमितमतः कथं तावन्मम सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं कर्तु कल्पते' इति विचिन्त्य तं श्रमणं क्षमयितुं पुनरप्यागच्छति, अथवा श्रमणानां परस्परम धिकरणमुत्पन्नमिति श्रुत्वाऽन्यत्र स्थितोऽन्यः Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्करुपमा कथित् प्रवचनोड्डाहभीरुधर्मश्रद्धालुः साधुस्तदधिकरणमुपशमयितुं तत्रागच्छति, एवम् तत् तदीयगमनागमनं शुद्धमपि वासावासे वर्षावासे वर्षाकाले 'न करणिज्ज' न करणीयम् यतो वर्षाकाले साधूनां गमनागमनं न कल्पते, इत्येष एव पूर्वसूत्रेण सहाऽस्य सूत्रस्य सम्बन्धः ॥२८॥ अनेन सम्बन्धेनायातं वर्षावासे गमनागमननिषेधपरकमिदं सूत्रमाह-'नो कप्पइ' इत्यादि । सूत्रम्--नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गथीण वा वासावासेसु चरित्तए ॥ ३६॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा वर्षावासेषु चरितुम् ।। २०३६॥ चूर्णी-'नो कप्पइ' इति । निम्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च वर्षावासेषु वर्षायां वर्षाकाले वासः वर्षावासः, तस्य चातुर्मासरूपत्वाद् बहुत्वविवक्षायां तेषु वर्षावासेषु चतुर्मासरूपेषु वर्षाकालसम्बन्धिषु अतर्षु मासेषु चरितुं विचरितुम् एकस्माद् ग्रामादन्यस्मिन् ग्रामे गन्तुं न कल्पते । वर्षासु विहरतः महकायविराधनेन संयमात्मविराधना भवति । तत्र षट्कायविराधना यथा-वर्षाकाले पन्थानः अमर्दिता भवन्ति तेन पृथिवीकायविराधना १, जलक्लिन्नमार्गे गभनेऽप्कायविराधना सुस्पष्टैव २, उपधेर्जलक्लिन्नत्वेन तापनार्थ मतिर्भवेत्तेन तापनबुद्धयाऽग्निकायविराधनादोषः समापद्येत ३, जलाईवायोस्तीव्रगत्या वायुकायविराधना ४, वर्षाकाले भूमौ दूर्वादिवनस्पतिकायः समुद्भवति, जलसद्भावात् पनकसमर्छनमपि भवति, इत्यादिना वनस्पतिकायविराधना ५, वर्षाकाले इन्द्रगोपशिशुनागाधनेकासा भूमौ विचरन्ति तेन त्रसकायविराधना भवेत् ६ । एवं संयमविराधना भवति । आत्मविराधना तु अनेकप्रकारा भवति यथा-कर्दमपिच्छिले मार्गे पादस्खलनं, तेन विषमे भूप्रदेशे निपतनं भवेत् , जलेऽदृश्यमानकीलककण्टकादि वा चरणयोविद्धं भवेत् , अकस्मात् गिरिनद्यादिजलपूरेणान्यत्र नयनं भवेत् , इत्याद्यनेकप्रकाराऽऽमविराधना भवेत् । तीर्थकराज्ञाविराधना तु स्पष्टैव शास्त्रे, चातुर्मासविहरणस्य निषिद्धत्वात् । तस्मात् निर्ग्रन्थैर्निन्थिीभिश्च वर्षाकाले विहरणं न विधेयम् , अपवादे राज्योपद्रवे ग्रामदाहे दुर्भिक्षे जलप्लाविते ग्रामे, इत्यादिसंयमयात्रानिर्वाहबाधकेषु कारणेषु समुपस्थितेषु वर्षाकाठेऽपि तत्रतो निर्गमनमावश्यकं भवेदिति ॥ सू०३६॥ पूर्व-वर्षावासे -चातुर्मासे श्रमणानां विहरणं न कल्पते इति प्रतिपादितम् , अथ कस्मिन् काले श्रमणानां विहरणं कल्पते ? इति प्रश्ने विहारकल्पकालं प्रदर्शयन्नाह - 'कप्पई' इत्यादि । . सूत्रम्--कप्पइ निम्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा हेमंतगिम्हासु चरित्तए ॥ सू०३७॥ छाया-कल्पते निम्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा हेमन्तग्रीष्मेषु चरितुम् ॥२०३॥ -'कप्पई' इति । निम्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा 'हेमंतगिम्हासु' हेमन्तग्रीष्मेषु हेक्सग्रीष्मसम्बन्धिषु अष्टसु मासेषु ऋतुबद्धे काले इत्यर्थः चरितुं विचरितुं कल्पते, ऋतुबद्धका शुकमुम्यादिकारणेन संयमात्मविराधनाया असंभवात् ॥ सू० ३७॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूणिभाष्यावचूरी उ० १ सू० ३१-४० विरुद्ध राज्यगमननिषेधः २९ पूर्वसूत्रे ऋतुबद्धकाले निर्ग्रन्थानां विहरणं कल्पते इति प्रोक्तम्, साम्प्रतम् ऋतुबद्धकाले विहृत्य निर्ग्रन्था ग्रामनगरादौ मासकल्पविधिना तिष्ठन्ति, यत्र निर्मन्थास्तिष्ठन्ति तेन स्थानेनाऽपायवर्जितेन भवितव्यम्, स चापायो वैराज्यविरुद्धराज्यादिरूपो भवतीति तादृशे स्थाने निर्ग्रन्थे - र्गमनागमनं न कर्त्तव्यमिति तद्विधिं प्रदर्शयति- 'नो कप्पइ० वेरज्ज०' इत्यादि । सूत्रम्--नो कप्पइ निमथाण वा निग्गंथीण वा वेरज्जविरुद्धरज्जसि सज्जं गमणं सज्जं आगमणं सज्जं गमणागमणं करित्तए । जो खलु निग्गंथो वा निग्गंथी वा 'वेरज्जविरुद्ध रज्जंसि सज्जं गमणं सज्जं आगमगं सज्जं गमणागमणं करेइ करेंतं वा साइज से दुहओ वीकममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयं ॥ छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा वैराज्यविरुद्ध राज्ये सद्यो गमनं • आगमनं सद्यो गमनागमनं कर्त्तुम् । यः खलु निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा वैराज्यविरुद्धराज्ये सद्यो गमनं सद्य आगमनं सद्यो गमनागमनं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते स द्विधातोऽपि व्यतिक्रामन् आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् ||३८|| चूर्णी - 'नो कप्पड़' इति । नो कल्पते न युज्यते निर्मन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा ऋतुबद्धकाले विहरतां वैराज्यविरुद्धराज्ये, वि- विरुद्धं राज्यं विराज्यं तदेव वैराज्यं वर्त्तमानकालिकवैरयुक्तं राज्यम्, अथवा विगतराजकं यत्र राजा मृतो भवेत् तद् वैराज्यम्, तथाविरुद्ध'राज्यं यत्र द्वयोः राज्ञोः स्वस्वराज्ये परस्परम् एकराज्यजनानामन्यराज्ये गमनागमनं विरुद्धं निषिद्धं भवेत्तद् विरुद्धराज्यम्, वैराज्यं च विरुद्धराज्यं चेति समाहारे वैराज्यविरुद्धराज्यम् तस्मिन् तादृशे देशे प्रदेशे वा सद्यः - तत्कालम् विरोधकाल एव गमनम् यत्र स्थितस्तत्रतो निस्सरणम्, तत्, आगमनम् - अन्यप्रदेशात् सद्यः - विरोधसमकाले तत्र प्रवेशः, तत्, तथा सद्यःविरोधसमकाल एव गमनागमनं वारं वारं निस्सरणं प्रवेशं वा कर्त्तुं न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । यदि यः खलु साधुः पूर्वोक्ते वैराज्यविरुद्ध राज्ये गमनमागमनं गमनागमनं च करोति स्वयं, कारयति वाऽन्यं, तथा कुर्वन्तं वाऽन्यं स्वदते - अनुमोदते तदा स तत्र गमनस्यागमनस्य गमनागमनस्य च कर्त्ता कारयिता अनुमोदिता च द्विधातोऽपि - उभयतोऽपि द्वयानामपि तीर्थकृतां राज्ञां च सम्बन्धिनीम् आज्ञां व्यतिक्रामन् उल्लङ्घयन् तीर्थकरराजाज्ञाया विराधनां कुर्वन् आपद्यते प्राप्नोति चातुर्मासिकं चतुर्माससम्बन्धि परिहारस्थानम् अनुद्वातिकं चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम् । यस्मात्कारणात् वैराज्यविरुद्धराज्ये गमनागमन करणे साधुः प्रायश्चित्तभागी भवति तस्मात् कारणात् वैराज्यविरुद्धराज्ये न स्वयं गमनागमनं कुर्यात् न कारयेत् न वा कुर्वन्तमन्यमनुमोदेत, तत्र प्रवचनोड्डाह संयमात्मविराधनाद्यनेक दोषापत्तिसद्भावादिति ॥ सू० ३८॥ पूर्वसूत्रे वैराज्यविरुद्ध राज्ये साधूनां गमनागमननिषेधः प्रतिपादितः, साम्प्रतं वैराज्य विरुराज्ये कदाचिद् गतो भवेत्तत्र लुण्टकैर्वस्त्राणि लुण्ठितानि भवेयुस्ततोऽन्यग्रामादौ साधुर्गच्छेत् Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पसूत्र तत्राऽशनाद्यर्थ गृहस्थगृहे प्रविशन्तं तमल्पवस्त्र दृष्ट्वा कश्चित् श्रावकस्तं मुनिं वस्त्रादिग्रहणार्थमुपनिमन्त्रयति तदा साधुना किं कर्त्तव्यमिति तद्विधिं प्रदर्शयति-निग्गंथं च णं' इत्यादि । सूत्रम्--निगं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविलु केई वत्येण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेज्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय आयरियपायमूले ठवित्ता दोच्चपि उग्गहं अणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए ॥ सू० ३९॥ छाया-निर्ग्रन्थं च खलु गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रतिक्षया अनुप्रविष्टं कश्चित् वस्त्रेण वा प्रतिग्रहेण वा कम्बलेन वा पादप्रोञ्छनेन वा उपनिमन्त्रयेत् कल्पते सागारकृतं गृहीत्वा आचार्यपादमूले स्थापयित्वा द्वितीयमपि अवग्रहम् अनुज्ञाप्य परिहार परिहर्तुम् ॥ सू० ३९॥ चूर्णी-'निगंथं च णं' इति । निग्रन्थं च खलु वैराज्यविरुद्धराज्यविहारादागतमल्पवस्त्रादिकं साधुम्, कीदृशम् ? पिण्डपातप्रतिज्ञया, तत्र पिण्ड:-ओदनादिस्तस्य पातः पात्रे पतनं ग्रहणं पिण्डपातस्तस्य प्रतिज्ञया-अशनादिग्रहणेच्छया गाथापतिकुलं-गृहस्थगृहम् अनुप्रविष्टम्अनु-अन्ययाचकजननिस्सरणानन्तरं प्रविष्टम् अनुप्रविष्टम् , अनेन गृहस्थगृहे दानार्थमपावृतद्वारं भवेदिति सूचितम्, गृहस्थगृहे गतं साधु कश्चित् श्रावकस्तमल्पवस्त्रादिकं दृष्ट्वा वस्त्रेण वस्त्रमुद्दिश्य, प्रतिग्रहेण-पात्रेण पात्रमुद्दिश्य कम्बलेन-ऊर्णामयवस्त्रेण ऊर्णामयवस्त्रमुद्दिश्य, पादप्रोञ्छनेन रजोहरणेन, अथवा 'पात्रप्रोञ्छनेन' इति च्छाया, तत्र पात्राणां प्रोञ्छनकवस्त्रम् तेन, अथवा पात्रशब्देन पात्रबन्धः पात्रकेसरिकादिकः, प्रोञ्छनशब्देन रजोहरणं गृह्यते ततः पात्रं च प्रोञ्छनं चेति समाहारद्वन्दे पात्रप्रोञ्छनं तेन वा, तदुद्दिश्य उपनिमन्त्रयेत् वस्त्रादिग्रहणार्थ प्रार्थयेत, तदा 'से तस्य उपनिमन्त्रितस्य मुनेः कल्पते तद् वस्त्रादिकं ग्रहीतुम्, केन विधिना कल्पते ? इत्याह-तद् वस्त्रादिकं सागारकृतम्-सागारसम्बन्धिकम्, अगारेण सहितः सागारः-गृहस्थः तत्सम्बन्धिकम्, इदं वस्त्रादिकं गृहस्थसत्कमेव, त्वत्सस्कमेव न ममेति कथनपूर्वकम् । अथवा साकारकृतमिति आकारेण सहितम, यथा-संप्रति तवेदं वत्रादिकं गृह्णामि तत् प्रातिहारिकरूपेण गृह्णामि, यद्याचार्या ग्रहीष्यन्ति तदा तेभ्यो दास्यामि, अन्यथा प्रत्यावर्तयिष्यामि, एवंरूपाकारपूर्वकम्, अथवा आचार्यसत्कमिदं वस्त्रं, न मम, ते यस्मै कस्मैचित् मह्यं वा दास्यन्ति, ते वा स्वयमस्योपभोगं करिष्यन्ति यत्तत्सम्बन्धिकमेवेदं वस्त्रादिकं भविष्यति नान्यस्य, यदि ते नादरिष्यन्ति तदैतद्वस्त्रादिकं सागारकृतमेवेति तुभ्यमेवानीय परावर्तयिष्यामि, इत्येवं सविकल्पककथनपूर्वकं 'गहाय' गृहीत्वा आचार्यपादमूले-आचार्यचरणसमीपे स्थापयित्वा, यदि ते तस्मै एव ददाति तदा द्वितीयमपि वारम्-अवग्रहम्, प्रथमत एकोऽवग्रहः गृहस्थसम्बन्धी यो गृहस्थाद् गृहीतः, द्वितीय आचार्यसम्बन्धी, इत्येवं द्वितीयं वारम् अवग्रहम् वस्त्रादिग्रहणाज्ञाम् अनुज्ञाप्य-गृहीत्वा परिहारं, Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाच्यावधूरी उ० १ सू० ४१-४३ वस्त्रादिग्रहणविधिः ३१ परिहियते यत्तत् परिहारम्-उपभोगयोग्यं वस्त्रादिकं परिहत्तुं धत्तुमुपभोक्तुं वा कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः ॥ सू० ३९॥ पूर्वसूत्रे भिक्षार्थगतस्य साधोर्गृहस्थोपनिमन्त्रितवस्त्रादिग्रहणविधिः प्रतिपादितः, साम्प्रतं विचारविहारभूमिगतस्य वस्त्रादिग्रहणविधिमाह-'निग्गंथं च णं' इत्यादि, सूत्रम्--निग्गथं च णं बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खंतं समाणं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उबनिमंतेज्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय आयरियपायमूले ठवित्ता दोच्चंपि उग्गहं अणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए ॥ सू० ४०॥ छाया-निग्रन्थं च खलु बहिर्विचारभूमि वा, विहारभूमि वा निष्क्रान्तं सन्तं कोऽपि वस्त्रेण वा प्रतिग्रहेण वा कम्बलेन वा, पादप्रोञ्छनेन वा उपनिमन्त्रयेत्, कल्पते तस्य सागारकृतं गृहीत्वा आचार्यपादमूले स्थापयित्वा द्वितीयमपि अवग्रहं अनुशाप्य परिहर्नम् ॥४॥ चूर्णी-'निग्गंथं च णं' इति । निम्रन्थं च खलु, 'बहिया' बहिः उपाश्रयाबहिःप्रदेशे विचारभूमि-विचारः-संज्ञा तस्य भूमिः विचारभूमिस्तां विचारभूमिं स्थण्डिलभूमिमित्यर्थः, वाअथवा विहारभूमि -विहारभूमिरिति स्वाध्यायभूमिः मुनिर्यत्र शास्त्रस्वाध्यायार्थमुपाश्रयाबहिर्गत्वा एकान्तभूमौ आत्मद्वितीयः आत्मतृतीयः सन् तत्र स्थित्वा सूत्रमथं तदुभयं च चिन्तयति सा विहारभूमिः समयभाषया कथ्यते, ततस्तां विचारभूमि विहारभूमि वा तत्र गमनार्थमित्यर्थः निष्क्रान्तं गतं सन्तं कोऽपि गृहस्थः वस्त्रादिग्रहणार्थमुपनिमन्त्रयेत् यथा-'आगच्छतु भगवन् ! मम गृहे भवत्कल्प्यं वस्त्रादि गृह्णातु' इत्येवं प्रार्थयेत् तदा, इत्यादि यथा पूर्व भिक्षाचर्यागतस्य यो वस्त्रादिग्रहणविधिरुक्तः स एवात्रा बोध्यः ॥ सू० ४०॥ पूर्व निर्ग्रन्थविषयकं भिक्षाचर्यार्थ गतस्य, तथा विचारभूमि विहारभूमिं गतस्य च वस्त्रादिग्रहणविधिप्रतिपादकं सूत्रद्वयं प्रतिपादितम्, साम्प्रतं एष एव विधिनिग्रन्थीमुद्दिश्य सूत्रद्वयेन प्रतिपाद्यते-'निग्गंथिं च णं' इत्यादि । सूत्रम् --निग्गंथिं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविलु केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेज्जा कप्पइ से सागारकडं गहाय पवत्तिणीपायमूले ठवित्ता दोच्चंपि उग्गहं अणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए॥ निग्गंथिं च णं वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खंत समाण केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेजा, कप्पइ से सागारकडं गहाय पवत्तिणीपायमूले ठवित्ता दोच्चपि उग्गहं अणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए ॥ सू० ४२॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्कल्प छाया-निर्ग्रन्थी च खलु गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रतिक्षया अनुप्रविष्टां कोऽपि वस्त्रेण वा कम्बलेन वा पादप्रोञ्छनेन वा उपनिमन्त्रयेत्, कल्पते तस्याः सागारकृतं (साकारकृतं वा) गृहीत्वा प्रवर्तिनीपादमूले स्थापित्त्वा द्वितीयमपि अवग्रहम् अनुशाप्य परिहारं परिहर्तुम् ॥ सू० ४१॥ निर्ग्रन्थीं च खलु विचारभूमि वा विहारभूमि वा निष्कान्ती सती कोऽपि वस्त्रेण वा प्रतिग्रहेण वा कम्बलेन वा पादप्रोञ्छनेन वा उपनिमन्त्रयेत् कल्पते तस्या सागारकृतं (साकारकृतं वा) गृहीत्वा प्रवर्तिनीपादमूले स्थापयित्वा द्वितीयमपि अवग्रहम् अनुज्ञाप्य परिहारं परिहर्तुम् ॥ सू० ४२॥ ___ चूर्णी –'निग्गंथिं च णं गाहापइकुलं' इत्यादि, तथा 'निग्गंथिं च णं वियारभूमि वा' इत्यादि च सूत्रद्वयमपि निग्रन्थसूत्रावदेव व्याख्येयम्, नवरं विशेषस्त्वयम्-यत् निम्रन्थसूत्रद्वये. 'आयरियपायमूले ठवित्ता, आचार्यपादमूले स्थापयित्वा' इत्युक्तम् , अत्र निम्रन्थीसूत्रद्वये च पवत्तणीपायमूले ठवित्ता' 'प्रवत्तिनीपादमूले स्थापयित्वा' इति व्याख्येयम् तत्र । प्रवर्तिनीतिप्रवर्त्तयति-प्रेरयति स्वनिश्रागतसाध्वीः श्रुतचारित्रधर्मे या सा प्रवत्तिनी-दीक्षादात्री, पर्यायज्येष्ठा वा निर्ग्रन्थीति । शेषं सर्व निम्रन्थसूत्रवदेव व्याख्येयमिति ॥ सू० ४२॥ अत्राह भाष्यकार—'सच्छंद' इत्यादि । भाष्यम्--सच्छंदं नो गिण्हे, नो परिभुजे य वत्थपत्ताई जं आयरियपदत्तं, तं गिण्हे तं च परिमुंजे ॥९०२९॥ एवं निग्गंथीणं, पवत्तिणीदत्तवत्थपत्ताई । कप्पइ किंतु सयं तं, नो गिण्हे नेव परिभुजे ॥३०॥ छाया-स्वच्छन्दं नो गृहीयात्, नो परिभुञ्जीत च वस्त्रपात्रादि । यद् आचायप्रदत्तं, तद् गृह्णीयात् तच्च परिभुञ्जीत ॥२९॥ एवं निर्ग्रन्थीनां, प्रवत्तिनादत्तवस्त्रपात्रादि । कल्पते किन्तु स्वयं तद् नो गृह्णीयात् नैव परिभुञ्जीत । ३०॥ अवचूरी- 'सच्छंद' इति । निम्रन्थः वस्त्रपात्रादि गृहस्थगृहाद् गृहस्थहस्ताच्च स्वच्छंद स्वच्छन्दतया यथारुचि नो गृह्णीयात् , एवं गृहीतं च तद् नो नैव परिभुञ्जीत । किं कुर्यात् ! तत्राह-गृहीतं तद् वस्त्रादिकं साकारकृतमिति कृत्वा 'नेदं वस्त्रं मम, किन्तु आचार्यसत्कं प्रातिहारिकं वा अस्ति' इति कथनपूर्वकमादाय आचार्यसमीपे स्थापयेत्, तत्र यद् वस्त्रादिकमाचार्यप्रदत्तं भवेत्-आचार्याः, उपाध्यायाः, पर्यायज्येष्ठा वा स्वेच्छया यद् वस्त्रादिकं दयुस्तद् गृह्णीयात्, विनयवन्दनपूर्वकं द्वितीयमवग्रहमनुज्ञाप्य स्त्रीकुर्यात् तच्चेति तदेव वस्त्रादिकं परिभुञ्जीत स्वकार्ये व्यापारयेदिति निग्रन्थकल्पः ॥ २९ ॥ ___'एवं' इति । एवम् अनेनैव प्रकारेण निर्ग्रन्थीनां साध्वीनां प्रवत्तिनीप्रदत्तवस्त्रपात्रादि ब्रहीतुं परिभोक्तुं च कल्पते, किन्तु तद् वस्त्रपात्रादिकं स्वयं स्वेच्छया गृहस्थाद् नो गृह्णीयात् न स्वीकुर्यात Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M ~ दुर्णिमायावचूरी उ० १ सू० ४३-४६ आहारादिग्रहणविधिः ३३ नैव च परिभुञ्जीत न स्वकार्ये व्यापारयेत्, किन्तु निम्रन्थवदेव गृहस्थेन दीयमानं वस्त्रादिकं साकारकृतमिति कृत्वा 'नेदं मम वस्त्रादि, किन्तु प्रवर्तिनीसत्कं प्रातिहारिकं वाऽस्ती'-तिकृत्वा प्रवर्तिनीसमीपे स्थापयित्वाऽवग्रहानुज्ञापूर्वकं तत्प्रदत्तं वस्त्रादिकं विनयेन स्वीकुर्यात्, तदेव च परिभुञ्जीतेति निम्रन्थीकल्पः ॥ ३० ॥ पूर्व निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वस्त्रपात्रादिग्रहणविधिः प्रतिपादितः, साम्प्रतं वस्त्रादिग्रहणानन्तरमाहाराधिकार इति रात्रौ विकाले वाऽऽडारग्रहणनिषेधं प्रदर्शयति-'नो कप्पइ० राओवा०' इत्यादि। सूत्रम्--नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा राओ वा वियाले वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्तए, नन्नत्थ एगेणं पुन्धपडिलेहिएणं सेज्जासंथारएणं ॥ सू०४३॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा रात्रौ वा विकाले वा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिग्रहीतुम्, नान्यत्र एकेन पूर्वप्रतिलेखितेन शय्यासं. स्तारकेण ॥ सू० ४३॥ ___ चूर्णी-'नो कप्पई' इति । निम्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा रात्रौ वा रात्रिमध्ये विकाले वा सन्ध्यासमये 'असणं वा' इति अशनादि चतुर्विधमाहारं प्रतिग्रहीतुम् आदातुं न कल्पते । अत्र विकाले चतुर्विधाहारनिषेधस्तर्हि किमन्यदप्युपधिजातं रात्रौ विकाले वा ग्रहीतुं न कल्पते ? अत्राह सूत्रकारः-'नन्नत्थ' इत्यादि, एकेन केवलेन 'सेज्जासंथारएणं' शय्यासंस्तारकेण, तत्र शय्या शरीरप्रमाणा, संस्तारकः सार्द्धतृतीयहस्तप्रमाणः, शय्या च संस्तारकश्चेति समाहारे शय्यासंस्तारकम्, तेन, कीदृशेन शय्यासंस्तारकेण ? तत्राह-पूर्वप्रतिलेखितेन-पूर्व दिवसे यत् प्रतिलेखितं भवेत् तेन विना अन्यत्र न, तत्त्यक्त्वा अन्यत् किमपि न कल्पते, दिवसे शय्यासंस्तारकस्य प्रतिलेखनां कृत्वाऽन्यत्र स्थाने वसतौ स्थानाभावे चौरादिशङ्कया वा गृहस्थनिश्रया तद्गृहे स्थापितं भवेतदा तद् रात्रौ विकाले वा शयनाथ प्रतिग्रहीतुं कल्पते नान्यदिति भावः ॥ सू० ४३ ॥ पूर्व रात्रौ विकाले वा अशनादिग्रहणनिषेधः प्रोक्तः, साम्प्रतं वस्त्रादिग्रहणनिषेधमाह'नो कप्पइ० वत्थं वा' इत्यादि । सूत्रम्--नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गथीण वा राओ वा वियाले वा वत्थं बा पडिग्गरं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिग्गाहित्तए, नन्नत्थ एगाए हरियाहडियाए, सावि य परिभुत्ता वा धोया वा रत्तावा घट्टा वा मट्ठा वा संपधृमिया वा ॥ सू०४४॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा गिर्ग्रन्थीनां वा रात्रौ वा विकाले वा वस्त्रं वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोञ्छनं वा प्रतिग्रहीतुम्, नान्यत्र एकया हृताहृतया, साऽपि च परिभुक्ता वा धौता वा रजिता वा धृष्टा वा मृष्टा वा संप्रधूमिता वा ॥ सू०४४॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृहत्कल्पसूत्र चूर्णी-'नो कप्पइ' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां रात्रौ विकाले वा वस्त्रं वा चोलपट्टशाटिकादिकम् , प्रतिग्रह-पात्रम्, कम्बलम्-ऊर्णामयं प्रावरणवस्त्रम्, पादप्रोञ्छनं-रजोहरणम्. अथवा पात्रप्रो छनम्-आहारादिपात्राणां प्रोञ्छनवस्त्रम्, एतत्सर्व वस्तुजातं प्रतिग्रहीतुं न कल्पते । तर्हि किं कल्पते ! इत्याह-एकया केवलया हृताहृतया-हृतं पूर्व चौरादिना चोरितं पश्चात् शुभपरिणामादिवशात् गृहस्थभयवशाद्वा. आता-आनीय पुनर्दत्ता, एतादृशी काऽपि वस्त्रजातिः, तया अन्यत्र-विना तां त्यक्त्वेत्यर्थः न कल्पते, सा तु कल्पते इति भावः । साऽपि च या मानीय दत्ता सा यदि परिभुक्ता हरणक; स्वपरिभोगे नीता शरीरे धृता भवेत्, धौता वा जलेन प्रक्षालिता वा भवेत्, रञ्जिता वा रक्तपीतादिरागेण रङ्गयुक्ता वा कृता भवेत्, घृष्टा वा चिक्कणप्रस्तरादिना चिक्कणीकृता वा, मृष्टा वा प्रक्षिता सुकोमलीकृता वा भवेत्, संप्रधूमिता, संप्रधूपिता वा भगुरुचन्दनादिसुगन्धद्रव्यधुमेन धूमयुक्ता कृता, सुगन्धद्रव्यधूपेन धूपिता वा भवेत् तथापि सा वस्त्रजातिनिर्ग्रन्थैनिग्रन्थीभिः रात्रौ विकाले वाऽपि सा दीयमाना ग्रहीतव्या, तस्याः स्वनिश्रागतत्वादिति ॥ सू० ४४॥ पूर्व रात्रौ विकाले वा वस्त्रग्रहणविधिरुक्तः, साम्प्रतमध्वगमनस्य संखडिगमनस्य च निषेधमाह-'नो कप्पइ० अद्धाण०' इत्यादि । सूत्रम्--'नो कप्पइ निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा राओ वा, वियाले वा, अद्धाणगमणं एत्तए ॥ सू०४५ ॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निगंथीण वा संखडि वा संखडिपडियाए अद्धाणगमणं एत्तए ॥ ०४६॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा रात्रौ वा विकाले वा अवगमनम् एतुम् ॥ सू० ४५॥ नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा संखडि वा संखडिप्रतिक्षया अध्वगमनम् एतुम् ॥ सू० ४६ ॥ चूर्णी—'नो कप्पइ' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थोनां च रात्रौ विकाले वा सन्ध्याकाले अध्वगमनं मार्गगमनम् एतुं कर्तुं नो कल्पते, रात्रौ विकाले वा गमनशीलस्य प्रथमम् चक्षुरगोचरतया ईर्यासमितिरेव विराधिता भवति, तस्यां विराधितायां संयमोऽपि विराधितो भवेत् तेन तीर्थकराज्ञाऽतिकान्ता भवतीति संयमविराधना भवति, एवमात्मविराधना तु प्रत्यक्षेव यथारात्रौ विकाले वा गमनशोलस्य साधोरन्धकारसद्भावाद् गर्तादौ पतनं भवेत्, पादयोः कण्टकवेधः स्यात्, चौरलुण्टाकादिना वस्त्राद्यपहरणं भवेत्, श्वापदादिहिंस्र जन्तुकृतस्त्रासः समुत्पयेत, स मारयेद्वा कुलटाजारादिकृतोपद्रवोऽपि संभवेत् तस्माद् निम्रन्थनिम्रन्थीभिः रात्री विकाले वाऽध्वगमनं न Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्यावचूरी उ० १ सू० ४७-४८ रात्रौ विकाले वा बहिर्गमनविधि : ३५ कर्त्तव्यम् ॥ सू० ४५ ॥ निम्रन्थनिर्ग्रन्थ्यो रात्रौ गमनं संखड्यामाहाराद्यर्थं वा कदाचित् कुर्वन्तीति तन्निषेधमप्याह-'नो कप्पइ' इत्यादि । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा संखडिं वा, संखण्ड्यन्ते त्रोट्यन्ते षटकायजीवानामायूंषि यत्र सा संखडिः अग्न्यारम्भे षट्कायानामुपमर्दनसद्भावात् , विवाहमरणादिनिमित्तं क्रियमाणं बहुजनभोज्यं संखडिरुच्यते, तामपि संखडिप्रतिज्ञया संखडिवाञ्छया तन्निमित्तम् अध्वगमनम्, एतुं कत्तुं न कल्पते ॥ ४६ ॥ पूर्वसूत्रे रात्रौ विकाले वा ऽध्वगमनस्य संखडिगमनस्य च निषेधः प्रतिपादितः, साम्प्रतं गमनप्रकरणाद् निर्ग्रन्थस्य एकाकिनः संज्ञादिभूमौ गमनविधिमाह-'नो कप्पइ०' इत्यादि । सूत्रम्--नो कप्पइ निग्गंथस्स एगाणियस्स राओ वा वियाले वा बहिया वियारभूमि वा, विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा । कप्पई से अप्पबिइयस्स वा अप्पतइयस्स व, राओ वा, वियाले वा बहिया वियारभूमि वा, विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥ सू० ४७॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थस्य एकाकिनः रात्रौ वा विकाले वा बहिविचारभूमि वा विहारभूमि वा निक्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा, कल्पते तस्य आत्मद्वितीयस्य वा आत्मदतीयस्य वा रात्रौ वा विकाले वा बहिर्विचारभूमि वा विहारभूमि वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा ॥ सू• ४७ ॥ चूर्णी-'नो कप्पई' इति । निर्ग्रन्थस्य साधोः एकाकिनः-अद्वितीयस्य रात्री वा विकाले वा बहिः उपाश्रयाद् बहिःप्रदेशे विचारभूमि वा-सञ्ज्ञाभूमि कायिक्यादिपरिष्ठापनभूमिम् , विहारभूमि वा स्वाध्यायभूमिम् उद्दिश्य निष्क्रमितु-निस्सतुं प्रवेष्टुं बहिर्भागतोऽन्तरागन्तुं गमनागमनं कर्तुमित्यर्थः नो कल्पते । तर्हि कथं कल्पते ! इत्याह-कल्पते 'से' तस्य निर्ग्रन्थस्य आत्मद्वितीयस्य आत्मा स्वयं द्वितीयो यस्य सः एकः अन्यः साधुः स्वयं द्वितीयो भवेत् स मात्मद्वितीयो भवेत् स आत्मद्वितीयः, तस्य वा, अथवा आत्मतृतीयस्य द्वौ अन्यौ श्रमणौ स्वयं च तृतीयो भवेत् स आत्मतृतीयः, तस्य एकेन श्रमणेन द्वाभ्यां वा श्रमणाभ्यां सहितस्य रात्रौ वा विकाले वा बहिः उपाश्रयाद् बहिःप्रदेशे विचारभूमि वा विहारभूमि वा निष्क्रमितुं प्रवेष्टुं गमनागमनं कर्तुं कल्पते । रात्रौ विकाले च एकाकिना श्रमणेन उपाश्रयावहिर्न गन्तव्यमिति भावः । रात्रौ एकाकित्वेन गमनशीलस्य साधोः संयमविराधना आत्मविराधना च भवति, तथाहि-संयमविराधना यथा-बहिर्गतम् एकाकिनं साधुं दृष्ट्वा रूपमुग्धा काचित् कुलटा स्त्री तदनिच्छयापि Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्करूपरचे तमुपसर्गयति, 'कोऽत्र मां पश्यती' ति कृत्वा एकाकिनो मनो वा भिद्यते, इत्यादिना संयमविराधना । रात्रौ बहिर्गतमेकाकिनं साधुं दृष्ट्वा तस्करास्तदुपधिमपहरेयुः, ग्रामारक्षका वा एकाकिनं रात्री दृष्ट्वा चौरोऽयमिति बुद्धया ग्रहणाकर्षणादिकं वा कुर्युः, श्वापदादिभिर्वा हन्येत, श्रामण्यसीदितः पलायनप्रतीक्षक एकाकित्वेन पलायेत, रात्रौ बहिः कायिकी प्रतिष्ठापयन् वायुप्रकोपेन मूर्छितः सन् भूमौ प्रपतेत् म्रियेत वा, इत्यादिप्रकारेण आत्मविराधना भवति तस्मात् नैकाकिना श्रमणेन रात्रौ बहिर्भूमौ गन्तव्यम् , अपितु एकेन द्वाभ्यां वा सह कायिक्याद्यर्थ रात्रौ बहिर्गन्तव्यं, तेन पूर्वोक्तपरिस्थितौ तस्य साहाय्यं भवेदिति भावः ॥ स० ४७ ॥ पूर्व निर्ग्रन्थस्य रात्रौ बहिर्गमनविधिः प्रतिपादितः, साम्प्रतं तमेव विधि निर्ग्रन्थ्यर्थ प्रतिपादयितुमाह-'नो कप्पइ० एगाणियाए' इत्यादि। सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए राओ वा वियाले वा बहिया बियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्ख मित्तर वा पविसित्तए वा । कप्पइ से अप्पविदयाए वा अप्पतइयाए वा अप्पचउत्थीए वा राओ वा वियाले वा बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥ सू० ४८ ॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थ्या एकाकिन्या रात्रौ वा विकाले घा बहि विचारभूमि वा विहारभूमि वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा कल्पते तस्या आत्मद्वितीयावा वा आत्मतृतीयाया वा आत्मचतुर्थ्या वा रात्रौ पा विकाले वा बहिर्विचारभूमि वा विहारभूमि वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा ॥९० ४८ ॥ चूर्णी-'नो कप्पई' इति । इदं सूत्रं निर्ग्रन्थसूत्रवदेव व्याख्येयम् , नवरं निर्ग्रन्थसूत्रे निम्रन्थस्य आत्मद्वितीयस्य आत्मतृतीयस्य रात्रौ बहिर्गमनं कल्पते इति प्रोक्तम् , अत्र तु निम्रन्थीसूत्रे आत्मचतुर्थ्या वा रात्रौ बहिर्गतुं कल्पते, इति प्रोक्तम् , एतावानेव विशेषः शेषं पूर्वसूत्रवदेवेति । निर्ग्रन्थ्या रात्रौ एकाकिन्या बहिर्गमनेऽनेके दोषाः संयमात्मविराधनादिकाः संभवेयुः, तथाहि-एकाकिनी बहिर्गतां दृष्ट्वा लम्पटः कोऽपि पुरुष उपसर्गयेत् , तत्प्रार्थनायां स्वमनी वा भिद्यते 'कोऽत्र मां पश्यती' ति कृत्वा तमनुमोदते, इत्यादिरूपेण संयमविराधना । आत्मविराधना प्रायः पूर्वोक्तैव रात्रौ गर्तादौ प्रपतेत् , मूर्छिता वा भवेत् , इत्यादिकाऽऽत्मविराधना भवति, अतो निर्ग्रन्थ्या एकया द्वाभ्यां तिसृभिश्च सहितया रात्रौ बहिर्गन्तव्यम्, किन्तु नैकाकिन्या रात्रौ बहिर्गन्तव्यम् , एकाकिन्या रात्रौ बहिर्गमने आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वादयोऽनेके दोषाः समापधेरन्निति ॥ सू०४८॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्यायचूरो उ० १ सू० ४२ आर्यदेशविहरणविधिः ३७ पूर्व निम्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च रात्रौ बहिर्गमनविधिः प्रत्येकं पृथक्पृथक्त्वेन प्रतिपादितः, साम्प्रतं गमनप्रसङ्गात् निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां समुच्चयेनाऽऽर्यदेशान् प्रदर्शयन् विहरणविधिमाह'कप्पइ० पुरत्थिमेणं' इत्यादि । सूत्रम्--कप्पइ निगंथाण वा निग्गंथीण वा पुरथिमेणं जाव अंगमगहाओ एत्तए, दक्खिणेणं जाव कोसंबीओ, पच्चत्थिमेणं जाव थूणाविसयाओ, उत्तरेणं जाव कुणालाविसयाओ एत्तए, एतावताव कप्पइ, एतावताव आरिए खेत्ते, णो से कप्पइ एत्तो बाहिं । तेण परं जत्थ नाणदसणचरित्ताई उस्सप्पंति-त्ति बेमि ॥ मू० ४९॥ छाया - कल्पते निम्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा पौरस्त्ये यावत् अङ्गमगधान् एतुम् , दक्षिणे यावत् कौशाम्बीः, पाश्चात्ये यावत् स्थूणाविषयान्, उत्तरे यावत् कुणालाविषयान् एतुम्, एतावत्तावत् कल्पते, एतावत्तावद् आर्य क्षेत्रम् । नो तेषां (तासां वा) कल्पते एतस्माद् बहिः। ततः परं यत्र ज्ञानदर्शनवारित्राणि उत्सर्पन्ति-इति ब्रवीमि ॥ सू० ४९ ॥ चूर्णी-कप्पइ' इति । निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा द्वयानां 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्ये पूर्वदिशायां यावत् अङ्गमगधान् अङ्गजनपद-मगधजनपदं चावधीकृत्य अङ्गमगधदेशपर्यन्तमित्यर्थः । एतु विहाँ कल्पते । तत्र चम्पाप्रान्तसम्बद्धो जनपदः अङ्गपदेन प्रोच्यते, राजगृहसम्बद्धश्च जनपदो मगधशब्देन प्रोच्यते । अत्र सूत्रे बहुवचनं तद्गतानेकापान्तरालजनपदविवक्षया बोध्यम्, एवमग्रेऽपि । 'दक्खिणेणं' दक्षिणस्यां दिशि यावत् कौशाम्बीः, कौशाम्बीति कौशाम्बीनगर्युपलक्षितो जनपदः कौशाम्बीशब्देन प्रोच्यते इति कौशाम्बीसम्बद्धदेशपर्यन्तम् एतुं कल्पते, इति सर्वत्र संबध्यते । 'पच्चत्थिमेणं' पाश्चात्ये पश्चिमदिशायां यावत् स्थूणाविषयान् स्थूणादेशपर्यन्तम् एतुं कल्पते । 'उत्तरेणं' उत्तरस्यां दिशि यावत् कुणालाविषयान् कुणालादेशपर्यन्तम् एतुं कल्पते । एतावत्तावत् चतुर्दिक्षु पूर्वोक्तजनपदपर्यन्तमेव निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां विहत्त कल्पते । तत्र कारणमाह-'एतावताव' एतावत्प्रमाणमेव आर्यक्षेत्रम्, अत्र तीर्थकरादिमहापुरुषजन्मभूमित्वेन लोका धर्मिष्ठा: सन्ति तेन निर्ग्रन्थनिम्रन्थीनां ज्ञानदर्शनचारित्राणामाराधना सम्यक् कर्तुं शक्यतेऽत एतावत्येव आर्यक्षेत्रे निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीभिर्विहर्तव्यमिति भगवता समुपदिष्टम् । आर्यक्षेत्राहिर्विहरणे निषेधमाह'नो से कप्पई' इति । 'से' इति तेषां निम्रन्थानां तासां निर्ग्रन्थीनां वा नो कल्पते एतस्मात् क्षेत्राद् बहिर्विहतम् । ज्ञानादिलाभार्थमपवादमाह-'तेण परं' इति, ततः पूर्वोक्तमर्यादितार्यक्षेत्रात् परम्अग्रे अनार्यदेशेऽपि यत्र ज्ञानदर्शनचारित्राणि उत्सर्पन्ति वृद्धिमासादयन्ति तत्र विहत्तु कल्पते, यदि पूर्वोक्तार्यक्षेत्राद्वहिः कारणवशात् श्रुतस्थविरास्तरक्षेत्रेऽपि तत्क्षेत्रगतजनानां सुलभबोधित्वप्राप्तिबुद्ध्या गता भवेयुः, ते च पश्चात् जवाबलक्षीणत्वेन तत्रैव स्थिरवासे स्थिता भवेयुस्तेषां पार्थे ज्ञान Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रे दर्शनचारित्रवृद्धि संभवः, इति बुद्धया यथावसरं तत्रापि श्रमणश्रमणीनां गन्तुं कल्पते, इत्यपवादपदसंक्षेपार्थः । सुधर्मा स्वामी उपसंहरति - 'त्ति बेमि' इति, यथा भगवन्मुखात् श्रुतं तथैव ब्रवीमि - कथयामि न तु स्वबुद्धयेति ॥ सू० ४९ ॥ 1 इति श्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्ध गद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्री शाहू छत्रपति कोल्हापुरराज प्रदत्त" जैनाचार्य " - पद भूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म - दिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालव्रतिविरचितायां "बृहत्कल्पसूत्रस्य" चूर्णि - भाष्या - डवचूरीरूपायां व्याख्यायां प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥ १ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अथ द्वितीयोदेशकः । अथास्य द्वितीयोदेशकादिसूत्रस्य प्रथमोदेशकस्यान्तिमसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ? इत्यत्राह - भाष्यकारः - 'पुव्वं ' इत्यादि । भाष्यम् – पुव्वं आरियविसया, बुत्ता साहूण गमणपाउरगा । तत्थ निवासविही इह, दरिसिज्जइ एस संबंधो ॥१॥ छाया - पूर्वम् आर्यविषयाः, प्रोक्ताः साधूनां गमनप्रायोग्याः । तत्र निवासविधिरिह, दर्श्यते एष सम्बन्धः ॥ १ ॥ अवचूरी - 'पुलं' इति । पूर्वम्-- प्रथमोदेशकस्यान्तिमसूत्रे आर्यविषयाः आर्यदेशाः साधूनां गमनप्रायोग्याः विहरणयोग्याः प्रोक्ताः, तत्र आर्यदेशेषु विहरतां मुनीनां कीदृशे उपाश्रये वस्तव्यम् ? इति उपाश्रयनिवासविधिः इह - अस्य द्वितीयोदेशकस्य प्रथमे सूत्रे दर्श्यते । एष पूर्वी - देशकान्तिसूत्रेण सह अस्यादिसूत्रस्य सम्बन्धो वर्त्तते ॥१॥ इत्यनेन सम्बन्धेनाया तेऽस्मिन् द्वितीयोदेशके निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीभिः कीदृशे उपाश्रये वस्तव्य - मिति प्रदर्शयितुकामः सूत्रकारोऽस्मिन् विषये त्रीणि सूत्राणि वक्ष्यति, तत्र प्रथमं सचित्तप्रतिबद्धोपाश्रयवासप्रतिषेधसूत्रम् १, द्वितीयम् - ऋतुबद्धकालयोग्योपाश्रयवास विधिप्रतिपादकं सूत्रम् २, तृतीयं चातुर्मासयोग्योपाश्रयविधिप्रतिपादकं सूत्रम् ३ चेति त्रीणि सूत्राणि, तत्र प्रथमं सचित्तबीजप्रतिबद्धोपाश्रयनिवासनिषेधसूत्रमाह - 'उवस्सयस्स' इत्यादि । सूत्रम् - उवस्सयस्स अंतो वगडाए सालीणि वा वीहीणि वा मुग्गाणि वा मासाणि वा तिलाणि वा कुलत्थाणि वा गोमाणि वा जवाणि वा जवजवाणि वा उक्खिताणि वा विक्खित्ताणि वा विइकिण्णाणि वा विष्प किष्णाणि वा नो कप्पइ निम्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए | सू० १ ॥ छाया— उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां शालयो वा व्रीहयो वा मुद्रा वा भाषा वा तिला वा कुलत्था वा गोधूमा वा यवां वा, यवयवा वा उत्क्षिप्ता वा विक्षिप्ता वा व्यतिकीर्णा ar fast at a कल्पते निर्मन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथालन्दमपि वस्तुम् ॥ सू०१ ॥ चूर्णी - ' उवस्सयस्स' इति । पूर्वोक्तेषु आर्यक्षेत्रेषु विहरतां श्रमणानां ऋतुबद्धकाले चातुर्मासे वा यत्र उपाश्रये स्थितिः कर्त्तव्या भवेत् तस्य उपाश्रयस्य वगडायां 'वगडा' इति देशी शब्दः प्राङ्गणवाचकस्तेन वगडायामिति उपाश्रयस्य प्राङ्गणे शालयः शालिबीजानि, व्रीहयः ता एव शालिविशेषाः, मुद्गाः प्रसिद्धाः, माषाः 'उडद' इति प्रसिद्धाः, तिलाः, कुलत्थाः 'कुलथी' इति प्रसिद्धो धान्यविशेषस्तस्या बीजानि, गोधूमाः, यवाः, यवयवाः 'ज्वारी' इति प्रसिद्धाः, यवजातीयबीजानि वा, एतानि धान्यबीजानि यदि उपाश्रयप्राङ्गणे उत्क्षिप्तानि सामान्येन प्रसृतानि, विक्षिप्तानि Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रे विशेषेण प्रसृतानि, व्यतिकीर्णानि सर्वत्र प्रसृतानि वा भवेयुस्तादृशे उपाश्रये निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथालन्दमपि - क्षणमात्रमपि यथालन्दशब्दो देशीयोऽत्र क्षणमात्रवाचकः, यावता कालेन जलार्द्रा हस्तरेखा शुष्यति तावत्कालमपि तत्र वस्तु नो कल्पते । तत्र वासे अप्रमत्तानामपि अकस्मात् सचित्तबीज संघट्टनस्यावश्यम्भावात् ॥ सू० १ ॥ अथ तत्रापि ऋतुबद्धकालयोग्योपाश्रयविधिप्रतिपादकं द्वितीय सूत्रमाह- 'अह पुण' इत्यादि । ४० सूत्रम् -- अह पुण एवं जाणिज्जा - ( उवस्सयस्स अंतो वगडाए सालीणि रा० ) नो उक्खित्ताई नो विक्खित्ताई नो विइकिण्णाई नो विष्पकिण्णाई ( किन्तु ) रासिकto वा पुंजकाणिवा भित्तिकडाणि वा कुलियाकडाणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हेमंतगिम्हासु वत्थए | सू०२ || छाया - अथ पुनरेवं जानीयात् - ( उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां शालयो वा० ) नो उत्क्षिप्ताः, नो विक्षिप्ताः, नो व्यतिकीर्णाः, नो विप्रकीर्णाः, (किन्तु) राशीकृता वा, पुञ्जीकृता वा, भित्तिकृता वा, कुलिकाकृता वा, लाञ्छिता वा, मुद्रिता वा, पिहिता वा, कल्पते निर्मन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा हेमन्तग्रीष्मेषु वस्तुम् || सू० २ ॥ चूर्णी -- 'अह पुण' इति । तत्रार्यदेशे वस्तुमिच्छन्तो मुनयः अथ पुनरिति पूर्वसूत्रोकशाल्यादि बीजोत्पादि विपरीतमुपाश्रयं जानीयात्, अत्र पूर्वसूत्रोक्त पाठस्यानुवृतिः कर्त्तव्या, यथा उपाश्रयस्य वगडायां शालिबीजादीनि नो नैव उत्क्षिप्तानि विक्षिप्तानि व्यतिकीर्णानि किन्तु तानि तत्र वक्ष्यमाणप्रकारेण स्थितानि भवेयुः, यथा राशीकृतानि एकत्र राशिं कृत्वा स्थापितानि, पुञ्जीकृतानि - दीर्घगोलाकारराशिं कृत्वा स्थापितानि, भित्ति कृतानि - भित्तौ कृतानिइष्टका - दिरचितभित्तिनिश्रया स्थापितानि कुलिकाकृतानि मृत्पिण्डनिर्मितं कुड्याकारं स्थानं कुलिकोच्यते तत्रालीनानि कृत्वा स्थापितानि, लाञ्छितानि भस्मादिना चिन्हितानि मुद्रितानि छगणमृत्तिका - दिना अङ्कितानि आवृतानि, पिहितानि किलिञ्जकटादिना स्थाल्यादिना वा एवमेव स्थगयित्वा स्थापितानि भवेयुरत्रोपाश्रये तदा तत्र निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां हेमन्तग्रीष्मेषु ऋतुबद्धेषु अष्ट मासेषु मध्ये स्वस्वकल्यकाले वस्तुं कल्पते । एतादृशप्रकारेण स्थितेषु शाल्यादिबीजेषु तत्र वसतां मुनीनां सचित्तसंघट्टनादिप्रसङ्गाभावात् । तत्रापि चातुर्मासकाले न कल्पते, चातुर्मासे बीजानां गृहस्थकृतनिस्सारणपुनःस्थापनयोर्भूयो भूयः प्रसङ्गेन सचित्तसंघट्टनादेरवश्यम्भावात् ॥ सू० २ ॥ अथ तत्रापि चातुर्मासयोग्योपाश्रयविधिप्रतिपादकं तृतीयं सूत्रमाह - ' अह पुण' इत्यादि । सूत्रम् - अह पुण एवं जाणिज्जा ( उवस्सयस्स अंतो वगडाए सालीणि वा० ) नो रासिकडाई, नोपुंजकडाई, नो भित्तिकडाई, नो कुलियाकडाई, (किन्तु ) कोडाउत्ताणि वा, पल्लाउत्ताणि वा, मंचाउत्ताणि वा, मालाउत्ताणि वा ओलिताणि वा लित्ताणि वा, पिहि - Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णिभाष्यावचूरी उ २ सू० ३-५ सचित्तप्रतिबद्धोपाश्रयनिवासविधिः ४१ याणि वा लंछियाणि वा, मुद्दियाणि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वासाबास वत्थए ॥ सू०३॥ छाया-अथ पुनरेवं जानीयात् (उपाश्रयस्यान्तर्वगडायां शालयो वा०)नो राशीकतानि वा नो पुजीकृतानि नो भित्तिकृतानि नो कुलिकाकृतानि (किन्तु)कोष्ठागुप्तानि वा पल्यागुप्तानि वा, मञ्चागुप्तानि वा, मालागुप्तानि वा, अवलिप्तानि वा, लिप्तानि वा, पिहितानि वा, लाञ्छितानि वा, मुद्रितानि वा, कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा वर्षावास वस्तुम् ॥ सू० ३॥ चूर्णी-'अह पुण' इति । चातुर्मासवस्तुकामो मुनिः अथ-पूर्वोक्तप्रकारादन्यथाप्रकारेण पुनरेवं जानीयात् , यथा-प्रथमसूत्रानुवृत्त्या उपाश्रयस्यान्तर्वगडायां शालिबीजानि वा, इत्यादिपूर्वोतानि बीजानि पूर्ववत् नो राशीकृतानि नो पुजीकृतानि नो भित्तिकृतानि नो कुलिकाकृतानि, एतानि पदानि पूर्ववद् व्याख्येयानि, किन्तु तानि शाल्यादिबीजानि कोष्ठागुप्तानि-कोष्ठेषु-कुशूलेषु-'कोठी' इतिप्रसिद्धेषु प्रक्षिप्य आ-समन्ताद् गुप्तानि गोपितानि गुप्तीकृतानि अचक्षुर्विषयीकृतानि, पल्यागुप्तानि वा-पल्येषु काष्ठगोमयमृत्तिकालिप्तवंशदलादिनिर्मितधान्याधारपात्रविशेषेषु 'पल्ला'इति प्राचीनसमयप्रसिद्धेषु आगुप्तानि समन्ततो गुप्तीकृतानि, मश्चागुप्तानि वा-मञ्चेषु स्तम्भोपरि मृतिकागोमयलिप्तवंशदलादिना निर्मितेषु गोलाकारेषु उपर्याच्छादनसहितेषु धान्याधारविशेषेषु प्रक्षिप्य गुप्तीकृतानि, मालागुप्तानि वा-मालेषु गृहस्योपरि द्वितीयभूमितलगतेषु स्थानेषु प्रक्षिप्य गुप्तीकृतानि भवेयुः, तान्यपि अवलिप्तानि तवारदेशं काष्ठपट्टादिना पिधाय गोमयमृत्तिकादिना कृतोपलेपानि, लिप्तानि विशेषेण सर्वान्तः खरण्टितानि, पिहितानि तन्मुखाकारसमीचीनाच्छादकेन सम्यक्तया गुप्तीकृतानि, लाञ्छितानि-रेखाऽक्षरादिकरणेन चिह्नितानि, मुद्रितानि-मृत्तिकादिना तद्गतच्छिद्राणि विलिप्य कृतमुद्रायुक्तानि भवेयुस्तस्मिन् , एवंविधे उपाश्रये निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा वर्षावासं चातुर्मासं वस्तुं कल्पते । एवंप्रकारेण स्थापितानि शालिबीजादीनि चातुर्मासे नोद्घाटयन्ते तेन तत्र वसतां श्रमणानां सचित्तबीजादिसंघटनाशङ्काया अभावादिति ॥ सू० ३ ॥ पूर्व सचित्तप्रतिबद्धोपाश्रयनिवासनिषेधः, ऋतुबद्धचातुर्मासयोग्योपाश्रयनिवासविधिश्च प्रदशितः, साम्प्रतं सुरावि कटकुम्भादिप्रतिबद्धोपाश्रयनिवासे सापवादं विधिं प्रदर्शयन्नाह 'उवस्सयस्स .....सुरावियडकुंभे' इत्यादि । सूत्रम्-उवस्सयस्स अंतो वगडाए मुरावियडकुंभे वा, सोवीरवियडकुंभे वा, उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए, हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० ४ ॥ छाया- उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां सुराविकटकुम्भो वा सौवीरविकटकुम्भो वा उपनिक्षिप्तः स्यात्, नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथालन्दमपि वस्तुम्, हुरत्था Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ च उपाश्रयं प्रतिलिखन् नो लमेत एवं तस्य कल्पते एकरात्रं वा द्विरा वा वस्तुम् , यस्तत्र एकरात्राद्वा द्विरात्राद् वा परंवसति तस्य स्वान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥सू. ४॥ चूर्णी-'उवस्सयस्स' इति । उपाश्रयस्यान्तर्वगडायां सुराविकटकुम्भो वा सुराविकटस्य पिष्टनिष्पन्नमद्यस्य कुम्भो घटो वा, सौवीरविकटस्य-पिष्टवर्जित गुडादिनिष्पन्नमद्यस्य कुम्भो घटो वा उपनिक्षिप्तः स्यात् स्थापितो भवेत् तदा तत्र निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथालन्दमपि-क्षणमात्रमपि आर्द्रहस्तरेखापरिशोषणकालमात्रमपि वस्तुं नो कल्पते । इत्युत्सर्गसूत्रम् । अथापवादमाह-'हुरत्था' इति देशी शब्दः बहिरर्थप्रतिपादकस्तेन बहिश्च तादृशोपाश्रयाद् बहिरन्यं च उपाश्रयं प्रतिलिखन शोधयन् यदि नो लभेत तत्र ग्रामनगरादौ निर्दोषोपाश्रयं न प्राप्नुयात् तदा एवम्-एतादृश्यां परिस्थिती सत्यां 'से' तस्य अत्र निर्ग्रन्थजातित्वेन एकवचनम्, कल्पते तथाविधेऽपि उपाश्रये एकरात्रं वा द्विरात्रं वा अत्र रात्रपदेन अहोरात्रं गृह्यते तेन एकाहोरात्रं वा द्वयहोरात्रं वा वस्तुम् । किन्तु 'जे' यः कोपि साधुः तत्र तादृशे उपाश्रये एकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा परम्-अधिकं त्रिचतूरात्रादिकं यावत् वसति 'से' तस्य 'संतरा' स्वान्तरात् स्वकृतं यद् अन्तरं भगवदुक्तैकद्विरात्रतो भेदः त्रिचतूरात्रादिकालावस्थानरूपः तस्मात्, भगवदाज्ञाभेदकरणात् भगवदाज्ञाऽनाराधनादित्यर्थः छेदो वा छेदः पञ्चरात्रिन्दिवादिः, परिहारो वा मासलघुकादिस्तपोविशेषो वा आपद्यते इति ।। सू०४ ॥ पूर्वसूत्रे सुराविकटादिप्रतिबद्धोपाश्रयवासस्य निषेधः, सापवादं विधिश्च प्रदर्शितः, साम्प्रतं पूर्ववदेव उदकविकटादिप्रतिबद्धोपाश्रयस्य निषेधं सापवादं विधिं च प्रदर्शयति–'उबस्सयस्स, इत्यादि । सूत्रम्--उवस्सयस्स अंतो वगडाए सीओदगवियडकुंभे वा उसिणोदगवियडकुंभे वा उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमपि वत्थए । हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेजा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू०५॥ छाया-उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां शीतोदकविकटकुम्भो वा उष्णोदकविकटकुम्भो वा उपनिक्षिप्तः स्यात् नो कल्पते निग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथालन्दमपि वस्तुम्, हुरत्था च उपाश्रयं प्रतिलिखन् नो लमेत एवं तस्य कल्पते एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुम्, यस्तत्र एकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा परं वसति तस्य स्वान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥सू०५॥ चूर्णी-उवस्सयस्स' इति । अस्य सूत्रस्य व्याख्या सुराविकट कुम्भसूत्रवदेव ज्ञातव्या, नवरं-विशेष एतावानेव यत् अत्र 'सीओदगवियडकुंभे वा उसिणोदगवियड कुंभे वा' इति वाच्यम् अत्रायमर्थः-शीतोदकविकृतकुम्भः शीतोदकं च तद् विकृतं च स्ववर्णादिना ध्वस्तं शीतोदकविकृतं विकृतशीतोदकं, तस्य कुम्भो घटः, एवम् उष्णोदकविकृतकुम्भः-उष्णोदकं च तद् विकृतं च उष्णोदकविकृतं विकृतोष्णोदकं तस्य कुम्भो घटो यत्रोपाश्रये उपनिक्षिप्तो भवेत् । शेषं सर्वं पूर्ववदिति ॥ सू०५॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुणिभाष्यावचूरी उ० २ ० ६-९ सचित्तप्रतिबद्धोपाश्रयनिवासविधिः ४३ साम्प्रतमग्निकायप्रतिबद्धोपाश्रयसूत्रमाह-‘उवस्सयस्स० सव्वराईए' इत्यादि । सूत्रम्-उवस्सयस्स अंतो वगडाए सव्वराईए जोई झियाएज्जा नो कप्पइ निगंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए, हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्ना एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू०६॥ ___छाया- उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां सार्वरात्रिकं ज्योतिः ध्मायेत् नो कल्पते, निम्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा यथालन्दमपि वस्तुम्, हुरत्था च उपाश्रयं प्रतिलिखन् नो लभेत एवं तस्य कल्पते एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुम्, यस्तत्र एकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा परं वसति तस्य स्वान्तरात् छेदो वा परिहारो वा । सू०६॥ चूर्णी-- 'उवस्सयस्स' इति । इदमपि सूत्रं सुराविकटकुम्भसूत्रवदेव व्याख्येयम्, विशेषस्त्वयम्-अत्र सव्वराईए जोई झियाएब्जा इति वाच्यम्, तस्यायमर्थः-सार्वरात्रिकं-परिपूर्णरात्रिव्यापक ज्योतिः अग्निकायः ध्मायेत् प्रज्वलेत् , शेषं पूर्ववत् । साधूनामत्र वासे यत्राग्निकायविराधना तत्र षट्कायविराधना स्यादतः षट्कायविराधनादोष आपद्येत । अन्योपाश्रयालाभे एकद्विरात्रं वस्तुं कल्पते इति कारणजातेऽपवादः ॥ सू०६॥ अथ प्रदीपप्रतिबद्धोपाश्रयसूत्रमाह-'उवस्सयस्स० पईवे' इत्यादि ॥ सूत्रम्--उवस्सयस्स अंतो वगडाए सव्वराईए पईवे पईवेज्जा नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए, हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा.परं वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू०७॥ छाया-उपाश्रयस्यान्तर्वगडायां सार्वरात्रिकः प्रदीपः प्रदीप्येत, नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा यथालन्दमपि वस्तुम्, हुरत्था च उपाश्रयं प्रतिलिखन् नो लमेत एवं तस्य कल्पते एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुम्, यस्तत्र एकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा परं वसति तस्य स्वान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥सू-७॥ चूर्णी-'उवस्सयसप' इति । इदं प्रदीपसूत्रमपि सुराविकटकुम्भसूत्रवदेव व्याख्येयम् , विशेषस्त्वयम्-'सव्वराईए' सार्वरात्रिकः परिपूर्णरात्रिव्यापकः संपूर्णरात्रिं यावत् प्रदीपः तैलप्रदोपो विद्युत्प्रदीपो वा दीयेत प्रज्वलेत् तदा तत्र यथालन्दमपि निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वस्तुं न कल्पते अन्योपाश्रयाभावे एकद्विरात्रं तत्र वस्तुं कल्पते, इत्यादि पूर्ववद् व्याख्या कर्तव्येति । अग्न्यारम्भे साधूनां वस्तुं न कल्पते तत्र पूर्ववदेव षट्कायविराधनादयो दोषाः संभवेयुः दीपेषु पततां पतङ्गादिप्राणिनां विराधनासंभवः, उपध्यादिषु तेषां पतनात् साधुशरीरेणापि विराधना स्यात् , इत्यादिदोषसंघातसंभवात् , अपवादे अन्योपाश्रयालामे एकद्विरात्रं कल्पतेऽपि, इति सूत्राशयः ।। सू०७ ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रे पूर्व सार्वरात्रिकप्रदीपप्रतिबद्धोपाश्रये निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीभिर्न स्थातव्यमिति प्रोक्तम् , साम्प्रतं पिण्डादिप्रतिबद्धोपाश्रयविषये त्रीणि सूत्राणि वक्ष्यति, तत्र प्रथमं पिण्डादिप्रतिबद्धोपाश्रयनिवासप्रतिषेधसूत्रम् १, द्वितीयं ऋतुबद्रकालयोग्योपाश्रयनिवासविधिप्रतिपादकं सूत्रम् २, तृतीयं चातुर्मासयोग्योपाश्रयनिवासविधिप्रतिपादकं सूत्रं ३ चेति, तत्र प्रथमं पिण्डादिप्रतिबद्धोपाश्रयनिवासनिषेधसूत्रमाह- 'उवस्सयस्स' इत्यादि । सूत्रम्--उवस्सयस्स अंतो वगडाए पिंडए वा लोयए वा खीरे वा दहिं वा णवणीए वा सपि वा तेल्ले वा फाणिए वा पूर्व वा सक्कुली वा सिहरिणी वा उक्खित्ताणि वा विक्खित्ताणि वा विइकिण्णाणि वा विप्पइण्णाणि वा नो कप्पई निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए ॥ सू०८॥ छाया-उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां पिण्डको वा लोचकं वा क्षीरं वा दधि पा नवनीतं वा सपिर्वा तैलं वा फाणितं वा अपूपो वा शष्कुली वा शिखरिणी वा उत्क्षिप्तानि वा विक्षिप्तानि वा व्यतिकीर्णानि वा विप्रकीर्णानि वा नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा यथालन्दमपि वस्तुम् ॥ सू० ८ ॥ चर्णी-'उवस्सयस्स' इति । उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां पिण्डको वा पिण्डस्तावत विशिष्टस्वादुरससंपादितः गोलाकारो मोदकादिपदार्थः, अथवा गुडधृतशर्करादिवस्तुना पिण्डितो हस्ते ग्रहणयोग्यः पदार्थः पिण्ड उच्यते, स पिण्डकः, लोचकं दुग्धादिविकृतिनिष्पन्नं भोज्यवस्तुजातम्, अथवा 'मावा' इति प्रसिद्ध खाद्यवस्तुजातं लोचकं कथ्यते, यस्य ग्रहणे हस्तौ खरण्टयेते तत् , क्षीरं वा दुग्धम् , दधि वा, नवनीतं म्रक्षणं 'मक्खन' इति प्रसिद्धम् सर्पिः-घृतं वा, तैलं वा, फाणितं द्रवितगुडरूपं गुडस्यपूर्वरूपं वा, पूपः--अप्पः 'मालपुआ'-पदवाच्यो वा, शष्कुली 'पुडी' इति प्रसिद्धा शिखरिणी शर्करायुक्तदधिविकृतिरूपा शिखण्डपदवाच्या वा, एतानि आर्द्रशुष्करूपाणि भक्ष्याणि यदि उत्क्षिप्तानि विक्षिप्तानि व्यतिकीर्णानि विप्रकीर्णानि इतस्ततः प्रसृतानीत्यर्थः, एषां प्रत्येकपदानां पृथक् पृथग् व्याख्या शालिबीजसूत्रे गता तत्रतोऽवसेया, तदा निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा ऋतुबद्धकाले वा चातुर्मासे वा कस्मिंश्चिदपि काले यथालन्दमपि क्षणमात्रमपि आर्द्रहस्तरेखाशोषणकालमात्रमपि तत्र वस्तुं न कल्पते । तत्र वासे गमनागमनेन वस्तुविनाशसंभवस्तेन तदधिपतेर्मनसि साधु प्रति दुर्भावो जायते, लोके साधोस्तद्गत. पदार्थलोलुपता लक्ष्यते बालग्लानसाधूनां तद्भक्षणाकाङ्क्षाऽपि संभवेत् , इत्यादिदोषसंभवातनिम्रन्थनिर्ग्रन्थीभिः क्षणमात्रमपि न तिष्ठेदिति भावः ॥ सू० ८॥ अथ तत्रापि ऋतुबद्धकालयोग्योपाश्रयवासविधिप्रतिपादकं द्वितीयं सूत्रमाह- 'अह पुण' इत्यादि । सूत्रम्--अह पुण एवं जाणेज्जा-( उवस्सयस्स अंतो वगडाए पिंडए वा०) नो उक्खित्ताईवा, नो विक्खित्ताई वा नो विइकिण्णाई वा नो विपकिण्णाई वा (किन्तु) रासि. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णि भाष्यावचूरी उ० २ सू० ९-१२ सचित्तप्रतिबद्धोपाश्रयनिवासविधिः ४५ काणि वा पुंजकाणिवा भित्तिकाणि वा कुलियाकडाणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पियाणि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हेमंत गिम्हासु वत्थए ॥ सू०९ ॥ छाया - अथ पुनरेवं जानीयात् ( उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां पिण्डको वा० ) नो उत्क्षिप्तानि वा नो विक्षिपानि वा नो व्यतिकीर्णानि वा नो विप्रकीर्णानि वा ( किन्तु) राशीकृतानि वा पुञ्जीकृतानि वा भित्तिकृतानि वा कुलिकाकृतानि वा लाञ्छितानि वा मुद्रितानि वा पिहितानि वा कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा हेमन्तग्रीष्मेषु वस्तुम् ॥ " चूर्णी - 'अह पुण' इति । अथ पूर्वप्रदर्शिताद् अन्यथा पुनः साधुर्जानीयात् उपाश्रयान्तडायां पिण्डकादीनि खाद्यवस्तूनि नो उत्क्षिप्तानि इत्यादिपदानां व्याख्या पूर्ववत् एवंप्रकारेण पूर्वोक्तपिण्डकादिवस्तूनि स्थापितानि भवेयुस्तदा हेमन्तग्रीष्मेषु अष्टमासात्मकेषु यथाकल्पकालं यावत् निर्ग्रन्थनिर्ग्रथीनां तत्र वस्तुं कल्पते तत्र पूर्वोक्तदोषासंभवात् ॥ सु०९ ॥ अथ तत्रापि चातुर्मासनिवासयोग्योपाश्रयनिवासविधिप्रतिपादकं तृतीयसूत्रमाह- 'अह पुण' इत्यादि । सूत्रम् -- अह पुण एवं जाणेज्जा ( उवस्सयस्स अंतो वगडाए पिंडए वा० ) नो रासिकडाणि वा नो पुंजकडाणि वा नो भित्तिकडाणि वा नो कुलियाकडाणि वा कोट्ठाउाणि वा पल्ला उत्ताणि वा मंचा उत्ताणि वा मालाउत्ताणि वा ओलिचाणि वा वित्ताणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा, कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वासावासं वत्थए । सू० १० ॥ छाया 1- अथ पुनरेवं जानीयात् ( उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां पिण्डको वा० ) नो राशीकृतानि वा नो पुञ्जीकृतानि वा नो भित्तिकृतानि वा नो कुलिकाकृतानि वा कोष्ठागुप्तानि वा पल्या गुप्तानि वा मञ्चागुप्तानि वा मालागुप्तानि वा अवलिप्तानि वा विलिप्तानि वा लाञ्छितानि वा मुद्रितानि वा पिहितानि वा कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्धन्थीनां वा वर्षावासं वस्तुम् ॥ सू. १० ॥ चूर्णी - 'अह पुण' इति । अथ तत्र चातुर्मासं वस्तुकामो मुनिर्यदि एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण जानीयात् किं जानीयादित्याह - पिण्डकादारभ्य शिखरिणीपर्यन्तानि भक्ष्यद्रव्याणि 'नो राशी - कृतानि इत्यादीनि पिहितानि वा' इति पर्यन्तानि पदानि शालिबीजप्रकरणगततृतीयसूत्रवद् व्याख्येयानि, एवंविधो यदि उपाययो भवेत् तदा तत्र निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वर्षावासे चातुर्मासं वस्तु कल्पते, पूर्वोक्तप्रकारेण रक्षितानां पिण्डकादिभक्ष्यपदार्थानां भूयो भूयो निष्कासनस्थापनाद्यभावेन दोषाभावादिति ॥ सू० १० ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ યુદ્ बृहत्कल्पसूत्रे पूर्वं निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां सामान्यतः सदोषा उपाश्रयाः प्रतिपादिताः, साम्प्रतं केवलं निर्ग्रन्थीनां शेषकालवासे सदोषस्थानानि निषेधयितुमाह - 'नो कप्पइ० अहे आगमणगिहंसि' इत्यादि ॥ सूत्रम् - नो कप्पर निग्रगंथीण अहे आगमण गिसि वा वियडगिहंसि वा सीमूलंसि वा रुक्खमूलंसि वा अभावासियंसि वा बन्थए | सू०११ ॥ छाया -नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां अधः आगमनगृहे वा विवृतगृहे वा, वंशीमूले वा वृक्षमूले वा अभ्रावकाशिके वा वस्तुम् ॥ सू० ११ ॥ ऽपि चूर्णी - 'नो कप्पइ' इति । निर्ग्रन्थीनां 'अघः' शब्दोऽत्र मध्यार्थकः 'अधः' इत्यर्थको वा; तेन ‘अबआगमनगृहे' इति आगमनगृहमध्ये इत्यर्थः, अधः - शब्दस्य सर्वत्र सम्बन्धः - कार्यः, तत्र आगमनगृहे पथिकादीनां ग्रामाद् ग्रामान्तरे गमनागमनं कुर्वतां निवासार्थं यद् गृहं तस्मिन् पथिकनिवासस्थाने इत्यर्थः, अधोविवृतगृहे वा विवृतम् चतुर्दिक्षु आवरणवर्जितम् उपर्याच्छादितं यद् गृहं तद् विवृतगृहं तस्मिन् तन्मध्ये अधोवंशीमूले वा वंशीमूलं तावद् गृहाद्वहिर्वंशदलनिर्मितं गृहम् तस्मिन् गृहाद्बहिः, प्राघूर्णकादि सर्वसाधारणजनोपवेशनस्थानमध्ये इत्यर्थः, अधोवृक्षमूले वा वटपिप्पलादिवृक्षतले, अभ्रावकाशिके- अभ्रस्य आकाशस्य अवकाशः प्रचुरतया यत्र तत् अभ्रावकाशिकं तस्मिन् अल्पाच्छादिताधिकानाच्छादितगृहमध्ये आकाशबहुलस्थानमध्ये इत्यर्थः एतादृशे गृहे साध्वीनां वस्तुं नो कल्पते, तस्य सागारिकनिश्राराहित्यात् सर्वसाधारणजनानां गमनागमनेनोच्चारप्रस्रवणादिपरिष्ठापने आहारादिकरणे च लोकानां दृष्टिपाता - विभावाद, ब्रोशरीरत्वेन ब्रह्मव्रते उपसर्गसंभवाच्चेति ॥ सू० ११ ॥ पूर्वं निर्ग्रन्थीनामागमनगृहादिषु वासो निषिद्धः, साम्प्रतं निर्ग्रन्थानामत्र कल्पते इति बद्विषये निर्ग्रन्थसूत्रमाह- 'कप्पर' इत्यादि || सूत्रम् -- कप्पर निग्गंथाणं आहे आगमण गिहंसि वा वियडगिहंसि वा सीमूलंसि वा रुक्खमूलसि वा अन्भावगासियंसि वा वत्थए । ०१२ ॥ छाया – कल्पते निर्ग्रन्थार्ना अधः आगमनगृहे वा विवृतगृहे वा वंशीभूले वा वृक्षमूले वा अभ्रावकाशिके वा वस्तुम् ॥ सू०१२ ॥ चूर्णो – ' कप्पड़' इति । पूर्वोक्तेषु आगमनगृहादिषु निर्ग्रन्यानां कल्पते, इति सूत्रार्थः । पुरुषशरीरत्वेन साधूनां तदोषानापातात् । आपवादिकमिदं सूत्रम् यत् अन्योपाश्रयाभावेऽल्पकाकल्पते, नतु शेषकाले मासकल्पं यावत् चातुर्मासं यावद्वेति भावः ॥ सू० १२ ॥ पूर्व निर्ग्रन्थानामागमनगृहादिषु वासो विहितः, स च शय्यातरमाश्रित्य भवतीति तत्प्रसङ्गात् शय्यातरवश्यतां प्रस्तौति, तत्र प्रथमम् अनेकशय्यातरेषु एकं शय्यातरं कुर्यादिति प्रतिपादयितुमाह - 'एगे' इत्यादि । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र्णिमाष्यावरी उ०-२ सू० १३-१८ शय्यातरपिण्डग्रहणाग्रहणविधिः ७ सूत्रम्-एगे सागारिए पारिहारिए, दो तिन्नि चत्तारि पंच सागारिया पारिहारिया, एगं तत्थ कप्पागं ठवित्ता अवसेसे निविसेना ।। सू०१३ ।। छाया-एकः सागारिकः पारिहारिकः द्वौ त्रयः चत्वारः पंच सागारिकाः, एक तत्र कल्पकं कृत्वा शेषान् निविंशेत् ॥ सू० १३ ॥ चूर्णी- 'एगे' इति । सागारिकः अगारेण गृहेण सहितः सागारः, स एव सागारिक: गृहस्वामी शय्यातर इत्यर्थः । शय्यातरः इति कोऽर्थः ? शय्यां साधुभ्यो वसतिं दत्त्वा तरति संसारसागरं पारयति यः स शय्यातरः, अथवा शय्यायाः-वसतेर्दानेन भवपरंपरारूपं संसारप्रवाहं तरति योऽसौ शय्यातरः कथ्यते । अत्र शिष्यप्रश्नः-स एकः सागारिकः पारिहारिकः परिहार परित्यागं अर्हतीति पारिहारिकः भिक्षादिग्रहणपरिहारयोग्यो भवति, तथैव द्वौ त्रयः चत्वारः पञ्च वाऽपि पारिहारिका भिक्षादिपरिहरणयोग्या भवन्ति किम् ! आचार्यस्तत्र विधिमाह-- य उपाश्रयो दायादभागमिश्रो भवेत् , अथवा बहुजनसाधारणं देवकुलादिकं वा भवेत् , एवं यस्य स्थानस्य द्वयादयः स्वामिनो भवेयुस्तव तेषु मध्ये एकं स्वामिनं कल्पकं शय्यातरकल्पयोग्यं शय्यातरत्वेन स्थापयित्वा तेष्वेकं शय्यातरं कृत्वा अवशेषान् अवशिष्टान् तदितरान् निधिसेज्जा-निर्विशेत् विसर्जयेत् , शय्यातरत्वेन न गणयेत् । अथवा अवशेषान् शेषाणां गृहेषु इत्यर्थः 'निविसेज्जा' निर्विशेत् प्रविशेत् अहाराद्यर्थ तेषां गृहेषु अनुप्रविशेदिति भावः ॥ सू० १३ ॥ पूर्वसूत्रे एकः शय्यातरः कर्त्तव्यः, इति प्रोक्तम् , साम्प्रतमत्रत आरभ्य शय्यातरपिण्डस्य निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीसमुच्चयेन ग्रहणविषये विधि प्रतिपादयितुमाह-'नोकप्पइ० सागारियपिंडं' इत्यादि । सूत्रम्--नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंडं बहिया अनीहड़ असंसर्ट वा संसटुं वा पडिग्गाहित्तए ॥ सू०१४ ॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा सागारिकपिण्डं बहिः अनिहतं असंसृष्टं वा संसृष्टं वा प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १४ ॥ चूर्गी ---'नो कप्पई' इति । निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा द्वयानामपि सागारिकपिण्डं सागारिकस्य-यो गृहस्थः शय्यातरत्वेन स्थापितस्तस्य पिण्डम्-अशनादिकं, यः, पिण्डः बहिः शय्यातरगृहाद् बहिः अनिर्हतः अनिस्सृतः अन्यगृहे न नीतः शय्यातरगृहे एव स्थितः सः असंसृष्टोवा शय्यातरेतरपिण्डेन अमिलितो वा, अथवा संसृष्टो वा मिलितो वा भवेत् तं तादृशं शय्यातरपिण्डं नो कल्पते प्रतिग्रहीतुम्, शय्यातरपिण्डग्रहणस्य शास्त्रे सर्वत्र निषिद्धत्वात् ॥ सू०१४ ॥ अथ शय्यातरपिण्डस्यान्यनिषेधविधिमाह-'नो कप्पई' इत्यादि । सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंडं बहिया नीहडं असंसठं पडिगाहित्तए । कप्पई निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंडं बहिया नीहडं संसह पडिगाहित्तए ॥ सू०१५॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पपत्रे छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा सागारिकपिण्डं बहिनिहत असंसृष्टं प्रतिग्रहीतुम् । कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रंन्थीनां वा सागारिकपिण्डं बहिनिहृतं संसृष्टं प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १५ ॥ चूर्णी-'नो कप्पई' इति । शरय्यातपिण्डः शय्यातरगृहाद बहिस्तु निर्हतः-निस्सृतः अन्यगृहे नीतो भवेत् किन्तु स तत्र असंसृष्टः अन्यदीयपिण्डेन असंमिलितः अन्यागृहीतत्वेन अन्यदीयपिण्डत्वं न प्राप्तः शय्यातरस्वत्वसहित एव भवेत् , तं पिण्डं प्रतिग्रहीतुं निर्ग्रन्थनिम्रन्थीनां नो कल्पते शय्यातरस्वत्वेन अनिर्मुक्तत्वात् । तर्हि कथं कल्पते ? इति कल्पविधिं दर्शयति-बहिनिहृतः यदि शय्यातरगृहादन्यगृहे नीतः सन् स शय्यातरपिण्डः संसृष्टः अन्यदीयपिण्डेन संमिलितः अन्यदीयपिण्डत्वं प्राप्तः शय्यातरस्वत्वविनिर्मुक्तो भवेत् तदा तं तादृशं शय्यातरपिण्डं प्रतिग्रहातुं निम्रन्थनिम्रन्थीनां कल्पते तस्य शय्यातरस्वत्वविनिर्मुक्तत्वात् ।। सू०१५॥ अथ शय्यातरगृहविनिर्गतासंसृष्टपिण्डस्य संसृष्टकरणे प्रायश्चितं प्रदर्शयति 'जो खलु' इत्यादि । सूत्रम्--जो खलु निग्गंथो वा निग्गंथी वा सागारियपिंडं बहियानीहडं असंसर्ट संसर्ट करेइ, करेंतं वा साइज्जइ से दुहओ वीइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयं ॥ सू० १६॥ छाया-यः खलु निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा सागारिकपिण्डं बहिनिहतं असंसृष्टं संसृष्टं करोति, कुर्वन्तं वा स्वदते स द्विधातो व्यतिक्रामन आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् ॥ सू० १६ ॥ __ चूर्णी-'जो खलु' इति । यः खलु कोऽपि रसनलोलुपी निर्ग्रन्थो वा तथा तादृशी निर्ग्रन्थी वा यदि सागारिकपिण्डं बहिर्निर्हृतम्-अन्यगृहे संप्राप्तम् किन्तु असंसृष्टम् अन्याशनादिना न मिलितम् । यस्य गृहे स पिण्डो नीतस्तेनास्वीकृतः शय्यातरस्वत्वसहित एव तं संसृष्टं अन्यगृहस्थस्वत्वसहितं शय्यातरस्वत्वविनिमुक्तं स्वहस्तेन तत्रागतं शय्यातरपिण्डं गृहीत्वा तद्गृहे स्थापयति । तेनाऽगृह्यमाणमपि गृहीतमनेनेति करोति, एवं कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स एतादृशो निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थी वा द्विधातः-लौकिकलोकोत्तरेति द्विप्रकारतः लौकिकमर्यादां जिनशासनमर्यादां च व्यतिक्रामन् उल्लङ्घयन् आपद्यते प्राप्नोति चातुर्मासिकं चतुर्माससम्बन्धिकं परिहारस्थानं प्रायश्चित्तस्थानम् अनुद्घातिकम् चतुरो गुरुमासान् प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीति भावः ।। सू०१६॥ पुनरपि सागारिकपिण्डविषये आहृतिकामध्यादीयमानाहारादेग्रहणाग्रहणविधिमाह-'सागारियस्स आहडिया' इत्यादि,।। सूत्रम्-सागारियस्स आइडिया सागारिएण पडिगहिया तम्हा दावए नो से कप्पर पडिगाहित्तए ॥सू०१७॥ सागारियस्स आइडिया सागरिएण अप्पडिग्गहिया तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥ सू०१८ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्यावचूरी उ०-२ सू० १७-२० शय्तातरपिण्डग्रहणाऽग्रहणविधिः ४९ छाया-सागारिकस्य आहृतिका सागारिकेण प्रतिगृहीता, तस्याः दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥सू० १७॥ सागारिकस्य आहृतिका सागारिकेण अप्रतिगृहीता तस्याः दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १८॥ ___ चूर्णी-'सागारियस्स' इति । सागारिकस्य-शय्यातरस्य आहृतिका आहियतेदातुमानीयते या सा आहृतिका अन्यगृहादागता प्रहेणकरूपा उपायनप्राभृतादिपदवाच्या 'परोसा' इति भाषाप्रसिद्धा, या अन्यस्मात् स्वजनादिगृहात् समर्पयितुं शय्यातरगृहे समागता भवेत् सा यदि सागारिकेण प्रतिगृहीता-स्वीकृता तस्याः तद्गताशनादिमध्यात् अशनादिकं साधवे दद्यात् शय्यातरोऽन्यो वा कोऽपि तदशनादिकं तदा 'से' तस्य भिक्षार्थमागतस्य साधोः प्रतिग्रहीतुं नो कल्पते, तस्मिन् संजातशय्यातरस्वत्वत्वात् ॥सू०१७॥ अथ तद्वैपरीत्ये कल्पते इति तद्विधिं प्रदर्शयति'सागारियस्स आहडिया' इत्यादि । सागारिकस्य गृहे समानीता आहृतिका यदि तेन सागारिकेण अप्रतिगृहीता-अस्वीकृता भवेत् तदा तस्याः-तद्गताशनादितोऽन्यः शय्यातरादितर आहृतिकावाहकोऽन्यो वा दद्यात् ‘एवं' अनेन विधिना दीयमानमशनादि से' तस्य भिक्षार्थ समुपस्थितस्य साधोः प्रतिग्रहीतुं कल्पते, तस्मिन् असंजातशय्यातरस्वत्वत्वादिति ॥ सू० १८ ॥ ___ पूर्व सागारिकगृहागगताऽऽद्वतिकाया अशनादेर्ग्रहणाग्रहणविधिः प्रोक्तः, साम्प्रतं सागारिकगृहादन्यत्रगतनिहृतिकाया अशनादेग्रहणाग्रहणविधिमाह-'सागारियस्स नीहडिया' इत्यादि । सूत्रम-सागारियस्स नीहडिया परेण अपडिग्गहिया तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए । सागारियस्स नीहडिया परेण पडिग्गहिया तम्हा दावए एवं से कम्पइ पडिग्गाहित्तए ॥ सू० १९॥ छाया-सागारिकस्य निर्दृतिका परेण अपरिगृहीता तस्याः दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सागारिकस्य निर्दृतिका परेण परिगृहीता तस्याः दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १९॥ चूर्णी-'सागारियस्स' इति । सागारिकस्य शय्यातरस्य निर्वृतिका निह्रियते-दातुमन्यत्र नीयते सा निर्हृतिका सागारिकगृहाद् अन्यस्मै स्वजनादिकाय दातुं बहिर्नीता स्वजनादिगृहे प्राप्ता तत्र परेण तेन स्वजनादिना अपरिगृहीता-अस्वीकृता शय्यातरसत्कैव स्थिता तस्याः तन्मध्यात् कोऽपि शय्यातरोऽन्योऽपि कश्चित् अशनादि तत्र तत्क्षणसमागताय साधवे दद्यात् तदशनादि 'से' तस्य साधोः प्रतिग्रहीतुं नो कपते, तस्मिन् शय्यातरस्वत्वस्यानिर्मुक्तत्वात् । अथ तद्वैपरोत्ये ग्रहणविधिमाह-'सागारियस्स नीहडिया' इत्यादि । सागारिकस्य निर्हतिका सागारिकगृहादबहिर्निर्गता स्वजनादिगृहे संप्राप्ता सा निर्दृतिका यदि परेण स्वजनादिना प्रतिगृहीता-स्वीकृता Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पसूत्रे भवेत् तस्याः तन्मध्यात् अशनादि शय्यातरेतरः तत्स्वीकर्ता स्वजनादिः दद्यात् तदा तदशनादि 'से' तस्य भिक्षार्थ तत्रोपस्थितस्य साधोः प्रतिग्रहीतुं कल्पते, तादृशाशनादेः शय्यातरस्वत्वविनिर्मुक्तवादिति ॥ सू० १९ ॥ पूर्व सागारिकस्य निहताया ग्रहणाग्रहणविधिः प्रोक्तः, साम्प्रतं सागारिकपिण्डांशमिश्रितस्याशनादेर्ग्रहणाग्रहणविधिमाह-'सागारियस्स अंसियाओ' इत्यादि । सूत्रम्-सागारियस्स असियाओ अविभत्ताओ अवोच्छिन्नाओ अब्बोगडाओ अणिज्जूढाओ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥ सागारियस्स अंसियाओ विभताओ वोच्छिनाओ वोगडाभो णिज्जूढाओ तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए । सू० २०॥ छाया--सागारिकस्य अंशिकाः अविभक्ता अव्यवच्छिन्ना अव्याकृता अनियूढा ताभ्यः दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सागारिकस्य अंशिका विभक्ता व्यवच्छिन्ना व्याकृता, निर्मूढा ताभ्यः दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू०२०॥ चूर्णी--'सागारियस्स' इति । अत्र अंशिकाः इति वहुवचनम् वहूनां मित्रस्वजनादीनाम् अंशा नानाभक्ष्यमया येषु अशनादिषु एकत्रिताः स्युस्ता अंशिका इत्युच्यन्ते बहुजनानामंशमिश्रिताशनादिरूपाः, तासु अंशिकासु यदि सागारिकस्य अंशिकाः अविभक्ताः विभागपृथक्करणरहिताः सागारिकस्य विभागो यासु विद्यते तादृश्य इत्यर्थः, अव्यवच्छिन्नाः व्यवच्छेदरहित्ताः संबद्धा इत्यर्थः, अव्याकृता व्याकरणरहिताः भागस्पष्टोकरणवर्जिताः 'अयं तवांशः, अयं ममांशः' इत्येवं सागारिकभागस्य नामनिर्देशपूर्वकमनिर्दिष्टाः, अनियूढाः अनिष्कासिताः कृतविभागा अपि तत्रैव स्थिताः सागारिकेग न नीताः, एतादृश्यः अंशिकाः यत्र गृहस्थगृहे स्युः 'तम्हा' ताभ्यो यदि शय्यातरादितरोऽपि जनः साधवे दद्यात् तदा नो नैव 'से' तस्य भिक्षार्थमुपस्थितस्य सावोः प्रतिग्रहीतुं कल्पते, सागारिकांशिकामिश्रितत्वात् । ग्रहणविधिमाह-यदि पूर्वोक्तस्वरूपाभ्योऽशिकाभ्यः सागारिकस्य अंशिकाः विभक्ताः विभागेन पृथकृताः व्यवच्छिन्ना व्यवच्छेदसहिता असंबद्धा इत्यर्थः, व्याकृता नाम निर्देशपूर्वकं भागस्पष्टीकरणेन निर्दिष्टाः 'इमाः सागारिकस्यांशिकाः इमा न' इतिभागस्पष्टीकरणयुक्ता इत्यर्थः, निमूढाः निष्कासिताः कृतविभागत्वेन तत्रतोऽन्यत्र स्थापिताः 'तम्हा' ताभ्यो यदि शय्यातरादितरः कोऽपि साधवे दद्यात्. एवं स्थिताः 'से' तस्य भिक्षार्थमुपागतस्य साधोः प्रतिग्रहीतुं कल्पते, तत्र सागारिकांशिकाया विनिर्मुक्तत्वात् । अयं भावार्थः यत्र बहुजनविभागयुक्तमशनादिकं भवेत् तत्रान्येषां विभागेभ्यः सागारिकस्य विभागः पूर्वोक्तप्रकारेण विभज्य पृथग न कृतो भवेत् तदशनादिकं सागारिकविभागस्य त्याज्यत्वेन साधोर्न कल्पते, अन्यथा अन्येषां विभागेभ्यः सागारिकस्य विभागः पूर्वोक्तविधिना तत्रतः पृथक्कृतो भवेत् तदा तदशनादिकं सागारिकविभागरहितत्वेन साधोः कल्पते इति ॥ सू० २० ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्यावचूरी उ०-२ सू० २१-२४ शय्यातरपिण्डग्रहणाऽग्रहणविधिः ५९ ___ पूर्वसूत्रे शय्यातरस्यांशिकायुक्तांशिकारहिताशनादेर्ग्रहणाग्रहणविधिः, प्रदर्शितः, सांप्रतं सागारिकस्य कलाचार्यादिपूज्यजनोद्देशेन तदानार्थं निष्पादितभक्तस्य ग्रहणनिषेधं ग्रहणविधिं च प्रदर्शयितुकामः सूत्रकारस्तद्विषये सूत्रचतुष्टयीमाह,तत्र प्रथमं निषेधसूत्रमाह-'सागारियस्स पूयाभत्ते' इत्यादि । सूत्रम्-सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए, सागारियस्स उवगरणजाए निहिए निसिहे पाडिहारिए, तं सागारिओ देज्जा सागारियस्स परिजणो वा देज्जा तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥ सू० २१॥ छाया – सागारिकस्य पूज्यभक्तम् औद्देशिकं चेतितं प्राभृतिकायाम् सागारिकस्य उपकरणजाते निष्ठितं निसृष्टं प्रातिहारिकं, तत् सागारिको दद्यात् सागारिकस्य परिजनो वा दद्यात् तस्मात् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २१॥ चूर्णी-'सागारियस्स' इति । सागारिकस्य पूज्यभक्तम्-पूज्यानां कलाचार्यादिसंमान्यपुरुषाणां पूज्यत्वेन मान्यानां प्राघुणकानां च कृते निष्पादितं भक्तम् ओदनादिकं पूज्यभक्तं कथ्यते, तच्च औदेशिकम् कमप्युद्दिश्य निष्पादितम् औदेशिकं, भण्यते अत्र कलाचार्यप्राघुणकादिपूण्यजनानामुद्देशेन संपादितमशनादिकमौदे शिकशब्देन गृह्यते, तद् औद्देशिकमशनादि प्राभृतिकायाम् उपायन(भेट,रूपायां चेतितम्-उपढौकितं तेभ्य उपनीतं समर्पितमित्यर्थः, कीदृशं तत् पूज्यभक्तमित्याह-'सागारियस्त' इत्यादि, तत् पूज्यभक्तं सागारिकस्य उपकरणजाते स्थाल्यादिपाकपात्रे निष्ठितं निष्पादितं, निसृष्टं तत्पात्रान्निष्कासितं, तथा तत् प्रातिहारिकं पुनः प्रत्यर्पणप्रतिज्ञया गृह्यमाण प्रातिहारिक भवति यथा-'भुक्तोद्वरितं पुनरस्मभ्यं प्रत्यर्पणीयम्' इति प्रतिज्ञायुक्तम् , तदशनादि सागारिको वा सागारिकपरिजनकुटुम्बजनो वा दद्यात् तस्माद् तादृशाद् अशनादेमध्यात् साधवे भिक्षार्थमुपस्थिताय दद्यात् तदा तदशनादि-"से' तस्य भिक्षार्थमुपस्थितस्य साधोः प्रतिग्रहीतुं स्वीकर्तुं नो कल्पते, तदशनादेः सर्वथा शय्यातरदोषदूषितस्यात् ।। सू० २१ ॥ __ अथ पूज्यभक्तविषयकं द्वितीयं सूत्रमाह-सागारियस्स पूयाभत्ते' इत्यादि । सूत्रम्-सागारियस्स पूयाभत्ते उदेसिए चेइए पाहुडियाए सागारियस्स उवगरणजाए निढिए निसिट्टे पाडिहारिए तं नो सागारिओ देज्जा नो सागारियस्स परिजणो वा देज्ना सागारियस्स पूया देज्जा तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गा हित्तए ॥ सू०२२॥ छाया--सागारिकस्य पूज्यभक्तम् औद्देशिकं चेतितं प्राभृतिकायाम् सागारिकस्य उपकरणजाए निष्ठितं निसृष्टं प्रातिहारिकं, तत् नो सागारिको दद्यात् नो सागारिकस्य परिजनो वा दद्यात्, (किन्तु) सागारिकस्य पूज्यो दद्यात् तस्मात् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २२॥ चूर्णी-'सागारियस्स' इति । एतत्सूत्रगतपदानां व्याख्या पूर्वसूत्रवदेव कर्त्तव्या, नवरम्अत्र तादृशमशनादि न सागारिको दद्यात् न वा सागारिकस्य परिजनो दद्यात् किन्तु पूज्यः स्वहस्तेन Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAmmmmmmmmmmmms ५२ वृहत्कल्पसूत्रे दद्यात् तथापि तदशनादि 'से' तस्य साधोः प्रतिग्रहीतुं न कल्पते, तदशनादेः सागारिकस्वत्ववत्त्वात् ॥ सू० २२॥ साम्प्रतं पूज्यभक्तविषयकं तृतीयं सूत्रमाह-'सागारियस्स' इत्यादि । सूत्रम्-सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए सागारियस्स उवगरणमाए निहिए निसिढे अपाडिहारिए तं सागारिओ देइ सागारियपरिजणो वा देइ तम्हा दावए नो से कप्पई पडिगाहित्तए ॥ सू० २३ ॥ ___ छाया-सागारिकस्य पूज्यभक्तम् औदेशिकम् चेतितं प्राभृतिकायाम् सागारिकस्योपकरणजाते निष्ठितं निसृष्टम् अप्रातिहारिकम् तत् सागारिको ददाति सागारिकपरिजनो वा ददाति तस्मात् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २३ ॥ चूर्णी-'सागारियस्स' इति । एतदपि सूत्रं पूर्ववदेव व्याख्येयम् , नवरं विशेषस्त्वयम्यत् पूर्वसूत्रद्वये पूज्यभक्तं 'प्रातिहारिकम्' इति भुक्तोद्वरितस्य पुनर्ग्रहणयोग्यम्-इति कथितम्, अस्मिन् सूत्रे अप्रातिहारिक 'भुक्तोद्वरित पुनरस्मभ्यं प्रत्यर्पणीय' मितिप्रतिज्ञावार्जितं भवता सर्व तत्रैव स्थाप्यं नास्मभ्यं दातव्यम् वयं नो प्रतिग्रहीष्यामः' इत्येवं प्रतिज्ञया प्रदत्तं भवेत् तथापि सागारिकेण सागारिकपरिजनेन वा दीयमानं तदशनादि साधोर्न कल्पते तस्य सागारिकतत्परिजनहस्तस्पर्शदोषसद्भावात्, तदाहारे प्रकृतिभद्रकसागारिकेण निर्दोषवस्तुनि भक्तिवशात् स्वकीयाऽन्यवस्तुप्रक्षेपणसंभवाच्चेति ॥ सू० २३ ॥ अथ पूज्यभक्तविषये तदाहारग्रहणप्रकारप्रतिपादकं चतुर्थ सूत्रमाह-'सागारियस्स' इत्यादि । सूत्रम्-सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए सागारियस्स उवगरणजाए निहिए निसिढे अपडिहारिए तं नो सागारिओ देइ नो सागरियस्स परिजणो वा देइ सागारियस्स पूया देइ तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥ सू० २४॥ छाया-सागारिकस्य पूज्यभक्तम् औद्देशिकं चेतितं प्राभृतिकायाम्, सागारिकस्य उपकरणजाते निष्ठितं निसृष्टम् अप्रातिहारिकं तद् नो सागारिको ददाति नो सागारिकस्य परिजनो वा ददाति, सागारिकस्य पूज्यो ददाति तस्मात् दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २४ ॥ चूर्णी-'सागारियस्स' इति।सागारिकस्य पूज्यभक्तं पूर्वप्रदर्शितप्रकारकं तत् अप्रातिहारिक पुनः प्रत्यर्पणप्रतिज्ञारहितं भवेत् तत्पुनः नो सागारिको ददाति नो वा सागारिकपरिजनो ददाति किन्तु तदाहारजातम् अप्रातिहारिकत्वेन गृहीतं शय्यातरस्वत्वविनिर्मुक्तं सागारिकस्य पूज्यः स्वहस्तेन ददाति तस्मात् तादृशादाहारजातमध्यात् दद्यात् एवं सति तस्य भिक्षार्थमुपागतस्य साधोः प्रतिग्रहीतुम् उपादातुं कल्पते, अस्याऽप्रातिहारिकत्वेन शय्यातरस्वत्वराहित्यात्, शय्यातरस्य तत्परिजनस्य च हस्तस्पर्शवर्जितत्वाच्च ॥ सू० २४ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णि भाग्यावरी उ०- २ सू० २५-२६ वस्त्ररजोहरण हृणविधिः ५३ अथ शय्यातरपिण्डविषयान् संगृह्याह भाष्यकारः - ' अनीहडं' इत्यादि । भाष्यम् – अनीहडं नीहडं वा, आइडिया तहेव य । हडिया अंसिया वा, पूयाभत्तं चउव्विहं ॥ २ ॥ सागारिFस संबंधो, जत्थ जारिसतारिसी । साहूणं कप्पए नो तं कप्पे संबंधवज्जियं ॥ ३॥ छाया - अनिहृतं निहृतं वा, आहृतिका तथैव च । निर्हृतिका अंशिका वा, पूज्यभक्तं चतुर्विधम् ॥ २ ॥ सागारिकस्य संबन्धो, यत्र यादृशतादृशः । साधूनां कल्पते नो तत्, कल्पेत सम्बन्धवर्जितम् ॥ ३ ॥ अवचूरी - 'अनहर्ड' इति । अनिर्हृतम् यद् अन्यस्मै वितरणाय अन्यदीयगृहे न नीत शय्यातरगृह एव स्थितं तत् १, निर्हृतं यत् शय्यातरगृहादन्यदीयगृहे प्राप्तम् २, आहृतिका - अन्यस्माद् गृहात् शय्यातरगृहे समागता 'परोसा' इतिलोकप्रसिद्धा प्राभृतिकारूपा २, निर्हृतिका - शय्यातरगृहादन्यदीयगृहे प्रेषिता प्राभृतिका ४, अंशिका शय्यातरसहितद्वित्रिचतुःपञ्चजनानां विभागैः संमिश्रा ५, चतुर्विधं पूज्य भक्तम्, तत्र प्रथमं कलाचार्यादिपूज्यजनमुद्दिश्य संपादितं प्रातिहारिकत्वेन तस्मै प्रदत्तं सागारिकेण दीयमानम् १, द्वितीयं - पूर्वोक्तप्रकारमशनादि सागारिकस्य पूज्येन दीयमानम् २, तृतीयं तादृशमशनादि अप्रातिहारिकत्वेन पूज्याय प्रदत्तं किन्तु तत् सागारिकेण दीयमानम् ३, एतत्त्रयमप्यकल्प्यम् । चथुर्य तादृशमशनादि अप्रातिहारिकत्वेन पूज्याय प्रदत्तं सागारिकं वर्जयित्वा पूज्यहस्तेन दीयमानम् ४, एतत्कल्प्यम् । एषु नवविधेषु अशनादिषु मध्ये यत्र यस्मिन् कस्मिंश्चिदशनादौ सागारिकस्य यादृशतादृशो यः कोऽपि सम्बन्धः स्वत्वविषयो हस्तदानविषयो विभागविषयो वा एतादृशोऽन्यो वा कोऽपि सम्बन्धो भवेत् तदशनादि साधूनां नो कल्पते, किन्तु यत् सम्बन्धवर्जितं - स्वत्वसम्बन्धहस्तदानसम्बन्धविभागसम्बन्धवर्जितं भवेत् तत् साधूनां कल्पेत ॥ २-३॥ पूर्वंमाहारसूत्रं प्रोक्तम्, आहारानन्तरं वस्त्रप्रसङ्ग इति वस्त्रग्रहणसूत्रमाह - ' कप्पइ. पंच वत्थाई ' इत्यादि । सूत्रम् - कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाई पंच वत्थाई धारितए वा परिहरित्तए वा तं जहा- जंगिए भंगिए सागए पोत्तए तिरीडपट्टे नामं पंचमे ॥ सू० २५ ॥ छाया -कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा इमानि पञ्च वस्त्राणि धारयितुं वा परिहर्तुं वा तद्यथा - जाङ्गमिकम्, भाङ्गिकम्, शाणकम् पोतकम् तिरीटपट्टकं नाम पञ्चमम् ॥ सू० २५ ॥ चूर्णी - 'कप' इति । निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा इमानि वश्यमाणानि पञ्च पञ्चप्रकारकाणि वस्त्राणि धारयितुं वा स्वनिश्रायां स्थापयितुं, तथा परिहर्तुं वा उपभोक्तुं कल्पते, तान्येव Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पसूत्रे दर्शयति-तंजहा' इत्यादि । 'तनहा तयथा तानि यथा-जाङ्गमिकम्-जङ्गमानां गमनशीलानां मेषादीनामिदं जाङ्गमिकम् मेषादिरोमनिष्पन्नम् औणिकमित्यर्थः १, भाङ्गिकम्-भङ्गैः अतस्यादित्वग्भिनिष्पन्नं भाक्षिकम् २,शाणकम् -शगः स्वनामख्यातस्तृगविशेषः, तेन निष्पन्न शाणकं शणसूत्रवस्त्रम् ३, पोतकम्-पोतः कर्पासस्तेन निष्पन्नं पोतकं कार्पासवस्त्रम् ४, तिरीटपट कम्-तिरीटो वृक्षविशेषस्तस्य त्वग्भिनिष्पादितं तिरीटपट्टकम् एतन्नामकं पञ्चमं वस्त्रम् ५। एतानि उपर्युक्तानि पञ्चविधानि वस्त्राणि निम्रन्थनिर्ग्रन्थोनां कन्यते, न तु तद्भिन्नानि क्षौ मदुकूलचीनांशुकादिवस्त्राणि कल्पते । अत्र जङ्गमशब्देन त्रसप्राणिनो गृह्णन्ते तत्कथं त्रसप्राण्यङ्गसमुद्भूतंवस्त्रं कल्पते इति प्रोक्तम् ? तत्राह-जङ्गमा द्विविधाः विकलेन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाच, तत्र विकलेन्द्रियप्राण्यङ्गभूतसूत्रनिर्मितानि क्षौमादिवस्त्राणि न कल्पन्ते प्राणिवधप्रसङ्गात् , अत्र जङ्गमशब्देन पञ्चेन्द्रिया गृह्यन्ते तेषां रोमभिर्निष्पन्न वस्त्रं कल्पते, तेषां परिवर्द्धितरोमकर्तनेन न किमपि दुःखं भवति प्रत्युत तेषां सुखानुभवो भवति ततो जाङ्गमिकशब्देन ऊर्णावस्त्रं बोध्यम् , अत्र प्राणिपीडालेशासंभवात् ॥ सू० २५ ॥ पूर्व वस्त्रग्रहणसूत्रं प्रोक्तम् ,तत्प्रसङ्गात् रजोहरणग्रहणसूत्रमाह-'कप्पई' इत्यादि । सूत्रम्--कप्पइ निगंथाण वा निग्गंथीण वा इमाई पंच रयहरणाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा, तंजहा--उण्णिए, उहिए, साणए, वच्चाचिप्पए, मुंजचिप्पए नाम पंचमे ॥ सू० २६ ॥ छाया-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थोनां वा इमानि पञ्च रजोहरणानि धारयितुं वा परिहत्तुं वा, तद्यथा-ओणिकम्, औष्ट्रिकम्, शाणकम्, वचाचिप्पकम्, मुजचिप्पक नाम पश्चमम् ॥ सू० २६ ॥ चूर्गी--'कप्पई' इति। निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा इमानि अग्रे वक्ष्यमाणानि पञ्च-पञ्चप्रकारकाणि रजोहरणानि-रजो द्विवियं द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यरजो धूल्यादिकम् , भावरजःअष्टविधकर्म, ततो द्विविधमपि रजो हरतीति रजोहरणम् । तत्र द्रव्यरजोहरणेन आदाननिक्षेपपरिष्ठापनादिकार्ये भूमिगत कुन्थुपिपोलि कादिलवुजन्तुनां निवारणं भवति ततः संयमयोगाः संपन्ना भवन्ति । भावरजोहरणेन कममलशोधिर्जायते, तानि पञ्चप्रकारकाणि कल्पन्ते, तदेव दर्शयतितद्यथा तानीमानि- औणिकं मेषाचूर्णानिष्पन्नम् १, औष्ट्रिकम्-उष्ट्ररोमनिष्पन्नम् २, शाणकम्शणसूत्रनिष्पन्नम् ३, वच्चाचिप्पकम्--बच्चा-दर्भाकारतृणविशेषस्तस्य वल्कलः, तस्य चिप्पकेन कुट्टितेन कुट्टितत्वविशेषेण निष्पन्नं वच्चाचिप्पकम् ४, मुंजचिप्पक-मुनस्य शरस्तम्बस्य चिप्पकेन कुहितेन कुट्टितमुजेन निष्पादितं नाम पञ्चमं रजोहरणम् ५, एतानि पञ्चविधानि रजोहरणानि साधुसाध्वीनां कल्पते नान्यानि कार्यासिकादिसूत्रनिष्पन्नानि, तैः कुन्थुपिपीलिकादीनां सम्यग रक्षणासंभवात् । अत्र वच्चाचिप्पकं मुञ्जचिप्पकं नाम कस्मिंश्चिदेशविशेषे चिप्पकनामको दर्भाकारस्तृणविशेषो भवति, तं च प्रथमं चिप्पित्वा कुट्टयित्वा तदीयं क्षोदं रुतरूपं कृत्वा कर्त्तयति ततः सूत्राणि Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूणिभाष्यावचूरो उ० २- सू० २६ उद्देशक्षमाप्तिः ५५ जायन्ते, तैर्वच्चासूत्रैश्च प्रावरणास्तरणादीनि निष्पादयन्ति तत्सूत्रैर्निष्पन्नं रजोहरणं वच्चा चिपकमुच्यते । एवं देशविशेषे मुञ्जाभिधस्तृणविशेषः, तमपि कुट्टयित्वा पूर्ववदेव सूत्राणि कर्त्यन्ते, तैः सूत्रनिष्पन्नं रजोहरणं मुञ्जचिप्पकं प्रोच्यते । वस्त्रप्रकरणोक्तरीत्यैव सूत्रोक्तानां पञ्चविधानां रजोहरणानां ग्रहणं श्रमणैः कर्त्तव्यम् । तत्रापि क्रमेण पूर्वपूर्वस्याभावे उत्तरोत्तररजोहरणं ग्राह्यत्वेन बोध्यम् । उत्सर्गेण तु सूत्रे प्रथगतया प्रोक्तम् और्णिकमेव रजोहरणं ग्राह्यं, सूत्रे तस्य भगवता प्रथमतया गृहीतत्वादिति ॥ सू० २६ ॥ इति श्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषा कलितललितकला पालापकप्रविशुद्ध गद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्रीशाहू छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त" जैनाचार्य " - पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म - दिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालव्रतिविरचितायां "बृहत्कल्पसूत्रस्य” चूर्णि भाष्यावचूरीरूपायां व्याख्यायां द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥२॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।अथ तृतीयोद्देशकः। व्याख्यातो द्वितीयोद्देशकः, साम्प्रतं तृतीयोदेशकः प्रस्तूयते, अत्र द्वितीयोदेशकान्तिमसूत्रेणास्य तृतीयोद्देशकस्यादिसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ? इति भाष्यकारः सम्बन्धं प्रदर्शयति'वत्थरओहरणाणं' इत्यादि । भाष्यम्-वत्थरओहरणाणं, पुवं वुत्तो विही समासेण । तेसिं निग्गंथीणं, दाणविही एत्य नायव्यो ॥१॥ गच्छइ तासि वसहि, गणचिंताकारगो पयाएउं । तस्स विही इह कत्थइ, संबंधो एत्थ एसेव ॥२॥ छाया-वस्त्ररजोहरणानां पूर्वमुक्तो विधिः समासेन । तेषां निर्ग्रन्थीभ्यो, दानविधिरत्र शातव्यः ॥१॥ गच्छति तासां वसति, गणचिन्ताकारकः प्रदातुम् । तस्य विधिरिह कथ्यते, सम्बन्धोऽत्र एष एव ॥२॥ अवचूरी—'वत्थ' इति । पूर्व द्वितीयोदेशस्यान्तिमे सूत्रद्वये वस्त्ररजोहरणानां विधिःवस्त्रस्य पञ्चविधत्वं रजोहरणस्य पञ्चविधत्वं चेति तद्रूपो विधिः समासेन संक्षेपेण उक्तः कथितः । अत्र अस्मिन् तृतीयोद्देशकस्य प्रथमसूत्रे तेषां पूर्वोक्तप्रकाराणां वस्त्राणां रजोहरणानां च निर्ग्रन्थीभ्यो दानविधिः दानविषयो विधिः ज्ञातव्यः ॥१॥ ___ ततः गणचिन्ताकारकः गणव्यवस्थाकारको गणधरः वस्त्ररजोहरणानि निम्रन्थीप्रायोग्याणि प्रदातुं यथाकल्पं वितरीतुं तासां निग्रन्थीनां वसतिं गच्छति, तस्य साध्वीवसतिगमनशीलस्य साधोः विधिः-तत्र गमनागमनस्थानादिरूपः निषेधविधानात्मकः साधुकल्प इह अस्मिन् वक्ष्यमाणे तृतीयोदेशकस्यादिसूत्रे कथ्यते प्रतिपाद्यते । अत्रास्मिन् प्रकरणे पूर्वापरसूत्रयोः एष एव सम्बन्धोऽस्तीति ॥२॥ इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य तृतीयोद्देशकस्येदं निर्ग्रन्ध्युपाश्रयगमनस्थानादिप्रतिपादकमादिसूत्रम्-'नो कप्पइ निग्गंथाणं' इत्यादि । सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाणं, निग्गंथीण उवस्सयंसि चिहित्तए वा निसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा निदाइत्तए वा पयलाइत्तए वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारं आहरित्तए, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिघाण वा परिदृवित्तए सज्झायं वा करित्तए, झाणं वा झाइत्तए, काउस्सग्गं वा करित्तए, ठाणं वा ठाइत्तए ॥ सू०१॥ छाया—नो कल्पते निर्ग्रन्थानां, निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये स्थातुं वा निषत्तं वा त्वग्वर्त्तयितुं वा निद्रायितुं वा प्रचलायितुं वा, अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वायं वा आहारमाहर्तुम्, उच्चारं वा प्रस्रवणं वा खेलं वा सिङ्घाणं वा परिष्ठापयितुम्, स्वध्यायं वा कर्तुम्, ध्यानं वा ध्यातुम्, कायोत्सर्ग वा कर्नम्, स्थानं वा स्थातुम् ॥ सू०१॥ _चूर्णी--'नो कप्पइ निग्गंथाणं' इति । निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये वस्त्रदानादिकार्यवशात्तत्र गतानां निम्रन्थानाम् अग्रेऽनुपदं वक्ष्यमाणानि स्थानादीनि कत्तुं न कल्पते । तान्येव दर्शयति-निम्रन्थी Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूणि-भाष्या-वचूरी उ० ३ सू० १-२ साधु-साध्वीनां परस्परोपाश्रयगमननिषेधः ५७ नामुपाश्रये निम्रन्थानां न कल्पते स्थातुं वा ऊर्ध्वस्थितिरूपेण, निषत्तु वा उपवेष्टुं वा पर्यङ्कासनादिना, त्वग्वर्त्तयितुं वा पार्श्वपरिवर्तनं कर्तुम्, निद्रातुं वा निद्रां ग्रहीतुम्, प्रचलायितुं वा उपविष्टः स्थितो वा निद्रां ग्रहीतुम् , अशनं वा ४ अशनादि चतुर्विधमाहारमाहर्तुं वा, उच्चारं वा संज्ञारूपम्, प्रस्रवणं वा कायिकीरूपम्, खेलं वा श्लेष्माणम्, सिवाणं वा नासिकामलम्, एतानि शरीरेन्द्रियमलानि तत्र परिष्ठापयितुं न कल्पते । तथा स्वाध्यायं वा सूत्रार्थरूपं कर्तुम्, ध्यानं वा अन्तर्मुहूर्त्तकालप्रमाणात्मचिन्तनरूपं ध्यातुं-कर्तुम् , कार्योत्सर्ग वा कायिकव्यापारनिवृत्तिपूर्वकं लोगस्सगुणनरूपं कत्तम्, स्थानं वा ऊर्वीभूय कायिकचेष्टावर्जितं लोगस्सगुणनरूपं द्वादशभिक्षुप्रतिमामर्यादारूपं स्थातुम् आचरितुम् निम्रन्थीनामुपाश्रये निर्ग्रन्थानामेतानि कार्याणि कर्तुम् नोकल्पते, एवं करणे निर्ग्रन्थीभिरपमानितत्वादिसंभवात् , अधिकपरिचये स्वपरतदुभयानां ब्रह्मवते शङ्कासद्भावाच्चेति । यस्मादेवं तस्मात् निम्रन्थीनामुपाश्रये निर्ग्रन्थस्याकारणे गमनं निषिद्धमेव, कारणेऽपि गमने द्वितीयेन साधुना सहितः सन् गच्छेत् कारणं संपाद्य चाल्पकालेनैव ततोऽपसरेत् एकाकी न गच्छेदिति भावः ॥ सू० १॥ अत्राह भाष्यकारः--'निग्गंथीवसहीए' इत्यादि । भाष्यम्--निग्गंथीवसहीए, निग्गंथाणं न कप्पए ठाउं । चइयव्बा दस ठाणा, वयभंगुप्पायगा जम्हा ॥३॥ कारणओ जइ गच्छइ, किच्चा कज्ज पुणो निवत्तेज्जा । अहियं तत्थ न चिठे, अहिगरणाईण संभवओ ॥४॥ कारणजाए गच्छइ, विहिणा एत्थं भवे चउन्भंगी । असहिण्हु सहिण्हू इय, एत्थं पुण होइ चउभंगी ॥५॥ छाया-निर्ग्रन्थीवसतौ निर्ग्रन्थानां न कल्पते स्थातुम् । त्यक्तव्यानि दश स्थानानि, ब्रतभङ्गोत्पादकानि यस्मात् ॥३॥ कारणतो यदि गच्छति, कृत्वा कार्य पुनर्निवर्तेत । अधिकं तत्र न तिष्ठेत्, अधिकरणादीनां संभवतः ॥४॥ कारणजाते गच्छति विधिना, अत्र भवेत् चतुर्भडी । असहिष्णुः सहिष्णुरिति, अत्र पुनर्भवति चतुर्भङ्गी ॥५॥ अवचूरी-'निग्गंथीवसहीए' इति व्याख्या सुगमा । अयं भावः-एतानि वक्ष्यमाणानि दश स्थानानि साधूनां सर्वथा त्याज्यानि, तानि यथा-प्रथमं निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये निष्कारणं गमनम् १, तत्र गत्वा दूरतस्तासामवलोकनम् २, कतमाः कतमाः पुनरेता इति जिज्ञासाकरणम् ३, 'अमुकी अमुकी वा एपा' इत्येवं निश्चयकरणम् ४, ताभिः सह वार्तालापकरणम् ५, तासामङ्गोपाङ्गादिषु दृष्टिपातकरणम् ६, तासु काञ्चिदेकां दृष्ट्वा 'एतादृशी ममाप्यासीत्'इति भूतपूर्वस्वस्त्रीसाम्यचिन्तनम् ७, तासु कयाचित् सह गुप्ताभिभाषणम् ८, तन्निमित्तं तस्या अग्रे कस्यापि Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रे परतुनो निश्चयकरणम् ९, ततश्चान्ते शनैः शनैरेवंकरणपूर्वकं तया सह संपर्कसाधनम् इति दशमं स्थानम् १०, एतानि दशापि स्थानानि निर्ग्रन्थैः परिहरणीयानि नानाविधदोषसंघातसंभवादिति ॥ १॥ कारणे गमनेऽपि कार्य कृत्वा शीघ्र पुनः प्रत्यावर्तेत, अधिकस्थितौ अधिकरणसंभवात् ॥ २॥ कारणवशादपि साध्वीनामुपाश्रये विधिना गन्तव्यम् न त्वविधिना, विधिश्च यथा-गणचिन्ताकारको गणधरो यदि वस्त्रादिदानादिनिमित्तं ग्लानायाः शाताप्रच्छनार्थ वा गच्छेत्तदा त्रिषु स्थानेषु नैषेधिकी कुर्यात्-अग्रद्वारे १, मध्यभागे २, आसन्नभागे च ३ । नैषेधिकीत्रयं कृत्वा तत्र प्रविशेत् तेन उपाश्रयस्थिताः साध्व्यः वस्त्रावरणादिना सावधाना भवेयुः । अत्र कारणं विधि चाक्रिय चत्वारो भङ्गा भवन्ति,तथाहि-अकारणे अविधिना १, अकारणे विधिना २, कारणे अविधिना ३, कारणे विधिना ४ । अत्र चतुर्थो भङ्गः शुद्धः समाचरणीयो लभ्यते । पुनरपि सहिण्वसहिष्णुश्रमणश्रमणीशब्दानाश्रित्य चत्वारो भङ्गा भवन्ति तथाहि-श्रमणी असहिष्णुः श्रमणोऽपि असहिष्णुः १, श्रमणी-असहिष्णुः श्रमणः सहिष्णुः २, श्रमणी सहिष्णुः श्रमणः असहिष्णु: ३, श्रमणी सहिष्णुः श्रमणोऽपि सहिष्णुः ४ । एष्वपि चतुर्थो भङ्गः कारणे ग्राह्यः ॥ निर्ग्रन्थस्य साध्वीनामुपाश्रये गमनस्यान्यान्यपि कारणानि भवन्ति,तेषूपस्थितेषु निर्ग्रन्थस्य तत्र पूर्वोक्तशुद्धभङ्गानुसारेण गमनं कल्पते, तानि यथा-उपाश्रयस्य संस्तारकस्योपधेर्वा वितरणार्थम् १, संयमे सीदन्तीनां परिपहत्रस्तानां स्थिरीकरणार्थम् २, प्रतिश्रये अस्वाध्यायिके सति श्रुतस्योदेशमनुज्ञा वा विधातुम् ३, तासां परस्परसंजाताधिकरणस्य व्युपशमनार्थम् ४, प्रवर्त्तिन्यां कालधर्मप्राप्तायां सत्यां गणचिन्तार्थम् शेषसाध्वीनां संसारस्वरूपप्रदर्शनपूर्वकं धर्मोपदेशेनाश्वासनार्थ वा ५, ग्लानाया औषधभैषज्यादिप्रदानार्थम् ६, उपाश्रयेऽग्निना दग्धे जलपूरेण प्लाविते वा तव्यवस्थाकरणार्थम् ७, साध्वीनां देवमानुपतैरेश्चोपसर्गशमनार्थम् ८, भक्तप्रत्याख्यानाद्यनशनप्रतिपन्नायाः परिकर्मजिज्ञासाथै चेति ९ । एतादृशेध्वन्येष्वपि कारणेषूत्पन्नेषु श्रमणीनामुपाश्रये श्रमणानां गन्तुं कल्पते, तत्र भगवदाज्ञातिक्रमणदोषाभावात् ॥ ३ ॥ पूर्व निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये निर्ग्रन्थानां स्थानादिकरणं निषिद्धम् , साम्प्रतं तद्वैपरीत्येन निम्रन्थीनां निम्रन्थोपाश्रये तान्येव स्थानादीनि निषेधयितुमाह-'नो कप्पइ निग्गंथीणं' इत्यादि । सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथीणं निग्गंथउवस्सयंसि चिद्वित्तएवा जाव काउन्सग्गं करेत्तए ठाणं वा ठाइत्तए ॥ सू०२॥ छाया-नो कल्पते निम्रन्थीनां निर्ग्रन्थोपाश्रये स्थातुं वा यावत् कार्योत्सर्ग कम् िस्थानं वा स्थातुम् ॥ सू० २ ॥ चूर्णी-'नो कप्पई' इति । यथा पूर्व निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्ध्युपाश्रयेऽवस्थानादि निषिद्धं तथैवात्र निम्रन्थीनां निर्ग्रन्थोपाश्रयेऽवस्थानादि कत्तुं न कल्पते' इति प्रतिपादितम् । यदि ग्लानसाधुशरीरसमाधिजिज्ञासाथ गणचिन्ताकारकगणघरादुपध्यादिमार्गणार्थ वा निम्रन्थी साधूपाश्रये गच्छेतदा कारणविधिभङ्गप्रदर्शितशुद्धभङ्गमपेक्ष्य नैषेधिकीत्रयपूर्वकं गच्छेत् । एवं असहिष्णु-सहिष्णु- भङ्गे Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णि भाग्यावचूरो उ० १ सू० ३-५ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां चर्मग्रहणविधिः ५९ वपि शुद्धभङ्गमपेक्ष्य गच्छेत् । अत्रायं विशेषः ग्लाना दिजिज्ञासा वाचनाप्रच्छनादिकारणजाते पुरुष साक्षिपूर्वकं गृहस्थस्त्रीसाक्षिपूर्वकं च द्वितीयया तृतीयया वा साध्या सहिता भूत्वा पूर्वोक्तविधिना यतनया गच्छेदिति भावः । शेषं सर्वं पूर्वसूत्रोक्तवदेव विज्ञेयम् ॥ सू० २ ॥ रक्षणार्थं निर्ग्रन्था निर्ग्रन्ध्यश्च परस्परं स्वान्यतरोपाश्रये न गच्छेयुरिति प्रतिपादि पूर्व तम् एवं ब्रह्मत्रतरक्षणायैव निर्ग्रन्थीभिस्तादृशमुपकरणमपि न प्रतिग्रहीतव्यं येन ब्रह्मव्रते बाधा या - " दिति विभाव्य साध्वीनां सलोमचर्मग्रहणनिषेधं प्रतिपादयन्नाह - 'नो कप्पइ० सलोमाइ' इत्यादि, सूत्रम् - - नो कप्पर निमांथीण सलोमाई चम्माई अहिट्ठित्तए | सू० ३ ॥ छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां सलोमानि चर्माणि अधिष्ठातुम् ॥ सू० ३ ॥ चूर्णी - 'नो कप' इति । निर्ग्रन्थीनां सलोमानि लोमसहितानि चर्माणि मृगादिचर्माणि अधिष्ठातुं तदुपरि उपवेष्टुम् उपवेशनार्थ सरोमचर्माणि उपभोक्तुं नो कल्पते । सलोमचर्मोपरि साध्वीभिर्नोपवेष्टव्यमिति भावः । अनेनायातं निर्लोमचर्माणि साध्वीनां कल्पते इति न, सलोम. निर्लोमचर्मणोर्द्वयोरपि ग्रहणे जीववधतदनुमोदनक्रिया समापयेत । सलोमचर्मोपरि समुपवेशनेन संयमात्मविराधना भवति यथा -- सुकुमाललोमस्पर्शेण मनोविकारादिदुर्भाव संभवात्, लोममध्ये स्थितानां कुन्थुपिपीलिकादीनां दुष्प्रतिलेख्यत्वाच्च संयमविराधना, लोमशुषिरमागे कण्टकवृश्चिकादिनाऽऽत्मविराधना च भवति ॥ सू० ३ ॥ पूर्वं निर्ग्रन्थीनां सलोमचर्मोपरि समुपवेशनं निषिद्धम्, संप्रति निर्ग्रन्थानां तानि कल्पते इति द्विधिं प्रदर्शयति- 'कप्प' इत्यादि । सूत्रम् - कप्पर निम्गंथाणं सलोमाई चम्माई अहिद्वित्तए, सेवि य परिभुत्ते नो चेवणं अपरिभुत्ते, सेवि य पडिहारिए नो चेव णं अपडिहारिए, सेवि य एगराइए नो चेव णं अगराइ ॥ सू० ४ ॥ छाया - कल्पते निर्ग्रन्थानां सलोमानि चर्माणि अधिष्ठातुम्, तदपि च परिभुक्तं नो चैव खलु अपरिभुक्तम्, तदपि च प्रातिहारिकम् नो चैव खलु अप्रातिहारिकम्, तदपि च एकरात्रिक नो चैव खलु अनेकरात्रिकम् ॥ सू० ४ ॥ चूर्णी - ' कप्पड़' इति । कल्पते निर्ग्रन्थानां सलोमानि - लोमसहितानि चर्माणि अधिष्ठातुम्- परिभोक्तम् किन्तु तदपि च सलोमचर्म परिभुक्तं लोहकारादिभिरुपवेशनादिना परिभोगविष यीकृतं कल्पते इति सम्बन्धः, एवमग्रेऽपि बोध्यम् । किन्तु नो चैव खलु अपरिभुक्तं गृहस्थैः पूर्वं न परिभुक्तं चेत्-तन्न कल्पते । तत् परिभुक्तमपि सलोमचर्म प्रातिहारिकं कार्यानन्तरं पुनः प्रत्यावर्त्त - नीयं, 'कार्यानन्तरं पुनः प्रत्यर्पयिष्यामी' -त्युक्त्वा यदानीयते तत् प्रातिहारिकं कथ्यते 'पडिहारी ' इति मुनिभाषा प्रसिद्धं तत्प्रकारकं प्रातिहारिकं कल्पते किन्तु न चैव खलु अप्रातिहारिकं पुनर्न प्रत्य Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रे पणं भवेत् तद् 'आगेरी' इति मुनिभाषाप्रसिद्ध तथाविधं परिभुक्तमपि न कल्पते । तदपि च सलोमचर्म परिभुक्तं प्रातिहारिकं च एकरात्रिकं एकाहोरात्रपर्यन्तमेव कल्पते किन्तु नो चैव खलु अनेकरात्रिकं द्वित्रिचतुरायहोरात्रपर्यन्तं कल्पते अर्शोभगंदर-रोगादिकारणजाते साधुना सलोमचर्म परिभुक्तं प्रातिहारिकमेकरात्रिकम् एकाहोरात्रमर्यादित ग्राह्य, न तदधिकाहोरात्रपर्यन्तमिति भावः । अत्र शङ्कते कश्चित्-यत् निम्रन्थानां सलोमचर्मानुज्ञातं निग्रन्थीनां च तन्निषिद्धं तत् किमत्र कारणम् महाव्रतानां समानत्वात् ? तत्राह-साध्व्यः स्वभावतः कोमलास्ततस्तासां कोमलस्पर्शतः पूर्वभुक्तभोगानां स्मृतिकौतुकादिना बह्मवते शङ्कोत्पत्तिसंभवात् । निर्ग्रन्थानां तदभावादिति । वस्तुतस्तु इदं कारणिकं सूत्रम् , उत्सर्गतस्तु साधूनामपि तन्न कल्पते हिंसानुमोदनदुष्प्रतिलेख्यत्वादिदोषसद्भावादिति ॥ सू० ४ ॥ पूर्व सलोमचर्म साध्वीनां निषिद्धं, साधूनां च तस्य विधिना ग्रहणमनुज्ञातम् , साम्प्रतं चर्मप्रसङ्गात्कृस्नचर्मनिषेधप्रतिपादकं साधुसाध्वीनां समुच्चयसूत्रमाह-नो कप्पइ० कसिणाई चम्माई' इत्यादि। _ सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा कसिणाइ चम्माइं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ सू०५॥ छाया–नो कल्पते निग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा कृत्स्नानि चर्माणि धर्नु वा परिहर्तुं वा ॥ सू० ५॥ चूर्णी-'नो कप्पड़' इति । निम्रन्थानां निम्रन्थीनां द्वयानामपि कृत्स्नानि परिपूर्णानि अखण्डानि वर्णप्रमाणादिभिः प्रतिपूर्णानि चर्माणि धत्तुं पार्श्वे स्थापयितुं परिहत्तुं परिभोक्तुं वा नो कल्पते, अनेनेदमायातम्-यत् खण्डितानि खण्डशः कृतानि वर्गप्रमाणादिभिरपरिपूर्णानि तु निम्रन्थनिम्रन्थीनां कल्पते, इति, अनेन ज्ञायते यथासंभवं साधूनां चर्मण आवश्यकता भवेत् 'प्राप्तौ सत्यां निषेधः' इतिवचनात् , सत्यम् यथासंभवमावश्यकता भवेदपि-सन्धिवातादिकारणे कदाचित् जान्वादौ बन्धयितुं वैद्यादेशो भवेत् तदा तच्चर्म खण्डितमेव ग्राह्यं, नतु परिपूर्णम् । अन्यच्च परिपूर्णचर्म अन्यतोथिंकसाधव उपकरणत्वेन गृह्णन्ति ततस्तादृशे परिपूर्णे चर्मणि गृहीते प्रवचनस्योड्डाहो भवेत् यत् परपाषण्डिवदेतेऽपि मृगव्याघ्रादिचर्म गृह्णन्तीति तस्मात् कृत्स्नचर्म निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां निषिद्धं भगवतेति बोध्यम् ॥ सू० ५ ॥ पूर्व कृत्स्नचर्मग्रहणं साधुसाध्वीनां निषिद्धं किन्तु वातरोगादिकारणे अकृत्स्नचर्मणो यथासंभवमावश्यकता जायते इति चर्मसम्बन्धिकारणिकसूत्रमाह-कप्पइ० अकसिणाणि चम्माई' इत्यादि । सूत्रम्--कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अकसिणाई चम्माइं धारित्तए वा परिहरित्तएवा ॥ सू० ६॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूणि-भाष्या-ऽवचूरो उ० ३ सू० ६-८ निर्ग्रन्थनिम्रन्थीनां वस्त्रग्रहणविधिः ६३ छाया—कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अकृत्स्नानि चर्माणि धर्तुं वा परिहतुं वा ॥ सू०६ ॥ चूर्णी-'कप्पई' इति । निम्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा अकृत्स्नानि अपरिपूर्णानि खण्डरूपाणि चर्माणि धत्तु परिहत्तं वा कल्पते । पूर्वोक्तसन्धिवातादिकारणे वैद्यादेशेन जान्वादौ बन्धयितुमावश्यकता भवेत्तदा चर्मखण्डं ग्रहीतुं कल्पते नतु कृत्स्नमिति कारणिकसूत्रमिदं बोध्यम् । ननु पूर्वसूत्रे कृत्स्नचर्म निषिद्धं तेनैवाऽऽयातं यत् अकृत्स्नं कल्पते इति तेनास्य सूत्रस्य नैरर्थक्यमुपजायते, अत्राह–सावुसमुदाये नानादेशीयाः प्रकृतिभद्रका विनेया भवन्ति ते जानन्ति यत् भगवता कृत्स्नचर्म निषिद्धं तेन चर्ममात्रं न ग्राह्यम् , एवं सति वातादिकारणे वैद्यादेशो निष्फलो भवेत् वातादिनिवारणं न भवेत् तेन संयमाराधनं दुःशक्यं जायतेऽतो भगवता तेषां स्पष्टबोधार्थमिदं सूत्रमत्रोपन्यस्तं ततो नास्य सूत्रस्य नैरर्थक्यमित्यग्रेऽपि बोध्यम् ॥ सू० ६ ॥ पूर्वसूत्रद्वये कृत्स्नाऽकृत्स्नचर्मग्रहणे विधिनिषेधौ प्रतिपादितौ, साम्प्रतं वस्त्रविषयकं सूत्रमाह'नो कप्पइ० कसिणाई वत्थाई' इत्यादि । सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा कसिणाई वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा। कप्पइ निगंथाण वा निग्गंथीण या अकसिणाई वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ सू० ७॥ छाया--नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा कृत्स्नानि वस्त्राणि धतु वा परिहर्नु वा, कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अकृत्स्नानि वस्त्राणि धर्नु वा परिहर्नु वा ॥ सू० ७॥ चूर्णी-'नो कप्पई' इति । निर्ग्रन्यानां निर्ग्रन्थीनां कृत्स्नानि परिपूर्णानि अखण्डानि यथाप्रकाराणि उत्पादनस्थानादागतानि तथाप्रकाराण्येव वस्त्राणि धर्तुं परिहर्तुं वा नो कल्पते, कृत्स्नं चतुर्विधं द्रव्यक्षेत्र कालभावभेदात् , तत्र द्रव्यकृत्स्नं द्विविधं भवति सकल कृत्स्नं प्रमाणकृत्स्नं चेति । तत्र द्रव्यतः सकलकृत्स्नं वस्त्रपर्यन्तगततन्तुसहितं परिपूर्णकोमलस्पर्शयुक्तम् अनुपहतम् अञ्जनखञ्जनादिदोषवर्जितं सदशाकं 'दशा' किनारी,इति प्रसिद्धं तत्सहितं तादृशं वस्त्र द्रव्यतः सकलकृत्स्नं प्रोच्यते, तदपि जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन त्रिविधम् , तत्र जघन्यं मुखवस्त्रिकादिकम् , मध्यम चोलपट्टादि,उत्कृष्ट प्रावरणादि, इदं त्रैविध्यमग्रेपि सर्वप्रकारवस्त्रेषु बोध्यम् १, यत्-दैर्ध्यविस्ताराभ्यां यथोक्तप्रमाणतोऽतिरिक्तं तत् द्रव्यतः प्रमाणकृत्स्नम् २, क्षेत्रकृत्स्नं यत् यस्मिन् देशे दुर्लभं वा भवेत् एकदेशनिष्पन्नं वस्त्रमन्यस्मिन् देशे बहुमूल्यं भवति, बहुमुल्यं यथा पूर्वदेशनिष्पन्नं वस्त्रं लाटदेशं प्राप्य बहुमूल्यं भवति २, कालकृस्न-यस्मिन् काले यद् वस्त्रं बहुमूल्यं भवति यथा-ग्रीष्मे सूक्ष्मवस्त्रं, शिशिरे कम्बलादि, बर्षासु कुङ्कुमखचितादि ३, भावकृत्स्नं द्विविधम्-वर्णयुतं मूल्ययुतं च, तत्र वर्णयुतं पञ्चविधं कृष्णादिवर्णभेदात् , मूल्ययुतं त्रिविधम्-जघन्य Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ jereer मध्यमोत्कृष्टभेदात् मूल्ययुक्त कृत्स्नस्य जघन्यमध्यमोत्कृष्टत्वं देशानुसारेण यद् वस्त्र यत्र जघन्य - मूल्यकं तदपि अन्यत्र मध्यमोत्कृष्टमूल्यकं जायते इति यथासंभवं स्वयमूहनीयम् ४ ॥ सू० ७ ॥ पूर्वसूत्रे तावत् श्रमणश्रमणीनामकृत्तं वस्त्रमनुज्ञातम्, संप्रति तस्याकृत्स्नस्य वस्त्रस्य भिन्नत्वमभिन्नत्वं च भवतीति प्रथममभिन्नानि वस्त्राणि प्रतिषेधितुमाह - 'नो कप्पइ० अभिन्नाह' इत्यादि । सूत्रम् - नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा अभिन्नाई वत्थाई धारितए वा परिहरितए वा ॥ सू० ८ ॥ छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अभिन्नानि वस्त्राणि धर्तुं वा परि वा ॥ सु०८ ॥ चूर्णी - 'नो कप्पड़' इति । निर्ग्रन्थानां निर्मन्थीनां वा अभिन्नानि अच्छिन्नानि अस्फाटितानि पूर्वं गृहस्थैः स्वनिमित्तं न खण्डीकृतानि वस्त्रोत्पादनस्थानाद् यथा आगतानि तथैव स्थितानि तादृशानि वस्त्राणि धर्तुं - स्वनिश्रया स्थापयितुम्, परिहर्तुं परिभोक्तुं नो कल्पते । स्वहस्तेन छिद्यमाने वायुकायादिविराधना संभवति । ननु कृत्स्नाभिन्नयोः समानार्थकत्वात्पूर्वसूत्रालापक एवात्रापि प्रतिपादित इति पिष्टपेषणवद् भवति, ततः पुनरुक्तत्वात् सूत्रमिदं निरर्थकं प्रतिभाति इति न, कारण सापेक्षत्वादस्य सूत्रस्य । किं पुनस्तत्कारणम् ? इति चेदुच्यते - अनेन सूत्रेण वस्त्राणां गणनालक्षणं प्रमाणलक्षणं चेति द्विविधं प्रमाणं नियम्यते, तथाहि कियन्ति किं प्रमाणानि वा तानि वस्त्राणि श्रमगैर्ग्रहीतव्यानि : इत्येवमत्र निरूप्यते इति नास्य नैरर्थक्यमिति । अत्र कश्चित् शङ्कते - यस्मादभिन्नस्य वस्त्रस्य धारणे श्रमणानां पूर्वसूत्रोक्ता दोषा भवन्ति तर्हि भिन्नमपि वस्त्रं गृह्यते तदपि यदि चोलपट्टादिप्रमाणेनाऽतिरिक्तमधिकं लम्बं भवेत्तदा तस्यापि पुनर्भेदनमावश्यकमेव तर्हि ते दोषा अत्रापि संभवन्त्येव, तथा हि-वस्त्रे विद्यमाने 'चिरे' इत्यादिशब्दसंमूर्छनं भवति, सूक्ष्मपक्ष्मावयवाश्चोड्डीयन्ते, तैश्च लोकान्तपर्यन्तं गच्छद्भिर्बहूनां त्रसप्राणिप्रभृतीनां सूक्ष्मजन्तूनां विराधनाऽवश्यम्भाविनी । अथवा वस्त्रछेदनजन्यैः शब्दपक्ष्मवातादिपुद्गलैर्लेौकान्तं यावद्गच्छद्भिस्तैश्चालिताः सन्तोऽन्ये तत्पुद्गला लोकान्तपर्यन्तं गच्छन्ति एवं रीत्याऽन्यान्यपुद्गलप्रेरिताः पुद्गलाः प्रसरन्तः क्षणेन ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् चतसृष्वपि दिक्षु सकलमपि लोकमापूरयन्ति तस्मा - त्सकललोकपूरणात्मकमारभ्मं सूक्ष्मजीवविराधनया सदोषं बुद्ध्वा यथालब्धं लघु दीर्घ लम्बं विस्तृतं वा भवेत् तत्तादृशमेव श्रमणैर्धारयितव्यं, न पुनस्तस्य छेदनादिकं कर्त्तव्यमिति, अत्राह - चिता तवैषा शङ्का, यतो यद्येवं तर्हि भिक्षादिनिमित्तमपि चेष्टादिकं न कर्त्तव्यं भवेत्, भिक्षासंज्ञाभूम्यादिगमनभोजनशयनादिरूपाभिरीर्याभिर्विना तु शरीरस्य पौगलिकत्वात्तन्निर्वाहोऽपि न स्यात्, शरीरमन्तरा च संयमस्यापि व्यवच्छेदः समापतेत्, तस्माद् भिक्षादिनिमित्तमीर्यादिचेष्टाया अनि - Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूणिभाष्यावचूरो उ० ३ सू० ९-१२ भिन्नाभिन्नवस्त्रग्रहणविधिः ६३ वार्यत्वात्सा कर्त्तुमुचितैव । एवं यथोक्तप्रमाणचोल पट्टादि वस्त्रधारणस्य भगवता समुपदिष्ठत्वा'तत्प्रमाणार्थं यतनया वस्त्रच्छेदने कोऽपि न दोषः शास्त्रे साधोः सकलक्रियाया यतनयैव करणीयत्वेन प्रतिपादनात् उक्तं च- दशवै० ४ अ० - जयं चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जयं सए । जयं भुजंतो भासतो, पावकम्मं न बंधइ ॥ तस्मात् भिन्नवस्त्रधारणस्य भगवतानुज्ञातत्वाद् निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीभिरभिन्नवस्त्रं न धारयितव्यं न परिभोक्तव्यम्, भगवदाज्ञापालने न कोऽपि दोषः 'आणाए मामगं धम्मं' इत्याचाराङ्ग वचनप्रामाण्यादिति ॥ सू० ८ ॥ श्रमणैर्वस्त्राणि कियन्ति किंप्रमाणानि चोपकरणत्वेन ग्रहीतव्यानि तत्राह भाष्यकार :'भिन्नाई' इत्यादि । भाष्यम् -- भिन्नाईं वत्थाई, उवगरणे कइ य धारणिजाई । थविरे कप्पे चउदस, साडगमाईणि णेयाई ॥ ६॥ छाया - भिन्नानि वस्त्राणि उपकरणे कति च धारणीयानि । स्थविरे कल्पे चतुर्दश, शाटकादीनि ज्ञातव्यानि ॥ ६ ॥ अवचूरी - 'भिन्नाई' इति । अभिन्नानि वस्त्राणि श्रमणैर्न ग्रहीतव्यानि नैव च धारनीति भगवता प्रतिषिद्धं तेनायाति - भिन्नानि धारणीयानि तानि श्रमणानामुपकरणे उपकरणनिश्रायां कति–कतिसंख्यकानि धारणीयानि ? इति प्रश्ने प्राह - अत्रास्मिन् स्थविरे कल्पे साधूनां चतुर्दश वस्त्राणि शाटकादीनि उपकरणे ज्ञातव्यानि तानीमानि - शाटकत्रयम् ३, चोलपट्टकः ४, आसनम् ५, मुखवस्त्रिका ६, प्रमार्जिका ७, पात्राणामञ्चलत्रयम् १०, भिक्षाघानी ११, माण्डवस्त्रम् १२, रजोहरण दण्डाssवरकवस्त्रं 'निषद्या' इति समयभाषाप्रसिद्धम् १३, चतुर्दशंच धावनजला दिगालनवस्त्रम् १४, इति । एतानि चतुर्दश उपकरणानि स्थविरकल्पिकानां कल्पन्ते । गृहस्थैः स्वनिमित्तं भिन्नं वस्त्रं समादाय तन्मध्याद् यथोक्तप्रकारेण चतुर्दशोपकरणानि यतनया विभिद्य करणीयानि स्वस्वप्रमाणेन उपकरणविधायनस्य भगवताऽनुज्ञातत्वादिति ॥ ६ ॥ पूर्वमभिन्नवस्त्रधारणे निषेधः प्रतिपादितः, साम्प्रतं स्पष्टप्रतिपत्त्यर्थं तद्विपरीतं भिन्नवस्त्रधारणसूत्रमाह - 'कप्पइ० भिन्नाई" इत्यादि । सूत्रम् - कप्पर निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा भिन्नाईं वत्थाई धारितए वा परिहरित वा ॥ सू० ९ ॥ छाया - कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थोनां वा भिन्नानि वस्त्राणि धर्तुं वा परि ॥०९ ॥ चूर्णी - 'कप' इति । कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्मन्थीनां वा भिन्नानि छेदितानि गृहस्थैः स्वनिमित्तं स्फाटितानि वस्त्राणि धर्त्तु परिहर्त्तु वा । अन्यत्सर्वं पूर्वसूत्रवदेव विज्ञेयम् ॥ सू०९ ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रे पूर्वं निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां सामान्येन भिन्नाभिन्नवस्त्रधारणे विधिर्निषेधश्च प्रतिपादितः, साम्प्रतं निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च स्वस्वकल्पानुसारेण पृथक् पृथग् वस्त्रधारणे निषेधं विधिं च प्रतिपादयितुकामः प्रथमं निर्ग्रन्थसूत्रमाह- 'नो कप्पइ० उग्गहणंतगं' इत्यादि । सूत्रम्--नो कप्पर निग्गंथाणं उग्गहणंतगं वा उग्गहपट्टगं वा धारितए वा परिहरितएवा ॥ सू० १० ॥ छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थानाम् अवग्रहानन्तकं वा अवग्रहपट्टकं वा धतुं वा परिहवा ॥ सू० १० ॥ ६४ चूर्णी -- 'नो कप्पड़' इति । निर्ग्रन्थानाम् अवग्रहानन्तकम् - समयभाषया गुह्यस्थानाच्छादनवस्त्रं 'लंगोट, कौपीन' इति प्रसिद्धम्, अवग्रहपट्टकं तस्याप्युपरि तदाच्छादनार्थं यद् धार्यते तत् घर्त्तुं स्वनिश्रायां स्थापयितुं परिहर्तुं परिभोक्तुं वा नो कल्पते, अनयोस्तापसादीनामुपकरणत्वेन जैनमुनीनामकल्प्यत्वादिति ॥ सू० १० ॥ पूर्वोक्तं वस्त्रद्वयं निर्ग्रन्थीनां कल्प्यत्वेन तद्विधिसूत्रमाह - ' कप्पइ० उग्गहणंत गं' इत्यादि । सूत्रम् - - कप्पर निग्गंथीणं उग्गहणंतगं वा उग्गहपगं वा धारितए वा परिहरितए वा ॥ सू० ११ ॥ छाया -कल्पते निर्ग्रन्थीनाम् अवग्रहानन्तकं वा अवग्रहपट्टकं वा धर्तुं वा परिहर्तुं वा ॥ सु० ११ ॥ चूर्णी - ' कप्पइ' इति । व्याख्या सुगमा नवरं पूर्वोक्तं वस्त्रद्वयं यद् निर्ग्रन्थानां प्रतिषिद्धं तद् निर्ग्रन्थीनां कल्पते, निर्ग्रन्थीनां स्त्रीत्वेन रजोदर्शन संजातरुधिरस्त्रावप्रतिरोधने आवश्यकत्वादिति ॥ सू० ११ ॥ पूर्वसूत्रे निर्ग्रन्थीनां वस्त्रद्वयधारणे विधिः प्रोक्तः, साम्प्रतं वस्त्रप्रसङ्गाद् निर्ग्रन्थी वस्त्रग्रहणे विधिमाह - 'निग्गंथीए य' इत्यादि । सूत्रम् -- निग्गंथीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठाए लट्ठे समुपज्जेज्जा, नो से कप्पर अप्पणो नीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए, कप्पर से पवत्तिणी - fare चेलं डिग्गाहित्तए । नो य से पवित्तिणी सामाणा सिया जे से तत्थ सामाणे आयरिए वा उवज्झाए वा पत्रत्तए वा थेरे वा गणी वा गणहरे वा गणावच्छेयए वा जं asi पुरओ कट्टु विरइ कप्पर से तन्नीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए । सू० १२ ॥ छाया -- निर्ग्रन्यच गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया अनुप्रविष्टायालार्थं समुस्पद्येत, नो तस्याः कल्पते आत्मनो निश्रया चेलं प्रतिग्रहीतुम्, कल्पते तस्याः प्रवतिनीनिश्रया चेलं प्रतिग्रहीतुम्, नो चेद् अथ तत्र प्रवर्त्तिनी सामाना स्यात् यः स तत्र सामानः आचार्यों वा उपाध्यायो वा प्रवर्त्तको वा स्थविरो वा गणी वा गणधरो वा गणावच्छे Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णि भाग्यावचूरी उ०- ३ ० १२-१३ प्रथमपश्चादुपस्थितयोर्वस्त्रादिग्रहणविधिः १५ दको वा यं चान्यं पुरतः कृत्वा विहरति कल्पते तस्यास्तम्निश्रया चेंल प्रतिग्रहीतुम् ॥ सु०१२ ॥ चूर्णी - 'निग्गंथीए य' इति । निर्ग्रन्ध्याश्च कीदृश्या इत्याह-गाथापतिकुलं गृहस्थगृहं पिण्डपातप्रतिज्ञया-आहार ग्रहणेच्छया अनुप्रविष्टाया यदि चेलार्थः चेलस्य अर्थः प्रयोजनं अल्पवस्त्रत्वेन वस्त्रग्रहणप्रयोजनं समुत्पद्येत तदा तस्या निर्ग्रन्थ्या आत्मनः निश्रया आत्मीयत्वेन ' इदं वस्त्रं मम भविष्यती' - त्येवंरूपया निश्रया चेलं वस्त्रं प्रतिग्रहीतुं गृहस्थादादातुं नो कल्पते । तर्हि कथं कल्पते ? इति तद्विधिं प्रदर्शयति - तस्याः प्रवर्त्तिनीनिश्रया - 'इदं वस्त्रं गृह्णामि मम प्रवर्त्तिनी - निश्रया, सा यस्याः कस्या मम अन्यस्या वा दास्यति सा ग्रहीष्यति' इत्येवंरूपया गृहस्थं प्रत्येवं वाचा प्रकटय्येत्यर्थः चेलं वस्त्रं प्रतिग्रहीतुं कल्पते । यदि नो चाथ प्रवर्त्तिनी सामाना सन्निहिता तत्र ग्रामे उपाश्रये वा न स्यात् नो भवेत्तदा तत्र ग्रामे यः सः यः कोऽपि सामान : संनिहितः स्यात्, कः ? इत्याह- आचार्यो वा, आचार्य : - यः पञ्चाचारान् स्वयं पालति परान् पालयति सः, तथा योऽर्थं वाचयति, गच्छस्य मेथीभूतः शरीराद्यष्टसंपदायुक्तो भवेत्स आचार्यः संनिहितो भवेत्, तदभावे उपाध्यायः - उप - समीपम् एत्य अधीयते प्रवचनं शिष्यैः यस्मात् सवा भवेत्, तदभावे प्रवर्त्तकः - प्रवर्त्तयति आचार्योपदिष्टेषु कार्येषु तपःसंयमयोगवैयावृत्त्यसेवाशुश्रूषाऽध्ययनाध्यापनसूत्रार्थादिषु यथायोग्यं बलाबलं विचार्य नियोजयंति यः स प्रवर्त्तको भवेत्, तदभावे स्थविरो वा - संयमयोगेषु सीदतः साधून् ऐहिकामुष्मिकापायप्रदर्शनपूर्वकं ज्ञानादिषु स्थिरीकरोति यः स स्थविरो वा भवेत्, तदभावे गणी वा-गणः कतिपयसाधुसमुदायः स्वस्वा - मिसम्बन्धेन यस्यास्ति सः, यः साधुसमुदायेन सह विचरणशीलः स गणी वा भवेत् तदभावे गणधरो वा यः गणचिन्ताकारको गणस्य योगक्षेमविधायकः, तत्र अप्राप्तस्य प्राप्तिर्योगः, प्राप्तस्य रक्षणं क्षेमस्तद्विधायको गणधरो वा भवेत्, तदभावे गणावच्छेदको वा गणस्य साधुसमुदायस्यावच्छेदं विभागं करोति यः गणव्यवस्थाकारकः स गणावच्छेदको वा भवेत्, तदभावे यं चान्यं कमपि गीतार्थं पुरतः कृत्वा साध्वी तदाज्ञया विहरति सो वा तत्र संनिहितो भवेत्, एतेषु आचार्यादिषु यः कोऽपि तदा संनिहितो भवेत् तन्निश्रया तन्निश्रामधिकृत्य तस्या निर्ग्रन्थ्याः चेलं - वस्त्रं प्रतिग्रहीतुं कल्पते, भिक्षार्थं गृहस्थगृहे गतया निर्ग्रन्ध्या वस्त्रावश्यकतायां स्वनिश्रया का वस्त्रं न ग्रहीतव्यमिति भावः ॥ सू० १२ ॥ • पूर्वसूत्रे निर्ग्रन्ध्या वस्त्रग्रहणविधिः प्रोक्तः, साम्प्रतं प्रथमतया प्रत्रजितुकामस्य पूर्वोपस्थितस्य च वस्त्रग्रहणविधिमाह - 'निग्गंथस्स' इत्यादि । सूत्रम् - निग्गंथस्स णं तप्पढमयाए संपव्वयमाणस्य कप्पइ रयहरणगोच्छगपडिमाया तिहिं कसिणेर्हि वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्तए, से य पुव्वोवहिए सिया एवं से ९ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पसूत्रे नो कप्पइ रयहरणगोच्छगपडिग्गमायाए तिहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्तए, कप्पइ से अहापडिग्गहियाइं वत्थाई गहाय आयाए संपव्वइत्तए ॥ सू० १३॥ छाया-निर्ग्रन्थस्य खलु तत्प्रथमतया संप्रव्रजतः कल्पते रजोहरणगोच्छकप्रतिग्रहमादाय त्रिभिः कृत्स्नैर्वस्त्रैः आत्मना संप्रव्रजितुम् । स च पूर्वोपस्थितः स्यात् एवं तस्य नो कल्पते रजोहरणगोच्छकप्रतिग्रहमादाय त्रिभिः कृत्स्नैर्वस्त्रैः आत्मना संप्रवजितुम्. कल्पते तस्य यथाप्रतिगृहीतानि वस्त्राणि गृहीत्वा आत्मना संप्रवजितुम् ॥ सू०१३॥ चूर्णी-'निग्गंथस्स'इति । निम्रन्थस्य तत्प्रथमतया तत्-तेन साधुत्वेन प्रथमः तत्प्रथमः, तस्य भावस्तत्ता, तया पूर्वमदीक्षितस्य प्रथममेव दीक्षितुमुपस्थिततया संप्रव्रजतः प्रव्रज्यां गृह्णतः कल्पते रजोहरण-गोच्छक प्रतिग्रहम् , तत्र रजोहरणं प्रसिद्ध, गोच्छकं प्रमार्जनिका, प्रतिग्रहः पात्रम् , रजोहरणं च गोच्छकं च प्रतिग्रहश्चेति समाहारद्वन्द्वे रजोहरणगोच्छकप्रतिग्रहम् , तत् नूतनम् आदाय गृहीत्वा तदन्यैर्नूतनैस्त्रिभिः कृत्स्नैः, तत्र-चतुर्विशतिहस्तपरिमितमायामतः, एकहस्त्तपरिमितं च विष्कम्भतः, एतावत्प्रमाणकं वस्त्र कृत्स्नमुच्यते, तैः परिपूर्णैः अखण्डितैः वस्त्रैः 'थान' 'ताका' इति प्राचीनसमये प्रसिद्धैः, एकं कृत्स्नं वस्त्रं चतुर्विंशतिहस्तप्रमितमभूत् तादृशैस्त्रिमिः कृत्स्नैर्वस्त्रैः साधूनां द्वासप्ततिहस्तप्रमितवस्त्रग्रहणस्य कल्पत्वात्, तैः सह तानि त्रीणि गृहीत्वेत्यर्थः आत्मना स्वयं सप्रवजितुं कल्पते । एष विधिरगारितोऽनगारताग्रहणकालविषयो बोध्यः । अथ पूर्वप्रवजितस्य सामायिकचारित्रवतश्छेदोपस्थापनीयचारित्रग्रहणसमयस्य विधि प्रदर्शयति-से य पुव्वोबढिए' इत्यादि, ‘से य' स च प्रव्रज्यां प्रतिपत्तुकामो यदि पूर्वोपस्थितः पूर्वगृहीतसामायिकचारित्रः सन् छेदोपस्थापनीयचारित्रं ग्रहीतुकामः स्यात्, यद्वा अतिचारादिमूलगुणदोषापत्त्या पुनर्दीक्षार्थमुपस्थितः स्यात् तदा ‘एवं' एवं सति 'से' तस्य पूर्वोपस्थितस्य रजोहरणगोच्छकप्रतिग्रहं नूतनम् 'आयाए' आदाय गृहीत्वा एवं त्रिभिश्च कृत्स्नैः वस्त्रैः सह आत्मना स्वयं संप्रत्रजितुं नो कल्पते । तर्हि तस्य कया रीत्या कल्पते ? इति तद्विधिमाह-'कप्पइ' इत्यादि, कल्पते तस्य तादृशस्य पूर्वोपस्थितस्य छेदोपस्थंपनीयचारित्रग्रहणकामस्य यथाप्रतिगृहीतानि-यथा येन विधिना प्रतिगृहीतानि यानि पूर्व स्वीकृतानि वस्त्राणि तान्येव गृहीत्वा आत्मना स्वयं संप्रवजितुम् छेदोपस्थापनीयचारित्रं ग्रहीतुं कल्पते इति पूर्वेण सम्वन्धः । अयं भावः-यः पूर्व गृहस्थः स प्रथमतया प्रव्रज्यां गृह्णानि तस्य नूतनं रजोहरणादिकं त्रीणि कृत्स्नानि वस्त्राणि च गृहीत्वा प्रव्रजितुं कल्पते । यः पुनः पूर्वोपस्थितः पूर्व गृहीतसामायिकचारित्रः, यद्वा चारित्रदोषवशात् पुनर्महाव्रतोपस्थापनं स्वीक कामो भवेत् तस्य नूतनरजोहरणादिकं त्रीणि कृत्स्नानि वस्त्राणि च गृहीत्वा प्रव्रजितुं न कल्पते, किन्तु तस्य पूर्वप्रतिगृहीतान्येव वस्त्राणि गृहीत्वा कल्पते इति भावः। ननु यस्तत्प्रथमतया दीक्षा ग्रहीष्यति, Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूंणिभाष्यावचूरी उ० ३ सू० १४-१७ वस्त्रादिग्रहणविधिः ६७ अतः संप्रति स गृहस्थ एव तहिं सूत्रे 'निग्गंथस्स' इति कथं प्रोक्तम्, स निर्ग्रन्थपदेन कथमुपलक्षीकृतः ? अत्राह-सत्यम् , किन्तु अत्र जिनशासने निर्ग्रन्थो द्विविधः प्रोक्तः, द्रव्यनिर्ग्रन्थो भावनिर्ग्रन्थश्चेते, अत्रायं भावनिर्ग्रन्थो वर्तते ततः सूत्रकारेण निर्ग्रन्थपदेन उपलक्षीकृतः । अत्र द्रव्यभावमाश्रित्य चतुर्भङ्गी भवति, तथाहि-एको द्रव्यतो निर्ग्रन्थो भवति नतु भावतः १, एको भावतो निर्ग्रन्थो भवति नतु द्रव्यतः २, एको द्रव्यतो भावत इत्युभयतोऽपि निम्रन्थः३, एको न द्रव्यतो न भावतो निर्ग्रन्थ ४ । तत्र यो द्रव्यतो वेषेण निर्ग्रन्थः किन्तु भावतः साध्वाचारतो न निर्ग्रन्थः साधुक्रियायाः शैथिल्यात् इति प्रथमभङ्गस्य भावः १, एकः कश्चित् भावतो निर्ग्रन्थः सन्नपि मनोवचोवृत्त्या साधुवत्क्रियाकारकः किन्तु द्रव्यतः साधुवेषतो न निम्रन्थ इति द्वितीयभङ्गभावः २, एको द्रव्यतो मुनिवेषतोऽपि भावतो यथोक्तसाध्वाचारपालनतोऽपि च निर्ग्रन्थ इति तृतीयभङ्गभावः ३, एको न द्रव्यतः साधुवेषतः, नापि च भावतः-विरतिपरिणामरहितो गृहस्थ इति चतुर्थभङ्गभावः ४ । अत्र स द्वितीयभङ्गवर्तित्वाद्निग्रन्थशब्देन प्रोक्त इति समीचीनमेवेति ॥ सू०१३ ॥ अथ पूर्वोक्तमेव विषयमधिकृत्य निम्रन्थीसूत्रमाह-'निग्गंथीए णं' इत्यादि । सूत्रम्-निग्गंथीए णं तप्पढमयाए संपव्वयमाणीए कप्पइ रयहरणगोच्छगपडिग्गहमायाए चउहिँ कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपन्चइत्तए । सा य पुव्वोवढिया सिया एवं से नो कप्पइ रयहरणगाच्छगपडिग्गहमायाए चउहिँ कसिणेहिं आयाए संपव्वइत्तए, कप्पइ से अहापडिग्गहियाई वत्थाई गहाय आयाए संपव्वइत्तए ॥ सू० १४ ॥ छाया-निर्ग्रन्थ्याः खलु तत्प्रथमतया संप्रवजन्त्याः कल्पते रजोहरणगोच्छकप्रतिग्रहमादाय चतुर्भिः कृत्स्नैः वस्त्रैः आत्मना संप्रव्रजितुम् । साच पूर्वोपस्थिता स्यात् एवं तस्या नो कल्पते रजोहरणगोच्छकप्रतिग्रहमादाय चतुर्भिः कृत्स्नैः वस्त्रैः आत्मना संप्रवजितुम्, कल्पते तस्या यथाप्रतिगृहीतानि वस्त्राणि गृहीत्वा आत्मना संप्रवजितुम् ॥ सू०१४॥ चूर्णी-'निग्गंथीए णं' इति । अस्य निम्रन्थीसूत्रस्य सर्वाऽपि व्याख्या निर्ग्रन्थसूत्रस्येव परिभावनीया, विशेषोऽत्राऽयं बोध्यः-तत्र निर्ग्रन्थसूत्रे पुंलिङ्गनिर्देशेन व्याख्या कृता अत्र तु स्त्रीलिङ्गनिर्देशेन व्याख्या कर्त्तव्या, अन्यसूत्रगतो विशेषोऽत्रायम्-निम्रन्थसूत्रे 'तिहिं कसिणेहिं वत्थेहिं' त्रिभिः कृत्स्नैर्वस्त्रैः इत्युक्तम् , अत्र निम्रन्थीसूत्रे च 'चउहिं कसिणेहिं वत्थेहिं' चतुर्भिः कृत्स्नैः वस्त्रैः इति प्रोक्तम् , निम्रन्थीनां स्त्रीत्वेन भगवता षण्णवतिहस्तपरिमितवस्त्रप्रमाणस्यानुज्ञातत्वादिति ॥सू०१४ ॥ पूर्व निर्ग्रन्थस्य निर्ग्रन्थ्याश्च दीक्षाकालिकवस्त्रग्रहणविधिः प्रदर्शितः, साम्प्रतं वस्त्रप्रसङ्गात् निग्रन्थनिर्ग्रन्थीनामन्यकालिकवस्त्रग्रहणविधिमाह-'नो कप्पइ० पढम०' इत्यादि । सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पढमसमोसरणुद्देसपत्ताई चेलाई पडिगाहित्तए। कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा दोच्चसमोसरणुदेशपत्ताई चेलाइ पडिगाहित्तए ॥ सू०१५ ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रे छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रथमसमवसरणोद्देशप्राप्तानि चेलानि प्रतिग्रहीतुम् । कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा द्वितीयसमवसरणोद्देशप्राप्तानि चेलानि प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू०१५॥ चूर्णी-'नोकप्पई' इति । निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रथमसमवसरणोद्देशप्राप्तानि प्रथमे समवसरणे, एकस्मिन् वर्षे द्वे समवसरणे भवतः-एकं वर्षाकालिकं द्वितीयम् ऋतुबद्धकालिकम् , तयोर्मध्ये प्रथमे वर्षाकालिकरूपे समवसरणे वर्षाकाले इत्यर्थः उद्देशः क्षेत्रकालविभागरूपः, तं प्राप्तानि प्रथमसमवसरणोदे शप्राप्तानि वर्षाकालमध्यवर्तिक्षेत्रकालोपस्थितानि चेलानि-वस्त्राणि प्रतिग्रहीतुं नो कल्पते। तर्हि कीदृक्क्षेत्रकालप्राप्तानि वस्त्राणि प्रतिग्रहीतव्यानि ? तत्राह-'कप्पई' इत्यादि, निर्ग्रन्थानां निम्रन्थीनां च द्वितीयसमवसरणोदेशप्राप्तानि-तत्र द्वितीयसमवसरणे ऋतुबद्धकाले हेमन्तग्रीष्मकालसम्बन्धिषु अष्टसु मासेषु उदेशः क्षेत्रकालविभागरूपस्तं प्राप्तानि-हेमन्तग्रीष्मकालमध्यवर्तिक्षेत्रकालो. पस्थितानि चेलानि वस्त्राणि उपधिप्रायोग्यानि पात्राणि च प्रतिग्रहीतुं कल्पते । समाप्ते चातुर्मासे कार्तिकपूर्णिमात आरभ्य यावत् अषाढपूर्णिमा नायाति तावत्कालयर्यन्तं निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वस्त्राणि पात्राणि च एषणाप्राप्तानि क्षेत्रकालतो निर्दोषाणि कल्पते इति भावः ॥ सू०१५ ॥ पूर्व द्वितीयसमवसरणे निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वस्त्रग्रहणमनुज्ञातम् , साम्प्रतं गृहीतानां तेषां वस्त्राणां यथारानिकं विभागविधि प्रतिपादयति-'कप्पइ० अहारायणियाए' इत्यादि । सूत्रम्--कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहारायणियाए चेलाई पडिग्गाहित्तए ॥ सू०१६॥ छाया-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथारात्निकतया चेलानि प्रतिग्रहीतुम् ॥स० १६ ॥ चर्णी-'कप्पड़' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा चेलानि वस्त्राणि यथारानिकतया यथारत्नाधिकतया, रस्नं चारित्रपर्यायः तद् यथा यथा श्रमणश्रमणीनामधिककालिकः पर्यायो भवेत् तथा तथा पर्यायज्येष्ठक्रमेण मनसि निधाय प्रतिग्रहीतुं स्वीकर्तुं कल्पते, एवमेव विभागेन दातुं कल्पते, अन्यथा दाने अविनयाशातनाऽधिकरणादिदोषसंभवात् ॥ सू० १६ ॥ पूर्वसूत्रे श्रमणश्रमणीनां यथारात्निकक्रमेण वस्त्रग्रहणं प्रतिपादितम् , साम्प्रतं शप्यासंस्तारकग्नहणविधिमाह-'कप्पई' इत्यादि । सूत्रम्--कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहारायणियाए सेज्जासंपारए पडिग्णाहित्तए ॥ सू० १७ ॥ छाया--कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथारानिकतया शय्यासंस्तारकान् प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १७॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्यावचूरी उ० ३ ० १८ यथारात्निक विनय विधिः ६९ चूर्णी -- 'कप्पड़' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा पूर्वसूत्रोक्तवस्त्रवदेव शय्यासंस्तारकान् तत्र शय्या वसतिः, तस्या यः संस्तारकः शयनयोग्यावकाशलक्षणं स्थानं स शय्यासंस्तारकः, तान् यथाशनिकता पर्यायज्येष्ठतया प्रतिग्रहीतुं समादातुं कल्पते । तस्य चोपाश्रयप्राप्तैः श्रमणैः पूर्वाह्नवेलायामेव ग्रहणं कर्त्तव्यम् ततो यथारात्निकं विभक्तव्यम्, यद्वा शय्या - शरीरप्रमाणा, संस्तारकः - सार्द्धद्विहस्तः, तयोः समाहारे शय्यासंस्तारकम्, तानि, पीठफलकादीनि वा यथारानिकता पर्यायज्येष्ठत्वक्रमेण आचार्य स्थविरबालग्लानादीनां यथायोग्यक्रमेण च ग्रहीतुं कल्पते ॥ सू० १७ ॥ अत्राह गाथाद्वयं भाष्यकारः - 'सयणहाणं' इत्यादि । भाष्यम् -- सयणद्वाणं तिविहं, निव्वायसवायमिस्स भेयाओ । समविसममिसभेया, पुणोवि तिविहं सयणठाणं ॥ ७ ॥ एसु य जं सुहठाणं, रायणियाणं गिलाणमाईणं । आमंतिय तं देज्जा, एसा जिणसासणे मेरा ॥ ८ ॥ छाया -- शयनस्थानं त्रिविधं - निर्वात सवात - मिश्रभेदतः । सम-विषम- मिश्रभेदात् पुनरपि त्रिविधं शयनस्थानम् ॥ ७ ॥ एषु च यत् सुखस्थानं, रात्निकानां ग्लानादीनाम् । आमन्त्र्य तद् दद्यात् एषा जिनशासने मर्यादा ॥ ८ ॥ अवचूरी -- ' सयणद्वाणं' इत्यादि । सूत्रे शय्यासंस्तारकशब्देन वसतिगतशयनयोग्यं स्थानं गृहीतम् । तच्च शयनस्थानं - निर्वातं, सवातं, निर्वातसवातं चेति भेदात् त्रिविधं भवति, पुनरपि समं, विषमं समविषममिति भेदात् त्रिविधम् । तत्र शयनस्थानमाचार्येण यद्यस्मै साधवे दीयते तत्तेन मायामदविप्रमुक्तेन ऋजुभावेन ग्रहीतव्यम्, किन्तु एषु पूर्वोक्तेषु षट्सु स्थानेषु यत् सुखस्थानं भवेत् तत् - आचार्य - स्थविर - ग्लानादीनाम् आमन्त्र्य 'यदि भवतां न . समीचीनं शयनस्थानं तर्हि ममेदं गृहाण' इत्यादिसं मानवाक्येन उपनिमन्त्र्य तत् स्वस्य समीचीनं शयनस्थानं यत्तेषां रोचते तद् दद्यात् यतो जिनशासने एषा श्रमणानां मर्यादा वर्तते, भगवता समुपदिष्टत्वात् । अथवा शय्या शरीरप्रमाणा, संस्तारकः सार्द्धद्विहस्तप्रमाणः । अत्रापि कर्कश मृदुकठोर लक्ष्णादिभेदमधिकृत्य पूर्वोक्तो विधिर्बोध्यः ॥ ७-८ ॥ पूर्व शय्या संस्तारकस्य यथारात्निकतया ग्रहणविषयकं सूत्रं प्रोक्तम्, साम्प्रतं शय्यासंस्तारकग्रहणानन्तरं सन्ध्यासमये पूर्णायां पौरुष्यां गुरुप्रदत्तशय्या संस्तारं प्रस्तीर्य तदुपरि समारूढस्य एवं प्रातरुत्थितस्य च कृतिकर्म करणीयं भवेत्, तदपि यथारात्निकतया कर्त्तव्यमिति तद्विधिप्रतिपादकं सूत्रमाह- ' कप्पइ० किइकम्मं ' इत्यादि ॥ सूत्रम् - कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहारायणियाए किंइकम्मं करिए || सू० १८ ॥ 2 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० बृहत्कल्पसू छाया -- कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथारात्निकतया कृतिकर्म कर्त्तुम् ॥ १८ ॥ चूर्णी - 'कप' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां यथारात्निकतया पर्यायज्येष्ठत्वक्रमेण कृतिकर्म - शास्त्रभाषया शिष्यादिकृतो वन्दनाभ्युत्थानादिसत्कारः, तत् कर्त्तुं कल्पते, नान्यथा ज्येष्ठत्वकनिष्ठत्त्वमर्यादामतिक्रम्येति भावः । कृतिकर्म द्विविधं वन्दनाभ्युत्थानभेदात्, तत्र वन्दनम् आचार्यादियथारात्निकानां प्रातः सायं तेषां दृष्टिपाते कार्यपृच्छादिसमये च यथाविधि वन्दनकं कर्तव्यम्, वन्दनं कृत्वैव कार्यादिपृच्छा कर्त्तव्या, एवं सूत्रार्थतदुभयग्रहणेऽपि वन्दनं कर्तव्यमेवेति । अभ्युत्थानम्–गुरोः समीपागमने, चंक्रमणे, उच्चारादिभूमौ गमनकाले, आसनादुत्थानकाले, इत्याद्यवसरे शिष्येणाभ्युत्थानं कर्तव्यम्, अन्यथा गुरोराशातना, आज्ञाभङ्गादिदोषाश्च समापयन्ते, धर्मस्य विनयमूलत्वेन भगवता प्रतिपादितत्वात् उक्तञ्च – . " धम्मस्स मूलं विणयं वयंति, धम्मो य मूलं खलु सोग्गईए । सा सोग्गई जत्थ अबाया उ, तम्हा निसेव्वो विणओ तयट्ठा " ॥ १ ॥ अयं भावः–धर्मस्य जिनोकस्य श्रुतचारित्रलक्षणस्य मूलं तीर्थकरगणधरादयो विनयं वदन्ति 'धर्मस्य मूलं विनयः' इति, 'मूलं नास्ति कुतः शाखा' इति वचनाद् विनयमन्तरेण तपः संयमाराधनाsपि कथं भवेत् । धर्मो हि सुगव्या मूलम्, सा सुगतिः कथ्यते यत्र अवाधता क्षुत्पिपासारोगशोकादिशारीरमानसानां वाघानामभावः सिद्धिरित्यर्थः स्यात् तस्मात् कारणात् मुनिना प्रथमं विनयो निसेव्यः विनयः समादरणीयः । स च गुरूणां वन्दनाभ्युत्थानसेवाशुश्रूषादिना जायते । अत्रायं भावः- इह निर्ग्रन्थस्य कार्य तावदव्यावाघसुखलक्षणो मोक्षः, तस्य च कारणं सर्वज्ञभाषितः श्रुतचारित्रलक्षणो धर्मः, स च गुरोरभ्युत्थानवन्दनादि रूपविनयलक्षणमुपायमन्तरेण साधयितुं न शक्यते, धर्मस्य विनयमूलत्वात्, अतो विनयेन धर्माराधनं, धर्माराधनेन मोक्ष इति पर म्परया विनयो मोक्षकारणमेवेति मत्वा तदर्थं विनय आसेवितव्य इति ॥ सू० १८ ॥ अत्र विनयमोक्षयोः कार्यकारणभावप्रदर्शनपूर्वकमाह भाष्यकारः - ' कज्जे' इत्यादि । भाष्यम् -- कज्जं च मोक्खो, विणओ य हेऊ, निक्कारणा नत्थिह कज्जसिद्धी । तम्हा उवायं तह कारणं च, ओलंबिउ पावर कज्जसिद्धिं ॥ ९ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्यावचूरी उ० ३ सू० १९-२० गृहस्थगृहान्तःस्थानादिनिषेधः ७१ छाया—कार्य च मोक्षो विनयश्च हेतुः । निष्कारणात् नास्तीह कार्यसिद्धिः ।। तस्माद् उपाय तथा कारणं च,। अवलम्ब्य प्राप्नोति कार्यसिद्धिम् ॥ ९॥ अवचूरी-'कन्जं च' इति । इह श्रमणध निर्ग्रन्थस्य कार्य मोक्षः, तस्य हेतुरिति कारणं च विनयः, इति तयोः कार्यकारणभावः, तस्मात् निष्कारणात् कारणमन्तरेण उपायमन्तरेण च इह लोके कार्यसिद्धिर्नास्ति न भवति, तस्मात् कारणात् उपायं तथा कारणं चावलम्ब्यैव कार्यसिद्धिःजीवः प्राप्नोति । तथाहि-यस्य कार्यस्य यद् उपादानं कारणं तेन विना तत्कार्य न सिध्यति यथा मृत्पिण्डमन्तरेण घट इतिः, उपादानकारणसद्भावेऽपि उपायरूपनिमित्तकारणाभावे कार्य न सिध्यति यथा मृत्पिण्डसद्भावेऽपि चक्रचीवरोदकादिनिमित्तकारणमन्तरेण घटो न निष्पाद्यते अतो यः पुनरुपायरूपनिमित्तकारणवान् प्रयत्नशीलश्च भवति स उपादानकारणम् उपायरूपनिमित्तकारणं चावलम्ब्यैव कार्य साधयति, तथैवात्र मोक्षकार्यस्योपादानकारणं सर्वविरतिमान् आत्मैव, विनयादिनिमित्तकारणैर्विना नोपादानकारणं मोक्षत्वेन परिणमति-यथा मृत्पिण्डश्चक्रवीवरोदकाद्यभावे घटत्वेन नो परिणमति, अतो निर्ग्रन्थेन विनयः समासेवनीय इति ॥ ९ ॥ पूर्व कृतिकर्मविधौ विनयः सविस्तरं प्रदर्शितः, विनयवांश्च तादृशमविनयजनकं किमपि कार्य न करोति, गृहान्तराले स्थानादिकारणे च गृहस्थस्याविनयो भवतीति गृहान्तराले स्थानादिकरणस्य निषेधसूत्रमाह-'नो कप्पइ० अन्तरागिहंसि' इत्यादि । सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अन्तरागिहंसि चिद्वित्तए वा निसीइत्तए वा तुयत्तिए वा निदाइत्तए वा पयलाइत्तए वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारं आहरित्तए वा, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं, वा सिघाणं वा परिदृवित्तए, सज्झायं वा करित्तए झाणं वा झाइत्तए काउस्सग्गं वा करित्तए ठाणं वा ठाइत्तए । अह पुण एवं जाणेज्जा वाहिए जराजुण्णे. तवस्सी दुबले किलंते मुच्छिज्ज वा पवडिज्ज वा एवं से कप्पइ अन्तरागिहंसि चिट्ठित्तए वा जाव ठाणं वा ठाइत्तए । सू० १९॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानांवा निर्ग्रन्थीनां वा अन्तरगृहे स्थातुं वा निषतुं वा त्वग्वर्तयितुं वा निद्रायितुं वा प्रचलायितुं वा अशनं वा, पानं वा खाद्यं वा स्वाधं वा आहारम् आहर्तुम्, उच्चारं वा प्रस्रवणं वा खेलं वा शिवाणं वा परिष्ठापयितुम्, स्वाध्यायं वा कर्तुम् , ध्यानं वा ध्यातुम्, कायोत्सर्ग वा कर्तुम् , स्थानं वा स्थातुम् । अथ पुनरेवं जानीयात् व्याधितः जराजीर्णः तपस्वी दुर्बलः क्लान्तः मूर्च्छत् वा प्रपतेत् वा एवं तस्य कल्पते अन्तरगृहे स्थातुं वा यावत् स्थानं वा स्थातुम् ॥ सू० १९॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. वृहत्कल्पसूत्रे चूणी--'नो कल्पते' इति । निर्ग्रन्धानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अन्तरगृहे गृहयोः गृहस्थनिवासस्थानयोः अन्तरम् अन्तरालम्-अन्तरगृहम् गृहद्वयस्यान्तरालम् अन्तरगृहम् तस्मिन् यत्र गृहस्था गृहाद् गृहान्तरप्रवेशार्थ गमनागमनं कुर्वन्ति तत्र, अत्र अन्तरशब्दस्य पूर्वनिपात आर्षत्वात् । यद्वा 'अतोगिहंसि' इति पाठे गृहस्थगृहस्य अन्तः मध्ये भिक्षाद्यर्थ गृहस्थगृहे प्रविष्टानां निर्ग्रन्थनिम्रन्थीनां स्थातुमुपवेष्टुं निद्रायितुं प्रचलायितुम् इत्यारम्य स्थानं वा स्थातुम् इति पर्यन्तानि स्थानानि तत्र समाचरितुं नो कल्पते, इत्युत्सर्गवचनम् , एषां पदानां व्याख्या पूर्वं गता । कारणे कर्तुं कल्पते इति कारणं प्रदश्यते -'अह पुण' इत्यादि , अथ-इति प्रकरणान्तरद्योतकः, अथ पुनः- पूर्वोक्तानि पदानि अन्तरगृहे कर्तुं साधूनां न कल्पते किन्तु यदि एवं जानीयात् एवं संभवेत् तत्र गतो मुनिर्व्याधितः पूर्वतो व्याधिग्रस्तः तत्कालं वा व्याधितो भवेत् , जराजीणोवा वार्द्धक्यग्रस्त स्थविरोः वा भवेत् , तपस्वी तपःकर्म वहमानो वा भवेत्, दुर्बलः रोगादिना तत्कालमुक्तत्वेन बलहीनो दुर्बलशरीरो वा भवेत् , क्लान्तः - अध्वगमनादिना परिश्रान्तो वा भवेत्, एतादृशः स साधुः कदाचित् मुर्छद् मूां प्राप्नुयाद् वा तेन कारणेन प्रपतेत्-भूमौ प्रस्खलेत् , एवम् एभिः कारणैः 'से' तस्य व्याधितादिविशेषणविशिष्टस्य पूर्वोक्तानि सर्वाणि स्थानानि यथायोग्यमन्तरगृहे कत्तु कल्पते इति सूत्रार्थः ॥ सू० १९ ॥ पूर्व व्याधितादिविशेषणविशिष्टानामन्तरगृहे स्थानादिकरणमनुज्ञातम् , तेन अन्तरगृहे स्थितः सन् कश्चित् श्रमणो धर्मकथामपि कर्तुमारभते इति तन्निषेधमाह-'नो कप्पइ० चउग्गाहं वा' इत्यादि ॥ सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्रथीण वा अंतरगिहंसि जाव चउग्गाई वा पंचगाहं वा आइक्खित्तए वा विभावित्तए वा किट्टित्तए वा पबेइत्तए वा, नन्नत्य एगणाएण वा एगवागरणेण वा एगगाहाए वा एगसिलोएण वा, सेवि य ठिच्चा नो चेव णं अद्विच्चा ॥ सू० २०॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अन्तरगृहे यावत् चतुर्थ वा पञ्चगाथं वा आख्यातुं वा विभावयितुं वा कीर्तयितुं वा प्रवेदयितुं वा नान्यत्र एकशातेन वा एकव्याकरणेन वा एकगाथया वा एकश्लोकेन वा तदपि च स्थित्वा, नो चैव खलु अस्थित्वा ॥ सू० २०॥ चूर्णी- 'नो कप्पई' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा अन्तरगृहे द्वयोर्गृहयोरन्तराले गृहस्थगृहाभ्यन्तरे वा यावत् चतुर्गाथम् चतसृणां गाथानां समाहारश्चतुर्गाथम्-एकत आरभ्य गाथा चतुष्टयपर्यन्तम्, पश्चगाथं वा गाथापञ्चकपर्यन्तं वा, आरख्यातुं वा मूलरूपेण कथयितुं वा, विभावयि तुं वा चिन्तयितुं वा, कीर्तयितुं वा गीतवद् उच्चारयितुंबा, प्रवेदयितुं वा विज्ञापयितुं वा नो कल्पते । तत्र स्थितानां श्रमणश्रमणीनां कारणे कियत् कल्पते ? तत्राह-यदि तत्र केषाञ्चित् जिनवचने शङ्का जायते, धार्मिको विवादो वा भवेत् , इत्यादिकारणे कोऽपि समागत्य तत्रस्थितं साधु पृच्छेत् Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू नावचूरी उ०-३सू० २१-२४ गृहस्थगृहान्तराख्यानादिनिषेधः ७३ सदा गाथानामाख्यानादिकं कर्तुं कल्पते, अन्यथा पृच्छकस्य सानोविषये शास्त्रज्ञानाऽबोधरूपा शङ्का भवेत्, विवादनिर्णयो वा न भवेत् । तदा तादृशेऽवसरेऽपि 'मन्नत्य' इति नान्यत्र-एकज्ञातेन एकदृष्टान्तेन अन्यत्र-विना 'ने'-ति न कल्पते, 'नान्यत्र' इति सर्वत्र संबध्यते, एकदृष्टान्तादधिकं कथयितुं न कल्पते इति भावः, एवम्-एकव्याकरणेन-एकप्रश्नस्योत्तररूपेण विना एकव्याकरणं मुक्त्वाऽधिकं न कल्पते, यथा यदि कोऽपि पृच्छेत् किंलक्षणो धर्मः ! 'अहिंसालक्खणो धम्मो' अहिंसालक्षणो धर्म इति गाथांशेन निर्वचनं प्रवदेत् , नाधिकमिति । तथा एकगाथया वा नान्यत्र, गाथा आर्यावृतरूपा, एकश्लोकेन वा नान्यत्र, लोकः-अनुष्टुभादिरूपः । एकज्ञातात् एकव्याकरणातू , एकगाथातः, एकश्लोकाद् अधिकम् आरव्यातुं विभावयितुं कीर्तयितुं प्रवेदयितुं वा किमपि वा कर्तुं निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनामन्तरगृहे न कल्पते इति भावः । तदपि कथं कल्पते ? इति विधिमाह'सेवि य' इत्यादि, तदपि च ज्ञासादीनामाख्यानादिकं कल्पते स्थित्वा ऊर्वीभूतगात्रयष्टया स्थिति कृत्वा कल्पते किन्तु नो चैव खलु अस्थित्वा पूर्वोक्तव्यतिरेकेण आसनादौ समुपविश्येत्यर्थः न कल्पते इति भावः ॥ सू०२०॥ अथ पूर्वोक्तप्रकारेण भावनासहितपञ्चमहाव्रतानामपि आख्यानादेः प्रतिषेधमाह-'नो कप्पइ० इमाई' इत्यादि । सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं चा अंतरगिहंसि इमाइं पंचमहव्वयाई सभावणाई आइक्खित्तए वा, विभावित्तए वा किट्टित्तए वा पवेइत्तए वा, नन्नत्थ एगनाएण वा जाव एगसिलोएण वा, सेवि य ठिच्चा नो चेर णं अद्विच्चा ॥ सू०२१ ॥ छाया--नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अन्तरगृहे इमानि पञ्चमहाब्रतानि सभावनानि आख्यातुं वा विभावयितुं वा कीर्तयितुं वा प्रवेदयितुं वा, नान्यत्र एकमातेन वा यावत् एकश्लोकेन वा, तदपि च स्थित्वा, नो चैव खलु अस्थित्वा ॥सु० २१ ॥ चूर्णी--'नो कप्पइ' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनाम् अन्तरगृहे इमानि शास्त्रप्रसिद्धानि पञ्चमहाव्रतानि अहिंसा-सत्या-ऽस्तेय-ब्रह्मचर्या-ऽपरिग्रहरूपाणि सभावनानि भावनासहितानि, प्रत्येकमहाव्रतस्य पञ्च पञ्च भावनाः "इरियासमिए सया जए" इत्यादिगाथोक्तस्वरूपाः भवन्तीतिपञ्चविशतिभावनायुक्तानि आख्यातुम् , इत्यादिपदानां व्याख्या पूर्वसूत्रे गता, न कल्पते, नान्यत्र, इत्यादिपदानामपि व्याख्या पूर्वसूत्रे गता । तत्र आख्यानं यथा-इमानि पञ्च महाव्रतानि षट्कायरक्षणपराणि, षट्कायाश्च पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसरूपाः, इत्यादि । विभाबनं यथाएतानि पञ्च महाव्रतानि प्राणातिपातविरमणादीनि भावनापूर्वकं निरतिचारं मनोवचःकाययोगमाश्रित्य कृतकारितानुमोदनसहितानि समाचरणीयानि भवन्तीत्यादि । कीर्तनम्-एषु पञ्चसु महाव्रतेषु Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ पृहत्कल्पसूत्रे प्रथमं प्राणातिपातविरमणाख्यं व्रतं सदेवमनुष्यासुरस्य लोकस्य पूजनीय द्वीपस्त्राणं शरणं गतिः प्रतिष्ठा, इत्यादिरूपेण सर्वेषामपि प्रश्नव्याकरणाङ्गगतसंवराध्ययनपञ्चकोक्तानाम् (अध्य०१-५) गुणानां प्रतिपादनम् , प्रवेदनम्-पञ्चमहाव्रतानुपालनात् मोक्षो देवलोको वा भवति, इत्येवं तत्फलकथनमिति । एतत्सर्वमन्तरगृहे कत्तु साधूनां न कल्पते, व्याधितादिकारणे तु कल्पते, तत्तु सूत्रोक्तप्रमाणं न तु तदधिकमिति ॥ सू० २१ ॥ पूर्व निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनामन्तरगृहे स्थानधर्मकथादिकरणं निषिद्धम्, साम्प्रतं तत्रगतो मुनिः शय्यासंस्तारकं गृह्णीयात् तद् अपरावर्त्य न गच्छेदिति प्रतिपादयितुमाह-'नो कप्पई० पाडिहारियं' इत्यादि। सूत्रम्--नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारियं सागारियसंतयं सेज्जासंथारय आयाए अपडिहट्ट संपन्चइत्तए ॥ सू० २२ ॥ छाया--नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा प्रातिहारिकं सांगारिकसत्कं शय्यासंस्तारकम् आदाय अप्रतिहत्य संप्रवजितुम् ॥ सू० २२ ॥ चूर्णी--'नो कप्पई' इति । निम्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा प्रातिहारिक-प्रतिहरणं प्रत्यपणं, तद् अर्हतीति प्रातिहारिकं प्रत्यर्पणप्रतिज्ञयाऽऽनीतं वस्तु प्रातिहारिकं कथ्यते, तादृशं सागारिकसत्कं गृहस्थसम्बन्धिकं शय्यासंस्तारकं, शय्या-शरीरप्रमाणा, संस्तारकः-सार्द्धद्वयहस्तप्रमाणः पीठफलकादिकं वा तद् आदाय आनीय अपरिहृत्य पुनरदत्त्वा संप्रव्रजितुं प्रामान्तरं विहतुं न कल्पते, साधोरप्रतीतिजनकत्वात् ॥ सू० २२ ॥ पूर्व साधोः प्रातिहारिकं शय्यासंस्तारकमदत्त्वा गमनं निषिद्धम्, तच्च सागारिकसम्बन्धि भवेदिति तस्य प्रत्यर्पणविधिमाह-'नो कप्पइ० सागारियसंतयं' इत्यादि । सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारियं सागारियसंतयं सिज्जासंथारयं आयाए अविकरणं कटु संपव्वइत्तए ॥ सू० २३ ॥ छाया--नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा सागारिकसत्कं प्रातिहारिक शय्यासंस्तारकमादाय अविकरणं कृत्वा संप्रवजितुम् ॥ सू० २३ ॥ चूर्णी--'नो कप्पइ' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा प्रातिहारिकं सागारिकसत्कं, सागारिको गृहस्थः तत्सम्बन्धि गृहस्थसत्ताकमित्यर्थः, शय्यासंस्तारकं पीठफलकादिकं वा आदाय गृहस्थसकाशादानीय स्वकार्यसमाप्तौ तस्य अविकरणं-विकरण नाम यथारूपेण यस्थानाद्वा आनीतं तथारूपेण तत्रैव स्थाने स्थापनम् , तस्य न करणम्- अविकरणम् , तत् कृत्वा सस्तरणार्थमानीत तृणादिकं यथानीतरूपेण पुनस्तत्रैव स्थापनमकृत्वा प्रव्रजितुं विहारं कत्तुं नो कल्पते ॥ सू० २३ ॥ तर्हि कथं कल्पते ? इत्याह 'कप्पई' इत्यादि । सूत्रम्-कप्पई निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारियं सागारियसतयं सेज्जासंथारयं आयाए विकरणं कटु संपव्वइत्तए ॥ सू० २४ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूणिभाष्यावचूरी उ०- ३ सू० २४-२६ प्रातिहारिक शय्यादेर्ग्रहणाऽर्पणविधिः ७५ छाया - कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रातिहारिकं सागारिकसत्कं शय्यासंस्तारकम् आदाय विकरणं कृत्वा संप्रव्रजितुम् ॥ सू० २४ ॥ चूर्णी -- ' कप्प' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा प्रातिहारिकं सागारिकसत्कं शय्यासंस्तारकमादाय आनीय विकरणं यथारूपेण आनीतं तथारूपेणैव तत्रैव स्थापनं कृत्वा प्रत्रजितुं विहारं कर्त्तुं कल्पते । अयं भावः - यानि तृणानि संस्तरणार्थं यस्मात् स्थानात् प्रस्तृत तृणपुञ्जात् राशीकृततृणपुञ्जाद्वा आनीतानि तानि कार्यसमाप्तौ गमनसमये प्रस्तृततृणपुञ्जादानीतानि प्रस्तृततृणपुञ्जे, राशीकृततृणपुञ्जादानीतानि राशीकृततृणपुञ्जे एवं पूर्वं यथास्थितानि तादृशान्येव प्रत्यर्पणसमयेऽपि कृत्वा स्थापनीयानि । एवं पीठफलकमपि यथाऽऽनीतं - यद्यानयनसमये तदूर्ध्वं स्थापितं भवेत्तत् प्रत्यर्पणसमयेऽप्यूर्ध्वमेव स्थापनीयम्, तिर्थस्थापितं भवेत्तदा तिर्यगेव स्थापनीयम्, भित्तिपार्श्वादानीतं भवेत्तदा प्रत्यर्पणसमयेऽपि भित्तिपार्श्वे एव स्थापनीयम्, यं पृष्ट्वा चानीतं तमेव पुनः संसूच्य स्थापनीयम्, येन गृहस्थस्याऽप्रतीतिकं न भवेत् । एवं कृत्वैव साधोर्ग्रामान्तरं गन्तुं कल्पते, प्रातिहारिकवस्तुप्रत्यर्पणस्य एतादृशविधिकत्वात् । एवं करणे श्रमण आज्ञाभङ्गादिदोषभागू न भवति, न वा प्रायश्चित्तभाग् भवतीति भावः ॥ सू० २४ ॥ पूर्वं सागारिकसत्कशय्यासंस्तारकादेः प्रत्यर्पणविधिः प्रोक्तः, यदि तत् शय्यासंस्तारका दि चोरादिना चोरितं भवेत्तदा किं कर्त्तव्यम् इति तद्विधिं प्रदर्शयति - 'इह खलु' इत्यादि । सूत्रम् - इह खलु निम्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारिए सागारियसंतए सेज्जासंथारए विप्पणसिज्जा से य अणुगवेसियन्वे सिया, से य अणुगdeeमाणे लभेज्जा तस्सेव पडिदायव्वे सिया, से य अणुगवेस्समाणे नो लभेज्जा एवं से कप्पर दोच्चपि उम्म अणुन्नवित्ता परिहारं परिहरित्तए । ० २५ ॥ छाया - इह खलु निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रातिहारिकं वा सागारिकसत्कं शय्यासंस्तारकं विप्रणश्येत् तच्च अनुगवेषयितव्यं स्यात्, तच्च अनुगवेष्यमाणं लभेत ( तदा तस्यैव प्रतिदातव्यं स्यात्, तच्च अनुगवेष्यमाणं नो लभेत एवं तस्य कल्पते द्वितीयमपि अवग्रहम् अनुज्ञाप्य परिहारं परिहर्तुम् ॥ सू० २५ ॥ चूर्णी – 'इह खलु' इति । इह - जिनशासने खलु निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा यत् प्रातिहारिकं प्रत्यर्पणवचसा समानीतं सागारिकसत्कं गृहस्थसत्ताकं शयासंस्तारकं पीठफलकादिकं वा किमपि वस्तु विप्रणश्येत् चोरादिना अपह्रियेत तदा तत् शय्या संस्तारकम् अनुगवेषयितव्यं स्यात् झटिति श्रमणेन तस्य गवेषणम् इतस्ततः पृच्छादिना शोधनं कर्त्तव्यं स्यात् । यदि गवेष्यमाणं तत् लभेत तदा तस्यैव गृहस्थस्य यत्सकाशादानीतं भवेत्तस्यैव प्रतिदातव्यं स्यात् प्रत्यर्पणीयं भवेत् तस्मै प्रत्यर्पयितव्यमिति भावः । यदि तच्च शय्यासंस्तारकमनुगवे - ष्यमाणमपि न लभेत न प्राप्नुयात् एवम् एतादृशेऽवसरे 'से' तस्येति सूत्रे जातावेकवचनं तेन Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पस्त्रे तेषां निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां कल्पते द्वितीयमपि वारम् अवग्रहम् अनुज्ञाप्य, प्रथमवारं तावद् अवग्रहो यदा शय्यासंस्तारकं गृहीतं तदा अनुज्ञापितः, तदनन्तरं यदा विप्रणष्टं सत् अनुगवेष्यमाणमपि नोपलब्धं तदा तत्स्वामिने निवेदने कृते सति यद्यसौ गृहस्थः अन्यत् शय्यासंस्तारकं साधवे' प्रयच्छति तदा, अथवा तदेव यद् विप्रणष्टं शय्यासंस्तारकं तत्स्वामिना लब्धं तदा च तद्विषयकमवग्रहं द्वितीयवारमपि अनुज्ञाप्य परिहारं परिभोगलक्षणं शय्यासंस्तारकं गृहीत्वा परिहत्तुं परिभोक्तुं कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । वसतौ शून्यायां कृतायां शय्यासंस्तारकं नक्ष्यतीति मत्वा श्रमणेन प्रथमत एव वसतिः शून्या न कर्त्तव्या सदा सावधानेन भाव्यम्, वसतिशून्यत्वकरणे श्रमणस्य प्रमादः सिध्यतीत्यतः श्रमणेन नित्यमप्रमत्तेन भवितव्यमिति भावः ॥ सू० २५ ॥ पूर्व सागारिकसत्कं शय्यासंस्तारकं प्रत्यर्प्य श्रमणैविहारः कर्त्तव्यः इति प्रोक्तम् , तथा यदि चौरैः शय्यासंस्तारकं चोरितं तदा द्वितीयवारमवग्रहं गृहीत्वा शय्यासंस्तारकमानेतव्यमिति च प्रोक्तम् , साम्प्रतं पूर्वस्थिताः साधवस्तत् शय्यासंस्तारकं विप्रजहति तदक्सरेऽन्ये श्रमणा आगच्छन्ति तदा तद्विषयकमवग्रहकालं प्रतिपादयन्नाह-जद्दिवस' इत्यादि। सूत्रम्-जद्दिवसं समणा निग्गंथा सेज्जासंथारय विप्पजहंति तदिवसं अवरे समणा निग्गंथा हव्वमागच्छेज्जा सच्चेव उग्गहस्स पुवाणुण्णवणा चिट्ठइ अहालंदमवि उग्गहे ॥ सू० २६॥ छाया-यं दिवसं श्रमणा निर्ग्रन्थाः शय्यासंस्तारकं विप्रजहति तं दिवसम् अपरें श्रमणा निर्ग्रन्था हव्यमागच्छेयुः सैव अवग्रहस्य पूर्वानुवापना तिष्ठति यथालन्दमपि अवग्रहः ॥ सू० २६.॥ चूणी-जदिवस' इति । य दिवसमधिकृत्य यस्मिन् दिवसे इत्यर्थः, श्रमणा निर्ग्रन्था में पूर्व तत्रोपाश्रये स्थितास्ते मासकल्पसमाप्त्यनन्तरं चातुर्माससमाफ्यनन्तरं वा अय्यासंस्तारकं स्वावग्रहेणानीत पीठफलकादिकं तद् विप्रजहति त्यजन्ति तं दिवसमधिकृत्य तस्मिन् दिवसे इत्यर्थः अपरे अन्ये साधर्मिकाः श्रमणा निर्ग्रन्था हव्यं-शीघ्र तत्कालमेव आगच्छेयुः उपाश्रये प्रविशेयुस्तदा सा एव या पूर्वस्थितैः श्रमणगृहीता अवग्रहस्य निवसनाधिकारस्य पूर्वानुज्ञापना पूर्व याऽनुज्ञापना गृहीता भवेत् सा एव तदुपाश्रयविषया तिष्ठति, ये एव पूर्वस्थिताः श्रमणा यस्मात् उपाश्रयाद् निम्रतास्तेषामेवाधिकारे स उपाश्रयस्तिष्ठतीति भावः । कियन्तं काल यावदवग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति ? तत्राह—यथालन्दमपि अवग्रहस्तिष्ठति । अत्र मध्यमोऽष्टपौरुषीप्रमाणो यथालन्दकालो गृह्यते इति अष्टपौरुषीकालं यावत् पूर्वस्थितश्रमणानामेवावग्रहे स उपाश्रयस्तिष्ठति तत एतावत्कालपर्यन्तमपरे समागता निम्रन्थाः उपाश्रयस्वामिनोऽवग्रहमयाचित्वाऽपि तत्र स्थातुं पीठफलकादिकमुपभोक्तुं वाऽहन्ति, तदनन्तरं तैरपरोऽवग्रहो याचितव्यो भवेदिति भावः ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्णिभाष्यावचूरी उ०-३ सु० २७-२९ उपाश्रयादेरवग्रहानुज्ञापनाविधिः ७७ ___अथ स उपाश्रय एवावग्रहस्य पूर्वानुज्ञापनायो तिष्ठति किमन्यदपि तत्रस्थितं सागारिकसत्कं वस्तु पूर्वानुज्ञापनायां तिष्ठति ? इति जिज्ञासायां तद्विषयक सूत्रमाह-'अस्थि या इत्थ' इत्यादि । सूत्रम्-अत्थि या इत्थ केइ उवस्सयपरियावन्नए अचित्ते परिहरणारिहे सच्चेव उग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिइ अहालंदमवि उग्गहो ॥ सू० २७॥ छाया--अस्ति चात्र किञ्चिद् उपाश्रयपर्यापन्नम् अचित्तं परिहरणार्ह सैव अवग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति, यथालन्दमपि अवग्रहः ॥ सू० २७ ॥ चूर्णी--'अत्थि या इत्थ' इति । अस्ति चात्र पूर्वस्थितश्रमणपरित्यक्तोपाश्रये किञ्चित्वस्त्रादिकम् उपाश्रयपर्यापन्नम्-उपाश्रये पर्यापन्नं पूर्वस्थितश्रमणैविहारसमये विस्मृतं परित्यक्त वा सागारिकसत्कं वा किमपि वस्तु स्थितम् उपाश्रयपर्यापन्नम्', अचित्तं वस्त्रादिक पात्रादिक वा तद् यदि परिहरणार्ह प्रासुकत्वेन साधूनां परिभोगयोग्य भवेत् तद्विषयेऽपि सा एवं अवग्रहस्य अनुज्ञापना तिष्ठति, तत्परिभोगः पूर्वानुज्ञापनयैव कर्तव्यः, न तत्परिभोगेऽन्यानुज्ञापना ग्रहीतव्या, तत्परिभोगेन साधूनामदत्तादानादिदोषासद्भावादिति भावः । कियन्तै कालमित्यहि-यथालन्दमपि मध्यम यथालन्दकालमष्टपौरुषीपर्यन्तम् अवग्रहस्तिष्ठति यथालन्दकालं यावत्तदुपभोगो नूतनसमागतश्रमणानां कल्पते इति भावः ॥ सू० २७ ॥ पुनरप्यवग्रहानुज्ञापनाविषये प्राह-'से वत्थुमु' इत्यादि । सूत्रम्-से वत्थुसु अव्वावडेसु अव्वोगडेसु अपरपरिग्गहिएमु अमरपरिग्गहिएम सच्चेव उग्गहस्स पुन्वाणुण्णवणा चिंह अहालंदमवि उग्गहो ॥ सू० २८॥ छाया-तस्य वास्तुषु अन्यापूतेषु अव्याकृतेषु अपरपरिगृहीतेषु अमरपरिगृहीतेषु सैव अवग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति यथालन्दमपि अवग्रहः ॥ सू. २८॥ चूर्णी-तस्य अन्यग्रामाद् विद्वत्यागच्छतः वास्तुषु वसतिगृहेषु, कीदृशेषु ! तंत्राहअव्यापृतेषु शटितपतिततया निवासव्यापारवजितेषु, अव्याकृतेषु अविभक्तेषु येषां दायांदादिभिर्विभागो न कृतस्तादृशेषु अनेकजनसत्तावत्सु, यद्वा अतीतकाले केनाऽप्यनुज्ञातानि इमानि वास्तूनि इत्यज्ञातेषु, अपरपरिगृहीतेषु-परैरन्यैः परिगृहीतानि स्वपरिग्रहे कृतानि परंपरिगृहीतानि, नौं तथा अपरपरिगृहीतानि अन्यैरनधिष्ठितानि तेषु, अमरपरिगृहीतेषु अमरैः व्यन्तरादिदेवैः परिगृहीतेषु स्वा. धीनीकृतेषु यथा व्यन्तराधिष्ठितभूमिभागे व्यन्तरादिदेवान् अवमान्य निर्मापितत्वेन तें तत्र गृह. निर्मापकं न वासयन्ति विघ्नं कुर्वन्ति न तथा श्रमणानाम् तानि गृहाणि अमरपरिगृहीतानि प्रोष्यन्ते तेषु एतेषु वास्तुषु सैव पूर्वस्थितश्रमणविषयैवं अवग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना यथालन्दकालं तिष्ठति, यथालन्दकालं यावद् आगन्तुकश्रमणैः भूयोऽवग्रहो नानुज्ञापनीय इति भावः ॥ सू० २८॥ तदेव विशदयति भाष्यकार:– 'अव्वावड' इत्यादि । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ बृहत्कल्पसूत्रे भाष्यम् -- अव्वावड-अव्वोगड- अपरा - ऽमरपरिग्गहियवत्थूणि । नाणा विभेयाणि य, नायव्वाणीह जहजोग्गं ॥ १० ॥ छाया—अव्यापृताऽव्याकृताऽपरामर परिगृहीतवास्तूनि । नानाविधमेदानि, झातव्यानीह यथायोग्यं ॥ १० ॥ अवचूरी -- 'अव्वावड ०' इति । अव्यापृतानि अव्याकृतानि, अपरपरिगृहीतानि अमरपरिगृहीतानि चेति चत्वारि वास्तूनि नानाविधभेदानि अनेकभेदयुक्तानि इह शास्त्रे यथायोग्यं ज्ञातव्यानि । तथाहि - अव्यापृतानि शटितपतितादिना न तत्र केनापि वासो विहितस्तादृशानि, अव्याकृतानि बहुजनस्वाभिकत्वेन तेषु न केनाप्येकेन स्वायत्तीकृतानि, अपरपरिगृहीतानि नान्यैः कैश्चिदधिष्ठितानि अस्वामिकानीव स्थितानि, अमरपरिगृहीतानि कृतव्यन्तरादिदेवनिवासानीति । तत्र अव्यापृतं वास्तु यथा कश्चित् कौटुम्बिको गृहं निर्मापितवान् तत्र वस्तुमारब्धवान् तस्य कुमुहूर्तादिसंयोगे निर्मापितत्वेन स तत्र न सुखं वस्तुं शक्नोति, तत्र वासानन्तरं प्रतिदिनं द्रव्यहानिः प्रारब्धा ततः स तं मुक्तवान् न तत्र कोऽपि वसति तद् वास्तु अव्यापृतं प्रोच्यते १ । अव्याकृतं यथाकेनापि माढयेन श्रेष्ठिना गृहं निर्माणितम्, तस्य बहवः सुता आसन्, मृते च तस्मिन् तद् गृहं दायादगणगोष्ठीसत्ताकं जातं, नैकस्य, कियत्कालानन्तरं क्षीणघनत्वेन तद् गृहमेको ग्रहीतुं न शक्नोति, राजकरश्च तस्य दातव्यः स्यादिति तद् गृहं श्रमण निवासार्थं धार्मिकस्थानत्वेन तैः समर्पितम्, ते चान्यत्र स्वकुटीरं निर्माय स्थातुमारब्धवन्तः तादृशं गृहमव्याकृतं प्रोच्यते २ । अपरपरिगृहीतं यथा-अन्यैः कैश्चिदपि स्वपरिग्रहे न कृतं तद्रक्षार्थं तत्र कोऽपि प्रेक्षकः स्थापित इति तद् गृहमपरपरिगहीतं कथ्यते ३। अमरपरिगृहीतं यथा - कश्चित् श्रेष्ठी गृहं व्यन्तराधिष्ठितभूमिभागे निर्मापितवान् वस्तु प्रारब्धवांश्च तस्मिन् समये स व्यन्तरो देवः स्वप्ने निवेदितवान्- 'यत्त्वया मदधिष्ठितभूमौ गृहं निर्मापितमतोहमत्र निवसिष्यामि यदि त्वं वसिष्यसि तदा त्वां सकुटुम्बं विनाशयिष्यामि श्रमणा वसन्तु' इति तद्भयात्तेन तद् गृहं परित्यक्तम्, तादृशं वास्तु अमरपरिगृहीतमुच्यते ४ । एतादृशेषु वास्तुषु ये श्रमणाः पूर्वस्थितास्तेषु मासकल्पे चातुर्मासे वा समाप्ते सति तत्समये येऽन्ये श्रमणाः समागतास्तेषामवग्रहस्य पूर्वानुज्ञापनैव तेन यथालन्दकालं स्थातुं कल्पते न तु तैः निवासार्थं पुनरनुज्ञा ग्रहीतव्येति ॥ १० ॥ अथाव्यापृतादिविपरीतत्र्यापृतादिवास्तुविषयामवग्रहानुज्ञापनां प्रदर्शयति – 'से वत्थुसु वावडेसु' इत्यादि । सूत्रम् - से वत्थु वावडेसु वोगडेसु परपरिग्गहिए भिक्खुभावस्स अट्ठार दोच्चपि उगाहे अणुण्णवेयन्चे सिया अहालंदमवि उग्गहे ।। सू० २९ ।। छाया—तस्य वास्तुषु व्यापृतेषु व्याकृतेषु परपरिगृहीतेषु भिक्षुभाषस्यार्थाय द्वितीयमपि अवग्रहः अनुवापयितव्यः स्यात् यथालन्दमपि अवग्रहः ॥ सू० २९ ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णिभाज्यावचूरी उ० ३ सू० २९-३१ उपाश्रयादेरवग्रहानुशापनाविधिः ७९ चूर्णी-'से वत्थुसु वावडेसु' इति । तस्य पूर्वोक्तस्य श्रमणस्य वास्तुषु व्यापृतेषु निवासव्यापारविशिष्टेषु, व्याकृतेषु दायादादिभिर्विभज्य एकेन स्वायत्तीकृतेषु परपरिगहीतेषु अन्यैरधिष्ठितेषु, 'भिक्खुभावस्स अढाए'-भिक्षुभावो ज्ञानदर्शनचारित्ररूपः तृतीयत्रतादिरूपो वा यथाऽयं भिक्षुभावो परिपूर्णो भवेदित्येवंरूपः, तस्यार्थाय प्रयोजनाय सम्यक्तया भिक्षुभावपालननिमित्तं पूर्वस्थितश्रमणविहारसमये यः समागच्छति तस्य दोच्चंपि द्वितीयमपि वारं प्रथमं तैरवग्रहानुज्ञापना गृहीताऽतो द्वितीयवारमिति कथितम्, अवग्रहोऽनुज्ञापयितव्यः निवासार्थ गृहस्वामिन आज्ञा ग्रहीतव्या स्यात् तेन पुनरप्याज्ञा ग्रहीतव्येति भावः । कियत्कालमित्याह-यथालन्दमपि जघन्ययथालन्दकालं यावदपि यथालन्दकालार्थमपि अवग्रहोऽनुज्ञापयितव्य इति । तत्रावग्रहः पञ्चविधः-शक्रेन्द्रावग्रहः १, राजावग्रहः २, गाथापत्यवग्रहः ३ सागारिकावग्रहः ४, साधर्मिकावग्रहश्चेति ५। एषु पञ्चविधेषु अवग्रहेषु यस्य यत्रावग्रह उचितो ज्ञायते तस्य तस्यावग्रहेण गृहीतेषु उपाश्रयादिषु श्रमणैर्वस्तव्यम् । यदि कुत्रापि वृक्षतलादिशून्यस्थाने यस्य कोऽपि स्वामी न भवेत्तत्र यदि वस्तव्यं स्यात्तदा शकेन्द्रस्यावग्रहोऽनुज्ञापयितव्यः । अत्र कश्चित् शङ्कते-किं शक्रेन्द्रोऽनुज्ञां ददाति येन तस्यावग्रहोऽनुज्ञाप्यते ? शृणु, यद् भगवतोवग्रहप्रतिपादकं वचनं श्रुत्वा शकेन्द्रस्तीर्थकरं वन्दित्वा यद् यद् अस्वामिकम् आत्मीयेऽवग्रहे साधुप्रायोग्यं सचित्तं शिष्यादि, अचित्तं मिश्रं वा किमपि वस्तुजातं भवेत्तत्तत्तदानीं सर्वमपि भगवद्वचनाराधकत्वेन प्रसन्नमनसा साधुभ्योऽनुजानातीत्यत एव शकेन्दस्यावग्रहः शास्त्रे प्रतिपादित इति ॥ सू० २९ ॥ ___ अथावग्रहप्रसङ्गादत्र सागारिकावग्रहस्य राजावग्रहस्य चावग्रहपरिमाणं प्रतिपादयितुमाह'से अणुकुड्डेसु' इत्यादि । सूत्रम्-से अणुकुड्डेसु वा अणुभित्तिसु वा अणुचरियासु वा अणुफलिहासु वा अणुपंथेसु वा अणुमेरासु वा सच्चेव उग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा अहालंदमवि उग्गहे ।। सू०३० ॥ ___ छाया-तस्य अनुकुडयेषु वा अनुभित्तिषु वा अनुचरिकासु वा अनुपरिखासु वा अनुपथेषुवा अनुमर्यादासु वा सैव अवग्रहस्य पूर्वानुशापना यथालन्दमपि अवग्रहः॥सू०३०॥ __ चूर्णी--'से अणुकुड्डेसु वा' इति । 'से' तस्य पूर्वोक्तस्य श्रमणस्य अनुकुड्येषु वा मृत्तिकानिमितभित्तिनिकटवर्तिषु स्थानेषु, अनुभित्तिषु वा इष्टकाप्रस्तरादिनिर्मितभित्तिनिकटवर्तिषु प्रदेशेषु, अनुचरिकासु वा-नगरप्राकारयोरपान्तरालवर्तिषु अष्टहस्तप्रमाणमार्गेषु, अनुपरिखासु वा नगरचतुर्दिस्थितखातिकासमीपवर्त्तिषु प्रदेशेषु, अनुपथेषु वा मार्गसमीपवर्तिषु स्थानेषु, अनुमर्यादासु वा-नगरसीमासमीपवर्तिषु स्थानेषु, एतेषु स्थानेषु सा एव राजाऽनुज्ञा एव यत्र न कोऽपि गृहादि करोति जनसाधारणार्थमेव यानि स्थानानि नगरप्रामादिषु राज्ञा स्थापितानि भवन्ति तेषु स्थानेषु राजाज्ञा पूर्वमेवानुज्ञापिता भवति अतः सा एवावग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० बृहत्कर वर्त्तते तत्र यथानन्दमपि जघन्यमध्यमयथालन्दकालं यथावसरम् अवग्रहो भवति न तत्र कोऽपि अनुज्ञापयितव्यः, एषां स्थानानां पूर्वमेव सागारिकरा नादिनाऽनुज्ञापितत्वादेव, अत्र सागारिकराजावग्रहौ बोध्यौ । अत्रायं विवेकः - पूर्वोक्तेषु स्थानेषु यथायोग्यमवग्रहो भवति यथा-अनु रिकानामष्टौ हस्ता अवग्रहे, परिखायां चत्वारो रत्नयः, वृतिस्वामिनो वृतेः परमपि हस्तमानमवग्रहो बोध्यः । शेषः पुनः सर्वोऽपि नृपतेरवग्रहो मन्तव्यः । एतदवग्रहपरिमाणं बोध्यम् । अत्र उच्चारादीनि स्थाननिषदनादीनि वा कुर्वन् श्रमणो यदि कुडयादीनां हस्ताभ्यन्तरे करोति तदा तेन गृहपत्यवग्रहो मनसि भावनीयः हस्तात्पुनरधिकं बहिश्चरिकाप्राकारपरिखादिषु च राजावग्रहो बोध्यः, अटव्यामपि यवसौ राजा भवति तदा तस्यैवावग्रहं श्रमणः स्मरेत्, यदि चासौ राजा तत्राटव्यां न प्रभुस्तदा शकेन्द्रस्यावग्रहं मनसि चिन्तयेदिति ॥ सु० ३० ॥ ॥ इत्यक्ग्रहमकरणम् ॥ पूर्व श्रमणस्य निवासविषयोऽवग्रहः प्रतिपादितः तत्र, राजावग्रहोऽप्यन्तर्भूत इति साम्प्रतं विरुद्धराजसैन्यातिक्रमणे निर्मन्थनिर्ग्रन्थीनां भिक्षाचर्यानिवासादिविधिं प्रतिपादयति'से गामस्ल वा' इत्यादि । सूत्रम् -- से गामस्स वा जाव सग्रहाणीए वा बहिया सेण्णं सनिविट्टं पेहाए hers fairण वा निग्रंथीण वा तद्दिवसं भिक्खायरियाए गंतुं पडिनियत्तए । नो से कप्पइतं रयर्णि तत्थेव उवाइणावित्तर, जो खलु निम्गंथो वा निम्गंथी वा तं स्यणि तत्क्षेत्र उवाइणावे, उवाइणावंत वा साइज्जइ, से दुहओवि अइकममाणे आवज्जइ चाउ मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥ सू० ३१ ॥ छाया - अथ ग्रामस्य वा यावद् राजधान्या वा बहिः सैन्यं संनिविष्टं प्रेक्ष्य कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा तं दिवर्स भिक्षाचार्यायै गत्वा प्रतिनिवर्त्तितुम् । नो तस्य कल्पते तां रजनीं तत्रैव अतिक्रामयितुस् । यः खलु निर्ग्रन्थो वा निग्रेन्थी वा तां रजनीं तत्रैव अतिक्रामयति अतिक्रामयन्तं वा स्वदते स द्विघातोऽपि अतिक्रामन् आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्धातिकम् ॥ सू० ३१ ॥ चूर्णी - ' से गामस्स वा' इत्यादि । 'से' अथ - अवग्रह प्रकरणानन्तरं सम्प्रति ग्रामस्य वा आसन्तग्रामस्य 'जाव' इति यावत् यावत्प्रदेनात्र नगरादिपदानां संग्रहपाठोऽस्यैव प्रथमोदेशके षष्ठसूत्रो को ग्रामादारभ्य राजधानीपर्यन्तः सर्वोऽपि वाच्यः, अत्रोक्तपदानामर्थोऽपि तत्रैवाऽवलोकनीयः । राजधान्या वा बहिः - बहिर्भागे सैन्यम् अन्यनृपतेः सैन्यदलं ग्रामादिविजयार्थं संनिविष्टम् आगत्य स्थितं प्रेक्ष्य दृष्ट्वा कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ब्रम्धीनां वा तत्तद्ग्रामादिस्थितानां तद्दिवसमभिव्याप्य तस्मिन् दिवसे इत्यर्थः भिक्षा पर्यायै भिक्षाचर्यार्थं तत्र आसन्नग्रामादौ गत्वा प्रतिनिवर्त्तितुं प्रत्यागन्तुं कल्पते किन्तु 'से' तस्य भिक्षाचर्यागतस्य निर्ग्रन्थस्य निर्ग्रन्ध्या वा नो कल्पते न Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिमा चापधुरी उ० ३ सू० ३२ प्रामादिभूमेरवग्रहानुशापनाविधिः ८१ युध्यते सा रजनी रात्री तत्रैव सैन्यपरिवेष्टिते प्रामादौ अतिक्रामयितुम् उल्लङ्घयितुं यापयितुं तत्र स्थातुमित्यर्थः नो कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । यः खलु निग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी या तो रजनी तत्रैव अतिक्रामयति अतिक्रामयन्तं वाऽन्य स्वदते अनुमोदते सः 'दुहओवि' इति द्विधातोऽपि तीर्थकरतो नृपतों वा उभयतोऽपि अतिक्रामन् आज्ञामुल्लयन् तीर्थकराज्ञां नृपाज्ञां च विलोपयन् आपधते-प्राप्नोति चातुर्मासिकं चतुर्माससम्बन्धिकं परिहारस्थानं प्रायश्चित्तस्थानम् अनुदातिकं चतुर्गुरुरूपं प्राप्नोतीति पूर्वेण सम्बन्धः ॥सू० ३१॥ अत्राह भाष्यकार:-'पढम' इत्यादि । भाष्यम्--पढमं जइ जाणिज्जा, निमित्तविज्जाबलेण उप्पायं । सोच्चा वा जइ जाणइ, तत्तो पुव्वं नियत्तेज्जा ॥७॥ छाया--प्रथमं यदि जानीयात् निमित्तविद्याबलेन उत्पातम् । श्रुत्वा वा जानीयात् तत्तः पूर्व निवर्तत ॥ ७॥ अवचूरी-'पढम' इति । प्रथमं विरुद्धराज्यातिक्रमणादितः पूर्व निर्ग्रन्थो यदि निमित्तशास्त्रस्य विद्यायाश्च बलेन उपलक्षणादवधिज्ञानाद्यतिशयेन वा उत्पातं भविष्यमाणमुपद्रवं जानीयात् , वा-अथका श्रुत्वा-अन्यजनसकाशात् अतिशयज्ञानिसकाशात् कस्यचिद्देवस्य कथनाद्वा श्रवणगोचरीकृत्य अनागतकालिकमुपद्रवम्-यथा जनाः परस्परं वार्तालापसमये किञ्चिद्विरोधादिकारणमुपलक्ष्य वदन्ति यदत्र परराजातिक्रमणं भविष्यतीति, तथा किञ्चित्प्रकारकं दुनिमित्तमशुभं चन्द्रसूर्यपरिवेषादिकं दृष्ट्वाऽनुमानेन उत्पातसंभवं कथयन्ति, इति तेभ्यः श्रुत्वा वा उत्पातं जानीयात् तदा श्रमणः तत्तः तस्माद् ग्रामादितः पूर्व पूर्वमेव उत्पातात्प्रागेव निवर्तेत ततो निर्गच्छेत् न तत्र वासं-मासकल्परूपं चातुर्मासरूपं वा कुर्यादिति भावः । यदि च पूर्वोक्तप्रकारेण नावगतं स्यात् सहसैव तद् प्रामादिकं परसैन्येन अवरुद्धं भवेत् , मार्गाश्च व्यवच्छिन्नास्तदा निर्गमनं श्रमणैर्न कर्तव्यम् , अथवा केचित् साधवो ग्लाना ज्वरादिपीडिताः तपोदुर्बला वा भवेयुस्तदापि तत्रतो न निर्गन्तव्यं, तत्रैव यतनया संयमरक्षणपूर्वकं स्थातव्यम् । यदि परचक्रपीडिता जना एकत्रीभ्य पर्वतदुर्गादिषु गत्वा तिष्ठन्ति तदा श्रमणैरपि तैः सार्धं गत्वा तत्रैव भक्तपानादौ गमनागमनादौ च तथा यतना कर्तव्या यथा संयमयोगो न परिभ्रश्येतेति भावः ॥७॥ अथ ग्रामादिषु अवग्रहमर्यादा प्रतिपादयति-‘से गामंसि वा' इत्यादि सूत्रम्--से गामंसि वा जाव संनिवेसंसि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सव्वओ समंता सकोसं जोयणं उग्गहं ओगिण्हित्ता णं चिद्वित्तए ॥ सू० ३२॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 हत्कल्परचे छाया-अथ प्रामे वा यावत् संनिवेशे वा कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा सर्वतः समन्तात्सकोशं योजनम् अवग्रहम् अवगृह्य स्थातुम् ॥ सू० ३२॥ तइओ उद्देसो समत्तो ॥३॥ __ चूर्णी-'से गामंसि वा' इति । मथ-सैन्यप्रकरणानन्तरम् प्रामे वा यावत् संनिवेशे वा यावत्पदेन-प्रामाकरनगरखेटकर्बटद्रोणमुखपत्तनाश्रमसंनिवेशेषु इत्यर्थो वोध्यः, एतेषु स्थानेषु यदा मासकल्पं चातुर्मासं :वा यावत् स्थितिं कुर्वतां निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा सर्वतः समन्तात् ग्रामादेः पूर्वपश्चिमदक्षिणोत्तरदिक्षु विदिक्षु वा प्रत्येकं सक्रोशं योजनम् पञ्चक्रोशान् यावत् सार्द्धद्विक्रोशं गमनस्य सार्द्धद्विकोशमेवागमनस्य एवं पञ्चक्रोशान् यावत् प्रत्येकं दिशि क्रोशद्वयमाहाराद्यथे, तत्स्थानात्कोशा? विचारभूमिनिमित्तमिति, अनेन प्रकारेण गमनागमनस्य पञ्चकोशपरिमितक्षेत्रविषयमवग्रहम् अवगृह्य-अनुज्ञाप्य तत्र स्थातुं मासकल्पं चातुर्मासं वाऽवस्थातुं कल्पते ॥ सू० ३२॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक__ प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनाचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबतिविरचिताया "बृहत्कल्पसूत्रस्य" चूर्णि-भाण्या-ऽवचूरीरूपायां व्याख्यायां तृतीयोद्देशकः समाप्तः ॥३॥ TIM Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अथ चतुर्थोद्देशकः। व्याख्यातस्तृतीयोदेशकः, साम्प्रतं चतुर्थोद्देशको व्याख्यायते । अत्र तृतीयोदेशकस्यान्तिमसूत्रेणास्यादिसूत्रस्य, कः सम्बन्धः । इति तत्सम्बन्ध प्रतिपादयति भाष्यकारः-'गामाइ०' इत्यादि । भाष्यम्-ग्रामाइवासवसणं, पुव्वं वुत्तं च समणसमणीणं । तत्य य निवसंताणं, दुद्धाइयविगइसेवणओ ॥१॥ मोहुम्भवो हि जायइ, तेणं सेवेज दोससंघायं । तस्स य पायच्छित्तं, वुच्चइ इह एस संबंधो ॥२॥ छाया–प्रामादिवासवसनं, पूर्वमुक्तं च श्रमणश्रमणीनाम् । तत्र च निवसतां दुग्धादिकविकृतिसेवनतः ॥१॥ मोहोद्भवो हि जायते, तेन सेवेयुर्दोषसंघातम् । तस्य च प्रायश्चित्तम् , उच्यते इह एष सम्बन्धः ॥२॥ अवचूरी-'गामाइ०' इति । पूर्व तृतीयोदेशकस्यान्तिमसूत्रे श्रमणश्रमणीनां प्रामादिवासवसनम् उक्त-प्रतिपादितम् , तत्र च निवसतां मासकल्पवासं वा चातुर्मासवास वा कुर्वतां तेषां तत्र गोमहिण्यादिप्राचुर्येण दुग्धादिदाने लोकाः सुलभा भवेयुः, ते च संयतादीन् प्रचुरदुग्धादिना प्रतिलम्भेयुस्ततो दुग्धादिकविकृतिसेवनतः प्रणीतरसभोजनतस्तेषां हि निश्चयेन मोहोद्भवो जायते, तेन कारणेन ते दोषसंघातं हस्तकर्मादिदोषसमूहं कदाचित् सेवेयुः, तस्य च दोषसंघातस्य प्रायश्चित्तम् इह -अस्मिन् चतुर्थोद्देशकस्यादि सूत्रे उच्यते प्रतिपाद्यते, एष उक्तस्वरूपस्तृतीयचतुर्थोंदेशकयोः सम्बन्धो वर्त्तते ॥ १-२-॥ इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य चतुर्थोद्देशकस्येदमादिमं सूत्रम्-'तओ अणुग्धाइया' इत्यादि । सूत्रम्-तओ अणुग्धाइया पण्णत्ता तंजहा-हत्थकम्मं करेमाणे १, मेहुणं पडिसेवमाणे २, राइभोयणं भुंजमाणे ३॥ सू०१॥ छाया-त्रयः अनुद्धातिकाः प्राप्ताः, तद्यथा-हस्तकर्म कुर्वाणः १, मैथुनं प्रतिसेवमानः २, रात्रिभोजनं भुञ्जानः॥ सू०१॥ चूर्णी-'तो' इति । अनुदातिकाः-उद्घातयितुमशक्या अनुदातिकाः, अनुद्घातिकप्रायश्चित्तयोग्याः, एते द्रव्यक्षेत्रकालभावभिन्ना अपि प्रकृते गुरुमासिकप्रायश्चित्तभाजोऽत्र ग्राह्याः, ते त्रयः त्रिसंख्यकाः प्रज्ञप्ताः भगवद्भिरुक्ताः । के ते ! इत्याह-तंजहा-तद्यथा ते यथा-'हत्थकम्मं करेमाणे' हस्तकर्म कुर्वाणः, तत्र हस्तकर्म-हन्ति हसति वा मुखमावृत्य अनेनेति हस्तः आदाननिक्षेपादिकरणस्वभावः करः, तेन करणभूतेन यत् कर्म निषिद्धाचरणादिकं क्रियते तत् हस्तकर्म, शुभाशुभं सर्वमपि कर्म हस्तेनैव क्रियते किन्त्वत्र निषिद्धाचरणस्य प्रस्तावात्कर्मणो निषिद्धाचरणमित्यर्थः कृत इति, तत् कुर्वाणः आचरन् प्रथमोऽनुद्घातिको भवति १ । द्वितीयमाह Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ बृहत्कल्पस्त्रे 'मेहुणं पडिसेवमाणे' मैथुनं प्रतिसेवमानः, तत्र मैथुनं मिथुनं स्त्रीपुंसयुग्मलक्षणं, तस्य भावः कर्म वा मैथुनम्-अब्रह्म तत् प्रतिसेवमानो द्वितीयोऽनुद्घातिकः २ । तृतीयमाह-राइभोयणं भुंजमाणे' रात्रिभोजनं भुनानः-पूर्व सैन्यप्रकरणे सैन्यरुद्धे स्थाने भिक्षाचर्यार्थ गतः साधुः कदाचित् तां रजनौं तत्रैव वाहयेत् तत्र तेन एकाकित्वेन रात्रिभोजनं कृतं स्यात् तेन स रात्रिभोजनस्वभावो भवेत् ततः रात्रिभोजनं रात्रौ अशनाद्याहरणं भुजानः कुर्वाणस्तृतीयोऽनुद्घातिको भवति । एषां त्रयाणामपि अनुद्घातिकं गुरुमासिकं प्रायश्चित्तं समापयेतेति ॥ सू० १॥ एतदेव विशदयति भाष्यकारः–'उग्घाय०' इत्यादि। भाष्यम्--उग्घायअणुग्घाया, दव्वे खेत्ते य काल भावे य । दव्वे हलिद्दरागो, किमिरागो होज्जऽणुक्कमसो। ३ ॥ खेत्ते य किण्ह-पत्थर-भूमी काले य संतरं इयरं । भावे य अठपगडी, भव्वस्स य तह अभव्वस्स ॥४॥ छाया--उद्घातानुद्घातौ, द्रव्ये क्षेत्रे च काले भावे च । द्रव्ये हरिदारागः, कृमिरागो भवेदनुक्रमशः ॥ ३ ॥ क्षेत्रे च कृष्ण-प्रस्तर-भूमिः, काले च सान्तरमितरम् । भावे चाष्ट प्रकृतयः, भव्यस्य च तथा अभव्यस्य ॥४॥ अवचूरी-'उग्घाय०' इति । अत्र ह्रस्वत्वाद् दीर्घत्ववद् उद्घातिकाद अनुद्घातिकस्य प्रसिद्धिरिति कृत्वा द्वयोरपि उद्घातिकानुद्घातिकयोव्यादिभेदतः प्रत्येकं चतुर्विधत्वं प्रतिपाद्यते'उग्याइय०' इत्यादि । उद्घातानुद्घातौ उद्घातिकम् अनुद्घाति कंचेति द्वे अपि प्रत्येकं चतुर्विधे भवतः, तथाहि-द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे च द्वे अपि भवतः, तत्र द्रव्य इति द्रव्यत उद्घातिको हरिद्रारागः, तस्य सुखेनापनेतुं शक्यत्वात् , अनुद्घातिकं कृमिरागः अपनेतुमशक्यत्वात् १ । क्षेत्रे इति क्षेत्रतः कृष्णप्रस्तरभूमिः, क्रमशः उद्घातिकं, कृष्णभूमिः हल कुलिकादिभिः सुखेन क्षोदयितुं शक्यत्वात् , अनुद्घातिकं प्रस्तरभूमिः हलादिना क्षोदयितुमशक्यत्वात् २ । काले इति कालतः उद्घातिकं यत्र सान्तरम्अन्तरन्तः समयव्यवधानेन प्रायश्चित्तदानं भवति, अनुद्घातिकम् इतरमिति निरन्तरं यत्र समयसातत्येन प्रायश्चित्तदानं भवति ३ । भावे इति भावतः-उद्घातिकं यथा भव्यस्याष्टौ प्रकृतयः या उद्घातयितुं, शक्या भवन्ति, अनुद्धातिकं यथा अभव्यस्याष्टौ प्रकृतयः या उद्धातयितुमशक्या भवन्ति यतो यथा भव्यो येन शुभाध्यवसायेन ज्ञानावरणादिकर्मणां क्षपणं करिष्यति ताशो भावोऽभव्यस्य कदाचिदपि नोत्पद्यते इत्यतस्तस्य भावोऽनुरातः, कोद्घातकरणस्यासामर्थ्यात् , अनेनैव कारणेन तस्य कर्माणि अनुद्घातिकानि कथ्यन्ते । अत्र च प्रायश्चित्तानुद्घातिकस्याधिकार इति हस्तकर्मादीनां त्रयाणां विरुद्धाचरणानां सेवनत एते त्रयोऽपि अनुद्घातिकाः अनुद्घातिकमायचित्तयोग्या भगबता प्रदर्शिताः, एषां मूलगुणानामेव भङ्गसद्भावादिति ॥ ३-१॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णि भ्राच्या ऽवचूरी उ० ४ सू० २ पाराञ्चिक-स्वरूपम् ८५ पूर्वसूत्रे अनुद्धाताख्यगुरुकारोपणा प्रोक्ता, सम्प्रतमपि गुरुकाया एव पाराञ्चिकाख्यारोपणां प्रतिपादयितुमाह, अथवा पूर्वसूत्रे तपोऽर्हा शोधिः प्रौका, इदानीं छेदार्हा शोधिः प्रतिपाद्यते - 'ओ' इत्यादि । सूत्रम् - तो पारंचिया पण्णत्ता, तं जहा दुट्ठे पारंचिए १, प्रमते पारंचिए २, अन्नमन्नं करेमाणे पारंचिए ३ ॥ सू० २ ॥ छाया - त्रयः पाञ्चिकाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा- दुष्टः पाराञ्चिकः १, प्रमत्तः पाराञ्चिकः अन्योन्यं कुर्वाणः पाराञ्चिकः ॥ सु० २ ॥ २, - " 1 चूर्णी - 'तओ' इति । त्रयः त्रिसंख्यकाः पाराञ्चिकाः पाराञ्चिकप्रायश्चित्तयोग्याः प्रज्ञप्ताः तीर्थकरादिभिः प्ररूपिताः । पाराञ्चिक इति कोऽर्थस्तत्राह - येन प्रायश्चित्तेन परिशोधितेन श्रमणः पारं संसारसमुद्रस्य तीरम् मोक्षरूपम् अञ्चति - गच्छति तत् पाराश्चिकम् अस्य प्रायश्चितस्य शुद्धभावतः परिशोधनेन श्रमणो मोक्षमाप्नुयादिति भावः । एतत्प्रायश्चित्तापन्नत्वेन उपचारात् श्रमणोऽपि पाराञ्चिकः कथ्यते । अथवा शोधिरूपस्य प्रायश्चित्तस्य पारं पर्यन्तमञ्चल गच्छति यत्तत् पाराञ्चिकं अपश्चिममनुत्तरं वा प्रायश्वितं पाराश्चिकं व्यपदिश्यते । के ते त्रयः पाराञ्चिकाः ? इत्याह- 'तंजहा, इत्यादि, तद्यथा - ते यथा - दुष्टः पाराञ्चिकः प्रथमः १, प्रमत्तः पाञ्चिको द्वितीयः २, अन्योन्यं कुर्वाणः पाराञ्चिकस्तृतीयः ३ । तत्र दुष्टो - द्विविधः कषायदुष्टो विषयदुष्टश्च, एकः कषायमाश्रित्य दुष्टो भवेत्, द्वितीयो विषयमिन्द्रियविषयमाश्रित्य दुष्टो भवेत्, सद्विविधोऽपि दुष्टः पाराञ्चिकप्रायश्चित्तयोग्यो भवति १ । द्वितीयः प्रमत्तः पाराञ्चिकः प्रमादमाश्रित्य पाराञ्चिकप्रायश्चित्तयोग्यो भवति, अयं स्त्यानर्द्धिनिद्रावशात् मांससेवी, पञ्चेन्द्रियवधकारी, मद्यसेवी च भवतीति प्रमत्तः पाराञ्चिकः कथ्यते २ | तृतीयः अन्योन्यं कुर्वाणः अन्योन्यमिति परस्परं साधुः साधुना सह मैथुनचेष्टां कुर्वाणः निर्ग्रन्थी निर्मन्ध्या सह मैथुनब्रेष्ठां कुर्वाणा च । एते पूर्वोक्तायोऽपि पाराश्चिकप्रायश्चित्तभागिनो भवन्तीति । भत्रेयं छेदार्हा शोधिरभिहिता, छेदस्तावत् द्विविधः - देशतः सर्वतश्च, तत्र पञ्चरात्रिन्दिवादिकः षण्मासान्तश्छेदो देशतश्छेद उच्यते सर्वच्छेदस्त्रिविधःमूलाऽनवस्थाप्यपाराञ्चिकभेदात् अत्र पाराञ्चिकच्छेदस्याधिकारः, स च द्वादशवार्षिकं तपोऽनुष्ठानं कारयित्वा गृहस्थवेषं दत्त्वा पुनर्नूतनदीक्षाप्रदानरूपो भवति । पाराश्चिको द्विविधो भवति - आशातनापाराञ्चिकः प्रतिसेवनापाराञ्चिकश्च तत्र - आशातनापाराञ्चिक:-- तीर्थकर प्रवचन श्रुताचार्यगणधरम हर्द्धि कादीनामत्याशातकः, तत्र तीर्थकराशातना यथा -- तीर्थकरो हि यद् देवरचितसमवसरणाष्टमहाप्रातिहार्यादिलक्षणां प्राभूति कामनुमन्यते तन्न वरम्, यः केवला लोकेन भवस्वरूपं जानन्नपि किमिति विपाकदारुणामेतादृशीं भोगसामग्रीं भुङ्क्ते : इति । तथा मल्लिनाथस्य स्त्रीशरीरस्यापि यत्तीर्थमुच्यते तदप्यतीवायुक्तम्, स्त्रीतीर्थं न भवतीति शास्त्रे श्रूयते इति । तथा सर्वोपायकुशला अपि तीर्थकस मामनगरादौ विद्वत्य विद्वत्यातीव दुश्वरां देशनां " Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पस्त्रे कृतवन्तस्तदपि न समीचीनम् । इत्यादिरूपमवर्ण तीर्थकृतां यो भाषते स पाराञ्चिकप्रायश्चित्तस्थानमापद्यते । एवं प्रवचनश्रुताचार्यादिविषयाऽऽशातनाप्रकाराः स्वयमूहनीयाः, एष आशातनापाराञ्चिको बोध्यः । द्वितीयः प्रतिसेवनापाराञ्चिकः । पाराञ्चिका अस्मिन्नेव सूत्रे प्रतिपादितास्त्रयो भवन्तीति, ॥ सू०२ ॥ पाराञ्चिकानेवविशंदयति भाष्यकार:-'दुविहो' इत्यादि । भाष्यम्-दुविहो दुट्ठो वुत्तो, पंचविहो होइ जो पमत्तो उ । अन्नोन्नं कुव्वा, णेगविहो एस णायव्वो ॥ गा० ५॥ छाया-द्विविधो दुष्ट उक्तः पञ्चविधो भवति यः प्रमत्तस्तु । अन्योन्यं कुर्वाणः अनेकविध एष शातव्यः ॥ ५ ॥ अवचूरी--'दुविहो' इति । अत्र प्रथमो दुष्टः पाराञ्चिको द्विविधः प्रोक्तः तथाहि-कषायदुष्टः विषयदुष्टश्चेति । तत्र कषायदुष्टो द्विविधो भवति-स्वपक्षदुष्टः परपक्षदुष्टश्च, अत्र चतुर्भङ्गी भवति तथाहि-स्वपक्षः स्वपक्षे, स्वपक्षः परपक्षे २, परपक्षः स्वपक्षे ३, परपक्षः परपक्षे ४ । तत्र स्वपक्षः स्वपक्षे एकः साधुरन्यसाधूपरि कषायं करोति, अत्र दृष्टान्तः सर्षपपत्रशाकभोक्तमृतगुरुदन्तभञ्जकः शिष्यः, तथाहि-शिष्येण भिक्षायां सौंपशाकः प्राप्तः, तेन निमन्त्रितो गुरुः सर्व शाकमाहृतवान् तेन तस्य मनसि कोपः समुद्भूतः, यदनेन मद्गुरुणा सर्वोऽपि शाको भुक्त;, गुरुणा क्षामितोऽपि नोपशान्तः सन् गुरुदन्तमञ्जनप्रतिज्ञां कृतवान् तद् ज्ञात्वा गुरुभक्तप्रत्याख्यानेन कालधर्म प्राप्तः, ततश्च स मृतगुरुमुखाइन्तान् त्रोटितवान् कथितवांश्च-एत एव तव दन्ता सर्व सर्षपशाकं भुक्तवन्त इति प्रथमो दृष्टान्तः १ । एवमेव द्वितीय उज्ज्वलसदोरकमुखवत्रिकायें गुरोर्गलग्रहणं कृत्वा गुरुं मारितवान् २। एवमन्येऽप्येवं प्रकारा दृष्टान्ता विज्ञेयाः । इति प्रथमो भङ्गः।। द्वितीयः स्वपक्षः परपक्षे यथा कस्यचित् साधोहस्थावस्थायां केनापि सह वादो जातस्तत्र स पराजितो भूत्वा प्रव्रजितः । ततोऽवसरं प्राप्य स कयाचिद् युक्त्या पूर्वकषायोदयेन तं मारितवान् । इति द्वितीयो भङ्गः २। तृतीयः-परपक्षः स्वपक्षे यथा-गृहस्थावस्थायां केनापि वादे पराजितः एकः, यस्तं पराजितवान् स प्रवजितः, ततः स पूर्व पराजितो गृहस्थः प्रव्रजितं तं जयिनं साधु केनचिदुपायेन मारितवान् एष तृतीयोभङ्गः ३ । चतुर्थः-परपक्षः परपक्षे-गृहस्थो गृहस्थं मारयति, इति चतुर्थों भङ्गः ४ । एष भङ्गः साधौ न घटते । उक्तः कषायदुष्टः, सम्प्रति विषयदुष्टं विवृणोति-अत्रापि स्वपक्षपरपक्षमाश्रित्य पूर्ववदेव चत्वारो भङ्गा भवन्ति-यथा-स्वपक्षः स्वपक्षे विषयदुष्टः, इति प्रथमों भङ्गः १ । एवं चत्वारोऽपि भङ्गाः पूर्ववदेव कर्त्तव्याः ४ । तत्र-श्रमणः श्रमण्यामध्युपपन्नः स्वपक्षः स्वपक्षे विषयदुष्टः १, श्रमणो गृहस्थस्त्रियामध्युपपन्नः स्वपक्षः परपक्षे विषयदुष्टः २ । गृहस्थः श्रमण्यामध्युपपन्नः परपक्षः स्वपक्षे विषयदुष्टः ३। गृहस्थो गृहस्थस्त्रियामध्युपपन्नः परपक्षः परपक्षे विषयदुष्टः, ४ । एष भङ्गः श्रमणपक्षे न घटते,इति चतुर्थो भङ्गः । एष द्विविधो दुष्टपारा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णि-भाज्या-वचूरी उ० ४ सू० २ पाराञ्चिकस्वरूपम् ८७ ञ्चिकस्तत्रः प्रथमः प्रतिपादितः । १ । द्वितीयं प्रमत्तपाराञ्चिकं विवृणोति-पंचविहो' इत्यादि यः प्रमत्तपाराञ्चिकः, स तु पञ्चविधोभवति प्रमादस्य पञ्चविधत्वात् तथाहि-मद्यप्रमत्तः १, विषयप्रमत्तः २, कषायप्रमतः ३, विकथाप्रमत्तः ४, निद्राप्रमत्तश्चेति ५ । तत्र मद्यप्रमत्तः मद्यपानोद्भूतप्रमादवान् १, विषयप्रमत्तः-श्रोत्रादिविषयलोलुपत्वेन प्रमादवान् २, कषायप्रमत्तःकषायाः क्रोधमानमायालोभाश्चत्वारः, तेष्वन्यतमकषायवशेन प्रमादवान् ३, विकथाप्रमत्त:विकथाश्चतस्रः-स्त्रीकथा१, देशकथा २, भक्तकथा ३, राजकथा ४, तासु आसक्तत्वेन प्रमादवान् ४, निद्राप्रमत्तः, तत्र निद्रा पञ्चविधा-निद्रा १, निद्रानिद्रा २, प्रचला ३, प्रचलाप्रचला ४, त्यानर्द्धिश्चेति ५ । निद्राचतुष्टयस्य लक्षणं यथा "मुहपडिबोहो निद्दा १, दुहपडिबोहो य निद्दनिदा य २। पयला होइ ठियस्स ३, पयलापयला उ चंकमओ ४ इति ॥१॥ सुखप्रतिबोधो निद्रा १, दुःखप्रतिबोधश्च निद्रानिद्रा २ । प्रचला भवति स्थितस्य ३, प्रचलाप्रचला तु चंक्रमतः ॥२॥ इति प्रच्छाया ॥ आसां चतसृणां निद्राणां लक्षणं प्रोक्तम् , अत्र पाराञ्चिकस्य प्रस्तुतत्वात्स्त्यानर्द्धिनिद्रयाऽधिकाइति स्त्यानर्द्धिर्भाव्यते-स्त्यानद्धिस्तावत् दर्शनावरणीयप्रबलकर्मोदयात् स्त्याना कठिनीभूता आच्छन्ना ऋद्धिः चैतन्यशक्तिर्यस्यां सा त्यानदिः, यथा घृते जले च स्त्याने कठिनीभूते सति न तत्र द्रवत्वं किञ्चिदुपलभ्यते तथा चैतन्यऋद्ध्यामपि स्त्यानायां सत्यां न किञ्चिदुपलभ्यते । अस्यां निद्रायां प्राप्तायां मनुष्यो तदवस्थायामेव नानाविधानि महान्ति बलसाध्यानि दुश्चरणानि समाचर्य पुनरागत्य स्वपिति, स्त्यानर्द्धिमतो हि वासुदेबबलादर्धबलं भवति तीर्थकृदादयः प्रज्ञापयन्ति तत्त प्रथमसंहननिनमपेक्ष्य प्रोक्तम् , सम्प्रति तु सामान्यजनापेक्षया द्विगुणं त्रिगुणं चतुर्गुणं वा बलं त्यानद्धिमतो भवतीति बोध्यम् । एवं पिशित१-मोदक२-कुम्भकार३-दन्त४-वटशाखा-भञ्जनादि ५-कार्यैः, त्यानदिनिद्रावानयमिति परिज्ञाय प्रमत्तपाराश्चिकं निर्णयेत् । तत्र प्रथमं पिशितदृष्टान्तो यथा-कश्चित् श्रमणः पूर्व गृहस्थावस्थायां पिशिताशी आसीत् तेन च पश्चात् प्रव्रज्या गृहीता, एष कदाचित् कचित् हृष्टपुष्टं महिषं दृष्ट्वा संजाततन्मांसभक्षणाभिलाषः सन् एकदा रात्रौ त्यानद्धिनिद्रायां तस्मिन् महिषमण्डले गत्वा अन्य महिषं व्यापाथ भुक्तवान् , शेषं तन्मांसमुपाश्रये थानीय तेन स्थापितम् , आचार्येण सर्व ज्ञात्वा निर्णीतं यदयं स्त्यानचिनिद्रावानिति । एषा स्त्यानद्धिनिद्रा । १ । मोदकदृष्टान्तो यथा-कश्चित् श्रमणः भिक्षार्थ पर्यटन् कस्यचिद् गृहस्थस्य गृहे मोदकं भक्तं दृष्ट्वा तद्ग्रहणार्थं याचनायां कृतायामपि स मोदकं न लब्धवान् , ततश्च तदलामे तदध्यवसायपरिणत एव सुप्तवान् । रात्रौ तद्गृहे गत्वा गृहस्य कपाटौ त्रोटयित्वा मोद Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कान् यथारुवि भुक्त्वा अवशिष्ठमोदकः पात्रं पूरविरका उपाश्रये समागतः । प्राभातिके चावश्यके--'एवंविषः स्वप्नो मया दृष्टः' इति प्रकटितवान् , ततश्च प्रभाते मोदकपरिपूर्ण पात्रं दृष्ट्वा आधाति यदयं स्त्यानििमद्रावामिति २ । कुम्भकारदृष्टान्तो यथा-कश्चित् कुम्भकारः वापि गच्छे प्रबजितः, तस्य कदाचिद् रात्री त्यामद्धिनिद्रा संजाता, स च पूर्वाचरित्तमृत्तिकापिण्डच्छेदनाभ्यासादुपाश्रयान्मिर्गत्य मृत्तिकासनी गत्वा तत्रतो मृत्तिकापिण्डा आनीय उपाश्रये स्थापिताः, प्रभाते तान् दृष्ट्वाऽऽचार्येण ज्ञातं यदय त्यानद्धिनिद्रावानिति ३ । दन्तदृष्टन्तो यथाकश्चित् श्रमणः गहस्थावस्थायामभिमुसमापतता हस्तिना आक्रान्तः पलायमामः कथश्चिदुग्मुक्तः स उदीर्णस्त्यानर्द्धिरुत्थाय गजशालायां गॅस्या हस्तिदन्तौ उत्पाट्य उपाश्रयस्य बहिः प्रदेशे संस्थाप्य पुनरपि सुप्तः । प्रमाते स्वप्नमालोचितवान् यदहं स्वप्ने हस्तिदन्तौ उत्पाटितवान् प्रकटितवांश्च स्वप्नम्, तत आचार्य उपाश्रयबहिःप्रदेशे हस्तिदन्ता विलोक्य निर्णीतवान् यदयं स्त्यानर्द्धिनिद्रावानिति ४ । वटशाखामअनदृष्टान्तों यथा-कश्चित् श्रमणो भिक्षार्थ पर्यटन् कुत्रचित् मध्यमार्गवत्तिन एकस्य क्रस्य शाखया शिरसि आघट्टितः सन् अत्यन्तं परितप्तान्तः करणो कटवृक्षोपरि प्रद्वेषमुफ्गतरसदध्यक्सायपरिणतश्च प्रसुप्तवान् । ततः उदीर्णस्त्यानर्द्धिश्चोत्थाय तत्र गत्वा वटवृक्षमुन्मूल्य तदीयशाखामानीयोपाश्रयोपरि स्थापितवान् , प्रभाते चावश्यककायोत्सर्गत्रिके कृते सति पूर्वोक्तरीत्या आचार्यान् प्रति स्वप्नमालोचितवान् । तत आचार्याः प्रभाते दिगवलोकनं कुर्वन्तोभ्यत आनीय संस्थापिता वटवृक्षशाखां दृष्ट्वा निर्णीतवन्तः यदयं सस्थानईिनिद्रावानिति ५ । एतादश स्थानईिमन्त श्रमणमेवं प्रज्ञापयेत्-सौम्य ! साधुलिङ्गं त्यज, तव चारित्रं नास्तीति सानुनयमाचार्येण सस्य लिङ्ग ल्याजयेदिति । म्याख्यातः प्रमत्तपाराञ्चिकः, सम्प्रति अन्योन्यकुर्वाणो व्याख्यायते-अन्योन्यं कुर्वाण: पाराञ्चिक इति, अन्योन्यं परस्परं यत् करणं मुखपायुप्रभृतिप्रयोगेणंऽब्रह्मसेवनं तत्कुवार्णः, साधुः साधुना सह मुखपायुप्रयोगेण मैथुनचेष्टा कुर्वाणः पाराञ्चिकः, साध्वी साध्या सह हस्तपादाङ्गुलिकर्मादिप्रयोगेण मैथुनचेष्टां कुर्वती पाराञ्चिका भवतीति विज्ञेयम् । यदि केनाऽपि. साधुना बुद्धिवैपरीत्यक्शाद् एतदाधरिस भवेत्, ततः शुभपरिणामोदयेन पश्चात्तापसंतप्तान्तःकरणो विशिष्टगुणवान् यदि 'पुनरेसादृशमपराधं न करिष्यामि' इति सद्भावनया पुनरकरणाय कृतनिश्चयो भवेत्तदा स तपःपाराञ्चिकः कथ्यते इति भावः । भा० गा० ५ ॥ सू० २ ॥ पूर्वसूत्रे पाराचिकप्रायश्चितं प्रतिपादितम् , सम्प्रति अनवस्थाप्यप्रायश्चितं प्ररूपयितुमाह'तो अणकट्टप्पा' इत्यादि । सूत्रम्-तो अणवहप्पा पण्णचा, जहा-साहम्मियाणं० तेणं करेमाणे, अन्नधम्मियाण तेणं करेमाणे, इत्यादालं दलमाणे ॥ सू० ३॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्याऽवचूरो उ० ४ सू० ३-९ प्रव्राजनाद्ययोग्यशिष्यस्वरूपम् ८९ छाया-त्रयः अनवस्थाप्याः प्राप्ताः, तद्यथा-साधर्मिकाणां स्तैन्यं कुर्वाणः, अन्यधार्मिकाणां स्तैन्यं कुवार्णः, हस्तातालं ददत् ॥ सू० ३॥ चूर्णी-'तो' इति । त्रयः अग्रे वक्ष्यमाणस्वरूपाः तावत् अनवस्थाप्याः अपराधविशेषसमाचरणेन तत्क्षणादेव पुनव्रतेषु अवस्थापयितुम् अयोग्याः प्रज्ञप्ताः, कथिताः तीर्थकरगणधरादिभिराख्याताः, के ते ? इत्याह-'तंजहा' इत्यादि, तद्यथा ते यथा-साधर्मिकाणां समानो धर्मो येषां ते सधर्माणः, त एव साधर्मिकाः समानो धर्मो वाऽस्ति येषामिति साधर्मिकाः श्रमणाः श्रमण्यो वा तेषां 'तेणं' स्तैन्यं स्तेनस्य भावः कर्म वा स्तैन्यं चौर्यम्-तत्सत्कस्य उत्कृष्टोपधेः शिष्यादेर्वा अपहरणं 'करेमाणे' कुर्वाणः स्वयं कुर्वन् उपलक्षणात् अन्यद्वारा कारयन् , कुर्वन्तमन्यं वाऽनुमोदमानः साधुः अनवस्थाप्यो भवतीति भावः १ । 'अन्नधम्मियाणं' अन्यधार्मिकाणाम् अन्यो जिनोक्तातिरिक्तो धर्मो येषां ते अन्यधर्माणः, यद्वा अन्यश्चासौ धर्मश्च अन्यधर्मः, सोऽस्ति येषामिति अन्यधर्माणः, मत्वर्थे इकण्प्रत्यये अन्यधार्मिकाः-दण्डिशाक्यादयो गृहस्था वा तेषां सत्कस्य तदधीनस्य उपध्यादेः स्तैन्यं कुर्वाणः साधुरनवस्थाप्यो भवति २ । तृतीयः 'हत्थादाणं दलमाणे' हस्तातालं ददत् , हस्तातालम् हस्तेन हस्तस्य अन्यवस्तुनो वा आताडनं हस्तातालः तं ददत्-कुर्वन् उपलक्षणात् यष्टिमुष्टिलकुटादिभिरात्मानं परं प्रहरन् किञ्चिद्वस्तुजातं वा ताडयन् साधुरनवस्थाप्यो भवति, स अनवस्थाप्यप्रायश्चित्तभागी भवति, तत्प्रायश्चित्तस्यानवस्थाप्याभिधानात् ॥ सू० ३ ॥ ___पूर्वमनवस्थाप्यः प्रोक्तः, स च सद्योऽनाचरिततपोविशेषो भावलिङ्गरूपेषु महाव्रतेषु न स्थाप्यतेऽतोऽसौ अनवस्थाप्यः प्रोच्यते, अयं पूर्वसूत्रे वर्णितः । तत्प्रसङ्गात् पण्डकादिविविधेऽपि द्रव्यभावलिङ्गे स्थापयितुं न योग्यो भवतीत्यत्र पण्डकादिः प्रतिपाद्यते-'तओ नो कप्पंति' इत्यादि । सूत्रम् -तओ नो कप्पति पव्वावित्तए तंजहा-पंडए १, वाइए २, कीबे ३, ॥सू०४॥ एवं मुंडावित्तए ॥ सू० ५॥ सिक्खावित्तए ॥सू० ६॥ उवट्ठावित्तए ॥ सूत्र ७॥ संभुंजित्तए ॥ सू० ८॥ संवासित्तए ॥ सू० ९॥ छाया-त्रयो नो कल्पन्ते प्रव्राजयितुम् , तद्यथा-पण्डकः १ वातिकः २, क्लीबः३ ॥सू० ४॥ एवं मुण्डापयितुम् ॥सू० ५॥शिक्षापयितुम् ॥ सू० ६॥ उपस्थापयितुम् ॥ सू०७॥ संभोक्तुम् ।।सू० ८॥ संवासयितुम् ॥ सू. ९॥ चूर्णी-'तो' इति । त्रयो वक्ष्यमाणाः पुरुषास्तावत् नो कल्पन्ते, किमित्याह-'पव्वावित्तए' प्रव्राजयितुं प्रव्रज्यां ग्राहयितुं दातुं न योग्या इत्यर्थः, के ते ? इत्याह-'तंजहा' तद्यथा-ते यथा-पण्डकः जन्मनपुंसकः १, वातिकः वातूजः वातरोगी–वेदोदयसहनाऽक्षमः २, क्लीबः असमर्थः कातर इत्यर्थः, क्लीबस्तावत् दृष्टि-शब्दा-ऽऽदिग्ध-निमन्त्रणक्लीबभेदाच्चतुर्विधः, १२ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रे तत्र दृष्टिक्लीबः यस्यानुरागतो विवस्त्राद्यवस्थास्थितां स्त्रियं दृष्ट्वा मेहनं गलति सः १, शब्दक्लीबः यस्य सुरतादिशब्दश्रवणेन मेहनं गलति सः २, आदिग्धक्लीबः-यस्य चित्तविक्षेपेणोपगूढस्य मेहनं गलति सः ३, निमन्त्रणक्लीबः-यः कयाचित् स्त्रिया निमन्त्रिते व्रतं रक्षितुं न शक्नोति सः ४ । एष चतुर्विधोऽपि क्लीबोऽप्रतिसेवमानोऽपि वेदनिरोधेन वेदोदयवशात् नपुंसकतया परिणमति । एते त्रयः प्रव्राजयितुं न योग्या इति भावः । यद्यनाभोगलोभाद्यभिभूततया पण्डकादयः प्रवाजिता भवेयुस्तदा प्रवचनोडाहप्रवचनप्रवादादयोऽनेके दोषाः समापतेयुस्ततो नैते प्रव्राजनीया इति । यद्यपि बालवृद्धादिभेदाद् विंशतिसंख्यकाः प्रव्राजयितुमयोग्याः ते च उपलक्षणाद् ग्राह्याः । प्रकृते गुरुतरदोषदुष्टत्वात् त्रयः पण्डकादयोऽत्र प्रव्राजयितुमयोग्या अधिकृता अवसेयाः । ते विंशतिविधा यथा "बाले १, वुड्ढे २, नपुंसे य, जड्डे ४ कीबे ५ य वाहिए ६। तेणे ७, रायावगारी ८ य, उम्मते ९ य असणे १० ॥१॥ दासे ११ दुढे १२ य मूढे १३ य, अणत्ते १४ जुंगिए १५, इय । अबोदए १६, य भयए १७, सेहनिप्फेडिए १८ इय ॥२॥ गुम्विणी १९, बालवच्छा २०, य, पव्वावेउ न कप्पई ॥" छाया-बालो १, वृद्धो २, नपुंसकश्च ३, जडुः ४, क्लीबश्च ५, व्याधितः ६। स्तेनः ७, राजापकारी ८, च, उन्मत्तश्च ९, अदर्शनः १० ॥ १॥ दासः ११, दुष्टश्च १२, मूढच १३, अनत्तः १४, जुङ्गिक १५, इति । अबोधकश्च १६, भयकः १७, शैक्षनिष्फेटित १८ इति ॥ २॥ गुर्विणी १९, बालवत्सा २०, च प्रवाजयितुं न कल्पते ॥ तत्र-अदर्शन:-अन्धः। 'अणत्तो' अनत्तेः-ऋणपीडितः। जुङ्गिकः-जात्यङ्गहीनः । अबोधकःबुद्धिहीनः । शैक्षनिष्फेटितः केनाप्यपहृत इति । एतेषामत्र नाधिकार इति सूत्रकारेण न गृहीता इति ॥ सू० ४ ॥ 'एवं' इति । एवम् अनेनैव प्रव्राजनप्रकारेणैव एते पूर्वोक्तास्त्रयः मुण्डापयितुम्शिरोलोचेन लुञ्चितुं श्रमणानां न कल्पन्ते ॥ सू० ५ ॥ तथा शिक्षापयितुम्-ग्रहणासेवनशिक्षया श्रुताध्यापनप्रत्युपेक्षणादिसमाचारी ग्राहयितुं न कल्पन्ते । तथा श्रुताध्यापनरूपा ग्रहणशिक्षा, प्रत्युपेक्षणादिरूपा-आसेवन शिक्षा बोध्या, एतद् द्वयमपि पण्डकादित्रयाय दातुं न कल्पन्ते इति भावः ॥ सू० ६ ॥ एवम् उपस्थापयितुम् एते त्रयो महाव्रतेषु पञ्चसु, छेदोपस्थापनीयेषु व्यवस्थापयितुं श्रमणानां न कल्पन्ते ॥ सू० ७॥ एवम् एते त्रयः संभोक्तुम्एकमण्डल्यां भोजनादिकं कर्तुम् , तैः सह श्रमणानां न कल्पते इति भावः ॥ सू० ८ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्ण भाष्यावचूरो उ० ४ सू० १०-११ वाचनादानयोग्यायोग्यस्वरूपम् ९१ एवमेव एते त्रयः संवासयितुम् - स्वसमीपे निवासयितुम् उपवेशयितुमपि श्रमणानां न कल्पन्ते । एवं च पण्डकादयः कदाचिद् अनाभोगादिना प्रव्राजिता भवेयुः पश्चाद् विज्ञाताद् भवेयुस्तदापि तेषामेतत्सूत्रोक्तस्य शेषपञ्चकस्य - मुण्डापन - शिक्षापणो - पस्थापन - संभोजन-संवासन - लक्षणस्य समाचरणं न कर्त्तव्यमिति भावः । एवं प्रव्राजनवत् पण्डकादित्रयस्य मुण्डापनादिपञ्चकं समाचरति श्रमणस्तदा प्रत्राजनरूपे पूर्वोक्तपदे प्रोक्ताः प्रवचनोड्डाहानिन्दादयो दोषा अत्रापि अवगन्तव्या इति ॥ सू० ९ ॥ पूर्व पण्डकादित्रयस्य प्रव्राजनादिषट्कं निषिद्धम्, साम्प्रतमविनीतादित्रयस्य वाचनादानं प्रतिषेधितुमाह — 'तओ नो कप्पंति' इत्यादि । सूत्रम - तओ नो कप्पंति वाइत्तए, तंजहा - अविणीए विगइपडिबद्धे अविओसविपाहुडे ॥ सू० १० ॥ छाया-त्रयो नो कल्पन्ते वाचयितुम्, तद्यथा-- अविनीतः, विकृतिप्रतिबद्धः, अव्यवशमितप्राभृतः ॥ सू० १० ॥ चूर्णी - 'ओ' इति । त्रयस्तावत् वक्ष्यमाणाः नो कल्पन्ते श्रमणानां 'वाइए' इति वाचयितुम् सुत्रवाचनां दातुम् अर्थ वा बोधयितुम् तदुभयं वा तथथा - 'अविणीए' इत्यादि, अविनीतः आचार्यादेः पर्याय जेष्ठस्य वा अभ्युत्थानसत्कारसंमानादिविनयवर्जितः १, विकृतिप्रतिबद्धः विकृतिः–दधिदुग्धघृतादिरसरूपा, तत्र प्रतिबद्ध : - लोलुपः २, अव्यवशमितप्राभृतःअव्यवशमितम्-अनुपशान्तं प्रामृतमिव प्राभृतं नरकपातन कुशलं तीव्रक्रोधलक्षणं येन स तथा, यः परुषभाषणाद्यपराधेऽपि परमं क्रोधमावहति क्षमितमप्यपराधं यो वारं वारमुदीरयति स अव्यवशमितप्राभृतः प्रोच्यते तीव्रक्रोधी इत्यर्थः ३ । एते त्रयः पुरुषाः सूत्रार्थतदुभयवाचनां दातु श्रमणानां नो कल्पन्ते इति सूत्रार्थः । एतेषां वाचनादाने इमे दोषाः सम्भवन्ति – यः खलु अविनीतः श्रुतज्ञानरहितोऽपि अहंकारी भवति तदा किं पुनस्तस्य श्रुतलाभे १ । स्वयं नष्टस्य तस्य अन्यानपि नाशयिष्यतः श्रुतप्राहणं क्षते क्षारावसेकन्यायेन ऊषर भूमि बीजवपनन्यायेन च इहपरलोकाहितकरं भवति ततस्तादृशाय अविनीताय श्रुतग्राहणं नोचितमेव यथा भुजङ्गस्य पयःपानं विषवर्द्धकमेव भवति तथैव दुर्विनीतस्य श्रुतप्रदानमपि अधिकतर दुर्विनीततामेव वर्द्धयति, अतितप्ततैलादौ जलावसेकः ज्वलत्यग्नौ घृतदानं च अग्निज्वालावर्द्धकमेव भवति अतो भगवता दुर्विनीताय श्रुतदानं निषिद्धमिति १। विकृतिप्रतिबद्धस्य वाचनादाने दोषा प्रदश्यन्ते - यः कश्चित् शरीरेण ढोsपिरलोलुपतया विकृतावेव लोलुपत्वेन तत्र प्रतिबद्धमनस्कतया न सुचारुरूपेण वाचनां गृह्णाति, मनसो विकृतौ प्रतिबद्धत्वेन स श्रुतग्रहणे मनोयोगं दातुं न शक्नोति, मनोयोगं विना श्रुतग्रहणं न फलति । न स तपश्चरणं करोति, न तपो विना गृह्यमाणं श्रुतं मनोऽनुकूलं फलं प्रयच्छति प्रत्युत प्रभूतमनर्थं प्रसूते तस्मात् विकृतिप्रतिबद्धं शिष्यं सूत्रार्थतदुभयं न वाचयेदिति Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨ बृहत्कल्पसूत्रे भावः २ । साम्प्रतमव्यवशमितप्राभृतं व्याचष्टे - यः स्वल्पेऽपि परुषभाषणादौ अपराधेऽत्यन्तक्रोधसमुद्घातं याति एवं क्षामितो न प्रशाम्यति प्रत्युत क्षामितमप्यपराधजातं पुनः पुनः समुदीरयति स खलु अव्यवशमितप्राभृतो व्यपदिश्यते, तस्य वाचनादाने ऐहलौकिकस्नेहसत्कारादिपरित्यगः, पारलौकिकवैरानुबन्धकर्मबन्धसंभवश्चेति द्विधाव्यहितकरं तद्बाचनादानं संपद्यते इति न तादृशाय वाचना दातव्येति भावः ॥ सू० १० ॥ पूर्वसूत्रे अविनीतादित्रितयस्य श्रुतार्थवाचनादानं प्रतिषिद्धम्, सम्प्रति तद्वैपरीत्येन विनीता - दित्रितयस्य तद्वाचनादानमनुज्ञापयति- 'तओ कप्पंति वाइत्तए' इत्यादि । सूत्रम् - तओ कप्पंति वाइत्तए, तंजहा - विणीए, नोविगइपडिबद्ध, विओसवियपाहुडे ॥ सू० ११ ॥ छाया - त्रयः कल्पन्ते वाचयितुम्, तद्यथा-विनीतः, नोविकृतिप्रतिबद्धः, व्यव - शमितप्राभृतः । सू० ११ ॥ चूर्णी - 'तओ' इति । त्रयः पुनर्वक्ष्यमाणस्वरूपाः शिष्याः वाचयितुं - सूत्रार्थी ग्राहयितुं श्रमणानां कल्पन्ते । तद्यथा - विनीतः आचार्यादेर्वन्दनादिविनययुक्तः, नोविकृति प्रतिबद्धः घृतादिरसलोलुपतावर्जितः, व्यवशमितप्राभृतः - व्यवशमितम् - क्षमापनादिना उपशमितं प्राभृतं नरकपातनोपायनमिव प्राभृतं तीव्रक्रोधलक्षणं यस्य स व्यवपशमितप्राभृतः स्वापराधक्षमापन - परापराधक्षमनसमर्थः उपशान्तक्रोध इत्यर्थः । एते त्रयः विनीत - विकृत्यप्रतिबद्ध - व्यपशमितप्राभृताः पुरुषाः श्रुतार्थौ वाचयितुं श्रमणानां कल्पन्ते इति सूत्राशयः । विनयेन अभ्यस्तीकृता विद्या लोकद्वये फलवती भवति, तत्रास्मिन् लोके साधुजनसमाजराजसभादौ विनयगृहीतविद्यया समादृतः पूजितश्च भवति, यशः कीर्ति - ख्याति - सम्मान-प्रतिष्ठादिकं च लभते परलोके च विनयप्राप्तविद्यया सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणरत्नत्रयविभूषितो लब्धिसंपन्नो भगवदाज्ञाराधकः सन् निःश्रेयसं प्राप्नोति । विकृत्यप्रतिबद्धो हि घृतादिरसलोलुपता रहितत्वेन एकाग्रमनसा श्रुतार्थी गृह्णाति, तेन तत् श्रुतार्थग्रहणं हृदये सुचारुतया परिणमति, ततः सः सम्यकुतया ज्ञानदर्शनचारित्राराधको भवति, तस्य श्रुतार्थवाचने वाचनादातुस्तीर्थकराज्ञाभङ्गादयो दोषा न भवन्तीति । एवं व्यवशमितप्राभृतस्यापि उपशान्ततीव्रक्रोधत्वेन शान्तमनोभावस्य प्रदत्ता वाचना सम्यक्तया परिणमति तेन सा सुगतिबोधिलाभादिकमामुष्मिकं फलं प्रापयतीति सूत्रोक्तानां त्रयाणां सूत्रार्थतदुभयवाचना दानं श्रमणानां कल्पते, यथा उर्वराभूमौ उप्तानि बीजानि फलितानि भवन्ति तथैवेतेषां श्रुतार्थदानं सफलं भवतीति भावः ॥ ननु पूर्वसूत्रे अविनीतादित्रयाणां वाचनादानस्य प्रतिषिद्धतया तेनैव कथनेन अर्थापत्तिन्यायात् तद्विपरीतानां विनीतादीनां वाचनादानं स्वयं सिद्धमेव, विपक्षार्थस्यानुक्तस्यापि सिद्धिलाभा Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णि-भाष्याऽवचूरी उ० ४ सू० १२-१४ दुःसंज्ञाप्य सुसंशाप्यस्वरूपम् ९३ दितीदं सूत्रं व्यर्थमेव प्रतिभाति, तत्राह-नैवम् , शास्त्रशैली एषैव यत् प्रकृतसूत्रविवक्षितार्थस्यार्थापत्त्या लब्धत्त्वेऽपि विपक्षः साक्षादुच्यते, तथा लब्धोप्यर्थः प्रपञ्चितज्ञविनेयजनानुग्रहाय साक्षा. दभिधीयते, यथा-उत्तराध्ययनस्य प्रथमाध्ययने द्वितीयगाथायां "आणानिदेसकरे' इत्यादिना विनीतस्वरूपप्रतिपादनादर्थापत्तिलब्धमप्यविनीतस्वरूपमत्रैव तृतीयगाथायाम्-"आणाअणिद्देसकरें" इत्यादिना पुनः साक्षादभिहितम् । ____पुनश्च विनेया नानादेशीया विभिन्नमतयो वक्रजडादयो भवन्ति ते चाविनीतादीनां वाचनादाननिषेधसूत्रेण एतावन्तमेवार्थ गृह्णन्ति यत् भगवता अविनीतादीनां वाचनादानं निषिद्धं किन्तु विनीतादीनां वाचनादानं कुत्र प्रतिपादितम् ? तेन न कस्यापि वाचना प्रदातव्या "आणा धम्मो" इतिवचनात् । इत्यादिकारणाद् विपक्षस्य साक्षात्कथनमुचितमेव, 'न तीर्थकरा व्यर्थ भाषन्ते' इति वचनात् ॥ सू० ११॥ पूर्वमविनीतादीनां त्रयाणां श्रुतदानं प्रतिषिद्धम्, तद्वैपरीत्येन विनीतादीनां च श्रुतदानमनुज्ञापितम् । सम्प्रति दुष्टादोनां त्रयाणां श्रुतदानं प्रतिषेधयितुमाह-'तओ दुस्सन्नप्पा' इत्यादि। सूत्रम्-तओ दुस्सन्नप्पा पण्णत्ता, तनहा-दुटे, मूढे, बुग्गहिए ।। सू०१२ ॥ छाया-त्रयो दुःसंज्ञाप्याः प्राप्ताः, तद्यथा-दुष्टः, मूढः, व्युग्राहितः ॥ सू० १२ ॥ चूर्णी-'तओ दुस्सन्नप्पा' इति । त्रयस्तावत् वक्ष्यमाणाः पुरुषाः दुःसंज्ञाप्याः दुःदुःखेन कष्टेन संज्ञाप्यन्ते प्रतिबोध्यन्ते इति दुःसंज्ञाप्याः दुष्प्रतिबोध्याः प्रज्ञप्ताः कथितास्तीर्थकृदादिभिः, एते वक्ष्यमाणास्त्रयो बोध्यमाना अपि बोधरहिता एव भवन्ति, तानेव त्रीनाह-'तं जहा' तद्यथा-दुष्टः-प्रज्ञापकं प्रतिपाद्यतत्त्वं वा प्रति द्वेषयुक्तो भवति, स च न प्रज्ञापनीयः श्रमणैः, तस्य द्वेषबुद्ध्या उपदेशाप्रतिपत्तेः । स च पूर्व पाराञ्चिकसूत्रे यथा वर्णितस्तथाऽत्रापि ज्ञातव्यः । एवं मूढः गुणदोषज्ञानविवेकविकलः तस्य गुणाधनभिज्ञतया तत्त्वाप्रतिप्रत्तेः, एतादृशस्य प्रज्ञापनमनर्थकमेवेति भावः । एवमेव व्युग्राहितः वि-विपरीतक्रमेण उद्ग्राहःग्रहणप्रकारो यस्य स व्युद्ग्राहितः दृढीभूतविपरीतावबोधः मिथ्याशास्त्रश्रुतिप्रतिबद्धत्वेन विपरीतावबोधयुक्त इत्यर्थः ३ । एते त्रयो दुःसंज्ञाप्यत्वात् श्रुतार्थवाचनादानायोग्या इति ते श्रमणैर्न प्रज्ञापनीयाः ॥ सू० १२॥ पूर्व दुष्टादित्रयाणां श्रुतसंज्ञापना प्रतिषिद्धा, सम्प्रति दुष्टादित्रयवैपरीत्येन अदुष्टादित्रयाणां श्रुतसंज्ञापनां प्रतिपादयति-तओ सुसण्णप्पा' इत्यादि । सूत्रम्--तओ सुसण्णप्पा पण्णत्ता, तंजहा-अदुटे, अमूढे, अव्वुग्गाहिए। सूत्र १३।। छाया-त्रयः सुसंज्ञाप्याः प्राप्ताः, तद्यथा-अदुष्टः, अमूढः अव्युद्ग्राहितः। सू०१३॥ चूर्णी-'तओ सुसण्णप्पा' इति । यतस्तावत् वक्ष्यमाणाः पुरुषाः सुसंज्ञाप्याः सुसुखेन संज्ञाप्यन्ते प्रतिबोध्यन्ते ये ते सुसंज्ञाप्याः अनायासेनैव श्रुतं प्रतिबोधयितुं शक्याः Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रे सुखेन सूत्रार्थमाहणयोग्याः प्रज्ञप्ताः आख्याताः । तानेवाह - 'तं जहा ' तद्यथा - अदुष्टः- तत्त्वं प्रज्ञापकं वा प्रति द्वेषवर्जितः, स चावश्यं श्रुतं संज्ञापनीयः द्वेषराहित्येन शुद्धमनोवृत्तित्त्वात्तस्य श्रद्धयोपदेशप्रतिपत्तेः । अमूढः गुणदोषविवेकशाली, सोऽपि सूत्रार्थी संज्ञापनीयः, तस्य गुणदोषाभिज्ञत्वेन सत्यश्रद्धत्वात् । तृतीयमाह - अव्युद्माहितः दृढीकृत सम्यग्बोधवान् प्रदत्तसूत्रार्थयोरविपरीतत्वेन ग्राहकत्वात् । एवमेते त्रयः पुरुषाः सुसंज्ञाप्याः ॥ सू० १३ ॥ पूर्वं दुष्टतादिदोषदूषितभावस्य प्रव्राजनादिकं प्रतिषिद्धम्, सम्प्रति ग्लानप्रकरणे परिष्वज - नानुमोदनस्वरूपस्याशुभभावस्य निवारणं कर्त्तुं प्रथमं निर्ग्रन्थीसूत्रमाह - 'निग्गंथिं च णं' इत्यादि । सूत्रम् - निग्गंथिं च णं गिलायमाणिं पिया वा भाया वा पुत्तो वा पलिस्सएज्जा तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडि सेवणपत्ता, आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अणुग्घाइयं ॥ सू० १४ ॥ छाया --निर्ग्रन्थींच खलु ग्लायन्तों पिता वा भ्राता वा पुत्रो वा परिष्वजेत् तं निर्ग्रन्थी स्वादयेत् मैथुन प्रतिसेवनप्राप्ता, आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् ॥ सू० १४ ॥ चूर्णी - 'निग्रथिं च णं' इति । निर्ग्रन्थी च खलु साध्वीम् ग्लायन्तीम्-शरीरस्य क्षीणतया ग्लानिं हर्षक्षयरूपां शारीरमानस क्लिष्टतामनुभवन्तीं तस्याः पिता वा सांसारिकपिता, निर्ग्रन्थताँ प्राप्तो वा पिता, भ्राता वा सांसारिकभ्राता निर्धन्थतां प्राप्तो वा भ्राता, पुत्रः सांसारिकपुत्रो वा निर्ग्रन्थतां प्राप्तो वा पुत्रः, 'पलिस्सएज्जा' इति परिष्वजेत - दौर्बल्येन भूमौ पतन्तीं धारयन् उपवेशयन् उत्थापयन् वा शरीरे स्पर्श कुर्यात्, तं च पुरुषस्पर्श सा निर्ग्रन्थी मैथुन प्रतिसेवनप्राप्ता मैथुनसेवनेच्छां प्रतिपन्ना सती स्वादयेत् स्पर्शसमुद्भूतमैथुनसेवन भावनया अनुमोदेत 'सुखदोऽयं पुरुषस्पर्शः' इति कृत्वा मनसि हर्षं विदध्यात् तदा सा साध्वी चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकं गुरुकं प्रायश्चित्तम् आपद्यते प्राप्नोति गुरुकप्रायश्चित्तभागिनी भवतीत्यर्थः । ननु 'पुरिसपहाणो धम्मो' पुरुषप्रधानो धर्मः इति शास्त्रेऽनुमतं ततः प्रकृतसूत्रे प्रथमं निर्ग्रन्थसूत्रमभिधातव्यं भवेत् किन्तु प्रकृते पुनर्निर्ग्रन्थीसूत्रमेव प्रथममभिहितमिति क्रिमत्र तत्त्वम् ? इति चेत् सत्यम्, पुरुषप्रधान एव धर्मो भवति किन्तु स्त्रियाश्चञ्चलस्वभावत्वात्, धृतिबलविकलत्वाच्च निर्मन्ध्या एव प्रथमं प्ररूपणं कृतमिति ॥ सू० १४ ॥ पूर्वसूत्रे ग्लानायाः निर्मन्ध्याः पित्रादिना उत्थापने पुरुषस्पर्शनेन विकारो जायते, तस्यानुमोदनलक्षणस्याशुभभावस्य प्रतिषेधः प्रतिपादितः, सम्प्रति ग्लानस्य निर्ग्रन्थस्य तथाविधाशुभावस्य प्रतिषेधं प्रतिपादयितुमाह- 'निग्गंथं च णं' इत्यादि । सूत्रम् - निग्गंथं चणं गिलायमाणं माया वा भगिणी वा धूया वा पलिस्सएज्जा, तं च निग्गंथेसाइज्जेज्जा मेहुणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अणुग्घाइयं ॥ सू० १५ ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्ण-भाव उ० ४ सू० १५-१७ अशनादेः कालक्षेत्र मर्यादाविधिः ९५ छाया - निर्ग्रन्थ च खलु ग्लायन्तं माता वा भगिनी वा दुहिता वा परिष्वजेत् तं च निर्ग्रन्थः स्वादयेत्, मैथुनप्रति सेवनप्राप्तः आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुधातिकम् ॥ सु० १५ ॥ चूर्णी - 'निग्गंथं च णं' इति । निर्ग्रन्थं साधुं च खलु ग्लायन्तं रोगादिना शरीरक्षीणत्वेन ग्लानिमनुभवन्तं माता वा तस्य सांसारिकमाता निर्ग्रन्थीभूता वा माता, भगिनी वा सांसा - रिकभगिनी निर्ग्रन्थीभृता वा भगिनी, दुहिता वा सांसारिकपुत्री निर्धन्थीभूता पुत्री वा परिध्वजेत् भूमौ पतन्तं धारयन्ती उपवेशयन्ती उत्थापयन्ती वा साधुशरीरे स्पृशेत् शरीरस्पर्श कुर्यात्, तं च स्पर्श निग्रैन्थः मैथुन प्रतिसेवनप्राप्तः मैथुन सेवनेच्छां प्रतिपन्नः सन् स्वादयेत् मैथुनसेवनभावनया अनुमोदेत ‘सुखदोऽयं स्त्रीस्पर्शः' इति कृत्वा मनसि हर्षे कुर्यात् तदा स निर्ग्रन्थः चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकं गुरुकं प्रायश्चित्तम् आपद्यते प्राप्नोति गुरुकप्रायश्चित्तभागी भवतीति भावः ॥ सू० १५ ॥ पूर्वं ब्रह्मचर्यपरिणामरूपस्य भावस्यातिचारवारणाय श्रमण्याः पुरुषस्पर्शप्रतिषेधः, श्रमणस्य स्त्रीस्पर्शप्रतिषेधश्च प्रतिपादितः, सम्प्रति - अशनादेः कालातिक्रमस्यातिचारं प्रतिषेधितुमाह- 'नो कप्पइ' इत्यादि । सूत्रम् - नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा पढमाए पोरिसीए पडिग्गाहित्ता पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावित्तए, से य आहच्च उवाइणाविए सिया तं नो अप्पणा भुंजिज्जा, नो अन्नेसिं अणुप्पएज्जा, एगंते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिद्ववेयव्वे सिया, तं अपणा भुंजमाणे अन्नेसिं वा दलमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं उग्घा - इयं ॥ सू० १६ ॥ छाया -नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रथमायां पौरुष्यां प्रतिगृह्य पश्चिर्मा पौरुषीम् उपानेतुम्, तच्च आहत्य उपानायितं स्यात् तद् नो आत्मना भुञ्जीत न अन्येभ्यः अनुप्रदद्यात् एकान्ते बहुप्रासुके स्थण्डिले प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य परिष्ठापयितव्यं स्यात्, तद् आत्मना भुज्जानः अन्यस्मै वा ददानः आपद्येत चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् उद्घातिकम् ॥ सू० १६ ॥ चूर्णी - 'नो कप' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा श्रमणश्रमणीनां 'असणं वा' इत्यादि अशनादिकं चतुर्विधमाहारं प्रथमायां पौरुष्यां प्रतिगृह्य गृहीत्वा प्रथमपौरुष्यामानीतमशनादिकं पश्चिमां चतुर्थी पौरुषीम् 'उवाइणावित्तए' उपानाययितुम् उल्लङ्घयितुम् न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः प्रथमपौरुष्यां गृहीतमशनादिकं पौरुषीत्रयमुल्लङ्घय अन्तिमायां चतुर्थ्यां पौरुष्यां न भोक्तव्यमित्याशयः । यद्येवं भवेत्तदा किं कर्तव्यमित्याह - ' से य आहच्च ' Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पसूत्रे इत्यादि । तच्चाशनादिकम् आहत्य कदाचिदनाभोगादिकारणेन यदि ‘उवाइणाविए'उपानायितं प्रथमपौरुष्यां गृहीत्वा चरमपौरुष्यां प्रापितं स्यात् पौरुषीत्रयमुल्लङ्घय चतुर्थी पौरुषी प्राप्ता भवेत् तदा प्रथमपौरुष्यानीतं तदशनादिकं नो नैव आत्मना स्वयं भुञ्जीत न स्वयं तस्योपभोगं कुर्यात् , नो नैव च अन्येभ्यः श्रमाणादिभ्यः अनुप्रदद्यात् । तर्हि किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह-'एगंते' इत्यादि, तत् प्रथमपौरुषीगृहीतमशनादिकं एकान्ते विजने गमनागमनरहिते बहुप्रासुके जीवरहिते अचित्ते स्थण्डिले भूमिप्रदेशे यत्र तदाहारप्रसङ्गेन द्वीन्द्रियादिजीवोत्पत्तिर्न भवेत् तत्प्रकारेण प्रतिलेख्य स्थण्डिलस्य चक्षुषा सम्यग् निरीक्षणं कृत्वा तथा प्रमृज्य तस्य स्थानस्य रजोहरणेन सम्यक्तया प्रमार्जनं कृत्वा परिष्टापयितव्यं स्यात् , एकान्ते बहुप्रासुके भूमिप्रदेशे प्रतिलेखनप्रमार्जनपूर्वकं निक्षेप्तव्यम् । किमर्थं परिष्ठापनीयमित्याह-तदशनादिकम् आत्मना स्वयं भुजानः अन्यस्मै वा ददानः स आपद्यते प्रप्नोति चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् उद्घातिकं चतुर्लघुकं प्रायश्चित्तमिति सूत्राशयः॥ सू० १६॥ पूर्वमशनादिविषये कालातिक्रमः प्ररूपितः, सम्प्रति क्षेत्रातिक्रमसूत्रमाह-'नो कप्पई' इत्यादि । सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परं अद्धजोयणमेराए उवाइणावित्तए, से य आहच्च उवाइणाविए सिया तं नो अप्पणा अँजिज्जा, नो अन्नेसि अणुप्पएज्जा, एगते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिद्ववेयव्वे सिया, तं अप्पणा मुंजमाणे अन्नेसि वा दलमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्टाणं उग्घाइयं ॥ सू० १७॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा परम् अर्द्धयोजनमर्यादायाः उपानाययितुम्, तच्च आहत्य उपानायितं स्यात् तद् नो आत्मना भुञ्जीत नो अन्येभ्यः अनुप्रदद्यात्, एकान्ते बहुप्रासुके स्थण्डिले प्रत्युपेक्ष्य प्रमायं परिष्ठापयितव्यं स्यात्, तद् आत्मना भुजानः अन्येभ्यो वा ददानः आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् उद्घातिकम् ॥ सू. १७ ॥ चूर्णी-- 'नो कप्पई' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां निम्रन्थीनां 'असणं वा ४' अशनादिकं चतुर्विधमाहारम् अर्द्धयोजनमर्यादायाः क्रोशद्वयरूपाया मर्यादायाः सीमायाः परम्-अनन्तरम् क्षेत्रम् उपानाययितुम्-क्रोशद्वयलक्षणसीमानमतिक्रामयितुं नो कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः, गृहीतमशनादिकं तत्क्षेत्रात् क्रोशद्वयाभ्यन्तरक्षेत्रे एव भोक्तुं कल्पते न तु क्रोशद्वयानन्तरक्षेत्रे इति भावः । तच्चाशनादिकम् आहत्य कदाचित् यदि अनाभोगादिकारणवशाद् उपानायितम् गृहीताशनादि क्षेत्रात् क्रोशद्वयात् परक्षेत्रे प्रापितं स्यात् तदा तदशनादिकं न स्वयं भुञ्जीत, नान्येभ्यः श्रमणादिभ्यः प्रदद्यात् अपितु तदशनादिकं बहुप्रासुके स्थण्डिले प्रतिलेख्य प्रमृज्य तत्राचित्तभूप्रदेशे परिष्ठापयितव्यं स्यात् । यदि तदशनादिकस्य स्वयं भोक्ता अन्येभ्यः प्रदाता वा भवेत् Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णिभाष्याऽवचूरी उ०४ सू० १८-१९ अनेषणीयाहारादेः शेक्षकाय दान विधिः ९७ तदा स चातुर्मासिकं परिहारस्थानमुद्घातिकम् आपद्यते-प्राप्नोति स चतुर्लघुकप्रायश्चित्तभागी भवतीत्यर्थः ॥ सू० १७॥ पूर्वसूत्रे श्रमणैः कालक्षेत्रमर्यादामनतिक्रम्यैव आहारः कर्त्तव्य इति प्रतिपादितम्, सम्प्रति आहारप्रसङ्गात् कदाचिदनामोगेनानेषणीयमचित्तमशनादि गृहीतं स्यात्तदा किं कर्त्तव्यमिति तद्विधिं प्रतिपादयितुमाह- 'निग्गंथेण य' इत्यादि । सूत्रम्--निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविद्वेणं अन्नयपरे अचित्ते अणेसणिज्जे पाणभोयणे पडिग्गाहिए सिया, अस्थि या इत्थ केइ सेहतराए अणुवट्ठावियए कप्पइ से तस्य दाउं वा अणुप्पदाउं वा, नत्थि या इत्थ केइ सेहतराए अणुवट्टावियए तं नो अप्पणा अँजिज्जा नो अन्नेसिं दावए, एगंते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिट्टवेयव्वे सिया ॥ सू० ॥ १८॥ छाया-निर्ग्रन्थेन च गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रतिशया अनुप्रविष्टेन अन्यतरद् अचित्तम् अनेषणीयं पानभोजनं प्रतिगृहीतं स्यात्, अस्ति चात्र कश्चित् शैक्षतरकः अनुपस्थापितकः कल्पते तस्य तस्मै दातुं वा अनुप्रदातुं वा, नास्ति चात्र कश्चित् शैक्षतरक: अनुपस्थापितकः तद् नो आत्मना भुञ्जीत, नो अन्येभ्यः दद्यात् एकान्ते बहुप्रासुके स्थण्डिले प्रतिलेख्य प्रमृज्य परिष्ठापयितव्यं स्यात् । सू० ॥१८॥ चूर्णी-'निगंथेण य' इति । निम्रन्थेन च गाथापतिकुलं-गृहस्थगृहम् पिण्डपातप्रतिज्ञया-आहारग्रहणवाञ्छया अनुप्रविष्टेन तत्र अन्यतरत् चतुर्विधाशनादिमध्याद् एकम् तद् अचित्तं प्रासुकं किन्तु अनेषणीयम् - एषणादोषदुष्टम् पानभोजनम्-पानं वा भोजनं वा उभयं वा प्रतिगृहीतम् कदाचिदनाभोगेन पात्रे गृहीतं स्यात्, तदा अस्ति चात्र साधुमण्डल्यां कश्चित् शैक्षतरकः नवदीक्षितो बालदीक्षितो वा, सोऽपि अनुपस्थापितकः अनारोपितमहाव्रतकः, यावत्कालं छेदोपस्थापनीयचारित्रं न दीयते तावत्कालं स अनुपस्थापितकः प्रोच्यते, छेदोपस्थापनीयचारित्रस्य समयः जघन्यतः सप्त दिनानि, मध्यमतश्चतुरो मासान् , उत्कृष्टतः षण्मासान् यावदिति । यदि षण्मासपर्यन्तमपि प्रतिक्रमणं तेन न शिक्षितं भवेत् तदा तदनन्तरमपि प्रतिक्रमणशिक्षणपर्यन्तं छेदोपस्थापनीयचारित्रं न दीयते, एतादृशो यदि तत्र भवेत्तदा कल्पते तस्यानेषणीयाहारग्रहीतुः साधोः तस्मै अनुपस्थापितकाय तत् पानं वा भोजनं वा दातुं वा प्रथमतो वितरीतुम् अनुप्रदातुं वा वारं वारम् अन्यस्मिन् एषणीयपानभोजनदानात् पश्चाद्वा कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । यदि च नास्ति तत्र कश्चित् शैक्षतरकः अनुपस्थापितकस्तदा तदनेषणोय पानभोजनं नैव आत्मना स्वयं भुञ्जीत, नो वा अन्येभ्यः श्रमणादिभ्यः दद्यात् । तदा किं कुर्यादित्याह- तत् पानभोजनम् एकान्ते निर्जने बहुप्रासुके अचित्ते स्थण्डिले भूमिप्रदेशे प्रति Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेज्य तं सुझदेशं चक्षुषा सम्यक् निरीक्षण प्रसस्य स्कोहरणेत सम्यतया तस्थानस्य प्रमार्जतं कृत्वा परिष्ठापयितव्यम् ॥ सू० १८॥ पूर्वसूबेऽनाभोसेन मृहीतम चित्तमपणीयं पातमोजनमतवस्थापितकाम प्रदातव्यं, न स्वयं भोक्तव्यं नान्येभ्यः प्रदानत्यमिति प्रतिपादितम्, सम्प्रति किमर्थमनेषणीयमिदं पानभोजनं मा दीयते' इत्येवं कलुषितपरिणामस्य शैक्षस्य प्रज्ञापनार्थमिदं सूत्रं प्रारभ्यते, अथवा 'कथं ताबद शैक्षस्यानेषणीयं पानभोजनं कल्पते ? इति शङ्कायां तत्समाधाननिमित्तमिदं सूत्रं प्रारभ्यते'जे कडे' इत्यादि । सूत्रम्-जे कडे कापट्ठिा; कम्पइ से अकापट्टियाणं, नो से कप्पइ कस्सद्विग्राणं, जे कड़े अकप्पद्विमा णो से कापइ कप्पट्टियाणं कप्पइ से अकम्पट्टियाम कप्पे ठिया कप्पट्टिया, अकप्पे ठिया अकप्पट्ठिया ॥ सू० १९॥ छाया-मद कृतं कल्पस्थितान कल्पते तत् अकल्पस्थितानाम् नो तत् कल्पते कल्पस्थिवानाम्, यत् कृतम् अकल्पस्थिवानां नो त कल्पते कल्पस्थितानाम्, कल्पते तद अकल्पस्थितानाम, कल्पे स्थिता कल्पस्थिताः अकल्पे स्थिता अकल्पस्थिताः । सू० १९ ॥ चूर्मी-'जे कडे' इति । यद् भक्तपानादिकं कृतं आधाकर्मत्वेन निष्पनं कल्पस्थितानाम् आचेलक्यादिदशविधस्थितकल्पे स्थितानाम् । कल्पो द्विविधः स्थितकल्पः अस्थितकल्पश्च । तत्र आचेलक्यादिदशविधः स्थितकल्पः, असौ आदिमान्तिमतीर्थकरयोः साधूनां पञ्चयामधर्मप्रतिपन्नाननं भवति ततस्ते कल्पस्थिताः कथ्यन्ते, दशविधकल्पो यथा-आचेलक्यम् १ कृतिकर्म २, महाव्रतम् ३, पर्यायज्येष्ठत्वम् ४, प्रतिक्रमणम् ५, मासनिवासः ६, पर्युषणा ७, भौदेशिकम् ८, शय्यातरपिण्डः ९, राजपिण्डः १० । एतेषु दशसु कल्पेषु आदितः सप्तविध कल्पाः ग्राह्या इत्यर्थः, औद्देशिकादिकास्त्रयो निषेधकल्पाः अग्राह्या इत्यर्थः, एषु कल्पेषु स्थिताः कल्पस्थिताः, तेषां कृते यद् भक्तपानादिकं निष्पन्नं तद् भक्तपानादिकं कल्पते अकल्पस्थितानाम्आचेलक्यादिसम्पूर्णदशविधकल्परहितानाम् मध्यमद्वाविंशतितीर्थकरसाधूनां चातुर्यामधर्मप्रतिपन्नानां कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः, किन्तु 'नो से' इति तद् भक्तपानादिकं कल्पस्थितानां आदिमान्तिमतीर्थकर साधूनां पञ्चयामधर्मप्रतिफ्नानां नो कल्पते, कल्पस्थितानुद्दिश्य निष्पादितं भक्तपानादिकमकल्पस्थितानां कल्पते किन्तु कल्पस्थितानां तत् नो कल्पते इत्याशयः । अथ च 'जे कडे' इति । यद् भक्तपानादिकम् अकल्पस्थितानां कृते कृतं निष्पादितं भवेत् तद् नो कल्पते कल्पस्थितानाम् किन्तु तद् अकल्पस्थितानां कल्पते। यत् चातुर्यामधर्मप्रतिपन्नानुद्दिश्य संपादितं भक्तपानादिकं पञ्चयामधर्मप्रतिपन्नानां नो कल्पते तत्तु चातुर्यामधर्मप्रतिपन्नानामेव कल्पते इति भावः । कथं कल्पस्थिता अकल्पस्थिता इति कथ्यन्ते ? तत्राह-'कप्पे ठिया' इत्यादि, ये कल्पे Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्ण भाग्यावरी उ० ४ सू० २० भिक्षोरन्यगणममनविधिः अचेलक्यादिदशविधस्थितकल्पे स्थितास्ते कल्पस्थिताः कथ्यन्ते, ये च अकल्पे - अस्थित कल्पे यथासंभवपालनरूपे स्थितास्ते अकल्पस्थिताः कथ्यन्ते । कल्पस्थितानां पूर्वपश्चिमतीर्थकरसाधूनां पञ्चमहातरूपा स्थितिर्भवति । मध्यमद्वाविंशतितीर्थकर साधूनां महाविदेहक्षेत्र स्थित साधूनां च चातुर्यामरूपा कल्पस्थितिर्भवति । एषां चत्वारि महावतानि भवन्ति 'न अपरिगृहीता को भुज्यते ' इति नियमात् चतुर्थ ब्रह्मचर्यवतं तेषां परिग्रहविरम एवान्तर्भवतीति ॥ सू० १९ ॥ पूर्व कल्पस्थिता अकल्पस्थिता वर्णिताः, तत्प्रसङ्गाद् अत्र कल्पस्थितस्याऽकल्पस्थितमणे अकल्पस्थितस्य कल्पस्थितगणे कारणवशात् संक्रमणं भवेत्तस्यान्यमणसंक्रमणे विधिः प्रतिपाद्यते‘भिक्खू य' इत्यादि । सूत्रम् - भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गण उवसपजित्ता जं विहरतए, नो से कप्पर अणापुच्छित्ता आयरिथं वा उजन्झायं वा पत्रत्तयं वा थेरं वा गणिं वा गणहरं वा गणावच्छेयगं वा अन्नं गंग उवसंपज्नित्ता णं विहरितए, कप्पर से आपुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वा पवत्तथं वा थेरं वा मणिं वा मगहरं वा ममावच्छेयगं अन्नं गणं उपज्जित्ता णं विहरित्तर, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्वइ अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पर अण्णं गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरित ॥ सू० २० ॥ छाया -- मिक्षुश्च गणाद् अधक्रम्य इच्छेत् अन्ये मण उपसंपथ विहर्तुम् नो तस्य कल्पते अनापृच्छ्य आचार्य वा उपाध्याय वा प्रवत्तकं वा स्थविरं वा गणिनं वा गणधरं वा गणावच्छेदकं वा अन्य गणम् उपसम्पद्य विहर्त्तम्, कल्पते तस्य आपृच्छय आचार्य वा उपाध्यायं वा प्रवर्त्तकं वा स्थविरं वा गणिनं षी गणधरं वा गर्णावच्छेदकं वा अन्यं गणम् उपसंपद्य विहर्तुम्, ते च तस्य वितरेयुः पवं तस्य कहवते अन्यं मणेम् उपसंपद्य विहर्त्तम्, ते च तस्य नो वितरेयुः एवं तस्य नो कल्पते अन्यं गणम् उपसंपद्य विहर्तुम् ॥ सू० २० ॥ चूर्णी - ' भिक्खू' इति । भिक्षुश्च निर्ग्रन्थो यदि गणात् स्वगणाद अपक्रम्य - निस्सृत्य - ज्ञानदर्शनादिप्राप्त्यर्थं स्वगणाद् निर्गत्य इच्छेत् अन्यं स्वगणभिन्नं गणम् उपसंपद्य स्वीकृत्य विहर्तुमु तत्रावस्थातुम् तदा तस्य भिक्षोनों कल्पते, कदा ? इत्याह--अनापृच्छ्य पृच्छामकृत्वा, कम् ? इत्याहअचार्थं वा उपाध्यायं वा प्रवर्तकं वा स्थविरं वा गणिनं वा गणधरं वा गणावच्छेदकं वा, तंत्र- आचार्यः यः पञ्चाचारान् स्वयं पालति परांश्च पालयति सः, तथा योऽर्थ वाचयति गणस्य मेघीभूतः आचारद्यष्टविधसंपदायुक्तः ताश्च यथा - आचारसंपद १ श्रुतसंपद् २ शरीरसंपद् ३ वचनसंपद् ४ वाचनासंपद् ५ मतिसंपद् ६ उपयोगसंपद् ७ संग्रहसंपद् ८ इति, एवं यष्टविधसंपदा युक्तो भवेत् स आचार्यः । तथा उपाध्यायः - यस्य उप-समीपे एत्य अधीयते प्रवचनं शिष्यैर्यस्मात् स उपाध्यायः । प्रवर्तकः - प्रवर्तयति आचार्योपदिष्टेषु कार्येषु तपः संयम Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० बृहत्कल्पसूत्रे योगवैयावृत्त्यसेवाशुश्रूषासूत्रार्थाऽध्ययनाध्यापनादिषु यथायोग्यं बलाबलं विचार्य यथायोगं नियोजयति यः स प्रवर्त्तकः । स्थविरः - संयमयोगेषु सीदतः साधून् ऐहिकामुष्मिकापायप्रर्दशनपूर्वकं ज्ञानादिषु स्थिरीकरोति यः स स्थविर: | गणी - गणः साधुसमुदायः स्वस्वामिसम्बन्धेन यस्यास्ति स गण कतिपयसाधुसमुदायेन सह विचरणशीलो यः स गणी । गणधरः - यो गण चिन्ताकारकः गणस्य योगक्षेम विधायकः स गणधरः । गणावच्छेदकः - गणस्य साधुसमुदायस्य अवच्छेदं विभागं करोति यः स गणावच्छेदकः । एतान् आचार्यादीन् अनापृच्छ्य गणाद् गणान्तरमुपसंक्रम्य भिक्षोर्विह न कल्पते इति भावः । तहिं कथं कल्पते : इत्याह- पूर्वोक्तान् आचार्यादीन् आपृच्छ्य तस्य भिक्षोर्गणान्तरमुपसंपद्य विहर्तुं कल्पते । ते च यदि तस्य वितरेयुः गणाद् गणान्तरं संक्रमितुमाज्ञां दधुः एवम् अनेन विधिना तस्य भिक्षोः कल्पते अन्यं गणं गणाद् गणान्तरम् उपसंक्रम्य विहर्तुम् । यदि ते च तस्य गणान्तरसंक्रमणेच्छुकस्य नो वितरेयुः आज्ञां न दद्युः एवम् अनेन प्रकारेण आज्ञामन्तरेण नो कल्पते तस्य भिक्षोरन्यं गणमुपसंपद्य विहर्तुमिति । एवं भिक्षुविषय आलापो निर्ग्रन्ध्या अपि गणान्तरगमनविषयेऽवगन्तव्यः किन्तु एतदपेक्षया विशेषस्तु - निर्ग्रन्थी नियमत एव स सहाया गणान्तरं गच्छति न तु कथमपि असहाया एकाकिनीति ॥ सू० २० ॥ पूर्वसूत्रे सामान्य श्रमणस्य गणान्तरसंक्रमणविधिरुक्तः, एष एव गणावच्छेदकाचार्योपाध्यायानामपि विधिर्भवतीति भाष्यकारोऽतिदिशति - 'जह भिक्खुस्स' इत्यादि । भाष्यम् – जह भिक्खुस्स य कहिओ, गणावछेए तहेव आयरिए । एसेव उवज्झाए, विही य ते हुंति वंचा उ ॥ १॥ छाया - यथा भिक्षोश्च कथितः गणावच्छेदे तथैव आचार्ये । एष व उपाध्याये विधिश्व ते भवन्ति व्यक्तास्तु ॥ १ ॥ अवचूरी - 'जह भिक्खुस्स' इति यथा - येन प्रकारेण भिक्षोश्च सामान्यश्रमणस्य गणान्तरसंक्रमणविषये सूत्रे विधिः कथितः तथैव तेनैव प्रकारेण गणावच्छेदे - गणावच्छेदविषये, आचार्यै- आचार्यविषये, उपाध्याये उपाध्यायविषये एष एव विधिः पृच्छादिरूपो विज्ञेयः, नवरं नानात्वं केवलमेतावदेव यत् - भिक्षोः केवलं पृच्छपूर्वकं गमनं प्रतिपादितम्, गणावच्छेदका - दीनां तु स्वपदत्यागपुरस्सरमाचार्यादिकं पृष्ट्वा गन्तव्यम्, यत एते गणावच्छेदकादयो नियमात् 'वत्ता उ' इति व्यक्ता वयसा श्रुतेन च व्यक्ता एव भवन्ति नाव्यक्ताः ततो योsव्यक्तस्य विधिरुक्तः सोऽत्र न भवतीति भावः ॥ १ ॥ पूर्वं सामान्य श्रमणस्य ज्ञानाद्यर्थं गणान्तरगमनविधिः प्रतिपादितः सम्प्रति विशेषमाश्रित्य गणावच्छेदकाचार्योपाध्यायानां गणान्तरगमन विधि सूत्रकारः साक्षात् प्रतिपादयन् प्रथमं गणावच्छेदकस्य विधिमाह – 'गणात्रच्छेयए य' इत्यादि । " Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्याऽवचूरी उ० ४ सू० २१-२२ ___ गणावच्छेदकादेरन्यगणगमनविधिः १०१ सूत्रम्-गणावच्छेयए य गणाओ अवकम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए नो से कप्पइ गणावच्छेयगस्स गणावच्छेयगत्तं अणिक्खिवित्ता अन्नं गणं उव संपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ गणावच्छेयगस्स गणावच्छेयगत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरितए, णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वा पवत्तयं वा थेरं वा गणिं वा गणहरं वा गणावच्छेयगं वा अन्नं गणं उ वसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पई से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से णो वियरेज्जा एवं से णो कप्पइ अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥ सू० २१ ॥ छाया-गणावच्छेदकश्च गणाद् अपक्रम्य इच्छेत् अन्यं गणम् उपसंपद्य विहर्तुम् नो तस्य कल्पते गणावच्छेदकस्य गणावच्छे दकत्वम् अनिक्षिप्य अन्य गणम् उपसंपद्य विहर्तुम्, कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य गणावच्छेदकत्वं निक्षिप्य अन्य गणम् उपसंपद्य विहर्तुम् । नो तस्य कल्पते अनापृच्छय आचार्य वा उपाध्यायं वा प्रवर्तकं वा स्थविरं वा गणिनं वा गणावच्छेदकं वा अन्य गणम् उपसंपद्य विहर्तुम्, कल्पते तस्य आपू. च्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्य गणम् उपसंपद्य विहर्त्तम्, ते च तस्य वितरेयुः एवं तस्य कल्पते अन्य गणम् उपसंपद्य विहर्त्तम्, ते च तस्य नो वितरेयुः एवं तस्य नो कल्पते अन्यं गणम् उपसंपद्य विहर्तुम् ॥ सू० २१ ॥ चूर्णी--'गणावच्छेयए य' इति । गणावच्छेदको यदि गणादपक्रम्य विशेषज्ञानादिप्राप्त्यर्थम् अन्य गणमुपसंपद्य विहत्तुम् अवस्थातुम् इच्छेत् तदा तस्य गणावच्छेदकस्य गणावच्छेदकत्वं स्वपदवीरूपम् अनिक्षिप्य-आचार्यादिषु असमारोप्य न समर्म्य, स्वपदवीमन्यस्मै भदत्त्वेत्यर्थः अन्यं गणम् उपसंपद्य विहाँ नो कल्पते । तर्हि कय कल्पते ? इत्याह-कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य गणावच्छेदकत्वं स्वदपदवीरूपं निक्षिप्य अन्यस्मै दत्त्वा अन्य गणमुपसंपद्य विहर्तुमिति । पृच्छाविधिभिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयः । अयं भावः-आचार्यादिकमनापृच्छय गणान्तरसंक्रमणं तस्य न कल्पते, किन्तु आचार्यादिकमापृच्छयैव गणान्तरगमनं कल्पते । तत्रापि यदि ते गणान्तरगमनाज्ञां वितरेयुः तदा कल्पते, यदि न वितरेयुस्तदा नो कल्पते इति सूत्रार्थः ॥ सू० २१ ॥ पूर्व गणावच्छेदकस्य गणान्तरसंक्रमणविधिरुक्तः, सम्प्रति आचार्यस्य उपाध्यायस्य च ज्ञानाद्यर्थं गणान्तरगमने विधिमाह-'आयरियउवज्झाए य' इत्यादि । सूत्रम् -आयरियउवज्झाए य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए नो से कप्पइ आयरियउवज्झायस्य आयरियउवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं गण उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ से आयरियउवज्झायस्स आयरियउवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ बृहत्कस्पसूत्र गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं उवसज्जित्ता पं विहरित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गगं उपसंपञ्जित्ता में विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं गण उवसंपञ्जिता णं विहरित्तए, तें ये से नी वियरेज्जा एवं से नो कप्पड़ अण्णं गर्ण उवसंज्जित्ता णं विहरित्तए ॥ सू० २२ ॥ छाया-आचार्योपाध्यायश्च गणोद अपक्रम्य इच्छेत् अन्यं गणम् उपसंपद्य वित्तम् . नो तेस्य कल्पते आचार्योपाध्यायस्य आचार्योपाध्यायत्वम् अनिक्षिप्य अन्य गणम् उपसपद्य विहतम् , कल्पते तस्य आचार्योपाध्यायस्य आचार्योपाध्यायत्वं निक्षिप्य अन्य गणम् उपसंपद्य विहर्तम् , नो तस्य कल्पते अनापृच्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदक वा अन्यं गणम् उपसंपद्य विहर्त्तम्, कल्पते तस्य आपृच्छय आचार्य यावत् गणावच्छेदक वा अन्य गणम् उपसंपद्य विहर्तुम् , ते च तस्य वितरेयुः एवं तस्य कल्पते अन्य गा उपसंपद्य विहर्त्तम् , ते च तस्य नी वितरेयुः एवं नो कल्पते अन्यं गणं उपसंपद्य विहर्तुम् ॥ सू० २२॥ चूर्णी-'आयरियउवज्झाए य' इति । इदम् आचार्योपाध्यायसूत्रं गणावच्छेदकसूत्रवदेव सर्व व्याख्येवम् , विशेष एतावानेव यत्तत्र गणावच्छेदकपदेन व्याख्या कृता अत्र तु आचार्योपाध्यायपदेन व्याख्या विधेया, इति । आचार्यगं सहित उपाध्याय- आचार्योपाध्यायः, शाकपार्थिवादित्त्वात् मध्यमपदलीपी समासः तेन 'आचार्योपाध्यायौ' इत्यों बीयः । आचार्थोपाध्याययोः समानविधिकत्वादे कस्मिन्नेव सूत्रे उभ योविधिः प्रतिपादित इति ॥ सू० २२ ॥ पूर्व भिक्षुप्रभृतीनां ज्ञानार्थ गणान्तरगमनविधिः प्रतिपादितः, सम्प्रति तेषां संभोगार्थ गणान्तरंगमनविधिमाह-'भिक्खू य' इत्यादि । सूत्रम्-भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जी अण्णं गणं संभोगपडियाएं उवसंपब्जिताणे विहरित्तए नो से कप्पइ अणाधुरिछत्ता आयरिय वा जवि गणावईयगं वा अण्णं गगं संभोगडियाए उसंपज्जिती णं विहरित्तए, कंप्पई से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता ण विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पई अण्णं गणं संभोगपडियाए उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्ना एवं से नो कप्पइ अण्णं गर्ग संभोगपडियाए उवसंपत्तिा णं विहरितए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा, एवं से कप्पड अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता ण विहरित्तए, जत्त्युत्तरिय धम्मविणयं नोलभेज्जा एवं से नो कप्पा अण्णं गग संभोगपडियाए उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥ सू०२३॥ ___छाया-भिक्षुश्च गणात् अपक्रम्य इच्छेत् अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंघद्य विह. तम् नो तस्य कल्पते अनापृच्छय आवार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यं गणं संभोमप्र. स्ययनम् उपसपथ विहर्त, कल्पते तस्य आपृच्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमि-सम्माऽवचूरी उ० ४ सू० २३ भिक्षोः संभोगार्थमन्यगणगमनविधिः १९३ अत्यंग संभोगप्रत्ययेन उपसंपदा विवर्त्तम, ते च तस्य वितरेसुः एवं तस्य कल्पते अन्य गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्त्तम्, ते च तस्य नो वितरेयुः एवं तस्य नो कल्पते अन्यं गण संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्त्तम्, यत्रौत्तरिकं धर्मविनयं लभेत एवं तस्य कल्पते अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्त्तम्, यत्रौत्तरिकं धर्मविनयं नो लभेत एवं तस्य नो कल्पते अन्यं गण संभोगप्रत्यत्येन उपसंपद्य विहर्तुम् ॥ ० ॥ २३॥ चूर्णी - 'भिक्खू य' इति । भिक्षुश्च गणात् स्वगप्पात् अपक्रम्य निस्सृत्य संभोगप्रत्ययेनसंभोग:- एकमण्डल्यां भोजनादिरूपः, अथवा समवायाङ्गोक्तो द्वादशविधः संभोगस्तत्प्रत्ययेन तन्निमित्तेन तदर्थमित्यर्थः अन्यं गणमुपसंपय विहर्तुम् - अवस्थातुम् इच्छेत् तदा तस्य पूर्ववदेवआचार्यादिकमनापृच्छच नो कल्पते, आपृच्छय कल्पते । यदि ते गणान्तरगमनस्याज्ञां वितरेयुः एबम् - अनेनाज्ञा ग्रहण विधिना तस्य गणान्तरममनं कल्पते, यदि ते गणान्तरगमने आज्ञां नो क्तिरेयुस्तदा नो कल्पते गणान्तरगमनम् इति सूत्राशयः । भिक्षोः गणान्तरगमने कारणमाह-' जत्थुत्तारिय' इत्यादि, 'नत्थ' इति यत्र यस्मिन् गणे गन्तुमिच्छति तत्र यदि स औन्तरिकम् - उच्चतरं प्रधानं धर्मविनयं लमेत प्राप्नुयात् एतादृशो गणो यदि भवेत् तदा तस्य तमन्यं गणं संभोग़प्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम् - अवस्थातुं कल्पते, यत्रौत्तरिकं धर्मविनयं नो लमेत तदा तस्य अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहतु नो कल्पते ॥ सू० २३ ॥ अथ भाष्यकारो गणान्तरगमने विवेकं प्रदर्शयति- 'नाण' ० इत्यादि । भष्यम् - - नाणदंसणट्टा, चारितट्ठा भवे य संभोगो । संकमणे चभंगी, आयरियं गच्छ्रमासज्ज ॥ २॥ छाया - ज्ञानार्थ दर्शनार्थ चारित्रार्थं भवेच्च संभोगः । संक्रमणे चतुर्भङ्गी, आचार्य गच्छमासाद्य ॥ २ ॥ अवचूरी - 'नाण०' इति । ज्ञानार्थं दर्शनार्थं चारित्रार्थं च संभोगो भवेदिति त्रिविधः संभोग़ः, तदर्थं गणान्तरसंक्रमणं भवति, तत्र आचार्य गच्छं च आसाय - आश्रित्य चतुर्भङ्गी भवतीति भाष्यगाथार्थः । विस्तरार्थश्चायम् - स्वगच्छे सूत्रार्थदानादौ विषीदति सति गच्छन्तरसंक्रमणे पूर्वोक्तरीत्यैव गमनविधिस्त्रापि प्रतिपत्तव्यः, परन्तु चारित्रार्थे गच्छान्तरसंक्रमणे गच्छस्य प्रथममुपसंपन्नो भवति तस्मिन् गच्छे चरणकरण क्रियायां विषीदति सति चतुर्भङ्गी भवति, तथाहि गच्छो विषीदति नाचार्यः १, आचार्यो विषीदति न गच्छः २, गच्छोsप्रि आचार्योऽपि च विषीदति ३, न गच्छो विषीदति न वा आचार्यः ४ इति । तत्र प्रकृ 'गच्छो विषीदति नाचार्यः' इत्येवंरूपः प्रथमो भङ्गोऽवगन्तव्यः, तत्र स्वयं विषीदतो गच्छस्य आचार्येण प्रेरणा कर्त्तव्या, तत्र गच्छस्य विषादकारपणं यथा - प्रथमं तावत् मच्छश्रमणाः यथाकालं प्रत्युमेक्षणां न कुर्वन्ति न्यूनातिरिक्ता दिदोषैर्विपर्यासेन वा प्रत्युपेक्षणां कुर्वन्ति, गुरुग्ला Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ वृहत्कल्पसूत्र नादीन् वा न प्रत्युपेक्षन्ते, निष्कारणं च दिवा त्वग्वर्त्तयन्ति, भाण्डोपकरणं निक्षिपन्त आददाना वा तं न प्रत्युपेक्ष्य निक्षिपन्ति आददति च, यथायोगं विनयमपि न प्रयुञ्जते, सूत्रार्थपौरुषीं, सूत्रार्थचिन्तनां वा न कुर्वन्ति, अस्वाध्यायकाले सूत्रस्वाध्यायं कुर्वन्ति काले च न कुर्वन्ति, पाक्षिकादौ चालोचना न ददति, संखडी वा पश्यन्ति, मण्डल्यां भक्तपानादिसमुद्देशनं न कुर्वन्ति, सावद्यभाषां भाषन्ते, पटलकेषु 'थैली' इति भाषाप्रसिद्धेषु समानीतं भक्तपानादिकं भुजते, शय्यातरपिण्डं वा भुजते, उद्गमोत्पादनादिदोषदुष्टमाहारं गृह्णन्ति । इत्यादिषु विषीदने त्रयो भङ्गा सन्ति तत्र विधिमाह-'गच्छो विषीदति नाचार्यः' इति प्रथमभङ्गे सामाचार्या विषीदन्तं गच्छमाचार्यः स्वयं वा प्रेरयति १। 'आचार्यो विषीदति न गच्छः' एवंरूपे द्वितीयभङ्गे विषीदन्तमाचार्य गच्छः स्वयं वा प्रेरयति २। 'गच्छोऽपि विषीदति आचार्योऽपि विषीदति' इत्येवं रूपे तृतीयभङ्गे गच्छाचार्यो विषीदन्तौ कोऽपि मुनिः स्वयं प्रेरयति, अथवा तत्र ये न विषीदन्ति तैस्तान् प्रेरयति, किं बहुना स्थानं प्राप्य अनुलोमविलोमादिवचनैः प्रेरयति । एवं चाचार्योपाध्यायादिकं भिक्षुक्षुल्लकादिकं वा पुरुषवस्तु ज्ञात्वा यस्य यादृशी अनुलोमा विलोमा वा नोदना योग्या भवेत्तया प्रेरयति, यो वा खरसाध्यो मृदुसाध्यः क्रूरोऽक्रूरो वा यथा नोदनां गृह्णाति तं तथा प्रेरयेत् गच्छमाचार्य तदुभयं वा विषीदन्तं स्वयं ब्रुवन् अन्यैर्वा प्रेरयन् तिष्ठेत् । साध्वाचारविशोधनार्थ नानाविधिप्रेरणायां कृतायामपि यदि ते शिथिलाचारत्वं न मुञ्चन्ति तदा भिक्षुः आचार्यादीन् पृष्ट्वा तदाज्ञां गृहीत्वा गणान्तरसंक्रमणं कुर्यात् इति जिनाज्ञा बोध्या। पूर्वावस्थायां तत्र स्थितिमानमिदम्एते उच्यमाना अपि नोद्यमं करिष्यन्तीति ज्ञात्वा तत्रोत्कृष्टेन पञ्चदश दिवसान् तिष्ठेत् । आचार्य वा विषीदन्तं जानन्नपि लज्जया तद्गौरवेण वा त्रीणि पञ्च वा दिनानि अनोदयन्नपि शुद्ध एव, न दोषभाग् भवति । यदि च नोद्यमानोऽपि गच्छ आचार्यस्तदुभयं वा ब्रूयात्-'विषीदत्सु अस्मत्सु तव किं दुःखम् ? यदि वयं विषीदामस्तर्हि वयमेव दुर्गतिं गमिष्यामः, त्वां न किमपि कथयिष्यामः, त्वं स्वकीयमात्मानं प्रेरय, किमन्यैस्तव प्रयोजनम् ?' इत्येवंविधे भावे परिणते तेषां त्यागं कृत्वा यत्रौत्तरिको धर्मविनयो लभ्येत तत्र गच्छे गच्छेदिति भाष्यगाथाविस्तरः ॥२॥ पूर्व भिक्षोः संभोगप्रत्ययेन गच्छान्तरगमनं प्ररूपितम् , सम्प्रति गणावच्छेदकस्य संभोगप्रत्ययेन गच्छान्तरगमनं प्रतिपादयितुमाह-इत्यादि 'गणावगच्छेयए यं' सूत्रम्--गणावच्छेयए य गणाओ अवक्कम्म इच्छेन्जा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपजित्ता णं विहरित्तए णो से कप्पइ गणावच्छेयत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ से गणावच्छेयत्तं णिक्खिवित्ता Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णिमाम्यावचूरी ७०४ सू० २४-२५ संभोगार्थमन्यगणगमनविधिः १०५ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता गं विहरित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयग वा अण्ण गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से नो बियरेज्जा एवं से नो कप्पई अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरितए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जाएवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥ सू० २४॥ छाया-गणावच्छेदकश्च गणाद् अपक्रम्य इच्छेत् अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम् नो तस्य कल्पते गणावच्छेदकत्त्वम् अनिक्षिप्य अन्य गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहतम् , कल्पते तस्य गणावच्छेदकत्वं निक्षिप्य अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहत्तम् नो तस्य कल्पते अनापृच्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम् , कल्पते तस्य आपृच्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम् , ते च तस्य वितरेयुः एवं तस्य कल्पते अन्य गण संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम् , ते च तस्य नो वितरेयुः एवं तस्य नो कल्पते अन्य गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम् , यत्रौत्तरिकं धर्मविनयं लभेत एवं तस्य कल्पते अन्य गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम् , यत्रौत्तरिक धर्मविनयं नो लमेत एबं तस्य नो कल्पते अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपन्न विहर्तुम् ॥ स्० ॥२४॥ चूर्णी-'गणावच्छेयए य' इति । गणावच्छेदकश्च गणात् स्वगणात् अपक्रम्य निर्गत्य इच्छेत् अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन संभोगो द्वादशविधस्तन्निमित्तम् उपसंपद्य विहत्तं तदा तस्य गणावच्छेदकत्वं स्वपदवीरूपम् अनिक्षिप्य आचार्याधुपरि अनारोप्य अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहां नो कल्पते । कथं कल्पते ! इत्याह-स्वस्य गणावच्छेदकत्वं निक्षिप्य अन्यस्मै दत्त्वा अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहत्तुं कल्पते । पुनश्च आचार्यादिकमनापृच्छ्य अन्य गणं संभोग प्रत्ययेन उपसंपद्य विहत्तं नो कल्पते किन्तु आचार्यादिकमापृच्छय अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहा कल्पते । तत्र च यदि ते आचार्यादयः अन्यगणसंक्रमणस्याज्ञां वितरेयु:दधुस्तदा तस्य अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विह कल्पते, यदि ते अन्यगणगमनाज्ञां न वितरेयुस्तदा तस्य नो कल्पते अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विह म् । तत्रापि यदि यत्र औत्तरिकं स्वगणापेक्षया प्रधानं धर्मविनयं स्मारणावारणादिरूपं लभेत एवम्-अनेन-कारणेन Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रे १०६ कल्पते तस्य अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपय विहतुम्, यदि यत्र औत्तरिकं प्रधानं धर्मविनयं न लभेत एवं धर्मविनयस्याऽलाभे अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहत्तु नो कल्पते इति सूत्राशयः ।। सू० २४ ॥ पूर्वं गणावच्छेदकस्य संभोगनिमित्तं गणान्तरगमने विधिः प्रतिपादितः, साम्प्रतम् आचार्योपाध्यायस्य तद्विधिमाह - 'आयरियउवज्झाए य' इत्यादि । सूत्रम् - आयरियउवज्झाए य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरितए णो से कप्पर आयरियउवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए, उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ से आयरियउवझायत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नो से कपर अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पर से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणाबच्छेयगं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पर अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा एवं से नो कप्पइ to गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित || सू० २५ ॥ छाया - आचार्योपाध्यायश्च गणाद् अपक्रम्य इच्छेत् अभ्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तु नो तस्य कल्पते आचार्योपाध्यायत्वम् अनिक्षिप्य अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्त्तम्, कल्पते तस्य आचार्योपाध्यायत्वं निक्षिप्य अन्यं गणं संभोग - प्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम्, नो तस्य कल्पते अनापृच्छ्य आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम्, कल्पते तस्य आपृच्छ्य आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम् ते च तस्य वितरेयुः एवं तस्य कल्पते अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्त्तम्, ते च तस्य नो वितरेयुः एवं तस्य नो कल्पते अन्यं गणं संभोगप्रत्येन उपसंपद्य विहर्तुम्, यत्रौत्तरिकं धर्मविनयं लभेत एवं तस्य कल्पवे अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम्, यत्रौत्तरिकं धर्मविनयं नो लभेत एवं तस्य नो कल्पते अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य बिहर्त्तुम् ॥ स्० २५ ॥ चूर्णी - 'आयरियउवज्झाए य' इति । इदमाचार्योपाध्यायसूत्रं संभोगप्रत्ययमधिकृत्य गणावच्छेदकसूत्रवदेव सर्वं व्याख्येयम्, नवरं गणावच्छेद पदस्थानेऽस्मिन् सूत्रे आचार्योपाध्यपदमुच्चारणीयम्, शेषं सर्वं पूर्वसूत्रवदेवेति भावः ॥ सू० २५ ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुणिमायावचूरी उ० ४ सू० २६-२७ भिक्षोरन्याचार्योपाध्यायस्वीकरणविधिः १०७ __ पूर्व भिक्षुप्रभृतीनां संभोगनिमित्तं गणान्तरगमनं प्ररूपितम् , सम्प्रति भिक्षोरेव अन्यमाचार्यो पाध्यायं कर्तुमिच्छुकस्य विधिमाह-'भिक्खु य 'इत्यादि । मूलम् --भिक्खू य इच्छेज्जा अन्नं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं आयरिय उवज्झायं उदिसावित्तए, नो से कप्पइ तेसिं कारणं अदीबित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पइ से तेसिं कारणं दीवित्ता अण्णं आयरियउवज्झार्य उद्दिसावित्तए ॥ सू० २६॥ ___छाया-भिक्षुश्च इच्छेत् अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुं नो तस्य कल्पते अनापृच्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यम् आचार्योपाध्यायं उद्देशयितुम्, कल्पते तस्य आपृच्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितम. ते च तस्य वितरेयुः पवं तस्य कल्पते अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् तेच तस्य नो वितरेयुः एवं तस्य नो कल्पते अन्यम् आचर्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् , नो तस्य कल्पते तेषां कारणम् अदीपयित्वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, कल्पते तस्य तेषां कारणं दीपयित्वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् ॥स्०२६॥ चूर्णी-'भिक्खू य' इति । भिक्षुश्च इच्छेत् अन्यम् स्वकीयाचार्योपाध्यायात् परं गच्छान्तरवर्त्तिनम् आचार्योपाध्यायं ज्ञानदर्शनचारित्रवृद्धयर्थम् उद्देशयितुम् आत्मनो गुरुत्वेन व्यवस्थापयितुं यदि इच्छेत् तदा नो तस्य कल्पते अनापृच्छय अपृष्ट्वा, कम् ? इत्याह-आचार्य यावत् गणा: वच्छेदकम् अन्यमाचार्योपाध्यायम् उदेशयितुम् । कथं कल्पते ? इत्याह-कल्पते तस्य आचार्यादिकमापृच्छय अन्यमाचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् । तत्रापि यदि ते आचार्यादयो वितरेयुः अन्याचार्योपाध्यायस्वीकरणाज्ञां दद्युः एवं तदाज्ञाप्राप्तौ सत्यां तस्य कल्पते अन्यमाचार्योपाध्यायम् उद्देशयितम् , यदि ते नो वितरेयुः अज्ञां न दद्युः तदा नो कल्पते अन्यमाचार्योपाध्यायमुद्देशयितम् । पुनश्चाज्ञाप्राप्तावपि नो तस्य कल्पते कारणम्-अन्याचार्योपाध्यायस्यात्मनो गुरुत्वेन व्यवस्थापने हेतुम् अदीपयित्वा-अप्रकाश्य कारणमनिवेद्य अन्यमाचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् । अपि तु कल्पते तस्य भिक्षोः तेषाम् स्वकीयाचार्यादीनां कारणम् अन्याचार्योपाध्यायस्वीकरणे कमपि हेतुं दीपयित्वा-प्रकटीकृत्य अन्यमाचार्योपाध्यायस्वीकरणे कमपि हेतुं प्रदर्थ अन्यमाचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् -आत्मनो गुरुत्वेन व्यवस्थापयितुं कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । अत्रायं भावः-स्वकीयमाचार्योपाध्यायं त्यक्त्वा अन्यमाचार्योपाध्यायमुदिशेत् तत्र ज्ञानस्य दर्शनस्य चारित्रस्य च प्रधानकारणेन भवितव्यम् , अन्यथा मनोमालिन्यादिक्षुद्रकारणमाश्रित्य यदि Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पस्त्र अन्यमाचार्योपाध्यायमुदिशेत् तदा आज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति । तत्र ज्ञाने तावत् केषाञ्चिदाचार्याणां गच्छे कुले संघे वा उत्कृष्ट आचारो विद्यते, ते चाचार्योपाध्यायाः संघसंस्थितिं कृतवन्तः यत्-'ये अस्माकं शिष्यतयोपगता भवेयुस्तेभ्य एव महाकल्पश्रुत दास्यामो नान्येभ्यः' इति, तत्रान्यत्र लाभसंभवे उत्सर्गतो नोपसंपत्तव्यम्, किन्तु अन्यत्र यदि महाकल्पश्रुदायको नोपलभ्यते, एतादृश्यां परिस्थितौ उत्कृष्टाचारप्रतिपादकमहाकल्पश्रुतग्रहणार्थ तस्याचार्योपाध्यायस्योद्देशनमनिवार्य भवेत्ततस्तमाचार्योपाध्यायं स्वगुरुत्वेन व्यवस्थापयेत् । तमाचार्योपाध्यायं गुरुत्वेन उद्दिश्य तत्सकाशात् महाकल्पश्रुतमधीयीत, अधीते च महाकल्पश्रुते पुनः पूर्वाचार्योपाध्याययोरन्तिके समागच्छेत् किन्तु न तत्रैव स्थितिं कुर्यात् । 'स्वशिष्यत्वेनोपगतायैव महाकल्पश्रुतम् अध्यापयि. तव्यम् नान्यस्मै' इत्येषा तेषां स्वेच्छाऽवगन्तव्या न तु जिनाज्ञा यत् शिष्यतयोपगतायैव उत्कृष्टाचारप्रतिपादकं महाकल्पश्रुतम् अध्यापनीयमिति । एवं दर्शनार्थ, तथा विद्यामन्त्रनिमित्तम् हेतुशास्त्रनिमित्तं वाऽन्याचार्योपाध्यायस्यात्मनोगुरुत्वेन व्यवस्थापनं भवेत् । चारित्रार्थ तु उत्कृष्टक्रियाशिक्षणनिमित्तं पूर्वोक्तरीत्यैव अन्याचार्योपाध्यायस्यात्मना गुरुत्वेन निर्धारणमवगन्तव्यमिति । . तस्मात् एषु त्रिष्वपि ज्ञानदर्शनचारित्रेषु उपार्जनीयेषु अन्याचार्योपाध्यायं गुरुत्वेन व्यवस्थापयन्तः श्रमणाः पूर्वोक्तरीत्या निवेदितस्वप्रयोजनाः आचार्यादिभिर्विसर्जिताः सन्तोऽन्याचायोपाध्याययोर्गुरुत्वेन व्यवस्थापने दोषभाजो न भवेयुः । तत्र गमिष्यमाणे गच्छे यदि अवसन्नतादिकारणं न भवेत्तदा तत्रोपसंपत्तव्यं नान्यथेति फलितम् ॥ सू० २६॥ पूर्व भिक्षोर्ज्ञानाद्यर्थमन्याचार्योपाध्यायस्यात्मनो गुरुत्वेन व्यवस्थापने विधिरुक्तः, सम्प्रति गणावच्छेदकस्य विधिमाह-'गणावच्छेयए य' इत्यादि। सूत्रम्-गणावच्छेयए य इच्छेज्जा अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए नो से कप्पइ गणावच्छेयगत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पइ से गणावच्छेयगत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्ण आयरियउवज्झासं उदिसावित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, नो से कप्पइ तेसिं कारणं अदीवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पइ से तेसिं कारणं दीवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए ॥ सू० २७ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिमायावचूरी उ० सू०२७-२९ गणावच्छेदकस्यान्याचार्योपाध्यायस्वीकरणविधिः १०९ छाया - गणावच्छेदकश्च इच्छेत् अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् नो तस्य कल्पते गणावच्छेदकत्वम् अनिक्षिप्य अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, कल्पते तस्य गणावच्छेदकत्वं निक्षिप्य अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, नो तस्य कल्पते अनापृच्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, कल्पते तस्य आपृच्छ्य आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, ते च तस्य वितरेयुः एवं तस्य कल्पते अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, ते च तस्य नो वितरेयुः एवं तस्य नो कल्पते अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयतुम्, नो तस्य कल्पते तेषां कारण अदीपयित्वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, कल्पते तस्य तेषां कारणं दीपयित्वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् ॥सू० २७ ॥ चूर्णी - 'गणावच्छेयए य' इति । गणावच्छेदकश्च यदि इच्छेत् अभिलषेत्, किमित्याह - अन्यम् अन्यगच्छवर्तिनम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् स्वस्य गुरुत्वेन व्यवस्थापयितुं तदा तस्य नो कल्पते गणावच्छेदकत्वं स्वकीयगणावच्छेदपदवीम् अनिक्षिप्य कस्मैचिद् असम अन्यमाचायपाध्यायम् उद्देशयितुम्, कल्पते तस्य गणावच्छेदकत्वं स्वपदवीरूपं गणावच्छेदकत्वप्रयुक्तकार्यभारं निक्षिप्य स्वसंघे कस्मैचित् समर्प्य अन्यमाचार्योपाध्यायमुद्देशयितुं कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । शेषम् सर्वं सूत्रं भिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयम् । एवं च गणावच्छेदकस्य गणविभागकारकत्वेन ज्ञानादिनिमित्तमन्यगणगमनादिकर्त्तुस्तस्य स्वगणनिक्षेपणं संविग्नाचार्येषु कर्त्तव्यं युज्यते, यदि तु संविग्नाचार्या विषीदन्तो भवेयुस्तदा स्वगणं गृहीत्वा गच्छान्तरगमनादिकं कुर्यात्, न तु तेषां विषीदतां संविग्नाचार्याणामन्तिके स्वगणं निक्षिपेत्, अन्यथा - गणस्य तेषु निक्षेपणे चारित्रस्स्वलनादिकं भवेदिति विवेकः ।। सू० २७ ॥ पूर्वं गणावच्छेदकस्य ज्ञानादिवृद्ध्यर्थं गच्छान्तरस्थमाचार्योपाध्यायमात्मन आचार्योपाध्यायत्वेन व्यवस्थापनविधिः प्रदर्शितः, सम्प्रति आचार्योपाध्ययस्य तद्विधिं प्रदर्शयति- 'आयरियउ - वज्झाए य' इत्यादि । सूत्रम् - आयरिय-उवज्झाए य इच्छिज्जा अन्नं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए नो से कप्पइ आयरियउवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसा क्तिए, कप्प से आयरियउवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं सावित् णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणात्रच्छेयगं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, कप्प से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पर अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, नो से कप्प तेसिं कारणं अदीवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं Starfare, as से तेसिं कारणं दीवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्त ॥ ०२८ ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रे छाया - आचार्योपाध्यायश्च इच्छेत् अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् नो तस्य कल्पते आचार्योपाध्यायत्वम् अनिक्षिप्य अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, कल्पते तस्य आचार्योपाध्यायत्वं निक्षिप्य अन्यम् आचायोंपाध्यायम् उद्देशयितुम्, नो तस्य कल्पते अनपृच्छ्य आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, कल्पते तस्य आपृच्छ्य आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यम् आचायोपाध्यायम् उद्देशयितुम् । तेच तस्य वितरेयुः एवं तस्य कल्पते अन्यम् आचायोपाध्यायम् उद्देशयितुम्, ते च तस्य नो वितरेयुः एवं तस्य नो कल्पते अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, नो तस्य कल्पते तेषां कारणम् अदोपयित्वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, कल्पते तस्य तेषां कारणं दीपयित्वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् ॥ सु० २८ ॥ ११० चूर्णी – 'आयरियउवज्झाए य' इति । इदं सर्वं सूत्रम् गणावच्छेदकपदस्थाने आचायोपाध्यायपदं संनिवेश्य गणावच्छेदकसूत्रवदेव व्याख्येयम् ॥ सू० २८ ॥ पूर्वमन्याचार्योपाध्योद्देशनविधिरुक्तः, सम्प्रति कालगतभिक्षोः परिष्ठापनविधिमाह-'भिक्खू य राओ वा' इत्यादि । सूत्रम् - भिक्खू य राओ वा वियाले वा आहच्च वीसुंभिज्जा, तं च सरीरगं केइ वियावच्चकरे भिक्खू इच्छिज्जा एंगते बहुफासुए थंडिले परिद्ववित्तए, अस्थि य इत्थ केइ सागारियसंतिए उवगरणजाए अचित्ते परिहरणारिहे कप्पर से सागारियकड गहाय तं सरीरंगं एगंते बहुफासुए थंडिले परिहवित्ता तत्थेव उवनिक्खियन्चे सिया ॥ च०२९।। छाया - भिक्षुश्च रात्रौ वा विकाले वा आहत्य विष्वग्भवेत् तच्च शरीरकं कश्चिद् वैयावृत्त्यकरो भिक्षुः इच्छेत् एकान्ते बहुप्रासु के स्थण्डिले परिष्ठायितुम्, अस्ति चात्र किञ्चित् सागारिकसत्कम् उपकरणजातम् अचित्तम् परिहरणार्हम्, कल्पते तस्य सागारिककृतं गृहीत्वा तत् शरोरकम् एकान्ते बहुप्रासुके स्थण्डिले परिष्ठाप्य तत्रैव उपनिक्षेप्तव्यं भवेत् ॥ सू० २९ ॥ चूर्णी - 'भिक्खू य' इति । भिक्षुश्च सामान्य श्रमणः चकाराद् आचार्योपाध्यायादिश्च रात्रौ वा सन्ध्याकालातिरिक्तरजन्याम् विकाले वा संध्यासमये सायंकाले आहत्य - कदाचित् 'वसुभिज्जा' इति विष्वग्भवेत् शरीराद् आत्मा पृथग् भवेत् कालधर्म प्राप्नुयात् म्रियेतेत्यर्थः तच्च शरीरकं मृतदेहं कश्चित् समीपस्थो वैयावृत्त्यकरः तस्य सेवाशुश्रूपावर्त्ती भिक्षुः इच्छेत्-वाञ्छेत्, किमित्याह-तं मृतदेहम् एकान्ते निर्जने बहुप्रासुके अवश्यायोतिङ्ग-पनक-दक-मृत्तिका-मर्कटसन्तानवर्जिते—तत्र–अवश्यायः · मेघमन्तरेण रात्रौ पतितः सूक्ष्मतुषाररूपः (ओस ) इति भाषाप्रसिद्धः । उतिङ्गाः-भूमौ वर्तुलविवरकारिणो गर्दभमुखाकृतयः कीटविशेषाः कीटिकानगरादयो वा । पनकःअङ्कुरितोऽनङ्कुरितो वा पञ्चवर्णानन्तकाय विशेष: जलसम्बन्धेन जायमानः पिच्छिलाकार : - (काई) इति लोकप्रसिद्धः । दकम् - उदकमप्कायः, मृत्तिका - सचित्तपृथ्वी कायः, मर्कटकसन्तानः- लता Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुर्णिभाष्यावचूरी उ०४ २० ३० अधिकरणानुपशमेभिक्षाग्रहणादिनिषेधः १११ जालम् , एतैर्वर्जिते अचित्ते स्थण्डिले भूप्रदेशे परिष्ठापयितुम् इच्छेदिति पूर्वेण सम्बन्धः, तदा अस्ति च अत्र अस्मिन् निवासस्थाने किञ्चित् किमपि सागारिकसत्कम् गृहस्थसम्बन्धि अचित्तम् उपकरणजातं वहनकाष्ठं तदपि परिहरणार्ह-परिभोगयोग्यं मृतदेहवहनसाधनरूपं भवेत्तदा कल्पते तस्य भिक्षोः सागारिककृतं 'सागारिसत्कमेवेदं काष्ठं नास्मत्सत्कम्' इत्येवं बुद्धया प्रातिहारिकं तत् काष्ठं गृहीत्वा तत् शरीरकं भिक्षोर्मृतदेहम् एकान्ते विजने बहुप्रासुके पूर्वोक्तस्वरूपे एकेन्द्रियद्वीन्द्रियादिजीवरहिते स्थण्डिले भूप्रदेशे परिष्ठाप्य विसृज्य तत् बहनकाष्ठं तत्रैव यस्मात् स्थानात् येन प्रकारेण ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्रूपेण गृहीतं भवेत् तस्मिन् स्थाने तेनैव रूपेण स्थापयितव्यं भवेत् यत्रतो यथा गृहीतं तत्र तथैव स्थापयेदिति भावः ॥ सू० २९॥ पूर्व कालधर्मप्राप्तस्य भिक्षोः परिष्ठापनविधिरुक्तः, सम्प्रति-कालधर्मश्च प्राणिमात्रस्यावश्यम्भावीति विचार्य मुनिना परलोकाहितकरमधिकरणं केनाऽपि सह न विधातव्यमित्यधिकरणसूत्रमाह-'भिक्खू य अहिंगरणं कटु' इत्यादि । सूत्रम् -भिक्खू य अहिगरणं कटु तं अहिगरणं अविओसवित्ता नो से कप्पइ गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा णिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा णिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, गामाणुगामं वा दुइज्जित्तए, गणाओ गणं संकमित्तए, वासावासं वा वथए, जत्थेव अप्पणो आयरियं उवज्झायं पासेज्जा, बहुस्सुयं बभागमं तस्संतिए आलोइज्जा पडिक्कमिज्जा निदिज्जा गरहिज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणाए अब्भुद्विज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित पडिवज्जेज्जा, से य सुरण पट्टविए आइयत्वे सिया, से य सुएण नो पट्टविए नो आइ. यव्वे सिया, से य सुएण पट्टविज्जमाणं नो आइयइ से निज्जूहियत्वे सिया ॥ सू०३० ॥ छाया---भिक्षुश्च अधिकरणं कृत्वा तद् अधिकरणम् अव्यवशमय्य नो तस्य कल्पते गाथापतिकुलं भक्ताय वा पानाय वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुवा, बर्हिविचारभूमि वा विहारभूमि वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा, ग्रामानुग्राम द्रोतुम् , गणाद् गणं संक्रमितुम्, वर्षावासं वस्तुम्, यत्रैव आत्मन आचार्य वा उपाध्यायं वा पश्येत् बहुश्रुतं बह्वागमं तस्यान्तिके आलोचयेत् प्रतिक्रामेत् निन्द्यात् गर्हेत व्यावर्तेत विशोधयेत् अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत् यथार्ह तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत, तच्च श्रुतेन प्रस्थापितम् आदातव्यं स्यात् तच्च श्रुतेन नो प्रस्थापितं नो आदातव्यं स्यात् , स च श्रुतेन प्रस्थाप्यमानं नो आददाति स हितव्यः स्यात् ॥सू० ३०॥ चूर्णी- 'भिक्खू य अहिगरणं कटु' इति । भिक्षुश्च साधुः चकाराद उपाध्यायादिश्च अधिकरणं कलहं कृत्वा तत्-केनापि कारणेन यत् संजातं तद् अधिकरणं-कलहम् अव्यवशमय्यउपशान्तमकृत्वा परस्परमक्षामयित्वा नो-नैव तस्य कल्पते गाथापतिकुलं-गृहस्थगृहं भक्ताय वा Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ पृहत्कल्पस्ने अशननिमित्तं पानाय वा पानीयनिमित्तं भक्तपानार्थमित्यर्थः निष्क्रमितुं निर्गन्तुम् उपाश्रयाद् बहिनिस्सते वा गृहस्थगृहान्तः प्रवेशं कर्तुं नो कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । एवम् बहिः उपाश्रयाद् बहिःप्रदेशे विचारभूमि संज्ञामि वा विहारभूमि-स्वाध्यायभूमि वा निष्क्रमितुम् उपाश्रयाद् बहिः संज्ञार्थं गन्तुम्, प्रवेष्टुं वा उपाश्रयान्तः प्रवेशं कर्तुम्, तथा ग्रामानुग्रामं द्रोतुं विहतुम् , एवं गणात् स्वगच्छात् गणम् अन्यं गच्छं संक्रमितुं संक्रमणं कर्तुं नो कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । तथा वर्षावासं चातुर्मासाथै वस्तुं नो कल्पते । तर्हि किं कर्त्तव्यमित्याह-'जत्थेव' इत्यादि यत्रैव यस्मिन् स्थाने आत्मनः स्वस्य आचार्यम् उपाध्यायम् , कीदृशमित्याह-बहुश्रुतंछेदशास्त्रनिपुणम् , बह्वागमम् अर्थतोऽनेकागमाभिज्ञ पश्येत् तस्य अन्तिके समीपे आलोचयेत् स्वापराधं वचसा प्रकाशयेत् प्रतिक्रामेत्, स्वापराधविषये मिथ्यादुष्कृतं दद्यात्, निन्द्यात्, आत्मसाक्षिकतया स्वापराधस्य निन्दां कुर्यात् , गहेंत गुरुसाक्षिकतया जुगुप्सेत् । निन्दनं गर्हणं च वास्तविकं तदा भवेद् यदा तस्य पुनः करणतो निवर्तेत, अत आह-'विउद्देज्जा' इति व्यावर्तेत-तादृशापराधान्निवृत्तो भवेत् । निवृत्तावपि कृतपापात्तदा मुच्येत यदा आत्मनो विशोधिर्भवेत् अत आह-'विसोहिज्जा' इति विशोधयेत् आत्मानं पापमलप्रक्षालनेन निर्मलं कुर्यात् । विशुद्धिश्च पुनरकरणतया संभवति अत आह-'अकरणयाए अब्भुटेज्जा'इति, अकरणतया पुनरकरणप्रतिज्ञया अभ्युत्तिष्ठेत् अभ्युत्थितो भवेत् समुद्यतः स्यात् , पुनरकरणतया अभ्युत्थानेऽपि विशुद्धिस्तु प्रायश्चित्ताभ्युपगमेनैव भवतीत्यतः आह-'अहारिहं' इति यथार्ह यथायोग्यम् अपराधानुसारं तपःकर्म अनशनादिरूपं प्रायश्चित्तंछेदादिकं प्रतिपद्यते-स्वीकुर्यात् । ‘से य' इति तदपि च प्रायश्चित्तं श्रुतेन श्रुतमधिकृत्य श्रुतानुसारेण यदि प्रस्थापितं समारोपितं दत्तं भवेत्तदा आदातव्यं ग्रहीतव्यं स्यात ग्राह्यं भवेदित्यर्थः, 'से य' तच्च यदि श्रुतेन श्रुतानुसारेण नो प्रस्थापितं न दत्तं भवेत्तदा नो आदातव्यं स्यात् ग्राह्यं न भवेत् । ‘से य' इति-अथ च स आलोचको यदि श्रुतेन श्रुतानुसारेण प्रस्थाप्यमानं दीयमानमपि तत् तपःकर्म प्रायश्चितं नो आददाति-न स्वीकरोति न प्रतिपद्यते तदा स आलोचकः साधुः निर्वृहितव्यः 'अन्यत्र गत्वा शोधिं कुरुष्व' इति कथयित्वा स प्रतिषेधनोयः स्वसमीपात् पृथक् करणीयः स्यात् भवेदिति ॥ सू० ३० ॥ पूर्वमधिकरणकर्त्तः प्रायश्चित्तप्रकारः प्रदर्शितः, तच्च प्रायश्चितं समर्थस्य प्रथमसंहननादि गुणयुक्तस्य परिहारतपोरूपमेव प्रायश्चित्तं दातव्यं, न तु शुद्धतपोरूपमिति परिहारतपोवहमानस्य का मर्यादा ! का च सामाचारी ? इति जिज्ञासायां परिहारतपोवाहकस्य विधिमाह-'परिहारकप्पट्ठियस्स णं' इत्यादि । सूत्रम्-परिहारकप्पट्ठियस्स णं भिक्खुस्स कप्पइ आयरिय-उवज्झाएणं तद्दिवसं एगगिहंसि पिंडवायं दवावित्तए, तेण परं णो से कप्पइ असणं वा पाणं वा Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्यावचूरी उ०-४ सु० ३१ परिहारकल्पस्थितस्य वैयावृत्त्यविधिः ११३ खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा, कप्पर से अन्नयर वेयावडियं करिए, तं जहा - उद्यावणं वा निसीयावणं वा तुयट्टावणं वा उच्चार- पासवण - खेल - सिंघाणविचिणं वा विसोहणं वा करित्तए, अह पुण एवं जाणिज्जा - छिन्नावासु पंथेसु आउरे झिझिए पिवासिए तबस्सी दुब्बले किलंते मुच्छिज्ज वा पवडिज्ज वा, एवं से कपड़ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउँ वा अणुप्पदाउं वा ।। सू ० ३१ ॥ छाया - परिहारकल्पस्थितस्य खलु भिक्षोः कल्पते आचार्योपाध्यायेन तद्दिवसम् एकगृहे पिण्डपातं दापयितुम्, तेन परं नो तस्य कल्पते अशनं वा पानं वा वाद्यं वा स्वाद्यं वा दातुं वा अनुप्रदातु वा, कल्पते तस्य अन्यतरद् वैयावृत्यं कर्तुम्, तद्यथा - उत्थापन वा निषादनं वा त्वग्वर्त्तनं वा उच्चार-प्रस्रवण - खेल - सिङ्घाण-विवेचनं वा विशोधनं वा कर्तुम्, अथ पुनरेवं जानीयात् - छिन्नापातेषु पथिषु आतुरो झिञ्झितः पिपासितः तपस्वी दुर्वलः क्लान्तो मूर्छेद् वा प्रपतेद् वा, एवं तस्य कल्पते अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा दातुं वा अनुप्रदातुं वा । सू० ३१ ॥ चूर्णी- 'परिहारकप्प हिस्स णं' इति । परिहारकल्पस्थितस्य परिहारतपणे वहतः खलु भिक्षोः कल्पते आचार्योपाध्यायेन आचार्येण उपाध्यायेन च तद्द्विसम् यस्मिन् दिवसे तपो गृहीतं तस्मिन् दिवसे तपसः प्रारम्भदिवसे इत्यर्थः एकगृहे एकस्मिन् गृहस्थगृहे पिण्डपातं - विपुलभक्तपानादिलाभं दापयितुं कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः तेन परं ततः परं तदिवसानन्तरं नो कल्पते तस्य भिक्षोः परिहारकल्पस्थितस्य श्रमणस्य अशनं वा पानं वा खाधं वा स्वाद्यं वा दातुं वा एकवारं दापयितुम् अनुप्रदातुं वा वारं वारं दापयितुम् । अथ कल्पते तस्य भिक्षोः परिहारकल्पस्थितस्य अन्यतरत्—एकतरद् वैयावृत्त्यं परिचर्यारूपं ( सेवारूपं ) कर्त्तुं विधातुमाचार्योपाध्याययोः कल्पते, परिहारकल्पस्थितस्य साधोरेव तस्मिन्काले सेवा ssचार्योपाध्यायाभ्यां कर्त्तव्येति भावः । तदेवाह - 'तंजहा' इति तद्यथा - उत्थापनम् उत्थातुमशक्तस्य उत्थापनं वा निषादनं वा उपवेष्टुमशक्तस्योपवेशनम्, त्वग्वर्त्तनं पार्श्वपरिवर्तनम्, पुनश्च उच्चार - प्रस्रवण - खेल - सिङ्घाण - विवेचनम्, तत्र उच्चारः मलत्यागः, प्रस्रवणं - मूत्रम्, खेलं - श्लेष्म, सिङ्घाणं - नासिकामलम्, तत्प्रभृतीनां विवेचनंपरिष्ठापनं विशोधनम् - उच्चारादिदूषितस्य वस्त्राद्युपकरणजातस्य शरीरस्य वा प्रक्षालनादिकं कर्त्तुमाचार्योपाध्याययोः कल्पते । अथ यदि पुनस्तावद् एवं जानीयात् यत् - छिन्नापातेषु गमनागमनरहितेषु पथिषु मार्गेषु आतुरः ग्लानः संजातः, झिञ्झितः क्षुधार्त्तः बुभुक्षया पीडितः, पिपासितः तृषितः पिपासया बाधितः, एतादृशः सन् विवक्षितं ग्रामं प्राप्तुमशक्तः, यद्वा ग्रामादावपि तिष्ठन् स तपस्वी षष्ठाष्टमादिपरिहारतपः कुर्वन् दुर्बलः क्षीणशरीरो जातस्ततश्च भिक्षाचर्यया क्लान्तः - खिन्नः सन् मूर्च्छद् वा मुर्च्छामाप्नुयात् तेन प्रपतेद् वा भूमौ प्रस्खलेद् वा, एवम् - एतादृश्यामवस्थायां च १५ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mawwwww वृहत्कल्पसूत्रे कल्पते तस्य भिक्षोर्निमित्तमाचार्योपाध्यायस्य अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वायं वा दातुं वा एकवारं वितरीतुम् , अनुप्रदातुं वा पुनः पुनर्वितरीतुं कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः ॥ सू० ३१ ॥ ननु स श्रमणः 'प्रमादो न कर्त्तव्यः' इति भगवदुपदेशेन संयममार्गे विचरन्नपि कथं परिहारकत्वं प्राप्तः ! इत्यत्राह भाष्यकारः-'जह' इत्यादि । भाष्यम्-जह कंटगाइकिण्णे, खलणं तह संजमे जयंतस्स । छलणालोयणमवसं, ठवणं जुत्ते य वोसग्गो ॥३॥ छाया-यथा कण्टकाकीर्णे स्खलनं तथा संयमे यतमानस्य । छलनाऽऽलोचनमवश्यं स्थापनं युक्ते च व्युत्सर्गः ॥३॥ अवचूरी-'जह कंटगाइकिण्णे' इति । यथा कण्टकाद्याकीर्णे मार्गे गच्छत उपयुक्तस्यापि कण्टको लगति, आदिशब्दात् विषमे वा पथि यथा गच्छन्नुपयुक्तोऽपि कदाचित् प्रस्खलति कृतपरिश्रमोऽपि यथा नदीप्रवाहवेगेन देशान्तरं प्राप्यते, सुशिक्षितोऽपि यथा कदाचित् खगेन लाञ्छितो भवति तथा कण्टकादिस्थानीये संयमेऽतिगहनोत्पादनैषणारूपे ज्ञानादिरूपे वा यत मानस्यापि कस्यचित् श्रमणस्य 'अवसं' अवशम् अवश्यं वा यथास्यात्तथा छलना भवत्येव, छलितश्च श्रमणोऽवश्यमालोचनां कुर्यात् । ततश्च संहननागमादिगुणैर्युक्ताय श्रमणाय स्थापनं परिहारतपःप्रायश्चित्तदानं कर्तव्यम्, तत्र च युक्ते उचिते प्रशस्ते द्रव्यक्षेत्रकालभावे तस्य श्रमणस्य निर्विघ्नतपःकर्मपरिपूर्तये व्युत्सर्गः कर्त्तव्यः, तन्निमित्तमाचार्यादयः कायोत्सर्ग कुर्युः, कायोत्सर्गे आचार्यादय एव वदेयुः-“एयस्स साहुस्स निरुवसग्गनिमित्तं ठामि काउस्सग्गं जाववोसिरामि" इति । एतस्य साधोनिरुपसर्गनिमित्तं तिष्ठामि (करोमि) कायोत्सर्ग यावत् व्युत्सृजामि, इति च्छाया, तदनन्तरं चतुर्विंशतिस्तवमनुप्रेक्ष्य मनसि चतुर्वारमनुचिन्त्य-'नमो अरिहंताणं' इति प्रकटं पठित्वा चतुर्विंशतिस्तवं मुखेनोच्चार्य वदति यत्-अयं तावत् श्रमण आत्मविशुद्धिकारकः परिहारतपः प्रतिपद्यते तस्माद् अद्यप्रभृति अयं न किञ्चिद् युष्मान् वक्ष्यति यथा-परिहारकः साधुभिः सह सूत्रार्थयोः शरीरवृत्तान्तस्य वा प्रतिप्रच्छनं परिपृच्छादिकं संभाषणरूपमालपनं वन्दनक च न करिष्यतीति, भवन्तोऽपि एनं मा ब्रुवन्तु, श्रमणा अनेन परिहारकेण सह संभाषणं न कुर्युः । एवमन्येष्वपि कार्येषु विज्ञेयम् , यथा-पूर्वाधीतश्रुतपरिवर्तनं, कालग्रहणनिमित्तमुत्थापनम् , रात्रौ शयनादुत्थाय वन्दनकम् , श्लेष्म-कायिकी-संज्ञाभूमि-मात्रकाणां समर्पणं, वस्नादेरुपकरणस्य प्रत्युपेक्षणम् , भिक्षार्थ विचारादौ च गमनं कुर्वतः संघाटकरूपसाधुद्वयेन सह मिलनम् , भक्तस्य पानस्य वा दानम् , एकमण्डल्यां वा संभूय भोजनं चेत्यादि तस्य परिहारकस्य भवद्भिर्न कर्त्तव्यम् । इत्थं तावदात्मार्थ चिन्तयतोऽस्य ध्यानस्य परिहारतपसश्च व्याघातो भवद्भिर्न विधातव्य इति ॥ ३॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्यावचूरी उ०-४ सू० ३२-३३ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थोनां नद्युत्तरणविधिः ११५ पूर्व 'छिन्नावाएमु पंथेसु' इति वचनेन मार्गस्य प्रस्तुतत्वात् सम्प्रति मार्गे नदी भवति तद्विषये विधि प्रदशयति-'नो कप्पइ' इत्यादि । सूत्रम्--नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाओ पंच महानईओ उद्दिद्याओ गणियाओ बंजियाओ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरितए वा, तंजहा-गंगा १, जउणा २, सरऊ ३, कोसिया ४, मही ५ ॥ सू० ३२ ॥ छाया-नो कल्पते निम्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा इमाः पञ्च महानद्यः उहिष्टाः गणिताः व्यञ्जिताः अन्तो मासस्य द्विकृत्वो वा त्रिकृत्वो वा उत्तरीतुं वा संतरीतुं वा, तद्यथा-गङ्गा १, यमुना २, सरयूः ३, कोशिका ५, मही ५॥ सू० ३२ ॥ चूर्णी-'नो कप्पई' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा इमा वक्ष्यमाणाः प्रत्यक्षासन्नाः प्रसिद्धाः पञ्च-पञ्चसंख्यकाः महानद्यः विशालप्रवाहवत्त्वात् सततजलसम्भृतत्वाच्च महानद्यः उद्दिष्टाः महानदीत्वेन सामान्यतोऽभिहिताः, गणिताः विशालप्रवाहवत्त्वेन शेषनदीषु गणनाविषयीभूताः, व्यञ्जिताः स्वस्वप्रसिद्धनाम्ना व्यक्तीभूताः, एता महानद्यः अन्तो मासस्य एकमासस्य मध्ये द्विःकृत्वो वा द्विवारम् , त्रिःकृत्वो वा उत्कृष्टेन वारत्रयम् उत्तरीतुं वा पादाभ्यां तरीत्वा पारं गन्तुं वा संतरीतुं वा नावादिना पारं गन्तुं वा न कल्पते निर्ग्रन्थनिम्रन्थीनामिति । कास्ता महानद्यः ? इति तासां नामान्याह-'तं जहा' तथयथागङ्गा १, यमुना २, सरयू: ३, कोशिका ४, मही ५ इत्येताः पञ्च नदीः उत्तरीतुं वा संतरीतुं वा निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां द्वित्रिवारं न कल्पते, अनेनायातम् कारणे मासमध्ये एकवारं तरीतुं कल्पते इति भावः। उपलक्षणात् सिन्धुब्रह्मपुत्राद्यानामन्यासामपि महानदीनां ग्रहणं भवति तेन ता अपि द्वित्रिवारम् उत्तरीतुं वा संतरीतुं वा न कल्पते इत्यवसे यम् । ननु अन्यास्वपि महानदीषु विद्यमानासु सूत्रे गङ्गादीनां पञ्चानामेव नदीनां नामग्रहणं कथं कृतम् ! इति चेदुच्यते-येषु देशेषु गङ्गादयो महानद्यः प्रवहन्ति तेषु देशेषु मगधविहारादिषु पुराकाले विहारं कुर्वन्त आसन् ताश्च कदाचिदपि न शुष्यन्ति तस्माद् नित्यं विहारमार्गस्थितानां गङ्गादिपञ्चनदीनामेव सूत्रे ग्रहणं कृतमिति । नदीनामुत्तरणे संतरणे श्रमणानामात्मसंयमविराधनाऽवश्यम्भाविनी। तत्र आत्मविराधना पादादिनामुत्तरणे जलस्थितकण्टकप्रस्तरादिना पादौ विध्यतः, अगाधजले ब्रुडनं वा स्यात् , प्रवाहवेगेन देशान्तरं वा प्राप्यते, इत्यादि । संयमविराधना नावादिना संतरणे षट्कायविराधनाऽवश्यंभाविनी, तीर्थकृतामाज्ञाभङ्गादयो दोषा भवेयुः, अनेके वा प्रत्यपाया नावमारूढानां श्रमणानां भवन्ति, तथाहि-संतरणार्थिनं श्रमणं ज्ञात्वा नाविकोऽनुकम्पया तदर्थं नावं स्थलादुदके, उदकात्तीरस्थले प्रक्षिपेत् , नावाभ्यन्तरस्थं जलं बहिः प्रक्षिपेत् , पूर्व वा ये नावमारूढास्तान् उदके पूर्वतटे वा अवतार्य श्रमणान् नाव Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ बृहत्कल्पसूत्रे " मारोहयेत् तेनावतारिता जनाः प्रद्वेषं कुर्युः, श्रमणा उत्तरिष्यन्तीति कृत्वा संप्रस्थितां नावं पुनरावर्त्तयेत्, श्रमणान् वाऽवलोक्य परतटाद् नावमानयेत् तत्र ये जनास्तावद् नावमारूढा अपि जलमध्ये पूर्वतटे वा अवतारितास्ते नाविकं प्रति श्रमणान् प्रति वा प्रद्वेषमावहन्तोऽधिकरणं वा कुर्युः, जले तटे वा तिष्ठन्तस्ते अकायहरितकायादीनां विराधनां कुर्वन्ति, इत्यादयोsनेके दोषाः श्रमणानां संपद्यन्ते तस्माद् भगवता कारणं विना नघुत्तरणं श्रमणानां निषिद्धमिति ॥ सू० ३२ ॥ पूर्वसूत्रे गङ्गादिपञ्चनदीनां मासमध्ये विशेषोत्तरणेऽपवादसूत्रमाह - ' अह पुण' इत्यादि । सूत्रम् - अह पुण एवं जाणिज्जा एरवई कुणालाए जत्थ चक्किया एगं पायं जले किच्चा एग पायं थले किच्चा एवं से कप्पइ अंतो मासस्स दुक्खत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्त वा संतरितए वा, एवं नो चक्किया एवं णं नो कप्पड़ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरितए वा संतरितए वा ॥ सू० ३३ ॥ छाया -- अथ पुनरेवं जानीयात् - पेरावती कुणालायाः यत्र शक्नुयात् एकं पादं जले कृत्वा एकं पादं स्थले कृत्वा एवं खलु कल्पते अन्तो मासस्य द्विःकृत्वो वा त्रिः कृत्वो वा उत्तरीतुं वा संतरीतुं वा एवं नो शक्नुयात् एवं खलु नो कल्पते अन्तो मासस्य द्विकृत्वो वा त्रिःकृत्वो वा उत्तरीतुं वा संतरीतुं वा ॥ सू० ३३ ॥ चूर्णी - 'अह पुण' इति । अथ - यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या जानीयात् ऐरावती नाम नदी या कुणालाया नगर्याः समीपे जङ्घार्द्धप्रमाणेन उद्वेधेन प्रवहति तस्याम् एतादृश्यामन्यस्यां वा नद्याम् कस्यामित्याह - ' जत्थ' इति यत्र ' चक्किया' इति शक्नुयात् एकं पादं जले कृत्वा जले स्थापयित्वा एकं पादं स्थळे - जलोपरि कृत्वा एवं णं एवं खलु यत्रोत्तरीतुं शक्नुयात् तत्र तादृश्यां नद्यां कल्पते निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां अन्तो मासस्य मासमध्ये द्विः कृत्वो वा द्विवारम् त्रिः कृत्व वा त्रिवारम् उत्तरीतुं वा उल्लङ्घयितुं पारं गन्तुमित्यर्थः, संतरीतुं वा पुनः प्रत्यागन्तुं वा कल्पते इति सम्बन्धः, किन्तु यत्र तावद् एवम् उक्तरीत्या एकं पादं जले कृत्वा एकं पादं स्थले कृत्वा उत्तरीतुं 'नो चक्किया' इति नो शक्नुयात् एवम् एतादृश्यां परिस्थितौ पूर्वोक्तरीत्या उत्तरणानुपाये खलु नो कल्पते श्रमणश्रमणीनाम् अन्तो मासस्य मासाभ्यन्तरे द्विः कृत्वो वा त्रिः कृत्वो वा उत्तरीतुं वा संतरोतुं वेति । अत्रदं बोध्यम् - ऐरावती खलु सा नदी या कुणालानगर्याः समीपेऽर्द्धयोजनविस्तीर्णा वहति सा चोद्वेधेन जङ्घार्द्धप्रमाणा वहति, तस्यां जलस्थलयोः पादकरणेन उत्तरीतुं शक्यते, स्थलपदेनात्र जलोपरिभागस्य ग्रहणं भवति यस्मात् एकं पादं जलबहिर्भागे उपरि आकाशप्रदेशे कर्त्तुं शक्यते इति, या वा इदृशी अन्यापि नदी भवेत्तस्या - मप्येवंरीत्या उत्तरीतुं कल्पते । यत् पूर्वोक्तासु महानदीषु उद्वेधाधिक्येन एवं विधिना उत्तरीतुं द्वित्रिवारं सन्तरणं निषिद्धम्, सम्प्रति नदी - Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्यावचूरी उ० ४ सू० ३४-३६ तृणादिमयोपाश्रय निवासविधिः ११७ न शक्यतेऽतस्तत्रोत्तरोतुं निषिद्धम् । तत्र ऋतुबद्धे काले मासकल्पे अपूर्णे वैयावृत्त्यादि - कारणे सति यतनया मासमध्ये द्वित्रिकृत्वो गन्तुमागन्तुं कल्पते किन्तु स पूर्वोक्त उदकलेपो वर्षमध्ये नववारं न भवेदिति विवेकः कर्त्तव्यः यतो वर्षमध्ये नववारोदकलेपकरणेन निर्ग्रन्थः शबलदोषभाग् भवतीति बोध्यम् ॥ सू० ३३ ॥ पूर्वं श्रमणानामध्वनि विधिः प्रतिपादितः सम्प्रति वसतिविषयविधिं प्रतिपादयितुमाह - ' से तणे वा' इत्यादि । सूत्रम् - से तणे वा तणपुंजेसु वा पलालेसु वा पलालपुंजेसु वा अप्पंडेसु अप्पपासु अप्पates अप्पहरिए अप्पुस्से अप्पुत्तिंग - पणग- दगमट्टिय - मक्कडगसंताणगे अहे सवणमायार नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उबसर हेमंत गम्हासु वत्थए । सू० ३४ ॥ छाया - अथ तृणेषु वा तृणपुञ्जेषु वा पलालेषु वा पलालपुञ्जेषु वा अल्पाण्डेषु अल्पप्राणेषु अल्पबीजेसु अल्पहरितेषु अल्पावश्यायेषु अल्पोत्तिङ्ग-पनक- दकमृत्तिका-मर्कटसन्तानकेषु अधः श्रवणमात्रया नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा तथाप्रकारे उपाश्रये हेमन्तग्रीष्मेषु वस्तुम् ॥ सू० ३४॥ चूर्णी - ' से तणे वा' इति । 'से' इति अथ तृणेषु वा शुष्कघासादिषु, तृणपुञ्जेषु वा शुष्कवासादिसमुदायेषु, पलालेषु वा - शाल्यादिपलालेषु, पलालपुञ्जेषु वा शाल्यादिपलाल समूहेषु, कीदृशेषु तेषु ? इत्याह- अल्पाण्डेषु अल्पशब्दस्यात्राभावार्थकतया पिपीलिकादीनामण्डकादिरहितेषु, अल्पप्राणेषु - द्वीन्द्रियादिप्राणिवर्जितेषु, अल्पबीजेषु - अनङ्कुरितशाल्यादिबीजरहितेषु, अल्पहरितेषु-अङ्कुरितोद्भिन्नबीजरूपहरितकायवर्जितेषु, अल्पावश्यायेषु - अवश्यायो हिमकणस्तद्रहितेषु, अल्पोत्तिङ्ग - पनक - दकमृत्तिका - मर्कटसन्तानकेषु तत्र उत्तिङ्गः - कीटिकानगरम् पनकःपञ्चवर्णः साङ्कुरोऽनङ्कुरो वाऽनन्तवनस्पतिकाय विशेषलक्षण: - लीलण - फूलण' इति भाषाप्रसिद्धः, दकमृत्तिका - सचित्तो मिश्री वा कर्दमः, मर्कटः कोलिकलक्षणः 'मकडी' इति भाषाप्रसिद्धः, तेषां सन्तानकम् जालकम् तद्रहितेषु अपि तृणादिषु इति पूर्वेण सम्बन्धः, अधः श्रवणमात्रया सूत्रे आर्षत्वात्पञ्चम्यर्थे तृतीया तेन श्रवणमात्रात् कर्णद्वयप्रमाणादधस्ताद् वर्त्तमानेषु तृणादिषु सत्सु कर्णप्रमाणादधो यत्र छादनतृणादीनि भवन्तीत्यर्थः तथाप्रकारे तथाविधे उपाश्रये नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा हेमन्तग्रीष्मेषु - हेमन्तादिग्रीष्मपर्यन्तेषु ऋतुबद्धेषु अष्टसु मासेषु वस्तुम्–अवस्थातुं न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः, तथा च अण्ड - प्राण - बीज - हस्तिकाया-वश्यायोत्तिङ्गादिसचित्तवत्तुवर्जितत्वात् शुद्धेऽपि उपाश्रये यदि मस्तकादधस्तात् आच्छादनतृणादीनि भवेयुस्तदा तस्मिन्नुपाश्रये ऋतुबद्धकालेषु निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वस्तुं न भावः ॥ सु० ३४ ॥ " Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ बृहत्कल्पसूत्रे पूर्व श्रवणादधच्छादनतृणादियुक्ते उपाश्रये निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वासो निषिद्धः, सम्प्रति तद्वैपरीत्येन श्रवणापरिच्छादनतृणादियुक्ते उपाश्रये वासविधि प्रतिपादयितुमाह-'से तणेसु वा' इत्यादि । सूत्रम्--से तणेसु वा जाव-संताणएसु उप्पिं सवणमायाए कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए हेमंतगिम्हासु वत्थए ॥ सू० ३५॥ छाया-अथ तृणेषु वा यावत् सन्तानकेषु उपरि श्रवणमात्रया कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा तथाप्रकारे उपाश्रये हेमन्तग्रीष्मेषु वस्तुम् ॥ सू० ३५॥ __ चूर्णी-'से तणेसु वा' इति । 'से' अथ-तृणेषु वा इति-तृण-तृणपुञ्ज-पलालपलालपुजेषु अण्ड-प्राण-बीज-हरिता-ऽवश्यायो-त्तिङ्ग-पनक-दकमृत्तिका-मर्कटसन्तानवर्जितेषु यदि 'उप्पिं सवणमायाए' उपरि श्रवणमात्रया-कर्णद्वयोपरि छादनतृणादीनि भवेयुस्तदा कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा तथाप्रकारे-तथाविधे उपाश्रये हेमन्तग्रीष्मेषु-ऋतुबद्धकालेषु हेमन्तादिग्रीष्मपर्यन्तेषु अष्टसु मासेषु वस्तुं कल्पते ।। सू० ३५ ॥ पूर्व श्रमणानाम् ऋतुबद्धकालेषु उपाश्रयविशेषे वासस्य विधि-निषेधौ प्रतिपादितौ, सम्प्रति तेषामेव वर्षावासे उपाश्रयविशेषे विधि-निषेधौ प्रतिपादयितुं प्रथमं निषेधसूत्रमाह'से तणेसु वा' इत्यादि । सूत्रम्-से तणेसु वा जाव संताणएसु अहे रयणिमुक्कमउडेसु नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उबस्सए वासावासं वत्थए । सू० ३६॥ छाया - अथ तृणेषु वा यावत् सन्तानकेषु अधो रत्निमुक्तमुकुटेषु नो कल्पते निम्रस्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा तथाप्रकारे उपाश्रये वर्षावासे वस्तुम् ॥सू० ३६॥ चूर्णी -'से तणेसु वा' इति । पूर्वोक्तेषु तृणादिषु अण्डादिवर्जितेषु सत्स्वपि 'अहेरयणिमुक्कमउडेसु' अधोरत्नमुक्तमुकुटेषु,-सूत्रे पञ्चम्यर्थे सप्तमी, तेन-अघोरनिमुक्तमुकुटात् रत्निभ्यां हस्ताभ्यां मुक्ताभ्याम् विष्कम्भतया उच्छ्रिताभ्यां निर्मितः मुकुटः अञ्जलिमुकुलितोच्छूितबाहुद्वयरूपः स रनिमुक्तमुकुटः, मुकुट इति कोऽर्थः ! उक्तञ्च "मांडो पुण दोरयणी-पमाणओ होइ हु मुणेयव्यो" मुकुटः पुनरित्निप्रमाणकः संयोजितरत्निद्वयप्रमाणवान् भवति । मस्तकोपरि संयोजितरत्नद्वयस्थापनं मुकुटाकारत्वेन मुकुट इति कथितम् । तस्मात् एतावत्प्रमाणात् अधः नीचम् आच्छादनतृणादि भवति, तत्रस्थितस्य साधोर्वन्दनादिसमये ऊर्ध्वप्रसारितबाहुद्दयमुकुलिताऽञ्जलिना आच्छादनतृणादिकं स्पृष्टं भवेत् तेन न सम्यग् वन्दनादिकं संपद्यते आछादनतृणादेर्मस्तकस्य चान्तराले एतावत्प्रमाणमन्तरमावश्यकं येन वन्दनादि सम्यक् संपद्यते, एतावत्प्रमाणादधोवा Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिमायावचूरी उ०४ सू० ३७ चतुर्थीद्देशकसमाप्तिः ११९ च्छादनतृणादि भवेत् तादृशेषु तृणादिषु सत्सु नो कल्पते निग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां तथाप्रकारे उपाश्रये वर्षावासे चातुर्मास्यरूपे काले वस्तुं न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः ॥ सू०३६॥ ___ पूर्वम् उपाश्रयविशेषे वर्षावासे वासनिषेधः प्रतिपादितः, सम्प्रति तद्वैपरीत्येन उपाश्रयविशेषे वर्षावासे वासविधिमाह-'से तणेसु वा' इत्यादि । सूत्रम्-से तणेसु वा जाव संताणएसु वा उप्पि रयणिमुक्कमउडेसु कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए वासावासं वत्थए ॥ सू० ३७॥ ॥ कप्पस्स चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥४॥ छाया-अथ तृणेषु वा यावत् सन्तानकेषु उपरि रत्निमुक्तमुकुटेषु कल्पते निम्रन्थानां वा निग्रन्थीनां पा तथाप्रकारे उपाश्रये वर्षावासे वस्तुम् ॥ सू० ॥ ३७॥ . कल्पस्य चतुर्थ उदेशः समाप्तः ॥४॥ चूर्णी-'से तणेसु वा' इति । अथ पूर्वोक्तस्वरूपेषु तृणादिषु अण्डादि वर्जितेषु सत्सु पुनः 'उप्पिरयणिमुक्कमउडेसु' उपरि रत्निमुक्तमुकुटेषु, अत्रापि पञ्चम्यर्थे सप्तमी बोध्या तेन रनिमुक्तमुकुटात् पूर्वोक्तस्वरूपाद् उपरि आच्छादनतृणादि भवेत् कल्पते तथाविधे उपाश्रये निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा वर्षावासे वस्तुमिति ॥ सू० ३७ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनाचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि- जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालव्रतिविरचिताया "बृहत्कल्पसूत्रस्य" चूर्णि-भाष्या-ऽवचूरीरूपायां व्याख्यायां चतुथोद्देशकः समाप्तः ॥४॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोद्देशकः प्रारभ्यतेव्याख्यातश्चतुर्थो देशकः, सम्प्रति पञ्चमः प्रारभ्यते, तत्र चतुर्थो देशकान्तिमसूत्रेण पञ्चमोदेशकादिस्त्रेण कः सम्बन्धः ? इत्यत्राह भाष्यकारः-'तणमाइ०' इत्यादि । भाष्यम्--तणमाइवसहिवासे, विही निसेहो य अंतिमे वुत्तो । होइ जइ तत्थ देवो, देवहियारोऽत्थ भणियव्यो ॥ १॥ छाया-तृणादिवसतिवासे, विधिनिषेधश्च अन्तिमे प्रोक्तः । . भवति यदि तत्र देवः, देवाधिकारोऽत्र भणितव्यः ॥१॥ अवचूरी-'तणमाइ' इति । अन्तिमे चतुथोद्देशकस्यान्तिमे भागे सूत्रचतुष्टये तृणादिवसतिवासे तृणादिमयोपाश्रयवासे विधिनिषेधश्च प्रोक्तः । तत्र तादृश्यां वसतौ यदि देवः गुह्यकादिदेवो देवी वा भवति-वसति अतः अत्र पञ्चमोद्देशकस्यादिमे सूत्रचतुष्टये देवाधिकारो भणितव्यः-कथयितव्यो भवतीति ॥ १ ॥ ___ अनेन सम्बन्धेन सम्प्रति तृणादिमयवसतिवासे कदाचित्-देवदेवीनिवासप्रसङ्गात् निर्ग्रन्थमधिकृत्य देवकृतोपसर्गविषयकमिदमादिमं सूत्रमाह-'देवे य इत्थिरूवं' इत्यादि । सूत्रम्-देवे य इत्थिरूवं विउवित्ता निग्गंथं परिग्गाहिज्जा, तं च निग्गंथे साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयं ॥ सू०१॥ ___ छाया-देवश्च स्त्रीरूपं विकुळ निर्ग्रन्थ प्रतिगृह्णीयात् , तच निर्ग्रन्थः स्वादयेत् मैथुनप्रतिसेवनप्राप्त आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्धातिकम् ॥ २०१॥ ___ चूर्णी-'देवे य' इति । तृणादिमयोपाश्रये वर्तमानः कश्चित् देवः-व्यन्तरादिः स्त्रीरूपं-रमणीयस्त्रीरूपं विकुर्व्य स्वस्य विकुर्वणाशक्त्या निष्पाद्य यदि निम्रन्थं-तत्रस्थितं साधु प्रतिगृह्णीयात् स्वशरीरभुजादिभिरालिङ्गेत् तच्च प्रतिग्रहणम्-स्त्र्यालिङ्गनं यदि निम्रन्थः श्रमण: अनुमोदयेत् 'सुन्दरमिदं ललनालिङ्गनम्' इत्येवम् अनुमोदयेत् तदा स निर्ग्रन्थः मैथुनप्रतिसेवनप्राप्तः अनासेवितमैथुनोऽपि मैथुनसेवनदोषापन्नः सन् आपद्यते-प्राप्नोति, किमित्याह-चातुमासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकं चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम् ॥ सू० १ ॥ पूर्व निग्रन्थमाश्रित्य स्त्रीरूपेण देवकृतोपसर्गः प्रतिपादितः, सम्प्रति निम्रन्थीमाश्रित्य पुरुषरूपेण देवकृतोपसर्ग प्रतिपादयितुमाह-'देवे य पुरिसरूवं' इत्यादि । सूत्रम्-देवे य पुरिसरूवं विउव्वित्ता निग्गंथि पडिग्गाहिज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं अणुग्घाइयं ॥ सू० २॥ ___ छाया-देवश्च पुरुषरूपं विकुयं निर्ग्रन्थीं प्रतिगृह्णीयात् , तच्च निर्ग्रन्थी स्वादयेत् मैथुनप्रतिसेवनप्राप्ता आपद्यते चातुर्मासिकं अनुदातिकम् ॥ सू० २ ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णि भाष्यावचूरी उ० ५ ० २-५ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां देवदेवीकृतोपसर्गवर्णनम् १२१ चूर्णी - 'देवे य पुरिसरूवं' इति । देवश्च तृणादिमयोपाश्रये निवसन् कश्चिद्देवो व्यन्तरादिः पुरुषरूपं - रमणीयपुरुषाकृर्ति विकुर्व्य स्वविकुर्वणाशक्त्या निष्पाद्य निर्ग्रन्थीं तत्रोपा वसन्तीं साध्वीं प्रतिगृह्णीयात् स्वशरीरबाहादिना समालिङ्गेत् तच्च प्रतिग्रहणम् - पुरुषालिङ्गनं यदि निर्ग्रन्थी स्वादयेत् -'सुखदोऽयं पुरुषशरीरस्पर्शः' इत्येवमनुमोदयेत् तदा सा निर्ग्रन्थी मैथुनप्रति - सेवनप्राप्ता अनासेवितमैथुनाऽपि समापन्नमैथुन सेवनदोषा सती आपद्यते - प्राप्नोति चातुर्मासिकं अनुद्घातिकम् चतुर्गुरुकरूपं प्रायश्चित्तम् निर्ग्रन्थीनां परिहारतपो न भवतीति कृत्वा 'परिहार द्वाणं ' इतिपदं निर्ग्रन्थीसूत्रे न प्रोक्तमिति ॥ सू० २ ॥ पूर्व निर्ग्रन्थीमाश्रित्य पुरुषरूपेण देवकृतोपसर्गों वर्णितः, सम्प्रति निर्ग्रन्थमाश्रित्य स्त्रीरूपेण देवीकृतोपसर्गं प्रतिपादयितुमाह - 'देवी य इस्थिरूवं' इत्यादि । सूत्रम् - देवी य इथिरूवं विउव्वित्ता निग्गंथं पडिग्गाहिज्जा तं च निग्गंथे साइज्जेज्जा, मेहुणपडि सेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घा -- इयं ॥ सू० ॥ ३ ॥ छाया - देवी च स्त्रीरूपं विकुर्व्य निर्ग्रन्थं प्रतिगृह्णीयात्, तच्च निर्ग्रन्थः स्वादयेत् मैथुन प्रतिसेवनप्राप्तः आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् ॥सू० ३॥ " चूर्णी - 'देवी य इथिरूवं' इति । देवी च स्त्रीरूपं - ललितस्त्रीरूपं विकुर्व्य स्ववै - क्रियशक्त्या संपाद्य निर्ग्रन्थं प्रतिगृह्णीयात् स्वशरीरबाहादिना आलिङ्गेत्, तच्च प्रतिग्रहणं स्त्रीशरीरालिङ्गनं स्वादयेत्-‘मनोमोदजनकोऽयं स्त्रीस्पर्शः' इत्येवमनुमोदयेत् तदा स निर्ग्रन्थः मैथुनप्रतिसेवनप्राप्तः-अनासेवितमैथुनोऽपि मैथुन सेवनजन्यदोषसंपन्नः सन् आपद्यते - प्राप्नोति चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् - चतुर्गुरुरूपं प्रायश्चित्तम् ॥ सू० ॥ ३ ॥ पूर्व निर्ब्रन्थमाश्रित्य स्त्रीरूपेण देवीकृतोपसर्गो वर्णितः, सम्प्रति निर्ग्रन्थीमाश्रित्य पुरुष - रूपेण देवीकृतोपसर्गं प्रतिपादयितुमाह - 'देवी य पुरिसरूवं' इत्यादि । सूत्रम् -- देवीय पुरिसख्वं विउव्वित्ता निग्गथिं पडिग्गाहिज्जा तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडि सेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासि अणुग्धायं || सू० ४ || छाया - देवी च पुरुषरूपं विकुर्व्य निर्ग्रन्थीं प्रतिगृह्णीयात् तच्च निर्ग्रन्थी स्वादयेत् मैथुनप्रति सेवनप्राप्ता आपद्यते चातुर्मासिकं अनुद्घातिकम् ॥ सु० ४॥ , चूर्णी - देवी य पुरिसरूवं' इति । देवी च पुरुषरूपं पुरुषाकृति विकुर्व्य स्ववैक्रियशक्त्या नवयौवनसंपन्नां संपाद्य निर्ग्रन्थीं तत्रोपाश्रयस्थितां साध्वीं प्रतिगृह्णीयात् - स्वशरीरभुजादिना समालिङ्गेत्, तच्च प्रतिग्रहणं समालिङ्गनं निग्रन्थी साध्वी स्वादयेत् - 'सुखजनकोऽयं पुरुषस्पर्शः' इत्येवमनुमोदयेत् तदा सा मैथुन प्रतिसेवनप्राप्ता - अनासेवितमैथुनाऽपि मैथुनसेवनजन्यदोषसंपन्ना सती आपद्यते - प्राप्नोति चातुर्मासिकम् अनुद्घातिकं चतुर्गुरुकरूपं प्रायश्चित्तम् ॥ सू० ४ ॥ १६ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ बृहत्कल्पसूत्रे पूर्व मैथुन प्रतिसेवनप्राप्तस्य प्रायश्चित्तं प्रोक्तम्, तत्प्रायश्चित्ते न्यूनाधिकाऽऽरोपणायां दीयमानायां निर्ग्रन्थोऽधिकरणं कृत्वाऽन्यं गणं प्रविशेत्तदा तैरन्यगणस्थविरैः किं कर्त्तव्यमिति तद्विधिमाह - ' भिक्खू य' इत्यादि । सूत्रम् - भिक्खू य अहिगरणं कट्टु तं अहिगरणं अविओसवित्ता इच्छिज्जा अन्नं गणं उबसंपज्जित्ता णं विहरिए, कप्पर तस्स पंचराईदियं छेयं कटु परिनिव्वबिय परिनिव्वविय दोच्चपि तमेव गणं पडिणिज्जाएयव्वे सिया जहा वा तस्स गणस्स पत्तियं सिया || सू० ५ ॥ छाया - भिक्षुश्च अधिकरणं कृत्वा तदधिकरणम् अव्यवशमय्य इच्छेद् अन्यं गणम् उपसंपद्य विहर्तुम्, कल्पते तस्य पञ्चरात्रिन्दिवं छेदं कृत्वा परिनिर्वाण्य परिनिर्वापय द्वितीयमपि तमेव गणं पडिनिर्यातव्यः स्यात् यथा वा तस्य गणस्य प्रीतिकं ( प्रत्ययिकं ) स्यात् ॥ सू० ५॥ चूर्णी - ' भिक्खू य' इति । भिक्षुश्च श्रमणः अधिकरणम् - प्रायश्चित्तदाने न्यूनाधिकतायां कलहं कृत्वा तद् अधिकरणम् अव्यवशमय्य क्षमापनादिना शान्तं चाकृत्वा इच्छेत् अन्यं गणं गणान्तरम् उपसंपद्य-स्वीकृत्य विहर्तुम् वाञ्छेत् अन्यं गणं प्रविशेदिति भावः, एवं स्थितौ कल्पते अन्यगणस्थविराणां तस्य गच्छान्तरादागतस्य भिक्षोः पञ्चरात्रिन्दिवम् - पञ्चाहोरात्रकं छेदं कृत्वा - छेदनामकम् प्रायश्चित्तं दत्त्वा परिनिर्वाप्य परिनिर्वाप्य क्रोधादिकषायानलसंतप्तं तं मृदुमधुरोपदेशवचनसलिलसेचनेन तत्कषायानलं भूयो भूयो विध्यापयित्वा तं सर्वथा शीतलं संपाद्य द्वितीयमंपि द्वितीयवारमपि पुनरपि तमेव गणं यस्माद् गणाद् आगतस्तमेव तदीयगणं प्रति स श्रमणः परिनिर्यातव्यः प्रापयितव्यः नेतव्यः स्यात् । किमर्थमित्याह-यथा वा - येन कारणेन तस्य यस्माद् गच्छद् निर्गतस्तस्य तदीयगच्छस्य 'पत्तियं' प्रीतिकं प्रसन्नता, प्रत्ययिकं वा प्रत्ययो विश्वासः तदेव प्रत्ययिकं वैश्वासिकं वस्तु स्यात् तथा विधेयमिति भावः ॥ सू० ५ ॥ पूर्वसूत्रे अधिकरणस्य प्ररूपितत्वेन तदधिकरणं कृत्वाऽनुपशमं प्राप्तः श्रमणो गच्छान्तरं गच्छन् कथञ्चिदुपशमितः पुनस्तमेव गच्छं प्रत्यागच्छन् मार्गे संस्तरणेऽसंस्तरणे वा कदाचिद् आहारं गृह्णीयादतो रात्रिभोजननिषेधकं सूत्रचतुष्टयं व्याख्यातुं तावत् प्रथमं सूत्रं व्याचष्टे - ' भिक्खू य' इत्यादि । सूत्रम् - भिक्खू य उग्गयवित्तिए अणत्थमियसंकप्पे संथडिए णिव्वितिगिच्छे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्ता आहारं आहारेमाणे अह पच्छा जाणिज्जा - अणुग्गए सूरिए, अत्थमिए वा जं च आसयंसि जं च पाणिसि जं च पड़िग्गहे तं विचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमर, तं अप्पणा Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिमायावचूरो उ० ५ ० ६-८ उद्गतवृत्तिकभिक्षोराहारविधिः १२३ माणे असं वा दलमाणे राइभोयणपडि सेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहाराणं अणुइयं || सू० ६-१ ॥ छाया - भिक्षुश्च उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितसंकल्पः संस्तृतो निर्विचिकित्सः अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्य आहारम् अहरन् अथ पश्वादेवं जानीयात् - अनुगतः सूर्योऽस्तमितो वा स यच्च आस्ये, यच्च पाणौ यच्च प्रतिग्रहे तद् विविश्ञ्चन् वा विशोधयन् वा नो अतिक्रामति, तद् आत्मना भुजानः अन्येभ्यो वा ददानो रात्रिभो जनप्रतिसेवनप्राप्तः आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् ॥ ०६ ॥ चूर्णी - ' भिक्खू य' इति । भिक्षुश्च, कीदृशः स उद्गतवृत्तिकः, उगते उदयं प्राप्ते सूर्ये वृत्तिः संयमयात्रा निर्वाहक भिक्षाकरणादिव्यवहारो यस्य स उद्गतवृत्तिकः, सूयोद्गमनान्तरमेव आहारादिक्रियाकारकः, पुनश्च अनस्तमितसंकल्पः अनस्तमिते - अस्तमप्राप्ते सूर्ये सूर्यास्तमनात् प्रागेव संकल्पः आहारादिग्रहणनियमो यस्य स अनस्तमितसंकल्पः सूर्योदयानन्तरं सूर्यास्तगमनात्प्रागेव सूर्योपस्थितिकाले एवं आहारादिग्रहणनियमवान् इत्यर्थः, अत एव संस्तृतः समर्थः दिवसभोजननियमवान्, एतादृशो भिक्षुः - श्रमणः निर्विचिकित्सः निर्गता अपगता विचिकित्सा - संयमात्मकचित्तवृत्तिविशेषरूपा यस्मात् स निर्विचिकित्सः अन्यदीपादिज्योतिः प्रकाशादिकारणवशात् सूर्यउदयं प्राप्तः, नास्तं गतो वा सूर्यः इत्येवं निश्चयमापन्नः सन् अशनं वा ४ अशनादिचतुविधमाहारम् प्रतिगृह्य - आदाय आहारमाहरन् भुञ्जानः भोक्तुमारब्धः, अथ यदि पश्चात् तदनन्तरं भोजन प्रारम्भानन्तरं जानीयात् अनुगतः सूर्यः नोदयं प्राप्तः सूर्यः, वा अथवा अस्तमितो वा अस्तं प्राप्तो वा सूर्यः, इत्येवं निश्चिनुयात् जानीयात् तदा तादृश्यां परिस्थितौ स श्रमणः यच्च अशनादि आस्ये-मुखे कवलीकृत्य क्षिप्तं भवेत् यच्च अशनादिकं पाणौ - हस्ते मुखे प्रक्षेप्तुं गृहीतम्, यच्च अशनादि प्रतिग्रहे पात्रे स्थितं वर्तते तत् विविञ्चन् परिष्ठापयन् विशोधयन् पात्रं निर्लेप कुर्वन्नो अतिक्रमति तीर्थकृदाज्ञां नोल्लङ्घयति, सर्वथैव तथाविधाशनादि परिष्ठापयन् पात्रं च निर्लेपं कुर्वन् स श्रमण आराधको भवति न विराधक इति । यदि पुनः तद् अशनादिकम् आत्मना ना स्वयं भुञ्जानः आहरन्, तथा अन्येभ्यो वा श्रमणादिभ्यो ददानो भवेत् तदा अभुक्ततदाहारोऽपि रात्रिभोजनप्रतिसेवनप्राप्तः रात्रिभोजनदोषापन्नः सन् आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् चतुर्गुरुकरूपं प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीति ॥ सू० ६-१ ॥ पूर्वं संस्तृतस्य सूर्योदय सूर्यानस्तमितविषये निर्विचिकित्सितस्य - निःशङ्कस्याहारविधिरुक्तः, सम्प्रति पुनः संस्तृतस्यैव सूर्यानुगतास्तमितविषये विचिकित्सा समापन्नस्य - संशयापन्नस्य अशनादिविषये प्रायश्चित्तमाह – ' भिक्खू य' इत्यादि । सूत्रम् - भिक्खू य उग्गयबित्तिए अणत्थमियसंकप्पे संथडिए वितिमिच्छासमावन्ने असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्ता आहारं आहारे Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ बृहत्कल्पसूत्रे माणे जाव अन्नेसिं वा दलमाणे राइभोयणपडि सेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥ सू० ७-२ ॥ छाया -- भिक्षुश्च उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितसंकल्पः संस्तृतः विचिकित्सा समापन्नः अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्य आहारम् अहरन् यावत् अन्येभ्यो वा ददानः रात्रिभोजनप्रति सेवनप्राप्तः आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घा - तिकम् ॥ सू०७-२ ॥ चूर्णी - ' भिक्खू य' इति । भिक्षुश्च उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितसंकल्पः पूर्वोक्तस्वरूपः, संस्तृतः-समर्थः न तु ग्लानादिः स विचिकित्सासम्पन्नः 'किमुदितोऽनुदितो वा सूर्यः ?, यद्वा किमस्तं गतः सूर्योऽनस्तं गतो वा' इत्येवं संशयमारूढः सन् अशनं वा ४ - अशनादिचतुर्विधमाहारं प्रतिगृह्य-गृहस्थगृहादानीय आहारम् - तदानीतमाहारम् अहरन् भुञ्जानः 'जाव' इति यावत्, यावत्पदेन पूर्वोक्तः पाठोऽत्र संग्राह्यः तथाहि - 'अह पुच्छा' इत्यादि, अथ पश्चात् जानीयात् अनुगतः सूर्यः अस्तमितो वा, तदा स यच्च आस्ये - मुखे, यच्च पाणौ हस्ते, यच्च प्रतिग्रहे पात्रे वर्तते तद् विविञ्चन् - परिष्ठापयन् वा विशोधयन् मुखहस्तपात्रादिकं निर्लेपं कुर्वन् वा स नो अतिक्रामति भगवदाज्ञां नोल्लङ्घयति, यदि पुनः तद् अशनादि आत्मना - स्वयं भुञ्जानः, इत्येत्पर्यन्तः पाठः यावत्पदग्रायः, 'अन्नेसिं वा' इत्यादि, अन्येभ्यो वा ददानः स रात्रिभोजनप्रतिसेवनप्राप्तः रात्रिभोजनदोषापन्नः सन् आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् चतुर्गुरुकरूपं प्रायश्चित्तम् ॥ सू० ७-२ ॥ पूर्वं संस्तृतस्य विचिकित्सास मापन्नस्य प्रायश्चित्तं प्रोक्तम्, सम्प्रति असंस्तृतस्य निर्विचि - कित्सितस्य प्रायश्चित्तमाह-' भिक्खू य' इत्यादि । सूत्रम् - 'भिक्खू य उग्गयवित्तिए अणत्थमियसं कप्पे असंथडिए निव्वितिगिच्छे असणंव पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्ता आहारं आहारेमाणे जाव अन्नेसिं वा दलमाणे राइभोयणपडि सेवणप्पत्ते आवज्जइ चाउम्मासि परिहारट्ठाणं अणुग्धायं ॥ सू० ८-३॥ छाया - - भिक्षुश्च उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितसंकल्पः असंस्तृतः निर्विचिकित्सः अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्य आहारम् अहरन् यावत् अन्येभ्यो वा ददानः रात्रिभोजन प्रतिसेवनप्राप्तः आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्वातिकम् ।। सू० ८-३ ॥ चूर्णी - भिक्खू' इति । भिक्षुश्च उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितसंकल्पः दिवसमात्रभोजीत्यर्थः स असंस्तृतः--असमर्थः ग्लानत्वादियुक्तः अध्वविहारखिन्नः क्षपकः मासक्षमणादितपोयुक्तो वा निर्विचिकित्सः विचिकित्सारहितः -- सूर्योदय--सर्यानस्तमितरूपसंशयवर्जितः सूर्य उगतः Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूणि भाज्यावरी उ०-५ सू० ९-११ रात्रौ-उद्गालगिलनप्रायश्चित्तविधिः १२५ नास्तं गतो वा इत्येवं निश्चयवान् सन् अशनं वा ४ अशनादिचतुर्विधमाहारं प्रतिगृह्य तमाहारमाहरन् , इत्यादि शेषं सर्व पूर्वसूत्रवदेव व्याख्येयम् । सू० ८-३ ॥ पूर्वं असंस्तृतस्य निर्विचिकित्सितस्य प्रायश्चित्तमुक्तम् , सम्प्रति असंस्तृतस्यैव विचिकित्सासंपन्नस्य प्रायश्चित्तमाह- 'भिक्खू य' इत्यादि । सूत्रम्--भिक्खू य उग्गयवित्तिए अणथमियसंकप्पे असंथडिए वितिगिच्छासमावन्ने असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्ता आहारं आहारेमाणे जाव अन्नेसिं वा दलमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहार हाणं अणुग्घाइयं ॥ सू० ९-४॥ छाया--भिक्षुश्च उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितसंकल्पः असंस्तृतो विचिकित्सासमापन्नः अशनं वा पान खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्या आहारं आहरन् यावत् अन्येभ्यो वा ददानः रात्रिभोजनप्रतिसेवनप्राप्तः आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् ॥ सू० ९-४ ॥ ___चूर्णी--'भिक्खू य' इति । भिक्षुश्च उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितसंकल्पः असंस्तृतः असमर्थः-ग्लानो मासक्षपकः अध्वखिन्नो वा विचिकित्सासमापन्नः-सूर्यस्य उदयाऽस्तमितविषयकशङ्कासम्पन्नः अशनं वा ४ अशनादिचतुर्विधमाहारं प्रतिगृह्य तमाहारम् आहरन् , इत्यादि शेषं सर्वम् असंस्तृतस्य निर्विचिकित्सासूत्रवद् व्याख्येयमिति । अत्रेदमवधेयम्-प्रथमं सूत्रम्-निर्विचिकित्सं-संशयरहितं संस्तृतं-समर्थ श्रमणमधिकृत्य प्रतिपादितम् १ । द्वितीय सूत्रम्-विचिकित्सासमापन्नं-संशययुकं संस्तृतं-समर्थ श्रमणमधिकृत्य प्रोक्तम् २ । तृतीयं सूत्रम्-असंस्तृतम् -असमर्थ निर्विचिकित्सं-संशयरहितं श्रमणमधिकृत्य प्ररूपितम् ३ । चतुर्थे सूत्रम्--असंस्कृतम्--असमये विचिकित्सासमापन्नं-संशयापन्नं श्रमणमधिकृत्याभिहितम् ४ । इति चत्वारि सूत्राणि व्याख्यातानि ॥ सू० ९-४ ॥ पूर्व श्रमणानां रात्रिभोजनप्रतिसेवनप्राप्तौ प्रायश्चित्तं प्रतिपादितम् , सम्प्रति, रात्रिभोजनप्रस्तावादेव रात्रौ समागतोनालस्य गिलने प्रायश्चित्तं प्रतिपादयति-'इह खलु' इत्यादि । सूत्रम्-इह खलु निग्गंथस्स वा निग्गंथीए वा राओ वा वियाले वा सपाणे सभोयणे उग्गाले आगच्छेजा, तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ, तं उग्गिलित्ता पच्चोगिलमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं ॥ सू० १० ॥ ___ छाया--इह खलु निर्ग्रन्थस्य वा निर्ग्रन्थ्या वा रात्रौ वा विकाले वा सपानः सभोजनः उद्गालः आगच्छेत् तं विविञ्चन् वा विशोधयन् वा नो अतिक्रामति, तम् उद्गीर्य प्रत्यवगिलन् रात्रिभोजनप्रतिसेवनप्राप्त आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनु. द्घातिकम् ॥ सू० १०॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रे चूर्णी --' इह खळु' इति । इह खलु जिनप्रवचने ग्रामादौ वा वर्त्तमानस्य निर्ग्रन्थस्य वा निर्ग्रन्या वा रात्रौ वा विकाले सन्ध्याकाले रात्र्यन्ते वा यदि सपानः - पानकद्रव्यसहितः, सभोजनः भुक्तभोजनद्रव्यसहितः उद्गालः उत् ऊर्ध्वं मुखाभिमुखं गलत वातादिप्रकोपेन मुखे समागच्छतीति उद्गाल: जलमिश्रितरसीभूतपानभोजनद्रव्ययुक्त उद्गारः आगच्छेत्, तथा च यदि कदाचित् सिक्थवर्जितं केवलं किञ्चित् पानीयमुद्रारेण सह मुखे आगच्छेत्, कदाचित् केवलं कूरादिसिक्थं वा आगच्छेत्, कदाचित् तदुभयं वा आगच्छेत् तदा तम् उद्गालं विविश्चन् बहिः परिष्ठापयन् विशोधयन् वस्त्रादिना मुखशुद्धिं कुर्वन् स भिक्षुः नो-नैव अतिक्रामति तीर्थकराज्ञां नोल्लङ्घयति, एवं कुर्वन् भिक्षुराराधक एव नो विराधक इति भावः । किन्तु तं पानभोजनसहितमुद्गालम् उद्गीर्य तस्य उद्गीर्भं कृत्वा मुखे समाकृष्येत्यर्थः प्रत्यवगिलन् पुनः कण्ठादध उत्तारयन् स रात्रिभोजनप्रतिसेवनप्राप्तः अकृतरात्रिभोजनोऽपि रात्रिभोजनदोषापन्नः सन् आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकं चतुर्गुरुकरूपं प्रायश्चित्तमिति ॥ सू० १० ॥ શરદ पूर्वं श्रमणस्य रात्रौ समागतसपानसभोजनोद्गालस्य प्रत्यव गिलने प्रायश्चित्तमुक्तम्, सम्प्रति समागतस्य प्राणबीजादियुक्ताहारस्य किं कर्तव्यमिति तद्विधिमाह - 'निग्गंथस्स वा' इत्यादि । सूत्रम् - निग्गंथस्स वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविहस्स अंतो पडिग्र्हसि पाणाणि वा बीयाणि वा रए वा परियावज्जेज्जा तं च संचाes afiचित्त वा विसोहित्तए वा तं पुन्वामेव लाइय विसोहिय विसोहिय तओ संजयामे वा भुंजेज्ज वा पिबेज्ज वा तं च नो संचाएइ विर्गिचित्त वा विसोहित्तए वा तं नो अपणा भुंजिज्जा नो अन्नेसिं दावए एगंते बहुफासुए थंडिले पडिले हित्ता मज्जत्ता परिद्ववेयव्वेसिया ॥ सू० ११ ॥ छाया - निर्ग्रन्थस्य च गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रत्ययेन अनुप्रविष्टस्य अन्तः प्रतिग्रहे प्राणा वा बीजानि वा रजो वा पर्यापतेत्, तच्च शक्नोति विवेक्तुं वा विशोधयितुं वा, तत् पूर्वमेव लात्वा विशोध्य विशोध्य ततः संयत एव भुञ्जीत वा पिबेद् वा, तच्च मो शक्नोति विवेक्तुं वा विशोधयितुं वा तद् नो आत्मना भुञ्जीत, नो अन्येभ्यो दद्यात् एकान्ते बहुप्रासु स्थण्डिले प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य परिष्ठापयितव्यं स्यात् । चूर्णी - 'निग्गंथस्स' इति । निर्गन्थस्य श्रमणस्य गाथापतिकुलं - गृहस्थगृहं पिण्डपातप्रत्ययेन भिक्षा ग्रहणनिमित्तेन अनुप्रविष्टस्य गतस्य तत्र अन्तः प्रतिग्रहे पात्राभ्यन्तरे यदि प्राणा द्वीन्द्रियादयः, बीजानि वा वनस्पतिकायविशेषरूपाणि, रजो वा सचित्तधूली सचित्तपृथिवीकायविशेषः, अग्निकणः तेजस्कायो वा पर्यापतेत् आगच्छेत् तदा तच्च प्राणादिजातं यदि ‘संचाएइ' इति शक्नोति विवेक्तुम् - पृथकर्तुम्, विशोधयितुम् - सर्वथाप्पृथक्कर्तुम्, तथा तत् द्वीन्द्रिया Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिमायावचूरी उ०५ सू० प्राणादिपतिताहारकरणाकरणविधिः १२७ दिजीवं पूर्वमेव प्रथममेव लात्वा हस्तादिना गृहीत्वा प्रतिलेख्य प्रतिलेख्य सर्वथैव अपनीयापनीय पात्रमध्याद् निस्सार्य २, ततः तदनन्तरं संयत एव यतनया भुञ्जीत वा पिबेद् वा । यदि पुनः तच्च प्राणादि - द्वीन्द्रियादिजीवं 'नो संचाएइ' इति नो शक्नोति विवेक्तुं निस्सारयितुम् वा पृथक्कर्तुम्, विशोधयितुं वा विशेषतो दूरीकर्त्तुं यदि न शक्नोति तदा तत् द्वीन्द्रियादियुक्तं भक्तपानं नो आत्मना स्वयं भुञ्जीत नो वा अन्येभ्यः श्रमणादिभ्यो दद्यात् तर्हि किं कुर्यात् ? इत्याह-- तद् भक्तपानम् एकान्ते विजने बहुप्रासुके अत्यन्तप्राशुके अवश्यायोत्तङ्गादिरहिते स्थाने प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा सम्यग् निरीक्ष्य, प्रमृज्य रजोहरणेन प्रमार्जनं कृत्वा परिष्ठापयितव्यं स्यात् तस्य प्राणादिमिश्रितभक्तपानस्य परिष्ठापनं कर्त्तव्यं न तु स्वयं भोक्तव्यं नाप्यन्येभ्यो वा दातव्यमिति भावः ।। सू० ११ ॥ " " पूर्वमाहारसूत्रे प्राणपदेन त्रसानां, बीजपदेन वनस्पतिकायानां, रजोग्रहणेन पृथिव्यग्निकायानां, वायोः सर्वत्रान्तर्गतत्वेन वायुकायानां च ग्रहणं कृतमिति कायपञ्चकमुक्तम्, सम्प्रति अत्र सूत्रे षष्ठमकायमधिकृत्य भोजनविधि प्रतिपादयति- 'निग्गंथस्स य' इत्यादि । सूत्रम् - निग्गंथस्स य गाहावइकुलं पिंड वायपडियाए अणुप्प विट्ठस्स तो डिग्गहंसि दगे वा दगरए वा दगफुसिए वा परियावज्जेज्जा, से य उसिने भोजाए भोव्वे सिया से य सीए भोयणजाए तं नो अप्पणा भुंजिज्जा नो अन्नेसिं दाव, एगंते बहुफासुए थंडिले परिवेयव्वे सिया || सू० १२ ॥ छाया - निर्ग्रन्थस्य च गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रत्ययेन अनुप्रविष्टस्य अन्तः प्रतिग्रहे दकं वा दकरजो वा दकपृषद् वा पर्यापतेत् तच्च उष्ण भोजनजातं भोक्तव्यं स्यात्, अथ च शीतं भोजनजातं तत् नो आत्मना भुञ्जीत, नो अन्येभ्यो दद्यात् कान्ते बहुप्रासु स्थण्डिले परिष्ठापयितव्यं स्यात् ॥ सू० १२ ॥ चूर्णी - 'निग्गंथस्य' इति । निर्ग्रन्थस्य च गाथापति कुलं पिण्डपातप्रत्ययेन अनुप्रविष्टस्य अन्तः प्रतिग्रहे पात्राभ्यन्तरे दकं वा अप्कायसमूहरूपम्, दकरजो वा उदकबिन्दुर्वा - दकपृषत्-उदकशीकरो जलकणो वा पर्यापतेत्, तच्च पात्रस्थितं भोजनजातं यदि उष्णं भवेत् तदा तद् भोजनजातं श्रमणस्य भोक्तव्यं भोजनयोग्यं स्यात्, श्रमणेन तद् भोक्तव्यम्, उष्णपतितदकादेः शस्त्रपरिणतत्वेनाचित्तत्वसद्भावात् । तदपि भोजनजातं यदि शीतं भवेत् तदा तद् भोजनजातं पतितदकादेः शस्त्राऽपरिणतत्वेन सचित्तत्वसद्भावात् नो आत्मना स्वयं भुञ्जीत नापि च तद् अन्येभ्यो दद्यात् अपितु तद् भोजनजातम् एकान्ते बहुप्रासु स्थण्डिले परिष्ठापयितव्यं स्यादिति । अत्र दक - दकरजःप्रभृतीनां परिमाणकृतो भेदो बोध्यः, तथाहि - दकपदेन प्रभूता कायरूपमुदकं गृह्यते, दकरजःपदेन उदकबिन्दुरुच्यते, दकपृषत्पदेन पुनः पानीये - ऽन्यत्र प्रक्षिप्यमाणे वायुप्रेरितास्तत्रागत्य प्रपतन्तो जलकणाः प्रतिगृह्यन्ते इति विवेकः ॥ सू०१२ ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वं प्राणातिपातादिरक्षण वक्तव्यता प्रतिपादिता, सम्प्रति ब्रह्मचर्यव्रतरक्षणार्थमिन्द्रियविषये श्रोतोविषये च क्रमशः सूत्रद्वयं प्रतिपादयन् प्रथममिन्द्रियविषयं निर्ग्रन्थीसूत्रमाह'निग्गंथी इत्यादि । सूत्रम् - निग्गंथीए राओ वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विर्गिचमाणीए वा विसोमाणीए वा अनयरे पसुजाइए वा पक्खिजाइए वा अन्नयरं इंदियजायं परा - मुसेज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, हत्थकम्मपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं अणुग्धायं ॥ सू० १३॥ बृहत्कल्पसूत्रे छाया - निर्ग्रन्ध्याः रात्रौ वा विकाले वा उच्चारं वा प्रस्रवणं वा विविञ्चत्या वा विशोधयन्त्या वा अन्यतरः पशुजातीयो वा पक्षिजातीयो वा अन्यतरद् इन्द्रियजातं परामृशेत् तं च निर्ग्रन्थी स्वादयेत् हस्तकर्मप्रतिसेवनप्राप्ता आपद्यते चातुर्मासिकम् अनुद्घातिकम् ॥सू०१३॥ " चूर्णी - 'निग्गंथीए' इति । निर्ग्रन्थ्याः - श्रमण्याः रात्रौ वा रजनीसमये, विकाले वा पूर्वापरसन्ध्यासमये उच्चारं वा संज्ञाम्, प्रस्रवणं वा कायिकीलक्षणम्, विविञ्चत्या वा परिष्ठापयन्त्याः, विशोधयन्त्या वा शुद्धिं कुर्वन्त्याः तत्समये अन्यतरः कश्चिद् एकतरः पशुजातीयो वा वानरादिः, पक्षिजातीयो वा मयूरादिः यदि अन्यतरत् किमपि एकतरत् इन्द्रियजातम् - स्तनकपोलमुखनयनपाणिपादादिकम् अङ्गविशेषं परामृशेत् - स्पृशेत्, अथ तं च वानरादिस्पर्श निर्ग्रन्थी स्वादयेत् 'सुखदोऽयं स्पर्शः' इत्येवमनुमोदयेत् तदा हस्तकर्म प्रतिसेवनप्राप्ता अकृतहस्त कर्माि हस्तकर्मप्रयुक्तदोषापन्ना सती आपद्यते चातुर्मासिकम् अनुद्घातिकं - चतुर्गुरुकरूपं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति ॥ सू० १३ ॥ पूर्वमिन्द्रियविषयकं प्रथमं सूत्रं प्रतिपादितम् सम्प्रति श्रोतोविषयं द्वितीयं निर्ग्रन्थीसूत्रमाह - 'निग्गंथीए' इत्यादि । सूत्रम् - निग्गंथीए राओ वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिंचमाणी वा विसोमाणीए वा अन्नयरे पसुजाइए वा पक्खिजाइए वा अन्नयरंसि सोयंसि ओगाहिज्जा, तं च निम्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडि सेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं अणुग्धाइयं ॥ सू० १४ ॥ छाया निर्ग्रन्ध्या रात्रौ वा विकाले वा उच्चारं वा प्रस्रवणं वा विविञ्चत्या वा विशोधयन्त्या वा अन्यतरः पशुजातीयो वा पक्षिजातीयो वा अन्यतरस्मिन् श्रोतसि अवगाहेत, तच्च निर्ग्रन्थी स्वादयेत् मैथुनप्रतिसेवनप्राप्ता आपद्यते चातुर्मासिकम् अनुयातिकम् ॥ सू० १४ ॥ चूर्णी -- ' निम्गंथीए ' इति । निर्ग्रन्ध्या रात्रौ विकाले वा उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयन्त्या वा शुद्धिं कुर्वन्त्या वा तत्समये अन्यतरः कश्चिदेकः पशुजातीयो वा प्राणी वानरादिः ܕ܂ " Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णि भाच्याक्चूरी उ० ५ सू० १५-१९ निर्ग्रन्थया पकाकिनीत्वादिमर्यादा १२९ पक्षिजातीयो वा प्राणी - हंसमयूरादिः यदि अन्यतरस्मिन् कस्मिंश्चित् श्रोतसि - योनि कक्षाजघनादिसन्धिरूपे विवरे अवगाहेत स्वीयं किमपि अङ्गं प्रवेशयेत्, तच्च योन्यादौ वानरादीनामङ्गावगाहनं स्वादयेत् ' कीदृशमिदं सुखदमवगाहनम्' इत्येवमनुमोदयेत् - तदवगाहनेन मनसि सुखमनुभवेत् तदा सा निर्ग्रन्थी मैथुनप्रतिसेवनप्राप्ता - अनासेवितमैथुनाऽपि मैथुनसेवनजन्यदीपा - पन्ना सती आपद्यते चातुर्मासिकमनुद्घातिकं प्रायश्चित्तम् ॥ सू० १४ ॥ पूर्वं ब्रह्मचर्यव्रतविषया दोषाः प्रतिपादिताः, ते च दोषाः प्राय एकाकिन्याः संभवन्तीलि सम्प्रति निर्ग्रन्थया एकाकिन्याः स्थित्यादिनिषेधविषयकं सूत्रचतुष्टयं प्रतिपाद्यति- 'नो कप्पर निग्गंथीए' इत्यादि । सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियार होत्तए ॥ सू० १५ ॥ छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्ध्या एकाकिन्या भवितुम् ॥ सू० १५ ॥ चूर्णी 'नो कप' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्ध्या एकाकिन्या असहायया भवितुम्, निर्ग्रन्थ्या एकाकिन्या कदापि न भवितव्यम् स्त्रीशरीरस्य पुरुषस्पृहणीयत्वेन दृढसंहननधृतिबलादिराहित्येन च बलात्कारादिसद्भावे ब्रह्मचर्यव्रतभङ्गदोषप्रसङ्गात् ॥ सू० १५ ॥ सूत्रम् - नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए गाहावइकुलं पिंडवायपडिया निक्खमित्त वा पविसित्तए वा ॥ सू० १६ ॥ छाया--नो कल्पते निर्ग्रन्थया एकाकिन्या गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रत्ययेन निष्कमितुं वा प्रवेष्टुं वा ॥ सू० १६ ॥ चूर्णी - एवम् एकाकिन्या गाथापति कुलं - गृहस्थगृहं पिण्डपातप्रत्ययेन आहारादिग्रहणनिमित्तं निष्क्रमितुम् उपाश्रयाद् गृहस्थगृहे भक्तपानाद्यर्थ निस्सर्त्तुम्, तथा प्रवेष्टुं गृहस्थगृहे प्रवेशं कर्त्तुम् न कल्पते ॥ सू० १६॥ सूत्रम् - - नो कप्पर निग्गंथीए एगाणियाए बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खमित्त वा पविसित्तए वा ॥ सू० १७ ॥ छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्ध्या एकाकिन्या बहिर्विचारभूमिं वा विहारभूमिं घा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा ॥ सु० १७ ॥ चूर्णी - एवम् एकाकिन्या बहिः उपाश्रयाद्वहिः विचारभूमिं संज्ञाभूमिम् निष्क्रमितुं वा उपाश्रयात्, प्रवेष्टुं वा संज्ञाभूमौ न कल्पते, तथा विहारभूमिं स्वाध्यायादिभूमौ वा निष्क्रमितुम् उपाश्रयात्, प्रवेष्टुम् - स्वाध्यायभूमौ एकाकिन्या न कल्पते ॥ सु० १७॥ सूत्रम् - नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए गामाणुगामं दृइज्जित्तए वा वासावासं वा वत्थए | सू० १८ ॥ १७ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पसूत्रे छाया-नों कल्पते निम्रन्थ्या एकाकिन्या प्रामानुग्राम द्रोतुं वा वर्षावासं वा वस्तुम् ॥ सू. १८॥ चूर्णी- एवमेव एकाकिन्या निम्रन्थ्या प्रामानुग्रामम् एकस्माद् ग्रामाद् प्रामान्तरं द्रोतुम् विहर्तुम् , तथा वर्षावासं चातुर्मास्यनिमित्तं वस्तुं न कल्पते ॥ सू० १८॥ पूर्व निर्ग्रन्ध्या एकाकिनीत्वं निषिद्धम् , सम्प्रति श्रमणानामचेलकत्वस्य भगवता प्रतिपादितत्वेन काचित् श्रमणी चापि अचेलकत्वं कर्तुमिच्छेदतस्तासामचेलकत्वं प्रतिषेधयन्नाह'नो कप्पई' इत्यादि । सूत्रम्-नों कप्पइ निग्गंथीए अचेलियाए होत्तए ॥ सू० १९ ॥ छायानो कल्पते निर्ग्रन्थ्या अचेलिकया भवितुम् ॥ सू० १९॥ ची-नो कप्पई' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थ्याः श्रमण्या अचेलिकया-चेलः वस्त्रं, न चेलो वस्त्रं यस्याः सा अचेला, अचेला एव अचेलिका वस्त्रवर्जिता, तया वस्त्ररहितया भवितुम्-अवस्थातुं न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः, साध्व्या वस्त्ररहितया न भवितव्यम्-साध्वी वस्त्ररहिता न भवेदिति भावः । अनेन साध्वीनां जिनकल्पो निषिद्ध इत्यवगन्तव्यम् , तासां तादृशसंहननाभावात् । तरुणस्तेनकादिकृतोपसर्गजन्ये भये उपस्थिते तन्निवारणसामर्थ्याऽभावात्साध्वी वस्त्रवर्जिता भवितुं न शक्नोतीति तस्या अचेलकत्वं भगवता निषिद्धम् । वस्त्ररहितां साध्वीं दृष्ट्वा स्त्रीशरीरस्य पुरुषमोहकस्वभावात् तरुणादिश्चतुर्थसेवनादिकं कत्तु साहसं कुर्यात्, एवं यदा कुलटाऽपि तावद् व्यभिचारिणी अपि वस्त्ररहिता भवितुं नेच्छति तदा किमुत वक्तव्यं कुलीनानां साध्वीनां विषये, यत् न ताः कदापि वस्त्ररहिता भवितुं वाञ्छन्तीति तात्पर्यम् । पुनश्च अचेलकता प्रतिपन्नानां श्रमणीनां लोकापवादनिन्दितानां तीर्थोच्छेदो भवति, वृत्तिश्च तासां दुर्लभा भवति । एवं विवस्त्रां श्रमणीमवलोक्य लोको वदति-"स्त्रीणां लज्जा विभूषणम्" इति वचनात् कुत्र गता आसां लज्जा ? इति प्रव्रज्यां ग्रहीतुम् अभिमुखीभूतानामपि प्रव्रज्याग्रहणतः परावर्तनं स्यात् । अन्यो वा कश्चित् प्रव्रज्याग्रहणतस्ता निवारयेत् । लोकास्तत्कुटुम्बिजनान् एवं कथयन्ति यत्युष्मदीया दुहितरः स्नुषा वा याः पूर्व चन्द्रसूर्यकिरणैरस्पृष्टगात्रा आसन् ताः सम्प्रति प्रत्रजितावस्थायां सर्वजनदृष्टिस्पृष्टगात्राः सर्वलोकपुरतो विवस्त्रा हिण्डन्ते, कीदृशी चैषा प्रव्रज्या ?, लोकैरेवमुक्ते तत्कुटुम्बिनो भूयस्ताः स्वगृहमानयन्ति । अनेन प्रवचनोड्डाहोऽवश्यम्भवी । इत्याधनेकदोषसंभवात् साध्वीभिरचेलाभिने भवितव्यमिति भावः ॥ सू० १९॥ पूर्व निर्ग्रन्थीनामचेलकत्वं निषिद्धम्, सम्प्रति तासां पात्ररहितत्वं प्रतिषेधयितुमाह'नो कप्पई' इत्यादि। सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथीए अपाइयाए होत्तए । सू० २०.॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णarriaचूरी उ०५ सू० २०-२२ निर्ग्रन्ध्या आतपनाविधिः १३१ छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्ध्या अपात्रिकया भवितुम् ॥ सू० २० ॥ चूर्णी - 'नो कप्पड़' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्ध्या अपात्रिकया पात्ररहितया भवितुम् अवस्थातुम्, पात्रराहित्ये आहारशौचादिक्रियाया अप्यसंभवेन लोकनिन्दासद्भावात् । पात्रं विना यत्र तत्रैव साध्वीभिर्भोक्तव्यं स्यात् । लोको वदेत् - साध्वीभ्यः कोऽपि पात्रं न ददाति तेन इमा गोश्वानादिवत् यत्र कुत्रापि निर्लज्जा सती लब्धमाहारं भोक्तुमारभन्ते कीदृश आसां धर्मः ? इति लोकापवादोऽवश्यम्भावीव्यतो निर्ग्रन्ध्या अपात्रिकया न भवितव्य - मिति भावः ॥ सू० २० ॥ पूर्वसूत्रे निर्ग्रन्ध्याः पात्रं विनाऽवस्थातुं न शरीरेण कायोत्सर्गनिषेवमाह - 'नो कप' इत्यादि । कल्पते इत्युक्तम्, संप्रति तस्या विवस्त्र सूत्रम् -नो कप्पर निग्गंथीए वोसदृकाइयाए होतए | सू० २१ ॥ छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्ध्या व्युत्सृष्टकायिकया भवितुम् ॥ सू० २१ ॥ चूर्णी - 'नो कप्पड़' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थ्या व्युत्सृष्टकायिकया - व्युत्सृष्टः शरीरवस्त्रादिममत्वत्यागेन परित्यक्तः कायो देहो यया सा व्युत्सृष्टकाया, सा एव व्युत्सृष्टकायिका, तया 'मया दिव्याद्युपसर्गाः सोढव्याः' इत्यभिग्रहं गृहीत्वा शरीराद् वस्त्रं पृथक् कृत्य समयप्रसिद्धेन योगविषयकाभिनवकायोत्सर्गेण स्थितया भवितुम् - अवस्थातुं न कल्पते, निर्ग्रन्थया उद्घाटितशरीरेण कायोत्सर्गं कर्तुं न कल्पते इति भावः । यतस्तथास्थिताया उदीर्णमोहप्रेरणया तरुणग्रहणादय उपसर्गाः पूर्वोक्ता एव भवन्ति, तेन ब्रह्मचर्यव्रतभङ्गप्रसङ्ग आपतेत्, तस्मात् निर्ग्रन्ध्या विवस्त्रशरीरया कायोत्सर्गो न कर्तव्य इति भावः ।। सू० २१ ॥ पूर्व निर्ग्रन्या विवशरीरेण कायोत्सर्गः प्रतिषिद्धः सम्प्रति निर्ग्रन्ध्या ग्रामादितो बहिताप नाग्रहणनिषेधं प्रतिपादयितुमाह- 'नो कप्पर' इत्यादि । सूत्रम् - नो कप निग्गंधीए बहिया गामस्स वा नगरस्स वा खेडस्स वा कब्बडस्स वा पट्टणस्स वा मडंबस्स वा आगरस्स वा दोणमुहस्स वा आसमस्स वा सण्णिवेसस्स वा उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय सूराभिमुहीए एगपाइयाए ठिच्चा आयावणार आयवित्तए, कप्पर से उव्वस्सयस्स अंतो वगडाए संघाडिपडिबद्धाए पलंबियवाहियाए समतलपाइयाए ठिच्चा आयावणाए आय वित्तए । सू० २२॥ छाया -नो कल्पते निर्ग्रन्ध्याः बहिः ग्रामस्य वा नगरस्य वा खेटस्य वा कर्बटस्य वा पत्तनस्य वा मडम्बस्य वा आकरस्य वा द्रोणमुखस्य वा आश्रमस्य वा संनि. वेशस्य वा उर्ध्व बाहू प्रगृह्य प्रगृह्य सूर्याभिमुख्याः एकपादिकायाः स्थित्वा आतापनया Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨ बृहत्कल्पसूत्रे आतापयितुम्, कल्पते तस्या उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां संघाटी प्रतिबद्धायाः प्रलम्बितबाहायाः समतलपादिकायाः स्थित्वा आतापनया आतापयितुम् ॥ सू० २२ ।। चूर्णी - 'नो कप्प' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्ध्याः किमित्याह - ग्रामादेर्बहिः प्रदेशे बाहू ऊर्ध्वकृत्य सूर्याभिमुखीभूत्वा एकपादेन ऊर्ध्वभूताया आतापनामातापयितुं न कल्पते इति निषेधसूत्रस्य संक्षेपार्थः । कथं कल्पते ? इति विधिसूत्रसंक्षेपार्थो यथा - ग्रामादेर्मध्ये उपाश्रयभूमेरभ्यन्तरे संघाचादिना समुचितावृतशरीरायाः बाहू अधोभागे प्रलम्ब्य समतल भूमिस्थितपाद - द्वयेन ऊर्ध्वस्थानेन स्थिताया आतापनामातापयितुं कल्पते, इति निषेधविधिगर्भितस्य सूत्रस्य संक्षेपार्थः। विस्तरार्थो यथा - नो कल्पते न युज्यते निर्ग्रन्थ्याः श्रमण्याः ग्रामस्य वा बहिरि - त्यनेनान्वयः । एवं नगरस्य वा खेटस्य वा कर्बटस्य वा पत्तनस्य वा मडम्बस्य वा आकरस्य वा द्रोणमुखस्य वा आश्रमस्य वा संनिवेशस्य वा, तत्र - ग्रामः वृतिवेष्टितजन निवासरूपः, तस्य, आकरःसुवर्णरत्नाद्युत्पत्तिस्थानम् तस्य, नगरम् - अष्टादशकरवर्जितम् तस्य खेटं - धूलिप्राकारपरिक्षिप्तम् तस्य, कर्बेटं - कुत्सितनगरम् तस्य, मडम्बं - सार्धक्रोशद्वयान्तर्ग्रामान्तररहितम् तस्य, द्रोणमुखंजलस्थलपथोपेतो जननिवासः तस्य, पत्तनं समस्तवस्तुप्राप्तिस्थानम् तस्य, तद् द्विविधं भवति-जलपत्तनं स्थलपत्तनं चेति, नौभिर्यत्र गम्यते तज्जलपत्तनं, यत्र च शकटादिभिर्गम्यते तत्स्थलपत्तनम्। यद्वा शकटादिभिनभिर्वा यद् गम्यं तत् पत्तनं, यत् केवलं नौभिरेव गम्यं तत् पट्टनम् इति बोध्यम् । एषां ग्रामादीनां बहिः ऊर्ध्वम् उपरिभागे आकाशे बाहू-भुजौ प्रगृह्य-प्रगृह्य प्रकर्षेण कृत्वा सूराभिमुख्याः सूर्याभिमुखं स्थितायाः एकपादिकायाः ऊर्ध्वोत्थापितैकचरणायाः, एकं पादमा कुञ्चितं कृत्वा उत्थाप्य द्वितीयं पादं भूमौ संस्थाप्य एतादृशरूपेण स्थित्वा ऊर्ध्वस्थानेन ऊर्ध्वोत्थापितशरीरेण स्थित्वा आतापनया आतापनरूपतपोविशेषेण आतापयितुम् - आतापनां ग्रहीतुं न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । तहि कथं कल्पते? इति तद्विधि प्रदर्शयति- 'कप्पर से ' इत्यादि, 'से' तस्या निर्ग्रन्ध्याः कल्पते उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां - प्राकाराभ्यन्तरे भित्याद्याच्छादितप्रदेशे 'वगडा' - शब्दोऽत्र गृहप्राकार रूपार्थवाचको देशीयो वर्त्तते, तस्या, अभ्यन्तरे, तत्रापि कोदृश्याः ? तत्राह - संघाटी प्रतिबद्धायाः संघाटीग्रहणेन अवग्रहानन्तकादीनां निर्ग्रन्थीप्रायोग्यानां समुचितोपकरणानां ग्रहणं भवति, तैः प्रतिबद्धायाः सुप्रावृतशरीरायाः पुनः कीदृश्याः ? इत्याह- 'पलंबियबाहाए' इति प्रलम्बितबाहायाः प्रलम्बिते अघोलम्बमाने बाहे - बाहू यस्याः सा प्रलम्बितबाहा अघोलम्बमानभुजा, तस्याः प्रलम्बीकृतभुजायाः समतलपादिकायाः समतलौ च तौ पादौ चेति समतलपादों, तौ अस्याः स्त इति समतलपादिका तस्याः, पादद्वयं भूमौ समता संस्थाप्य स्थितायाः स्थित्वा - पूर्वोक्तप्रकारेण स्थितिं कृत्वा आतापनया - आतापनाभिघतपोविशेषेण आतापयितुम् आतापनां कर्त्तुं कल्पते । साधोर्वैपरीत्येन साध्वीनामातापना ग्रहण कल्पते, स्त्रीशरीरस्य गोप्यत्वेन तथाविधातापनाग्रहणस्य भगवता प्ररूपितत्वादिति ॥ सू० २२॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णि भाग्यावचूरी उ० ५ सू० २३-३३ निर्ग्रन्थया आसनमर्यादा १३३ पूर्वं निर्ग्रन्थीनां ग्रामादेर्बहिरातापना ग्रहणं निषिद्धम्, सम्प्रति तासामेव आसनाभिग्रहविशेषाणां निषेधं प्रतिपादयितुमेकादशसूत्रीमाह - 'नो कप्पर' इत्यादि । सूत्रम् - नो कप्पइ निग्गंथीए ठाणायइयाए होत्तए । सू०२३ ॥ नो कप्पइ निग्गंथीए पडमाइया होत || सू०२४ ॥ नो कप्पइ निग्गंथीए णिसज्जियाए होत्तए । ०२५ ॥ नो कपइ निग्गंथीए उक्कुडुगासणियाए ( ठाणुक्कुडियाए ) होत्तए || सू०२६ ॥ नो arus fruite वीरासणियाए होत्तए । सू०२७ ।। नो कप्पइ निग्गंथीए दंडासणिया होत्तए || सू०२८ ॥ नो कप्पइ निम्गंथीए लगंडासणियाए होत्तए । ०२९ ॥ नो atus निग्गंथी एगपासियाए होत्तए || सु०३० ॥ नो कप्पइ निग्गंथीए उत्ताणासणिया हो । ०३१ ।। नो कप्पइ निग्गंथीए ओमंथियाए होत्तए । ०३२ ॥ नो कप्पs निग्गंथीए अंबखुज्जियार होत्तए | सू० ३३ ॥ छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्ध्याः स्थानायतिकाया भवितुम् ॥ सू०२३ ॥ नो कल्पते निर्ग्रन्याः प्रतिमा स्थायिन्या भवितुम् ॥ सू० २१ ॥ नो कल्पने निर्ग्रन्थया नैषधिकाया भवितुम् ॥ सू०१५ || नो कल्पते निर्ग्रन्थ्याः उत्कुटुकासनिकायाः (स्थानोत्कुटुकिकायाः) भवितुम् ॥ सू० १६ ॥ नो कल्पते निर्ग्रन्ध्या वीरासनिकाया भवितुम् ॥ सू० १७ ॥ नो कल्पते निर्ग्रन्ध्या दण्डासनिकाया भवितुम् ॥ सू०१८ | नो कल्पते निर्ग्रन्थया लकुटासभवितुम् ॥ १९॥ नो कल्पते निर्ग्रन्ध्या एकपार्श्विकाया भवितुम् ||सू३०|| नो कल्पते निर्मन्थ्या उत्तानासनकाया भवितुम् ।। सू०३१ ।। नो कल्पते निर्ग्रन्ध्या अवाङ्मुख्या भवितुम् ॥ ३१ ॥ नो कल्पते नित्या आम्रकुब्जिकाया भवितुम् ॥ सू० ३३ ॥ चूर्णी - 'नो कप्पइ' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थ्याः स्थानायतिकायाः ऊर्ध्वस्थानेन मायता स्थानायता सैव स्थानायतिका तस्याः एतादृश्या भवितुम् अवस्थातुम् | 'अमुकसमयपर्यन्तम्- कायोसर्गं करिष्यामि' इति बुध्या, पूर्वोक्ता कृत्या कायोत्सर्गं कर्तुम् न कल्पते इति भावः ॥ सू०२३ ॥ सम्प्रति प्रतिमाविषयकं सूत्रमाह - 'नो कपइ' इत्यादि । एवं नो कल्पते निर्ग्रन्ध्याः प्रतिमा एकमासिक्यादिरूपा द्वादश, तासु तिष्ठतीति प्रतिमास्थायिनी द्वादशप्रतिमारूपाभिग्रहधारीणी, तस्था भवितुं न कल्पते । मासिक्यादिप्रतिमावहनं निर्ग्रन्थीनां नोचितम्, तासां धृतिबलादिराहित्येन संयमयात्रानिर्वाहाऽसद्भावात् ॥ सू० २४ ॥ एवं नैषधिकायाः निषद्या उपवेशनरूपा उपवेशनप्रकारः, सा विद्यते यस्याः सा नैषधी, सैव नैषयिका, तस्याः निषधारूपं स्थानमाश्रित्य स्थिताया भवितुं निर्मन्ध्या नो कल्पते । निषद्या च पञ्चविधा भवति, तथाहि - समपादपुता १, गोनिषधिका २, हस्तिशुण्डिका ३, पर्यङ्का ४, अर्द्धपर्यङ्का ५, चेति । तत्र समपादपुप्ता यत्रोपविष्टायाः समौ पादौ पुतौ च स्पृशतः समपादपुता १, यस्यां गौरिवोपवेशनं भवति सा गोनिषधिका २, यस्यां पुताभ्यामुपविश्य एकं पादं हस्तिशुण्डमिवोत्थाप्य उपविश्यते Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક बृहत्कल्पसूत्रे - साहस्तिशुण्डिका ३, पर्यङ्का यत्र पर्यङ्काकृत्या उपविश्यते सा पर्यङ्का निषया ४, अर्द्धपर्यङ्का यस्यामेकं जानुं समुत्थाप्य उपविश्यते सा अर्द्धपल्यङ्का निषद्या प्रोच्यते ५ । " एवंविधया पञ्चप्रकारया निषद्यया चरतीति नैषधि की तस्याः, एतादृशनिषदनस्थानमा - श्रित्य उपवेशनं साध्वीनां नोचितमिति ॥ सू० २५ ॥ एवम् उत्कुटुकासनिकायाः उत्कुटुकं - भूमिस्थापित चरणतलद्वयरूपं 'उकडु' इति भाषाप्रसिद्धमासनम् उत्कुटुकासनं तद् विद्यते यस्याः सा उत्कुटुकासनिक, तस्या उत्कुटुकासनेन समुपविष्टाया निर्ग्रन्ध्या भवितुं नो कल्पते, उत्कुटुकासनेन निर्ग्रन्ध्या नोपवेष्टव्यम् || सू० २६ ।। एवं वीरासनिकाया भवितुं नो कल्पते, वीरासनेन उपवेशनं साध्वीनां नोचित्तम् । वीरासनं नाम सिंहासने उपविष्टो भूमौ न्यस्तपादस्तिष्ठति, तदवस्थायां तत् सिंहासनं तदधोभागात् निस्सार्यते तदापि तदाकारेणैव अवस्थानं यत्र भवति तदासनं वीरासनं प्रोच्यते, तद् यस्या अस्तीति वीरासनिका, तस्या वीरासनिकाया भवितुं निर्ग्रन्थ्या नो कल्पते ।। सू० २७ ॥ एवं दण्डासनिकाया निर्ग्रन्ध्या भवितुं नो कल्पते । दण्डः यष्टिः, तद् दीर्घमायतं पादप्रसारणेन भवति तद् आसनं दण्डासनं तद् यस्या अस्ति सा दण्डासनिका तस्या दण्डासनिकाया भवितुम् अवस्थातुं निर्ग्रन्थ्या न कल्पते ॥ सू० २८ ॥ एवं लकुटासनिकायाः, लकुटं कुब्जकाष्ठं तद्वत् कुब्जतया मस्तकपाष्णिकानां भुवि लगनेन पृष्ठस्य चालगनेन शयनम्, अथवा कुब्जीभूय शयनम्, एतादृशमासनं यस्याः सा लकुटासनिका, तस्या लकुटासनिकाया निर्ग्रन्ध्या भवितुं नो कल्पते ॥ सू० २९ ।। एवं 'ओमंथियाए इति अवाङ्मुख्याः अवाङ् अधो मुखं यस्याः सा अवाङ्मुखी तस्या अधोमुखीभूताया भवितुम् अवस्थातुं निर्ग्रन्ध्या नो कल्पते ॥ सू० ३० ॥ एवम् एकपार्श्विकायाः - एकपार्श्वेन शायिन्याः तथाविधाभिग्रहविशेषेण शयितायाः साध्व्या भवितुं नो कल्पते ॥ सू० ३१ ॥ एवम् उत्तानासनिकायाः, उत्तानम् ऊर्ध्वमुखीभूय शयनम्, एतादृशमासनं यस्या सा उत्तानासनिका, तस्या उत्तानासनिकाया भवितुं साध्या नो कल्पते ।। सू० ३२ ॥ एवम् आम्रकुब्जिकायाः - आम्राकारेण कुब्जीभूय स्थिताया निर्प्रन्ध्या भवितुं नो कल्पते, यत्र मस्तकपादद्वयेन भूमिं स्पृशति मध्यशरीरमूर्ध्वं क्रियते तदासनम् आम्रकुब्जासनं प्रोध्यते, तदासनेन स्थातु साध्व्या नोचितमिति भावः, प्रागुक्तयुक्तेः । एते एकादशसूत्रोक्ताः सर्वेऽपि अभिग्रहविशेषा निर्ग्रन्थीनां प्रतिषिद्धाः || सू० ३३ ॥ पूर्व निर्मन्थीनां ब्रह्मचर्यव्रतरक्षणार्थमकल्पया अभिग्रहविशेषाः प्रतिपादिताः सम्प्रति तद्रक्षणार्थमेव निर्ग्रन्थीनाम् आकुञ्चनपट्टादयो दारुकदण्डकान्ता न कल्पन्ते इति प्रतिपादयितुं प्रथमं तासाम् आकुञ्चनपट्टकं प्रतिषेधितुमाह- 'नो कप्पड़' इत्यादि । सूत्रम्-नो कप्पइ निमगंथीणं आकुंचणपट्टगं धारित्तए वा परिहरितए वा ॥ सू० ३४ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्यावचूरी उ. ५ सू० ३४-३९ निर्ग्रन्थीनां स्थाननिषीदनादिमर्यादा १३५ छाया--नो कल्पते निग्रन्थीनाम् आकुञ्चनपट्टकं धारयितुं वा परिहत्तुं वा सू०३४ः। चूर्णी-'नो कप्पई' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थीनाम् आकुश्चनपट्टकं, आकुश्चनं-संकोचनम् अधःशरीरस्य संकोचनं तन्निमित्तं यत् पट्टकं वस्त्रम् पर्यस्तिकापट्टकमित्यर्थः, पर्यस्तिकाकरणनिमित्तं यत् पट्टकं वस्त्रं तत् निर्ग्रन्थीनां धारयितुं पार्श्वे स्थापयितुम् , परिहर्तुम्-परिभोक्तुं न कल्पते । पर्यस्तिकां कुर्वाणां साध्वीं दृष्ट्वा लोको वदति-अहो कीदृशोऽस्या गर्वः या पर्यस्तिका बद्ध्वा समुपविशति । पर्यस्तिकां कुर्वाणा अपावृताऽपि भवेत् तेन ब्रह्मचर्यव्रतभङ्गसंभवः लोकापवादो वा भवेत् । आकुञ्चनपट्टकं तासाम् अनुपधिः, य उपकारे वर्त्तते स उपधिरुच्यते, अन्यः अनुपधिः, तच्च तासामुपकारे नायातीति कृत्वा अनुपधिः । अनुपधिभूतस्योपकरणस्य धारणे तीर्थकृदाज्ञाभङ्गः । तत्प्रत्युपेक्षणादौ सूत्रार्थस्वाध्यायहानिर्भवेत् तस्मात् आकुश्चनपट्टकं साध्वीनां नानुज्ञातम् ॥ सू० ३४ ॥ पूर्व निर्ग्रन्थीनामाकुञ्चनपट्टकं निषिद्धम् , तत् निर्ग्रन्थानां कल्पते इति निम्रन्थसूत्रमाह"कप्पइ' इत्यादि । सूत्रम्-कप्पइ निग्गंथाणं आकुंचणपट्टगंधारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥सू०३५॥ छाया- कल्पते निर्ग्रन्थानाम् आकुञ्चनपट्टकं धारयितुं वा परिहर्त वा । सु०३५ । चूर्णी—'कप्पइ' इति । कल्पते निम्रन्थानां श्रमणानाम् आकुञ्चनपट्टकं पर्यस्तिकापट्टकं पर्यस्तिकाकरणाथै वस्त्रं धारयितु-संग्रहीतुं परिहन्तुं परिभोक्तुं कल्पते, श्रमणानां पूर्वोक्तदोषानापत्तेः, किन्तु पर्यायज्येष्ठपुरत आकुञ्जनपट्टासनेन स्थातुम् न कल्पते ॥ सू० ३५ ॥ पूर्व निर्ग्रन्थीनां निर्ग्रन्थानां पर्यस्तिकापट्टधारणे निषेधो विधिश्च प्रदर्शितः, सम्प्रति उभयेषां सावष्टम्भासने उपवेशनस्य निषेधं विधि च प्रदर्शयितुमाह-'नो कप्पई' 'कप्पइ' इत्यादि । सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथीणं सावस्सयंसि आसणंसि चिट्ठित्तए वा निसीइत्तए वा ॥ सू० ३६॥ कप्पइ निग्गंथाणं सावस्सयंसि आसणंसि चिट्ठित्तए वा निसीइत्तए वा ॥ सू० ३७॥ छाया-नो कल्पते निग्रन्थीनां सावश्रये आसने स्थातुं वा निषत्तुं वा ॥ सू० ३६।। कल्पते निर्ग्रन्थानां सावश्रये आसने स्थातुं वा निषत्तुं वा ॥ सू०॥ ३७॥ चूणी-'नो कप्पई' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां सावश्रये-सावश्रयं नाम यस्यासनस्य पृष्ठतोऽवष्टम्भो भवति तादृशे सावष्टम्भे आसने स्थातुम् ऊर्ध्वस्थानेन स्थितिं कर्तुम् , निषत्तुं-तदुपरि उपवेष्टुं न कल्पते इति सम्बन्धः, एतादृशासने उपविष्टानां श्रमणीनां पूर्वोक्तो गर्वः सिद्धयति, स्त्रीशरीरत्वेन तरुणानां मोहजनकत्वं वा भवति तस्मात् निर्ग्रन्थीनां सावष्टम्भासने Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्करप सू स्थातुं निषत्तुं वा नोचितमिति ॥ सू० ३६ ॥ सम्प्रति निर्ग्रन्थविषये विधिसूत्रमाह - ' कप्प ' इति । कल्पते निर्ग्रन्थानां सावश्रये सावष्टम्भे आसने स्थातुं निषतुं वा तो लानत्वादिकारणान्निरालम्बमुपवेष्टुमशक्तानां निर्ग्रन्थानां सावष्टम्भमासनं कल्पते, निर्ग्रन्थीनां सर्वथा न कन्पते इति भावः ॥ सू० ३७ ॥ " पूर्व सावष्टम्भासनविषये निर्ग्रन्थीनां निषेधसूत्रं, निर्ग्रन्थानां च विधिसूत्रमुक्तम्, सम्प्रति सविषाणपीठफलकविषये तदेवाह - 'नो कप्पड़' 'कप्पड़' इत्यादि । सूत्रम् - नो कप्पर निम्गंथीणं सविसाणंसि पी ंसि वा फलगंसि वा चिट्ठि तर वा निसीइत्तए वा ।। सू० ३८ || कप्पइ निग्गंथाणं सविसाणंसि पीढंसि वा फलगंसि वा चित्तिए वा निसीइत्तए वा ॥ सू० ३९ ॥ छाया - मो कल्पते निर्ग्रन्थीनां सविषाणे पीठे वा फलके वा स्थातुं वा निषत्तुं वा ॥ स्रु० ॥ ३८ ॥ कल्पते निर्ग्रन्थानां सविषाणे पीठे वा फलके वा स्थातुं वा निषन्तु वा || सू० ॥ ३९ ॥ चूर्णी - 'नो कप्पड़े' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां सविषाणे - विषाणं शृङ्गम्, विषामिव विषाणं शृङ्गाकार उपर्युत्थितः काष्ठविशेषः, तेन सहितं सविषाणम् - तस्मिन् सविषाणे सशृङ्गे पीठे काष्ठनिर्मितासनविशेषे, फलके वा शयनपट्टके स्थातुम् ऊर्ध्वस्थानेन निषत्तुम् - उपवेष्टुं न कल्पते इति सम्बन्धः । यस्य पीठस्य फलकस्य वा उपरि शोभार्थं शृङ्गाकारम् ऊर्ध्वलम्बकाष्ठं निर्मितं भवेत् तादृशे पीठे फलके वा स्थाननिषीदनकरणे ऊर्ध्व काष्ठरूपतदाकारावलोकनेन उदीर्णमोहत्वेन भुक्तभोगिनीनां निर्ग्रन्थीनां पादकर्म स्मृतिकरणादिदोषसंभवात्, अभुक्तभोगिनीनां च कौतुक - संभवात् निर्ग्रन्थीनां सविषाणपीठफलकादौ स्थानदि कर्त्तु नोचितमिति भावः ॥ सू० ३८ ॥ विधिमाश्रित्य निर्ग्रन्थसूत्रमाह - ' कप्पड़' इति । पूर्वोक्ते सविषाणे पीठे वा फळके वा स्थातुं निषत्तुं वा निर्ग्रन्थानां कल्पते, श्रमणानां पूर्वोक्तदोषानापत्तेः ॥ सू० ३९ ॥ पूर्वं सविषाणपीठफलकविषये निर्ग्रन्थीनां निषेधसूत्रम्, निर्ग्रन्थानां च विधिसूत्रं प्रतिपादितम् सम्प्रति सवृन्तकाला बुविषये तदेव सूत्रद्वयमाह - 'नो कप्पड़' 'कप्पर' इत्यादि । 9 सूत्रम् - नो कप्पइ निग्गंथीणं सवेंटगं लाउयं धारितए वा परिहरित्तए वा ॥ सू० ४० ॥ कप्पइ निग्गंथाणं सवेंटगं लाउयं धारितए वा परिहरितए वा ॥ सू० ४१ ॥ छाया -नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां सवृन्तकम् अलावु धारयितुं वा परिहर्तु वा ॥ सू० ४० ॥ कल्पते निर्ग्रन्थानां सवृन्तकम् अलाबु धारयितुं वा परिहर्त वा ॥ सू०४१ ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्यावचूरी उ०- ५ सू०४१-४६ साधुसाध्वीनां पादकेसरिकादिग्रहणविधिः १३७ चूर्णी - 'नो कप्पड़' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थीनाम् सवृन्तकम् - वृन्तसहितं नाल– युक्तम् अलाबु– तुम्बिकाफलपात्रम् धारयितुम् संग्रहीतुम्, परिहर्तुम् पानादौ उपभोक्तम् । सवषाणपीठफलकवदत्रापि बहिर्निस्सृतोर्ध्वाकारावलोकनेन भुक्तभोगिनीनामभुक्तभोगिनीनां निर्मन्थन M पूर्वोक्तस्मृतिकरण कौतुकादिदोषसंभवात् ॥ सू० ४० ॥ निर्ग्रन्थविषयकं विधिसूत्रमाह - ' कप्पइ' इति । कल्पते निर्ग्रन्थानां तदेव सवृन्तकं तुम्बीपात्रं धारयितुं वा परिहर्तु वा, निर्ग्रन्थानां पूर्वोक्तदोषासंभवात् ॥ सू० ४१ ॥ पूर्व सवृन्तकाऽलाबुपात्रधारणे निषेधसूत्रं विधिसूत्रं च निर्ग्रन्थीनिर्ग्रन्थानां क्रमेण प्रतिपादितम्, सम्प्रति निर्ग्रन्थीनिर्ग्रन्थद्वयमाश्रित्य तदेव सूत्रद्वयमाह - 'नो कप्पर' 'कप्पर' इत्यादि । सूत्रम् - नो कप्पइ निग्गंथीणं सर्बेटियं पायकेसरियं धारितए वा परिहरितए वा ।। सू० ४२ || कप्पर निग्गंथाणं सर्बेटियं पायकेसरियं धारितए वा परिहरित्तए वा ।। सू० ४३ ॥ छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां सवृन्तिकां पात्रकेसरिकां धारयितुं वा परिह घा ।। सू० ४२ ॥ कल्पते निर्ग्रन्थानां सवृन्तिकां पात्रकेसरिकां धारयितुं वा परिह वा ॥ सू० ।। ४३ ॥ चूर्णी - 'नो कप्पड़' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां सवृन्तिकां वृन्तसहितां लम्बाकारेण वृन्तवद् वृन्तम् उपरिलम्बदण्डिकारूपं तेन सहितां सवृन्तिकाम् पात्रकेसरिकाम् - पात्रप्रोञ्छनार्थं प्रमार्जनिकां लम्बदण्डिकाप्रतिबद्धदशिकामयीं प्रमार्जनिकां धारयितुम् उपकरण बुद्धया पार्श्वे स्थापयितुम्, परिहर्तुम् - परिभोक्तुं न कल्पते ॥ सू० ४२ ॥ निर्ग्रन्थानधिकृत्य विधिसूत्रमाह - 'कप्पइ ' इति, कल्पते निर्ग्रन्थानां सवृत्तिकां पात्रकेसरिकां पात्रप्रोञ्छनप्रमार्जनिकां धारयितुं वा परिहर्त्तु वा कल्पते ॥ सू० ४३॥ पूर्वं पात्रकेसरिकाविषयं सूत्रद्वयं प्रतिपादितम् सम्प्रति दारुदण्डकपादप्रोञ्छनविषयं तदेव सूत्रद्वयमाह - 'नो कप्पड़' ' कप्प' इत्यादि । सूत्रम् - नो कप्पइ निग्गंथीणं दारुदंडयं पायपुंछणं धारितए वा परिहरितए वा ॥ सू० ४४ ॥ कप्पइ निग्गंथाणं दारुदंडयं पायपुंछणं धारितए वा परिहरितए वा ॥ सू० ४५ ॥ " छाया -नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां दारुदण्डकं पाप्रोज्छनकं धारयितुं वा परिहत्त ॥ सु० ४४ ॥ कल्पते निर्ग्रन्थानां दारुदण्डकं पादप्रोज्छनकं धारयितुं वा परिह वा ॥ सू० ४५ ॥ चूर्णी - 'नो कप्पड़' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां दारुदण्डकं दारुमयदण्डिकायुक्तं पादप्रोञ्छनकं दारुमयदण्डिकाया अग्रभागे. ओर्णिका दशिका, बध्यन्ते तादृशं पादप्रोञ्छनार्थं १८ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ प्रमार्जनिकारूपम् न कल्पते इति भावः ॥ स० ४४॥ निर्ग्रन्थविषये विधिसूत्रमाह-'कप्पइ' इति । कल्पते निर्ग्रन्थानां दारुदण्डकं काष्ठमयदण्डिकायुक्तं पादप्रोञ्छनकम् दण्डोपरिभागबद्धदशिकासमूहं पादप्रोञ्छनार्थं प्रमानिकारूपं धारयितुं परिभोक्तुं वा कल्पते ॥ सू०४५॥ पूर्व ब्रह्मचर्यव्रतरक्षणार्थ विशेषतः श्रमणीमधिकृत्य एकाकिनी विहारादिदारुदण्डकपादप्रोञ्छनधारणपर्यन्तवक्तव्यता प्रतिपादिता, सम्प्रति तस्यैव व्रतस्य रक्षणार्थ निर्ग्रन्थनिम्रन्थीद्वयमधिकृत्य मोकसत्रमाह-'नो कप्पइ' इत्यादि । सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अन्नमन्नस्स मोयं आपिबित्तए वा आयमित्तए वा नन्नत्य गाढागाढेहि रोगायंकेहि ॥ सू०४६॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्गन्थीनां वा अन्योन्यस्य मोकम् आपातुं वा आचमितुं वा नान्यत्र गाढागाढेभ्यो रोगातडेभ्यः ॥ सू० ४६॥ चूर्णी--'नो कप्पई' इति । नो कल्पते निम्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा श्रमणश्रमणीनां अन्योन्यस्य-परस्परस्य-साधोः-साव्याः साध्व्याश्च साधोः, इत्येवम् एकद्वितीययोः मोकम्-प्रस्रवणम् आपातुं आचमितुं वा न कल्पते, परस्परमोकग्रहणे वशीकरणादिदोषसंभवात् । किं सर्वथा न कल्पते ? इत्याह-'नन्नत्थ' इति नान्यत्र, अन्यत्र न, कुत्र न ? इत्याह-'गाढागादेहि इति । गाढागाढेभ्यः रोगातङ्केभ्योऽन्यत्र न, गाढागाढा इत्यत्यन्तगाढाः कष्टसाध्या रोगातङ्काःरोगाः-व्याधयः, ते च ते आतङ्काश्च कृच्छजीवितकारित्वात् रोगातङ्काः कष्टसाध्या व्याधयः सर्पमण्डूकादिदशनरूपाः, अथवा रोगाः-रक्तविकारपामादिरूपाः, आतङ्काः-सघोघातिनः सर्पादिविषयोनिहृदयशूलादयः, रोगाश्च आतङ्काश्चेति रोगातङ्काः, तेभ्योऽन्यत्र निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां मोकं परस्परमापातुम् , आचमितुं वा न कल्पते, अनेनायातम्-गाढागाढरोगातङ्ककारणे कल्पते, तदेवम्-सदिविषं पामादिरक्तविकाररोगश्च नरमूत्रेण शाम्यति, तदुक्तं भावप्रकाशे "नरमूत्रं गरं हन्ति, सेवितं तद् रसायनम् । रक्तपामाहरं तीक्ष्णं, सक्षारलवणं स्मृतम् ॥ गोऽजाऽविमहिषीणां तु, स्त्रीणां मूत्रं प्रशस्यते । खरोष्ट्रेभनराश्वानां, पुंसां मूत्रं हितं स्मृतम् ॥ सू० ४६ ॥" पूर्व मोकसूत्रं प्ररूपितम्, पानप्रसङ्गात् पर्युषिताहारविषयं सूत्रमाह—'नो कप्पइ' इति । सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परियासियं भोयणजायं जाव तयप्पमाणमेत्तं वा भूइप्पमाणमेत्तं वा तोयबिंदुप्पमाणमेत्तं वा आहारं आहरित्तए नन्नत्थ गाढागाढेहिं रोगायंकेहिं ॥ सू० ४७॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा परिवासितं भोजनजातं यावत् त्वचाप्रमाणमात्रमपि भूतिप्रमाणमात्रमपि तोयबिन्दुप्रमाणमात्रमपि आहारम् आहतम्, नान्यत्र गाढ़ागाढेभ्यः रोगातङ्केभ्यः ॥ सू०४७ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिभाष्यावचूरी उ० ५ सू० ४७-४९ पर्युषिताहारादिनिषेधः १३९ चूर्णी-'नो कप्पइ' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा परिवासितम् संगृहीतं प्रथमप्रहरे आनीतं चतुर्थप्रहरप्राप्त भोजनजातम् अशनादिचतुर्विधं यावत्-न्यूनान्यूनम् , तत् कियदित्याह-'तयप्पमाणमेत्तं वा' इति, त्वक्प्रमाणमात्रमपि तिलतुषत्रिभागमात्रमपि, एतच्चाशनस्य घटते। भूतिप्रमाणमात्रमपि, भूतिः-भस्म भूतिशब्देन भस्मचप्पुटिका गृह्यते तेन भूतिचप्पुटिकामात्रमपि इत्यर्थो बोध्यः संयोजिताङ्गुष्ठतर्जनीभ्यां गृहीतं द्रव्यं भूतिप्रमाणमात्रं कथ्यते, तच्च सक्तुकादीनां शुष्कचूर्णद्रव्यादीनां च घटते । तोयबिन्दुप्रमाणमात्रमपि पानकद्रव्यस्य बिन्दुप्रमितमपि परिवासितं प्रथमप्रहरस्थापितस्य चतुर्थप्रहरः प्राप्तः, तादृशम् आहारम्-किमपि भोज्यपेयपदार्थजातम् आहर्तुम् - भोक्तुं न कल्पते इति । यद्वा परिवासितं रजन्यां स्थापितं पूर्वोक्तप्रमाणमात्रमपि आहारं भोक्तुं न कल्पते । रजन्यां स्थापितवस्तुमात्रस्य मुनीनां परिभोगो न कल्पते, तस्य सन्निधिसंचयदोषापत्तेः, सन्निधिसंचये साधुत्वमपि नश्यति, उक्तञ्च-दशवैकालिकसूत्रे षष्ठाध्ययने "लोहस्सेसणुप्फासे, मन्ने अन्नयरामवि । जे सिया संनिहिकामे, गिही पव्वइए न से ॥ गा० १९॥" लोभस्य एष अनुस्पर्शः, मन्ये अन्यतरोऽपि । यः स्यात् संनिधिकामः गृही प्रव्रजितो न सः ॥ गा०१९ ॥ इतिच्छाया ॥ संक्षेपार्थः-'मन्ये' इति भगवढाक्यम् , मन्ये अहं निश्चिनोमि अन्यतरोऽपि बहूनां मध्ये एकः एषः लोभस्य अनुस्पर्शः प्रभावः, लोभस्य बहूनां प्रभावाणां मध्ये एष पूर्वोक्तः संनिधिरूप एकः प्रभावोऽस्ति, एवमहं मन्ये, अतः यः संनिधिकामः-संनिधिवाञ्छकः स्यात् सः गृही-गृहस्थ एव मन्तव्यः न तु सः प्रवजितः-साधुरिति । इत्येवं भगवद्वचनात् परिवासितमाहारजातं निर्ग्रन्थनिम्रन्थीनां भोक्तुं न कल्पते इति भावः । किं सर्वथा न कल्पते ? इत्यपवादमाह-'नन्नत्थ' इत्यादि, नान्यत्र-अन्यत्र न, केभ्यः ? इत्याह-गाढागाढेभ्यो रोगातकेभ्यः गाढागाढरोगातङ्कान् विहाय, अन्यत्र न कल्पते इत्यर्थः ॥ सू०४७॥ पूर्व परिवासिताहारनिषेधसूत्रं प्रोक्तम् , सम्प्रति परिवासितालेपननिषेधसूत्रं प्रतिपादयति'नो कप्पइ' इत्यादि । सूत्रम्-नो कप्पई निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परिवासिएणं आलेवणजाएणं आलिंपित्तए वा विलिंपित्तए वा, नन्नत्थ गाढागाढेहिं रोगायंकेहिं ।। सू०४८ ॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा परिवासितेन आलेपनजातेन आलेपयितु वा विलेपयितुं वा, नान्यत्र गाढागाढेभ्यः रोगातङ्केभ्यः ॥ सू० ४८ ॥ चूर्णी- 'नो कप्पइ' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा परिवासितेनप्रथमप्रहरगृहीतचतुर्थप्रहरप्राप्तेन आलेपनजातेन केनापि लोध्रादिनिर्मितालेपनेन आलेपयितुं Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रे वणादिषु किञ्चिद् एकवारम् आलेपनं कत्तुं विलेपयितुं-विशेषेण लेपयितुं अनेकवारम् न कल्पते इति सम्बन्धः । किं सर्वथैव न कल्पते ! इत्याह-'नन्नत्थ' इत्यादि, नान्यत्र गाढागाढेभ्यो रोगातङ्केभ्यः गाढागाढेभ्यः अत्यन्तप्रगाढेभ्यः भयङ्करेभ्यः रोगातङ्केभ्यः सर्पादिविषत्रणसघोघातिक्षुद्रव्रणप्रभृतिप्राणघातकरोगरूपातङ्केभ्यः अन्यत्र न कल्पते, पूर्वोक्तकारणे कल्पते इति भावः ॥ सू० ४८ ॥ पूर्वं परिवासितालेपनेनाऽऽलेपननिषेधः प्रतिपादितः, तत्प्रसङ्गात् सम्प्रति परिवासिततैलादिना गात्राभ्यङ्गनम्रक्षणनिषेधं प्रतिपादयितुमाह-नो कप्पई' इति । सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परिवासिएणं तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा गायाई अभंगित्तए वा मक्खित्तए वा नन्नस्थ गाढागाढेहि रोगायंकेहिं । सू० ४९॥ छाया- नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा परिवासितेन तैलेन वा घृतेन वा नवनीतेन वा वसया वा गात्राणि अभ्यङ्गितु वा घ्रक्षितु वा, नान्यत्र गाढागाढेभ्यः । सू० ४९ ॥ चूर्णी-'नो कप्पइ' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा परिवासितेनप्रथमप्रहरानीतचतुर्थप्रहरप्राप्तेन तैलेन वा-तिलसर्षपादिजन्यस्निग्धद्रवपदार्थजातेन, घृतेन वा प्रसिद्धेन, नवनीतेन वा-म्रक्षणेन 'मक्खन' इति भाषाप्रसिद्धेन, वसया वा स्निग्धरसविशेषेण वा गात्राणि हस्तपादमुखाद्यङ्गानि अभ्यङ्गितुं वा- प्रचुरतैलादिना उद्वर्त्तयितुम् , म्रक्षितुं वा स्वल्पेन तैलादिना म्रक्षणं कत्तु वा न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । यद्येवं परिवासितेन तैलादिना गात्राणामभ्यङ्गनं म्रक्षणं च न कल्पते तर्हि अपरिवासितेन तत्तत्प्रहरानीतेन तत्तत्प्रहरेऽभ्यङ्गनं म्रक्षणं च निर्ग्रन्थनिम्रन्थीनां कल्पते, इत्यायातम् तत्राह-परिवासितेन अपरिवासितेन वा तैलादिना मुनीनां गात्राभ्यङ्गनं न कल्पते, तस्य शरीरविभूषासूचकत्वात्, शरीरविभूषाया भगवता निषिद्धत्त्वाच्च, उक्तं च"........कि विभूसाए कारणं" इति दशवैकालिसूत्रोक्तभगवद्वचनात् निम्रन्थनिम्रन्थीनां तैलाद्यभ्यङ्गनं न कल्पते । अथ च तैलाद्यभ्यङ्गने संयमविराधना आत्मविराधना चापि संभवेत्, तत्र संयमविराधना अभ्यङ्गितम्रक्षिते गात्रे सचित्तरजो लगति, तद्गन्धेन च पिपीलिकादित्रसप्राणिनो लगन्ति तेषां विराधनेन संयमविराधना भवेत् , पुनश्च तैलादिना चीवराणि मलिनीभवन्ति, तेषां धावनेऽधावने वा द्विधापि दोषाः समापतन्ति, यथा-यदि धाव्यन्ते तदा प्राणिनामुत्प्लावना भवेत् उपकरणशरीरयोर्बकुशत्वं भवति । यदि न धाव्यन्ते तदा निशिभक्तदोषापत्तिर्भवेत् । अभ्यङ्गितम्रक्षिते शरीरे ‘पादयोधूलिस लगतु' इति बुद्धया पादौ वस्त्रादिना पिनह्यति तेन Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिमायावचूरो उ० ५ ० ४९-५१ परिहारकल्प स्थितस्य प्रायश्चित्तविधिः १४१ गर्व निर्मार्दवतादयो दोषा भवन्ति । पुनश्च यावत्कालं गात्रस्याभ्यङ्गादि करोति तावत्कालं सूत्रार्थपरिमन्थो भवेत्, मुनिना च सर्वसामयिकत्वात् क्षणमपि निरर्थकं न नेतव्यमिति भगवदाज्ञाभङ्गदोषोऽवश्यम्भावीति । आत्मविराधना - तैलादिनाऽभ्यङ्गिते गात्रे तद्गन्धेन समापतिताः पिपीलिकादिप्राणिनः क्षतं करोति, स्नैग्ध्येन पादं वा प्रस्खलतीत्यादिनाऽऽत्म विराधनासंभवः, तस्मात् परिवासितेनापरिवासितेन वा तैलाद्यभ्यङ्गनं निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां न कल्पते इति भावः । किं सर्वथा न कल्पते ? तत्राह--' नन्नत्थ' इत्यादि, नान्यत्र - अन्यत्र न केभ्यः ? इत्याह-गाढागाढेभ्यः – गाढदुःखजनकेभ्यः रोगातङ्केभ्यः, गाढागाढरोगातङ्कान् विहायान्यत्र न कल्पते, तथाविधे कारणे कल्पते, कारणं यथा - अध्वगमनेनातीव श्रान्तत्वम्, वातरोगेण कटिबन्धनम्, कच्छुपामा दिपीडितत्वं च भवेत्, इत्यादिकारणे तैलाद्यभ्यङ्गनं यतनया कर्त्तव्यमिति भावः ॥ स० ४९ ॥ पूर्वसूत्रे गात्राणामभ्यङ्गनं म्रक्षणं च निषिद्धम्, सम्प्रति--उपलेपनम् उद्वर्त्तनं च निषेधयितुमाह - 'नो कप्पर' इत्यादि । सूत्रम् - - नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परिवासिएण कक्केण वा लोण वा पधूवणेण वा अन्नयरेण वा आलेवणजाएण गायाई उवलित्तए वा उब्वट्टित्तए वा, नन्नत्थ गाढागाढेहिं रोगायंकेहिं ।। सू० ५० ॥ छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा परिवासितेन कल्केन वा लोण वा प्रधूपनेन वा अन्यतरेण वा - आलेपनजातेन गात्राणि उपलेपयितुं बा उद्वर्त्तयितुं वा, नान्यत्र गाढागाढेभ्यो रोगातङ्केभ्यः ॥ सू० ५० ॥ चूर्णी - 'नो कप्पड़' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा परिवासितेन पर्युषितेन प्रथमप्रहरानीतचतुर्थ प्रहर प्राप्तेन कल्केन वा उत्कालित सुगन्धिद्रव्यविशेषेण, लोध्रेण वा स्निग्धचूर्ण रूप सुगन्धिद्रव्यविशेषेण, प्रधूपनेन वा अगुरुचन्दनप्रभृति सुगन्धिधूपनद्रव्येण, एवम् अन्यतरेण वा एतादृशेन केनापि अनेकविध सुगन्धिद्रव्यमध्यादेकेन सुगन्धिद्रव्यरूपेण आलेपनजातेन आलेपनयोग्यद्रव्यविशेषेण गात्राणि - अङ्गानि मुखहस्तपादादीनि उपलेपयितु वा सामान्येन लेपितानि कर्त्तुं वा, तथा उद्वर्त्तयितुम् उपमर्दयितुं वा न कल्पते इति सम्बन्धः । किं सर्वथा न कल्पते ! इत्याह – 'नन्नत्थ' इत्यादि, नान्यत्र गाढागाढेभ्यः रोगातङ्केभ्यः, गाढागाढेभ्यः अत्यन्तमरणादिभयजनकेभ्यः रोगातङ्केभ्यः, रोगरूपातङ्केभ्यः - कुक्षिशूलहृदयशूलमस्तकशूलरक्तविकारादिजनित विषमग्रन्थिप्रभृतिरूपेभ्यः, मरणादिभयजनकरोगातङ्कान् विहाय Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पस्ले निष्कारणं शरीरसौन्दर्याद्यर्थ सुगन्धिद्रव्यजातेन गात्राणामुपलेपनमुद्वर्त्तनं च मुनीनां न कल्पते, तादृशावस्थायां कारणे सति यतनया कल्पते इति भावः ॥ सू० ५०॥ __ पूर्व निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां निष्कारणं गात्राभ्यङ्गनादि निषिद्धम्, सम्प्रति निष्कारणं गात्राभ्यङ्गनादिकारी कारणे चायतनया करणशीलः परिहारतपःप्रायश्चित्तभागी भवतीति परिहारकल्पसूत्रमाह- 'परिहारकप्पट्ठिए' इत्यादि । सूत्रम्-परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू बहिया थेराण वेयावडियाए गच्छेज्जा, से य आहच्च अइक्कमिज्जा, तं च थेरा जाणिज्जा अप्पणो आगमेणं अन्नेसि वा अंतिए सुच्चा, तो पच्छा तस्य अहालहुस्सए नामं ववहारे पट्टवेयवे सिया ॥ सू०५१॥ छाया-परिहारकल्पस्थितो भिक्षुः बहिः स्थविराणां वैयावृत्त्याय गच्छेत् , स च आहत्य अतिक्रामेत् , तच्च स्थविराः जानीयुः आत्मन आगमेन, अन्येषां वा अन्तिके श्रुत्वा, ततः पश्चात् तस्य यथालघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ॥सू०५१॥ चूर्णी-'परिहारकप्पट्टिए' इति । परिहारकल्पस्थितः परिहारतपो वहमानः भिक्षुः श्रमणः बहिः-स्थितस्थानादन्यत्र ग्रामनगरादौ, तत्रैव वा उपाश्रयान्तरे स्थितानां स्थविराणां वैयावृत्त्याय- वैयावृत्त्यनिमित्तम् उपलक्षणाद् नास्तिकादिवादिजयार्थ वा तादृशकार्यक्षमान्यश्रमणाभावे आचार्योपदिष्टो गच्छेत् , सच तत्र आहत्य-कदाचिद् अनिवार्यकारणवशाद् अज्ञानाद्वा अतिक्रामेत्-प्रतिज्ञाततपोविशेषम् उल्लङ्घयेत् तच्च तस्यातिक्रमणं दोषसेवनरूपम् स्थविराः येषां वैयावृत्त्यार्थमागतस्ते प्रधानाचार्याः आत्मनः स्वस्य आगमेन-आगमोक्तावध्यादिज्ञानेन, वा-अथवा अन्येषाम्-तत्पार्श्वस्थान्यमुनीनां गृहस्थानां वा अन्तिके समीपे श्रुत्वा जानीयुः, तस्यातिक्रमणं स्वस्य ज्ञानविषयीकृतं स्यात् तदा ततः पश्चात् तज्ज्ञानानन्तरं तस्य वैयावृत्त्यार्थमागतस्य परिहारकल्पस्थितस्य श्रमणस्य 'अहालहुस्सए नाम' इति यथालघुस्वकनामकः यथालघुस्वकः यथासंभवं स्तोकप्रायश्चित्तरूपः व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः दातव्यः स्यात् । तस्मै यथाशक्यलघुप्रायश्चित्तं दातव्यमिति भावः ॥ सू० ५१ ॥ .. पूर्व परिहारकल्पसूत्रं कथितम्, सम्प्रति भक्तप्रसङ्गात् निर्ग्रन्थीनां पुलाकभक्तसेवनविधिमाह-'निग्गंथीए य' इत्यादि । सूत्रम्-निग्गंथीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविटाए अन्नयरे पुलागभत्ते पडिग्गाहिए सिया, सा य संथरिज्जा कप्पइ से तदिवसं तेणेव भत्तटेणं पज्जोसवित्तए, नो से कप्पइ दुच्चंपि गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसित्तए वा, सा य नो संथरिज्जा एवं से कप्पई दुच्चं पि गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसित्तए ॥सू०५२॥ ॥ पंचमोइसो समत्तो ॥५॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णि भाष्यावचूरी उ०५ सू० ५२ निर्ग्रन्ध्याः पुलाकभक्ताहारविधिः १४३ छाया - निर्ग्रन्ध्या च गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रत्ययेन अनुप्रविष्टया अन्यतरत् पुलाकभक्तं प्रतिगृहीतं स्यात्, सा च संस्तरेत् कल्पते तस्याः तद्दिवसं तेनैव भक्तार्थेन पर्युषितुम् नो तस्याः कल्पते द्वितीयमपि गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रत्ययेन प्रवेष्टुम्, सा च नो संस्तरेत् एवं तस्याः कल्पते द्वितीयमपि गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रत्ययेन प्रवेष्टुम् ॥ सू० ५२ ॥ ॥ पञ्चमोद्देशः समाप्तः ॥ ५ ॥ " चूर्णी - 'निग्गंथीए य' इति । निर्ग्रन्ध्याश्च साध्व्याः गाथापतिकुलं गृहस्थगृहं पिण्डपातप्रत्ययेन भिक्षाग्रहणनिमित्तेन अनुप्रविष्टया - प्रवेशं कृतवत्या यदि अन्यतरत् - बहूनां मध्यादेकम्, पुलाकं त्रिविधं भवति - धान्यपुलाकम् गन्धपुलाकम्, रसपुलाकं चेति, तत्र धान्यपुलाकं वल्लादि, गन्धपुलाकम् - एलालवङ्गजातिफलादीनि यानि उत्कटगन्धानि द्रव्याणि तद्बहुलं भक्तम्, रसपुलाकम् क्षीर - द्राक्षा - खर्जूरादिरसरूपम् एषां त्रयाणां पुलाकानां मध्याद् एकतरत् पुलाकभक्तम्, पुलाकम् असारमुच्यते यत आहारितानि एतानि त्रीण्यपि पुलाकानि निर्ग्रन्थीं संयमसाररहितां कुर्वन्ति प्रवचनं वा निस्सारं कुर्वन्ति ततस्तान प्रोच्यन्ते, एषां मदजनकस्वभावत्वात् । एतानि पुलाकानि निर्ग्रन्थीं मदविह्वलां कुर्वन्ति सा संयमसाररहिता भवति । तेषां कदाचिद् ग्रहणे तद्विधिं प्रदर्शयति - तत् पूर्वोक्तं पुलाकभक्तं कदाचित् - अनाभोगादिकारणात् प्रतिगृहीतं स्वीकृतं स्यात् तदा यदि साच निर्ग्रन्थी संस्तरेत् तेन प्रतिगृहीतेन पुलाकभक्तेन निर्वाहं कुर्यात् निर्वोढुं समर्था भवेत् तदा कल्पते तस्याः तं दिवसं तेनैव पूर्वानीतेनैव भक्तार्थेन पुलाकभक्तेन पर्युषितुम् - तं दिवसं व्यत्येतुं कल्पते किन्तु नो-नैव तस्याः कल्पते द्वितीयमपि जिह्वालौल्येन द्वितीयवारमपि गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रत्ययेन तद्ग्रहणवाञ्छया प्रवेष्टुम् । अथ सा च निर्ग्रन्थी कदाचित् तपश्चरणग्लानत्वादिना बुभुक्षाप्राचुर्यप्रसङ्गात् पूर्वानीतेन पुलाकभक्तेन भुक्तेन नो संस्तरेत् क्षुधापरीषहसहन सामर्थ्याभावात् तं दिवसं व्यत्ये समर्था न भवेत् तदवस्थायां तस्या निर्ग्रन्ध्याः कल्पते द्वितीयमपि वारं गाथापति कुलं – गृहस्थगृहं पिण्डपातप्रत्ययेन भिक्षाग्रहणनिमित्तेन प्रवेष्टुं गृहस्थगृहे प्रवेशं कर्त्तुं कल्पते, तदिवसनिर्वाहसामर्थ्ये सति द्वितीयवारं भिक्षार्थं न गच्छेदिति भावः । एकवार - गृहीत पुलाकभोजनेन यथाशक्य निर्वाहसामर्थ्ये सति जिह्वालोलुपतया पुनरपि द्वितीयवारं भिक्षार्थ गृहस्थगृहे गच्छेत् तदा निर्ग्रन्ध्या आज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति, संयमात्मविराधना च भवेत्, तन्त्र स्त्रियाः सुकुमालप्रकृतित्वेन धान्यपुलाके भुक्ते उदरे वातप्रकोपः संजायते, गन्धपुलाके मुक्ते " Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ बृहत्कल्पसूत्रे निर्ग्रन्थी मदविह्वला भवति, रसपुलाके भुक्तेऽजीर्णादिरोगसंभवः, ततः सूत्रार्थस्वाध्यायादिपरिमन्थस्तेन संयमविराधना, वातप्रकोपादिना आत्मविराधना च स्पष्टैवेति भुक्तपुलाकभक्ता द्वितीयवारं गृहस्थगृहे भिक्षार्थं न प्रविशेदिति सूत्राशयः ॥ सू०५२ ॥ इति श्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषा कलितललितकला पालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्रीशाहू छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त“जैनाचार्य ” – पद भूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म - दिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालवतिविरचितायां "बृहत्कल्पसूत्रस्य” चूर्णि भाष्या-वचूरीरूपायां व्याख्यायां पञ्चमोद्देशकः समाप्तः ॥ ५ ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ षष्ठोद्देशकः व्याख्यातः पञ्चमोद्देशकः, साम्प्रतं षष्ठो देशको व्याख्यायते, तत्र पूर्वगतपञ्चमोद्दे शकस्यान्तिमसूत्रेण सहास्य षष्ठोद्देशक प्रथमसूत्रस्य कः सम्बन्धः ! इत्यत्राह भाष्यकारः - 'भत्तग्गहण' इत्यादि । भाष्यम् - भत्तग्गहणं पुव्वं, कहियं तस्स य अलाभसमयम्मि । तत्थावयणं भासइ, तस्स णिसेहोऽत्थ संबंधी ॥१॥ छाया - भक्तग्रहणं पूर्वं कथितं, तस्य चालाभसमये । तत्राऽवचनं भाषते, तस्य निषेधोऽत्र सम्बन्धः ॥ १ ॥ " अवचूरी - 'भत्तग्गहणं' इति । पूर्वं पञ्चमोद्देशकस्यान्तिमसूत्रे भक्तग्रहणं कथितम् तस्य भक्तस्य च अलाभसमये साधुस्तत्र कदाचिद् अवचनं भाषते इति तस्यावचनस्यात्र षष्ठोद्देशकस्य प्रथमसूत्र निषेधः प्रतिपादितः, एष एवात्र अस्मिन् षष्ठोदेश के सम्बन्धः ॥ १ ॥ इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य षष्ठोद्देशकस्येदमादिमं सूत्रम् - नो कप्पर इत्यादि । सूत्रम् - नो कप्पर णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा इमाई छ अवयणाई वदित्तए, तं जहा - अलियत्रयणे, हीलियवयणे, खिंसियवयणे, फरुसवयणे, गारत्थियवयणे, विसवियं वा पुणो उदीरित ॥ सू० १ ॥ छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा इमानि षट् अवचनानि वदितुम्, तद्यथा - अलीकवचम्, हीलितवचनम्, खिसितवचनम्, परुषवचनम्, गार्हस्थ्यव नम्, व्युपशमितं वा पुनरुदीरितुम् ॥ सू०१ ॥ चूर्णी - 'नो कप' इति । नो कल्पते - न युज्यते णिग्गंथाण वा निर्ग्रन्थानां वा णिग्गंथीण वा निर्ग्रन्थीनां श्रमणीनां वा इमाई इमानि - वक्ष्यमाणानि छ षट् - षट्संख्यकानि अवयणाई अवचनानि, तत्र वक्तुं योग्यं वचनम् सद्वचनमित्यर्थः न वचनमित्यवचनं वदितुमयोग्यमसद्वचनादिकम् । कानि तान्यवचनानि तानि दर्शयितुमाह- 'तंजहा' तद्यथा - अलियवयणे अलीकवचनं असत्यभाषणं तथाहि असत्यवचनोच्चारणं साधुभिः साध्वीभिर्वा न कर्तव्यमिति प्रथमम् १ | हीलियवयणे हीलितवचनम्, यस्मिन् वचने उच्चारिते साधूनां गृहस्थानां वा अवहेलनं भवति, तथाहि साधुविषये हीलितवचनं यथा - साधुः सन्नपि त्वं न सम्यक्तया चारित्रं पालयसि यद्वा कस्त्वं गणिनामाऽसि - गणी भवन्नपि न त्वं किमपि जानासि, केन त्वं गणिपदे स्थापितः ? इत्यादिकथनम्, तथा गृहस्थविषये हीलितवचनं जन्मजात्याद्युद्घाटनपूर्वकमपमाननं, यथा-त्वं जन्मकुलजात्यादिहीनोऽसि इत्यादि कथनम् २ | खिंसियवयणे खिंसितवचनम् - जन्म - कर्माद्युद्घाटनपूर्वकं सरोषवचनम्, अथवा रे मूर्ख ! रे दास ! इत्यादि श्रुतिकटुवचनम् ३ । फरुसवयणे परुषवचनम् - कर्कशवचनम् रूक्षवचनमित्यर्थः रे नीच ! रे अधम ! इत्यादि ४ । गारस्थियवयणे गार्हस्थ्यवचनम् - गृहस्थस्य भावो गार्हस्थ्यं तत्सम्बन्धि तद्वचनसदृशं वचनं गार्हस्थ्यवचनम्, हे तात ! हे पुत्र ! हे मातुल ! हे भागिनेय । इत्यादि भाषणम्, " १९ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसत्रे व्यापाराद्यारम्भसमारम्भवचनं वा ५ । विउसवियं वा पुणो उदीरित्तए व्युपशमितम्-उपशमितक्लेशादिकं पुनरुदीरयितुं यद् वचनं तद् , यथा-स एव त्वं यः पूर्व मामपमानितवान् , इत्यादि कथनम् ६ । एतानि षडलीकादिवचनानि न वक्तव्यानीति ॥ सू० १॥ प्रथमसत्रे शोधिः कथिता, द्वितीयसूत्रे तु शोधेः प्रायश्चित्तविधिमाह-कप्पस्स इत्यादि । सूत्रम् -- कप्पस्स छ पत्यारा पन्नत्ता, तं जहा-पाणाइवायस्स वायं वयमाणे, मुसावायस्स वायं वयमाणे , अदिन्नादाणस्स वायं वयमाणे, अविरइयावायं वयमाणे, अपुरिसवायं वयमाणे, दासवायं वयमाणे, इच्चेते छ कप्पस्स पत्थारे पत्थारेत्ता सम्म अपडिपूरेमाणे तहाणपत्ते सिया ॥ सू० २ ॥ छाया-कल्पस्य षट् प्रस्ताराः प्रक्षप्ताः तद्यथा-प्राणातिपातस्य वादं वदन् , मृषावादस्य वादं वदन् , अदत्तादानस्य वादं वदन्, अविरतिकावाद वदन, अपुरुषवादं वदन्, दासवादं वदन् , इत्येतान् षट् कल्पस्य प्रस्तारान् प्रस्तीयं अप्रतिपूरयन् तत्स्थानप्राप्तः स्यात् ॥सू०२॥ चूर्णी--'कप्पस्स' इति । कल्पस्य, तत्र कल्पो नाम साधूनामाचारः, तस्य तत्सम्बन्धिनां विशुद्धिकारणत्वात् छ पत्थारा पन्नत्ता षट्-षट्संख्यकाः प्रस्ताराः प्रायश्चितप्रकाराधिकारिणः प्रज्ञप्ता कथिताः, तानेव षड् भेदान् दर्शयितुमाह-तंजहे-त्यादि, तंजहा, तद्यथा पाणाइवायरस वायं वयमाणे प्राणातिपातस्य जीवविराधनलक्षणस्य वादमाक्षेपवचनं वदन् षड्जीवनिकायविराधनवाचं वदन् साधुः प्रायश्चित्तस्य प्रस्तारोऽधिकारी कथ्यते इति प्रथमः १ । मुसावायस्स वायं वयमाणे मृषावादस्य वादं वदन् द्वितीयो भेदः २ । अदिन्नादाणस्स वयं वयमाणे अदत्तादानस्य वादं वदन् तृतीयः ३ । अविरइयावयं वयमाणे अविरतिकावादं वदन् , तत्र न विद्यते विरतिर्यस्याः सा अविरतिका-कुलटा स्त्री, तस्या वादं वाचं वा वदन् मैथुनाऽऽक्षेपं कुर्वन्नित्यर्थः, इति चतुर्थः ४ । अपुरिसवायं वयमाणे अपुरुषवादं वदन् , तत्र न पुरुषः अपुरुषः नपुंसकस्तस्य वादम् 'मयं नपुंसकः' इति वाचं वदन् पञ्चमः ५। दासवायं वयमाणे दासवादं वदन् , यो न दासस्तम् 'अयं दासः' इति वदन् षष्ठो भेदः ६ । इच्चेते छ कप्पस्स इत्येतान् षद कल्पस्य इति एवं प्रकारान् एतान् पूर्वोक्तान् षट्संख्यकान् प्राणातिपाताद्याक्षेपलक्षणान् कल्पस्य साध्वाचारस्य पत्थारे पत्थारेत्ता प्रस्तारान् प्रायश्चित्तस्य प्रकारान् प्रस्तीर्य सम्मं अपडिपूरेमाणे सम्यग् अप्रतिपूरयन्–अप्रमाणयन् अभ्याख्यानकारकः साधुः सम्यक् अप्रतिपूरयन् आक्षेपार्थस्यासद्भूततया अभ्याख्यानस्य समर्थनं कर्तुमशक्तः सन् तडाणपत्ते सिया तत्स्थानप्राप्तः प्रायश्चित्तस्थानप्राप्तः प्रायश्चित्तभागी स्यात् । अत्र दर्दुर-शुनक-सर्प-मूषक-दृष्टान्ताः सन्ति । तत्र दर्दुरदृष्टान्तो यथा-कस्यचित् रत्नाधिकस्य साधोभिक्षाटनसमये मृतमण्डूककलेवरोपरि अकस्मात्पादः पतितः, सहागतेनाऽन्येन Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूणिभाष्यावचूरी उ० ६ सू० २ कल्पस्य षट्प्रस्तारेषु प्रायश्चित्तविधिः १४७ साधुना गुरवे कथितं यदमुकेन साधुना मण्डूको मारितः, तदा आचार्यस्तं साधुं पृच्छेत् भोस्त्वयां मण्डूको मारितः किम् !, स यदि वदति न मारितः, अविराधने तेन सम्यक् प्रमाणमुपस्थापनीयम् अन्यथा स प्रायश्चित्तभागी भवत्येव । अथवा येनाक्षेपः कृतः स यदि प्रमाणेन स्वकीयमारोपणं न प्रमाणयितुं शक्नोति तदा स एव तत्स्थानप्राप्तो भवति, प्राणातिपाते यत् प्रायश्चित्तं तस्य प्रायश्चित्तस्य भागी स एवाभ्याख्यानकारको भवति । यः कोपि यस्य कस्याप्युपरि आरोपणं करोति प्राणातिपातादेः स यदि प्रमाणेन स्वकीयमभ्याख्यानं सिद्धं करोति तदा यस्यो. परि आरोपणं कृतं स प्रायश्चित्तभागी भवति । यदि कदाचित् स स्वकृतमारोपणं प्रमाणयितुं न शक्तो भवति तदा अभ्याख्यानकारकस्यैव तादृशं प्रायश्चित्तं भवतीति प्राणातिपातवादविषयः प्रथमः प्रायश्चित्तप्रस्तारः। एवं शुनक-सर्प-मूषक–दृष्टान्ता भावनीयाः १। ____ मृषावादप्रस्तारो यथा-कस्मिंश्चिद् गृहस्थगृहेऽवमरात्निको रत्नाधिकेन सह भिक्षार्थ गतः सन् भोजनकालाभावेन प्रतिषिद्धः प्रत्यावृत्तः। पश्चान्मुहूर्तान्तरे रत्नाधिकेन कथितम्-इदानी भोजनकालः संभाव्यतेऽतो व्रजामो भिक्षार्थम् , अवमेन कथितम् -प्रतिषिद्धोऽहं न व्रजामि । ततो रत्नाधिकेन गत्वा भिक्षा समानीता । सोऽवमः आचार्यायेदमालोचयति यथा-भदन्त ! अयं दीनकरुणवचनैर्याचते प्रतिषिद्धोऽपि गृहस्थगृहं प्रविशति, प्रविष्टश्च मुखप्रियाणि योगचिकित्सानिमित्तानि गृहस्थेभ्यो जल्पति, इत्येवमभ्याख्यानदानं मृषावादरूपो द्वितीयः प्रायश्चित्तप्रस्तारः २ । अदत्तादानप्रस्तारो यथा-एकत्र गृहेऽवमरानिकेन यावद् भिक्षा गृहीता तावद् एको रत्नाधिकः कुत्रतो मोदकान् लब्ध्वाऽन्यस्मै अवमाय दत्तवान्, तदितरोऽवमस्तान् मोदकान् दृष्ट्वा प्रत्यावृत्त्य गुरुसमक्षं भणति-आलोचय त्वया रत्नाधिकेनादत्ता मोदका गृहीताः, इत्यभ्याख्यानदानमदत्तादानरूपस्तृतीयः प्रायश्चित्तप्रस्तारः ३ । ___ अविरतिकावादप्रस्तारो यथा-कश्चिद् अवमरात्निको दशविध च समाचार्या स्खलितो रत्नाधिकेन 'हे दुष्ट शिष्य ! स्खलितोऽसि' इत्यादिवाक्यतस्तर्जित आलोचयति- अयं 'रत्नाधिकोऽह'-मिति गर्वेण मामस्खलितमपि तर्जयति कषायोदयतो मां प्रेरयतीत्यवसरं लब्ध्वा तथा करोमि येनायं लघुको भवतीति । ततोऽन्यदा द्वावपि भिक्षार्थं गतौ, भिक्षामानीय प्रत्यावृत्तौ मार्गे उष्णकालादिकारणवशाद् बुभुक्षितौ तृषितौ तत्रैवं चिन्तितवन्तौ-अत्र परिवाजिकादेवकुले कुटङ्गे लतावृक्षाच्छादितस्थाने प्रथमालिकां-पूर्व किश्चिद् भोजनं-कृत्वा. पानीयं पास्यावः, इति चिन्तयित्वा सुखं स्थिती, अत्रान्तरेऽवमरात्निकेन एका परिव्राजिका तदभिमुखमागच्छन्ती दृष्टा, लब्धोऽवसर इदानीमिति चिन्तयित्वा वदति-कुरुत भदन्ताः ? भवन्तः भोजनपानम् , अहं तु उच्चारार्थ गमिष्यामीति । एवमुक्त्वा शीघ्रमाचार्यसमीपे समागत्य मैथुनेऽभ्याख्यातुं भणति-भदन्त : ज्येष्ठाऽऽर्येणाय सद्य इदानीं परिव्राजिकागृहे प्रतिसेवितमकार्य Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ e वृकल्पसूत्रे मैथुनलक्षणमित्यभ्याख्यानदानमविरतिकावादलक्षणश्चतुर्थः प्रायश्चित्तप्रस्तारः ४ । अपुरुषवादप्रस्तारो यथा - कोऽपि साधू रत्नाधिकेन दुष्प्रत्युपेक्षणादिस्खलने तर्जित - छिद्रान्वेषी भिक्षातो निवृत्त्य रत्नाधिकमुद्दिश्याचार्य भणति - नूनमेष रत्नाधिकोऽपुरुषो नपुंसको वर्त्तते, आचार्येण प्रोक्तम् त्वया कथं ज्ञातम् ! तेनोक्तम् - ममैतस्य निजकैः कथितं यदर्थं नपुंसकः प्रव्राजितो भवतेति । ततो मयाऽपि ज्ञातम् - हसितस्थितचङ्क्रमितशरीर भाषादिलक्षणैः 'अयं नपुंसकः' इति । एवमभ्याख्यानदानं पञ्चमोऽपुरुषवादरूपः प्रायश्चित्तप्रस्तारः ५ । दासवादप्रस्तारो यथा-पूर्ववदेव कोऽपि साधू रत्नाधिकमुद्दिश्याचार्य प्रति भगति - अयं रत्नाधिको दासोऽस्ति । आचार्यैरुक्तम् - कथं जानासि ?, स प्राह- निजकैर्मम कथितं मयाऽपि ज्ञातं च यदसौ शीघ्रकोपशीलः उचितानुचितविवेकविकलां भाषां भाषते, इत्यादिलक्षणैः शरीरसंस्थानादिनाऽपि चास्य दासत्वमनुमीयते इत्याद्यभ्याख्यानदानं दासवादरूपः षष्ठः प्रायश्चित्तप्रस्तारः ६ । एते षट् कल्पस्य प्रस्ताराः प्रायश्चित्तरचनाविशेषाः प्रतिपादिता इति ६ । तत्स्था प्राप्तः अथ सूत्रव्याख्या- 'इच्चेते' इत्यादि, इच्चेते इत्येतान् पूर्वोक्तान् छ कप्पस्स पत्थारे षट् कल्पस्य प्रस्तारान् पत्थारेत्ता प्रस्तीर्य यदि स प्रस्तारकोऽभ्याख्यानदायकः साधुः स्वदत्त - मभ्याख्यानम् सम्भं अपडिपूरेमाणे सम्यक् यथार्थतया अप्रतिपूरयन् तद्वाणपत्ते सिया स्यात्, तत् प्राणातिपातादिकर्त्तर्यत्स्थानं तत्स्थानं प्रायश्चित्तस्थानं प्राप्त भवति । अयं भावः- यत् प्राणातिपातादिरूपेणाभ्याख्यानमन्योपरि येन दत्तं स तस्यासद् - भूततया स्वारोपिताभ्याख्यानस्य सत्यतया समर्थनं कर्त्तुं न शक्नोति तदा तस्यैव अभ्याख्यान दायकस्यैव प्राणातिपातादिकर्तुरिव प्रायश्चित्तस्थानं प्राप्तं भवति, आचार्येण तस्याऽभ्याख्यानदायकस्यैव प्राणातिपातादिपापप्रायश्चित्तं दातव्यमिति । यदि अभ्याख्यानदायकोऽभ्याख्यानदानविषये विवदमानो भवेत्तदा तस्य प्रतिविवादमुत्तरोत्तरं प्रायश्चित्तवृद्धिः कर्त्तव्या, तथाहिप्रथमं मार्गे रत्नाधिकं - 'भवता दर्दुरो मारितः' इति कथयित्वा ततो निवृत्त्याचार्यसमीपं तत्कथनार्थं जति तदा अभ्याख्यानदातृत्वेन तस्याभ्याख्यानदायकस्य मासलघुप्रायश्चित्तं भवति, ततः परं भणने मासगुरु । तस्य भणने यदि आचार्यो यस्योपर्यभ्याख्यानं प्राप्तं तं साधुमाहूय पृच्छति - किं त्वया दर्दुरो मारितः स कथयति-न मारितः, एवं तेन कथिते तस्याभ्याख्यानदायकस्य चतुर्लघुप्रायश्चित्तं भवति । तेन भूयः प्रच्छने प्रेरित आचार्यस्तं पुनः पृच्छति तदाऽपि पूर्ववदेव ‘न मारितः' इति कथने तस्याभ्याख्यानदातुश्चतुर्गुरु । पुनश्वमो भणति यदि न विश्वासस्तदा तत्रोपस्थिता गृहस्थाः प्रष्टव्याः साधवो गृहस्थान् प्रष्टुं गच्छन्ति, पृष्टे सति षड्लघु, पृष्टा गृहस्था भणन्ति-नास्माभिरयं दर्दुरमारणं कुर्वन् दृष्टः, इति तैः कथने षड्गुरु, साधवः समागताः कथयन्ति नापद्रावितोऽनेन दर्दुर इति तदा छेदः । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णभाष्यावचूरी उ०६ सू० ३-५ साधुसाध्वीनां परस्परं कण्टकादिनिस्सारणविधिः १४९ अथाभ्याख्यानदायको भणति - यन्नाम गृहस्था असंयता अलीकं सत्यं वा ब्रुवते नैतेषां वचनप्रत्ययः, एवं भणतो मूलम् । यदि स भणति गृहस्थाश्च यूयमेकत्र मिलिताः, अहं पुनरेकः कोऽन्यो मम पक्षे ? इति कथनेऽनवस्थाप्यम् । पुनर्गृहस्थान् भणति - सर्वेऽपि यूयं प्रवचनस्य बाह्याः, इति भणतस्तस्याभ्याख्यानदायकस्य पाराश्चिकं प्रायश्चितं समापतति । एवमु त्तरोत्तरं विवदतः पाञ्चिकं यावत् प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवतीति । एवमेव यदि रात्निकेन सत्यमेव दर्दुरो व्यपरोपितः पृष्टे च भूयो विवादपूर्वकं निह्नुते तदाऽभ्याख्यानदायकस्येव तस्याप्युत्तरोत्तरं प्रायश्चित्तवृद्धिः कर्त्तव्या । तत्राभ्याख्यानदायकस्यैक एव मृषावादलक्षणो दोषः किन्तु द्वितीयस्याभ्याख्यातस्य रात्निकस्य तु दर्दुरवधं कृत्वा निहुते इति द्वौ दोषौ भवतः, एकः प्राणातिपातजनितो दोषः, द्वितीयो मृषावादजनितश्चेति । यदि चाभ्याख्यानदायकोऽवमरानिकः तथाऽभ्याख्यातो रात्निकश्च अभ्याख्याने दत्तेऽपि प्राणातिपाते कृतेऽपि च स्वकथनसिद्धयर्थं न विवदति यथार्थ यथायोगं प्रायश्चित्तं गृह्णाति तदा न तयोः प्रायश्चित्तवृद्धिः कर्तव्येति । एवमन्ये मृषावादादिप्रस्तारा अपि स्वयं भावनीया इति ॥ सू० २ ॥ अथ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां 'परस्परं' कण्टकाद्युद्धरणप्रभृतिविषये विधिमाह - 'निगंथस्स य' इत्यादि । सूत्रम् - णिग्गंथस्सय अहे पायंसि खाणु वा कंटए वा हीरए वा सक्करे वा परिया वज्जेज्जा तं च णिग्गंथे नो संचाएइ नीहरितए वा विसोहित्तए वा तं णिग्गंथी णीहरमाणी वा विसोमाणी वा णाइक्कमइ ॥ सू० ३ ॥ छाया - निर्ग्रन्थस्य चाधः पादे स्थाणुर्वा कंटको वा हीरकं वा शर्करं वा पर्यापद्येत् तच्च निर्ग्रन्थो नो शक्नुयात् निर्हतुं वा विशोधितुं वा तं निर्ग्रन्थी निर्हरन्ती वा विशोधयन्ती वा नातिक्रामति ॥ सू० ३ ॥ चूर्णी - 'णिग्गंथस्स य' इति निर्ग्रन्थस्य गच्छतः प्रमादादिकारणवशात् अहे पायंसि अघः पादे पादयोः पादस्य वा अधः प्रदेशे पादतले इत्यर्थः खाणू वा स्थाणुर्वा, तत्र स्थाणुर्नाम छिन्नगोधूमादेः क्षेत्र संलग्नमूलस्थितोऽवयवविशेषः कंटए वा कंटको वा कण्टकिवृक्षस्य बर्बुरादेरवयवविशेषः होरए वा हीरकं वा, तत्र हीरकं नाम सूचीवत् तीक्ष्णकाष्ठaust वा सक्करे वा शर्करं वा शर्करं नाम पाषणखण्डः, तच्च स्थाण्वादि भिक्षाद्यानेतुं गच्छतः श्रमणस्य पादतले परियावज्जेज्जा पर्यापयेत प्राप्नुयात् पादे संलग्नं भवेत् चरणः कंटकादिना विद्धो भवेदित्यर्थः तं च णिग्गंथे तच्चपादसंलग्नकण्टकादिकम् निर्ग्रन्थः श्रमणः स्वयमन्यो वा साधुः नो संचाइए नो शक्नुयात् नीहरितए वा विसोहित्तए वा निर्हर्ते वा विशोधितुं वा कश्चित् श्रमणः कारणवशात् पादतलसंलग्नकण्टकादिकम् निष्कासयितुमुद्धर्त्तं वा न शक्नुयात् न समर्थो भवेदित्यर्थः, अथ यदा स्वयमन्यो वा श्रमणस्तान् कण्टकादीन् समुद्धर्त्तु नो शक्नुयात् तदा तं णिग्गंथी णीहरमाणी वा श्रमणचरणात् संलग्नकण्टकादिकं निर्हरन्ती निष्कासयन्ती Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० बृहत्कल्पसूत्रे 'विसोहेमाणी वा' विशोधयन्ती समुद्धरन्ती णाइक्कमइ नातिक्राम्यति तीर्थकराज्ञाम् , सा तीर्थकराज्ञाया उल्लङ्घनं न करोति, जिनाज्ञाविराधिका न भवतीत्यर्थः ॥ सू० ३ ॥ सूत्रम्-णिग्गंथस्स य अच्छिसि पाणे वा बीए वा रए वा परियावज्जेज्जा तं च णिग्गंथे नो संचाएइ णीहरीत्तए वा विसोहित्तए वा तं णिग्गंथी णीहरमाणी वा विसोहेमाणी वा, णाइक्कमइ ॥ सू० ४॥ छाया-निर्ग्रन्थस्य चाक्षिणि प्राणो वा, बीज चा, रजो वा, पर्यापद्येत तच्च निर्ग्रन्थो नो शक्नुयात् निहतम् वा, विशोधितुं वा, तं निर्ग्रन्थी निर्हरन्ती वा विशोधयन्ती वा नातिक्रामति ॥ सू० ४॥ चूर्णी-णिग्गंथस्स य इति निर्ग्रन्थस्य श्रमणस्य अच्छिसि अक्षिणि नेत्रे पाणे वा प्राणो वा-क्षुद्रजीवो मशकादिर्वा बीएवा बीजं वा शालिगोधूमादिबीजं, 'रए वा' रजो वा-धूलिकणो वा पारियावज्जेज्जा पर्यापयेत परिपतेत् , नेत्रे यदि क्षुदजन्तुप्रभृतिकं वस्तु नेत्रकष्टकारकं पतितं भवेदित्यर्थः, तं च निगंथे नो संचाइए णीहरित्तए वा-विसोहित्तए वा तच्च निर्ग्रन्थोऽन्यः कोऽपि श्रमणः न शक्नुयात् निहत्तुं वा विशोधयितुं वा तद् नेत्रपतितं क्षुद्रजीवादिकम् निर्ग्रन्थोऽन्यः श्रमणः साधुः नेत्रपतितं क्षुदनीवादिकं साधुनेत्रात् निहत्तुं निष्कासयितुं विशोधयितुं वा न शक्नु. यात् समर्थो न भवेत् तदा तं णिग्गंथी णीहरमाणी वा विसोहेमाणी वा णाइक्कमइ तच्च श्रमणनेत्रपतितक्षुद्रजीवादिकं श्रमणस्याऽशक्तौ सत्यां निग्रन्थी श्रमणी निर्हरन्ती साधुनेत्रात् क्षुदजीवादिकं निःसारयन्ती विशोधयन्ती अपनयनं कुर्वन्ती नातिक्रामति तीर्थकराज्ञां नोल्लङ्घयति ॥ सू० ४ ॥ सूत्रम्-निग्गंथीए य अहे पायंसि खाणू वा कंटए वा हीरए वा सक्करए वा परियावज्जेज्जा, तं च णिग्गंथी णो संचाएइ णीहरित्तए वा विसोहित्तए वा तं च णिग्गंथे नीहरमाणे वा विसोहेमाणे वा णाइक्कमइ ॥ सू० ५ ॥ . छाया-निर्ग्रन्थ्याश्चाधः पादे स्थाणुर्वा कण्टको था हीरक वा शर्करं वा पर्यापोत तंच निर्ग्रन्थी नो शक्नुयात् निर्हर्नु वा विशोधयितुं वा तं च निर्ग्रन्थो निर्हरन् वा विशोधयन् वा नातिकामति ॥ सू० ५॥ . चूर्णी-'णिग्गंथीए य' इति निर्ग्रन्थ्याः अहे पायंसि अधः पादे चरणस्याधोभागे पादतले इत्यर्थः खाण वा स्थाणुर्वा पूर्वोक्तस्थाणुकण्टकहीरकशर्करादिकं परियावज्जेज्जा पर्यापद्यत संलगेत् स्थाणुप्रभृतिना पादो विद्ध इत्यर्थः तं च निग्गंथी नो संचाइए णीहरित्तए वा विसोहित्तए वा तच्च निम्रन्थी नो शक्नुयात् निर्ह वा, विशोधयितुं वा, तत्र तत् श्रमणीपदसंलानकण्टकादिकं श्रमणी स्वयं यस्याः पादे स्थाण्वादि लग्नं तद्वयतिरिका वा साध्वी नो शक्नुयात् न Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्षिभाज्याषचूरी उ० ६ सू०६-१० प्रस्खलनादिकारणेसाव्या ग्रहणे साधोविधिः १५१ समर्था भवेत् निहर्तुम् निष्कासयितुं विशोधयितुं पादादुद्धर्तुम् तदा 'तं णिगंथे नीहरमाणे वा विसोहमाणे वा णाइक्कमइ तच्च निर्ग्रन्थो निहरन् वा विशोधयन् वा नातिकामति तीर्थकराज्ञां नोलङ्घयति ॥ सू०५॥ सूत्रम्-णिग्गंथीए अच्छिसि पाणे वा बीए वा रए वा परियावज्जेज्जा तं च णिग्गंथी णो संचाएइ णीहरित्तए वा विसोहित्तए वा तं च णिग्गंथे णीहरमाणे वा विसोहेमाणे वा णाइक्कमइ ॥ सू० ६॥ छाया-निर्ग्रन्थ्या अक्षिणि प्राणो वा बीजं वा रजो वा पर्यापद्येत तच्च निर्ग्रन्थी नो शक्नोति निहत्तुं वा विशोधयितुं वा तच्च निर्ग्रन्थो निर्हरन् वा विशोधयन् वा नातिकामति ॥ सू० ६॥ चूर्णी-णिग्गंथीए' इति । निर्ग्रन्ध्याः 'अच्छिसि' अक्षिणि-नयने पाणे वा प्राणो वा-प्राणः क्षुद्रजन्तुर्मशकादिः बीए वा बीजं वा लघुतमं फलादे/जम्'रए वा रजो वा-धूलिकणो वा कारणवशात् श्रमण्या नेत्रे 'परियावज्जेज्जा' पर्यापद्येत परिपतेत् नेत्रे समापतितं भवेत् 'तं च णिग्गंथी णो संचाएइ णीहरित्तए वा विसोहित्तए वा' तच्च निर्ग्रन्थी नो शक्नोति निर्हर्तुं वा विशोधयितुं वा तत्र तं श्रमण्यक्षिपतितं क्षुद्रजीवमशकादिकम् यदि निम्रन्थी श्रमणी निहत्तुं निष्कासयितुं विशोधयितुमपाकर्तुं न शक्नुयात् तदा "तं च निग्गंथे णीहरमाणे वा विसोहेमाणे वा नाइ. क्कमई" तं च निर्ग्रन्थो निर्हरन् वा विशोधयन् वा नातिकामति ॥ सू० ६ ॥ सूत्रम्-णिग्गंथे णिग्गंथिं दुग्गंसि वा विसमंसि वा पब्वयंसि वा पक्खलमाणि वा पवडमाणि वा गिह्नमाणे वा अवलंबमाणे वा गाइक्कमइ ॥सू०७॥ छाया-निर्ग्रन्थो निर्ग्रन्थीं दुर्गे वा विषमे वा पर्वते वा प्रस्खलन्तीं वा प्रपतन्ती वा गृहन् वा अवलम्बमानो वा नातिकामति ॥ सू० ७॥ चूर्णी-णिग्गंथे णिग्गंथिं' इति । निम्रन्थः निम्रन्थीं कदाचित् दुग्गंसि वा दुर्गे वा पर्वतादिविकटभूमौ विसमंसि वा विषमे उच्चनीचप्रदेशे पिच्छलप्रदेशे वा 'पव्वयंसि वा पर्वते वा पक्खलमाणि वा' प्रस्खलन्तीं चरणादिसंकाचेन पतन्तीमिव भवन्ती वा पवडमाणि वा प्रपतन्ती वा पतितुमारब्धां गिण्हमाणे वा गृह्णन् हस्तादिना तस्या ग्रहणं कुर्वन् अवलंबमाणे वा अवम्बमानो वा पतन्त्याः देहयष्टयाद्याश्रयेण साहाय्यं कुर्वन् इत्यर्थः णाइक्कमइ नातिकामति ॥ सू० ७॥ सूत्रम्-णिग्गथे णिग्गंथि सेयंसि वा पंकंसि वा पणगंसि वा उदगंसि वा ओकसमाणि वा ओबुड्डमाणिं वा गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा गाइक्कमइ ॥ सू० ८॥ छाया-निर्ग्रन्थो निर्ग्रथों सेके वा पङ्के वा पनके वा उदके वा अवकर्षन्ती घा अवब्रुडन्ती वा गृहन् वा अवलम्बमानो वा नातिकामति ॥ सू० ८॥ .. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ बृहत्कल्पसूत्रे ___ चूर्णी-णिग्गंथे णिग्गंथीं वा' इति । निम्रन्थः निम्रन्थी सेयंसि वा सेके वा, तत्र सेको जलसहितकर्दमार्थबोधकः तथा च सेके जलसहितकर्दमे वा पंकसि व पंके वा शुष्कप्राये कर्दमे पणगंसि वा पनके सततजलसम्पत्पिाषाणादौ संलग्नो हरितवर्णों वनस्पतिविशेषः 'लीलण--फूलण' इति प्रसिद्ध तस्मिन् उदगंसि वा उदके जले वा ओकसमाणिं वा अवकर्षन्ती वा जलस्रोतसा नीयमानां 'ओबुडमाणि वा' अवब्रुडन्ती जलसहितकर्दमे पंके जले वा निमज्जन्ती श्रमणी श्रमणः 'गिण्हमाणे' गृह्णन् उद्धरणेच्छया तथा 'अवलंबमाणे वा' अवलम्बमानो वा धारयन् वा 'नाइक्कमइ नातिकामति तीर्थकृतामाज्ञां नोल्लङ्घयतीति ॥ सू० ८॥ सूत्रम्-जिग्गंथे णिग्गंथि णावं आरोहमाणिं वा ओरोहमाणिं वा गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णाइक्कमइ ॥ सू० ९॥ छाया-निर्ग्रन्थो निर्ग्रन्थी नावम् आरोहन्ती वा अवरोहन्ती वा गृहन् वा अवलम्बमानो वा नातिकामति ॥ स्० ९॥ चूर्णी-'निग्गंथे' इति । निर्ग्रन्थः 'णिग्गंथिं' णिग्रन्थीं 'णावं' नावं नौकां ‘आरोहमाणि वा' आरोहन्ती-समारोहन्तीम् 'ओरोहमाणिं वा' अवरोहन्तीम् अवतरन्तीम् 'गिण्हमाणे वा' गृह्णन् अवलंबमाणे वा अवलम्बमानो वा श्रमणः णाइक्कमइ नातिक्रमति तीर्थंकराज्ञां नोल्लङ्घयति न विराधयतीति भावः ॥ सूत्र ९ ॥ सूत्रम्-खित्तचित्तं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा गाइक्कमइ ॥ सू० १०॥ छाया-क्षिप्तचित्तां निम्रन्थीं निर्ग्रन्थो गृहन् वा अवलम्बमानो वा नातिकामति ॥ सू० १० ॥ चूर्णी-'खित्तचित्त' इति । क्षिप्तचित्ताम्, तत्र क्षिप्तं विक्षिप्तम् उद्विग्नं मनोग्लान्यादिना चित्तमन्तःकरणं यस्याः श्रमण्याः सा क्षिप्तचित्ता, तादृशीम् निर्ग्रन्थीं निर्ग्रन्थः श्रमणः 'निण्हमाणे वा गृह्णन् वा अवलम्बमाणे वा अवलम्बमानो वा धारयन् वा 'णाइक्कमई' नातिक्रामति तीर्थकराज्ञां नोल्लङ्घयति ॥ सू० १०॥ सूत्रम्-एवं दित्तचित्तं ॥ सू० ११॥ जक्खाइटें० ॥ सू० १२ ॥ उम्मायपत्तं० ॥सू० १३॥ उवसग्गपत्तं णिग्गंथिं णिग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमई॥ सू० १४॥ छाया -पवं दीप्तचित्तां यक्षाविष्टामुन्मादप्राप्तामुपसर्गप्राप्तां निर्ग्रन्थीं निग्रंथो गृहन् वा अवलम्बमानो वा नातिकामति ॥ सू० ११-१४॥ चूर्णी-‘एवं दित्तचित्तं' एवं दशमसूत्रोक्तप्रकारेण दीप्तचित्ताम्, तत्र दीप्तं लौकिकलोकोत्तरिकवस्तुविषयकहर्षोद्रेकेण भ्रान्तं चित्तमन्तःकरणं यस्याः सा दीप्तचित्ता, ताम् । यद्वा 'जक्खा Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णि भाग्यावचूरी उ० ६ सू० १५-१९ कल्पस्य कौकुचिकादिपदपरिमन्धुवर्णनम् १५३ इट्ठ यक्षाविष्टाम् व्यन्तरदेवपरिगृहीताम्, यद्वा उम्मायपत्तं उन्मादप्राप्ताम्, तत्रोन्मादो नाम - रोगादिना चित्तानवस्थता तद्युक्ताम्, उवसग्गपत्तं उपसर्गप्राप्ताम् - देवमनुष्यतिर्यगादिकृतोपसर्गविशिष्टाम् णिग्गंथिं निर्ग्रन्थीं श्रमणीम् निग्गंथे निर्मन्थः श्रमणः गिण्हमाणे गृह्वन् क्वचित्पतनादितः क्वचिदौषधादिपानार्थं वा अवलम्बमाणे वा अवलम्बमानो वा धारयन् वा इक्म नातिक्रामति तीर्थकराज्ञां नोल्लङ्घयति ॥ सू० ११-१४ ॥ सूत्रम् - - साहिगरणं ॥ सू० १५ ॥ सपायच्छित्तं ॥ सू० १६ ॥ भत्तपाणपडियाइक्खियं ॥ ० १७ ॥ अट्ठजायं निग्गंथिं णिग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा इक्कम || सू० १८ ॥ छाया - साधिकरणाम् ॥ सू० १५ ॥ सप्रायश्विताम् ॥ स्०-१६ ॥ भक्तपानप्रत्याख्याताम् ॥ सू० १७ ॥ अर्थजातां निर्ग्रन्थीं निर्ग्रन्थो गृहन् वा अवलम्बमानो वा नातिक्रामति ॥ सू० १८ ॥ चूर्णी - 'साहिगरणं' इति । साधिकरणां, तत्राधिकरणं कलहः तेन युक्तामिति साधिकरणाम् -कलहासक्तमानसाम्, तथा सपायच्छित्तं सप्रायश्चित्तां प्रायश्चितेन युक्तामिति सप्रायश्चिताम् प्रायश्चित्तप्राप्तां प्रायश्चित्तेन चलचित्तामित्यर्थः भत्तपाणपडियाइक्खियं भक्तपानप्रत्याख्याताम्, तत्र भक्तमोदनादिकं, पानं जलम्, ते प्रत्याख्याते यया सा भक्तपानप्रत्याख्याता - ताम् गृहीतानशनत्रतामित्यर्थः, अट्ठजायं अर्थनाताम् - अर्थलुब्धाम् भूमिपतितं सुवर्णादिकं दृष्ट्वा तद् ग्रहीतुं नम्रीभूताम्, कुत्राप्यर्थराशिं दृष्ट्वा सञ्जातविकारेण चलचित्ताम्, यद्वा-अर्थाकुलं पतिपुत्रादिकं ज्ञात्वा तत्सहायनिमित्तं द्रव्योपार्जनाय संयमाच्चलितचित्ताम्, यद्वा शिष्यानिमित्तं द्रव्यलाभार्थं गन्तुकामाम, एतादृशीम् णिग्गंथिं निर्ग्रथीं - श्रमणीम् गिण्हमाणे गृह्णन् उपदेशेन शरीरेण वा स्पृष्ट्वा निवारयन् अबलम्बमाणे वा अवलम्बमानो वा णिग्गंथे निर्ग्रन्थः - श्रमणः णाइक्कमइ नातिक्रामति- तीर्थकरस्याज्ञां नोल्लङ्घयतीति भावः ॥ सू० १५- १८ ॥ श्रमणीनां सामाचारीलक्षणं कल्पं दर्शयित्वा संप्रति कल्पस्य प्रतिबन्धकान् दर्शयितुमाह-'छ कप्पस्स' इत्यादि । सूत्रम्(- छ कप्पस्स पलिमंधू पन्नत्ता, तंजा - कोकुइए संजमस्स पलिमंधू १, मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमंधू २, तिंतिणिए एसणागोयरस्स पलिमंधू ३, चक्खुलोलए २० Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વર वृहत्कल्पसू stratory पलिमंधू ४, इच्छालोलए मुत्तिमग्गस्स पलिमंधू ५, भिज्जाणियाणकरणं सिद्धिमग्गस्स पलिमंधू, सव्वत्थ भगवया अणियाणया पसत्था ६ ॥ सू० १९ ॥ छाया - षट् कल्पस्य परिमन्थवः प्रशप्ताः, तद्यथा - कौकुविकं संयमस्य परिमन्धुः १, मौर्य सत्यवचनस्य परिमन्थुः २, तिंतिणिकम् एषणागोचरस्य परिमन्थुः ३, चक्षुलौल्यम् ऐर्यापथिकस्य परिमंथुः ४, इच्छालौलुप्यं मुक्तिमार्गस्य परिमन्थुः ५, भिध्यानिदान करणं सिद्धिमार्गस्य परिमन्धुः, सर्वत्र भगवता अनिदानता प्रशस्ता ६ ॥ सू० १९ ॥ चूर्णी - 'छ कप्पस्स पलिमधू पन्नत्ता' इति । षट् - षट्संख्यकाः कल्पस्य साधुसामाचारीलक्षणस्य परिमन्थवः - परिमथ्नन्तीति परिमन्थवः घातका इत्यर्थः प्रज्ञप्ताः कथिताः । तानेव षड् भेदान् दर्शयितुमाह - तं जहा इत्यादि, तं जहा तद्यथा - कोकुइए संजमस्स पलमंधू कौकुचिक संयमस्य परिमन्धुः, तत्र - कौ - कौकुचिकम् - कुचेष्टा भाण्डचेष्टा वा, विकृतं मुखं कृत्वा लोकानामग्रतः प्रदर्शनम्, एतादशं कौकुचिक संयमस्य चारित्रस्य परिमन्धुः, कौकुचिकस्य कन्दर्पोदीपकतया संयमस्य सुतरामेव विघातकसंभवादिति, इति प्रथमोभेदः १ । मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमंधू मौखर्यं मुखरता सत्यवचनस्य परिमन्धुः, तत्र मुखरता वाचालता निरर्थकमधिकजल्पनम् सत्यवचनस्य परिमन्धुः, वाचालतायाः सत्यप्रतिबन्धकत्वादिति द्वितीयो भेदः २ । तितिणिए एसंणागोयरस्स पलिमन्धू तितिणिक मेषणागोचरस्य परिमन्धुः, तत्र तितिणिकं सर्वदा भिक्षाया अलाभे गृहस्वामिनं प्रति - 'कृपणोऽयम्' इत्यादिरूपेण तण-तण ( बड़बड) शब्दकरणं तत्, एषणा – विशुद्धभक्तपानादि गवेषणरूपा, तत्प्रधानो यो गोचरः गोचरचर्या, तस्य परिमन्धुरिति तृतीयो भेदः ३ । चक्खुललए इरियावहियाए पलिमन्धू चक्षुलल्यम् ऐर्यापथिकस्य परिमन्थुः तत्र चक्षुलल्यं नेत्रयोश्चाञ्चल्यम् ईर्ष्यासमितेर्घातकम् चक्षुषश्चाञ्चल्येन मार्गे गमनसमये सम्यगवलोकनाभावे संयमात्मविराधनसंभवात् ईर्यासमितेः स्वयमेव विघातादिति चतुर्थो भेदः ४ । इच्छालोलुए मुत्तिमग्गस्स पलिमन्धू इच्छालोलुप्यं मुक्तिमार्गस्य परिमन्थुः, इच्छालौलुप्यम् आहारादिवाच्छायां गृद्धिभाव:, इति पञ्चमो भेदः ५ । भिज्जाणियाणकरण सिद्धिमग्गस्स पलिर्मन्थू भिध्यानिदानकरणं सिद्धिमार्गेस्य परिमन्थुः, भिध्या-लोभो गृद्धिरित्यर्थः, तद्वशात् निदानकरणम्, तच्च सिद्धिमार्गस्य परिमन्धुः, Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णिमायापधुरी उ०६ सू० २० । षविधकल्पस्थितिवर्णनम् १५५ इति षष्ठो भेदः६। यतः सव्वत्य भमक्या अणियाणया पसत्था सर्वत्र भगवता अनिदानता प्रशस्ता प्रशंसितेति ॥ सू० . १९॥ .' सम्प्रति कल्पस्थितेर्भेदान् दर्शयितुमाह-'छविहा' इत्यादि । ' सूत्रम्-छविहा कप्पट्टिई पण्णत्ता तं जहा-सामाइयसंजयकप्पटिई १, ओवहावणियसंजयकप्पट्टिई २, णिव्विसमाणकप्पट्टिई ३, णिव्क्टिकाइयकप्पद्धिई ४, जिणकप्पट्टिई ५, थेरकप्पट्टिई ६। त्ति बेमि ॥ सू० २०॥ कप्पस्स छठ्ठो उद्देसो समतो छाया - षविधा कल्पस्थितिः प्रशता तथा सामायिकसंयतकल्पस्थितिः १, छेदोपस्थापनीयसंयतकल्पस्थितिः २, निविंशमानकल्पस्थितिः ३, निविष्टकायिककल्पस्थितिः ४, जिनकल्पस्थितिः ५, स्थविरकल्पस्थितिः ६। इति ब्रवीमि । सु० २०॥ ___ कल्पस्य षष्ठ उद्देशकः समाप्तः ॥६॥ चूर्णी-'छव्विहा' इति। षड्विधा षट्प्रकारा कप्पढिई पण्णत्ता कल्पस्थितिः प्रज्ञप्ता कथिता, तत्र कल्पे संयताचारे स्थितिरवस्थानमिति कल्पस्थितिः, अथवा कल्पस्य साधुसामाचारीलक्षणस्य स्थितिमर्यादा इति कल्पस्थितिः, सा षड्विधा प्रज्ञप्ता-निरूपिता । तानेव षड्भेदान् दर्शयितुमाह-तं जहा इत्यादि, तं जहा तद्यथा-सामाइयजयकप्पट्टिई सामायिकसंयतकल्पस्थितिः, तत्र समो रागद्वेषरहितभावः-ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणभावः, तस्याऽऽयः प्राप्तिः, अथवा समय एव सामायिकं सर्वसावद्यकर्मणां विरतिलक्षणम्, तत्प्रधानाः संयताः साधवः, तादृशसाधूनां स्थितिः सा सामायिकसंयतकल्पस्थितिः प्रथमा १, छेदोवडावणियसंजयकप्पट्टिई छेदोपस्थापनीयसंयतकल्पस्थितिः, तत्र छेदनम्-पूर्वपर्यायोच्छेदनम्, उपस्थापनीयमारोपणीयं यत् तत् छेदोपस्थापनीयम् व्यक्तितो महाव्रतेषु आरोपणमित्यर्थः, ततश्च छेदोपस्थापनीयप्रधाना ये संयताः ते छेदोपस्थापनोयसंयताः साधवस्तेषां या कल्पस्थितिः सा छेदोपस्थापनीयसंयतकल्पस्थितिर्द्वितीया २, निविसमाणकप्पदिई निर्विशमानकल्पस्थितिः, तत्र निर्विशमानाः परिहारविशुद्धिकल्पं वहमानाः, तेषां कल्पस्तस्य स्थितिनिर्विशमानकल्पस्थितिस्तृतीयो भेदः ३, निन्विट्ठकायइकप्पहिई निर्विष्टकायिककल्पस्थितिः, तत्र निविष्टकायिको नाम येन परिहारविशुद्धिकं नाम तपो व्यूढम्, निर्विष्ट आसेवितः विवक्षित चारित्रस्वरूपः कायो-देहो यैस्ते निर्विष्टकायिका इति व्युत्पत्तेः, तेषां निर्विष्टकायिकानां कल्पस्थितिरिति निर्विष्टकायिककल्पस्थितिश्चतुर्थी ४ । जिणकप्पहिई जिनकल्पस्थितिः, तत्र जिनाः गच्छविनिर्गताः साधु विशेषास्तेषां जिनानां कल्पस्थितिरिति जिनकल्पस्थितिः पञ्चमी ५, थेरकप्पढिई स्थविरकल्पस्थितिः, तत्र स्थविरा आचार्योपाध्यायादयः गच्छसापेक्षाः साधुवि Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ गृहत्कल्पसूत्रे शेषास्तेषां कल्पस्थितिरिति स्थविरकल्पस्थितिरिति षष्ठी ६ । ति बेमि इति ब्रवीमि — सुधर्मी स्वामी जम्बूस्वामिनं प्रति कथयति—है जम्बु ! यदहं तीर्थंकरमुखात् कल्पस्थितिविषये श्रुतवान् तदेव तुभ्यं कथयामि नतु स्वमनीषया प्रकाप्य कथयामीति ॥ सू० २० ॥ इति श्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषा कलितललित कला पालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकप्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्रीशाहू छत्रपति कोल्हापुररानप्रदत्त" जैनाचार्य ” – पद भूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म - दिवाकर - पूज्यश्री - घासीलाला तिविरचितायां "बृहत्कल्पसूत्रस्य” चूर्णि भाग्याऽवचूरीरूपायां व्याख्यायां षष्ठ उद्देशकः समाप्तः ॥ ६ ॥ समाप्तं सचूर्णिभाष्यावचूरीकं बृहत्कल्पसूत्रम् । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीबृहत्कल्पसूत्रस्य ॥ मूलपाठः सूत्रम् -- नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंधीणं वा आमे तालपलंचे अभिन्ने पडि गाहित्तए ॥१॥ कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा आमे तालपलंबे भिन्ने पडिगाहित्तए ॥२॥ कप्पइ निग्गंथाणं पक्के तालपलंबे भिण्णे वा अभिण्णे वा पडिगाहित्तए ॥३॥ नो कप्पइ निग्गंथीणं पक्के तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए ॥४॥ कप्पइ निग्गंथीणं पक्के तालपलंबे भिन्ने पडिगाहित्तए, सेवि य विहिभिण्णे नो चेव णं अविहिभिण्णे ॥५॥ से गामंसि वा णगरंसि वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा आगरंसि वा दोणमुहंसि वा निगमंसि वा आसमंसि वा संनिवेसंसि वा संवाहसि वा घोसंसि वा अंसियसि वा पुडभेयणंसि वा रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि अवाहिरियसि कप्पइ निग्गंथाणं हेमंतगिम्हासु एगं मासं वत्थए ॥६॥ से गामंसि चा जाव रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि सबाहिरियसि कप्पइ निग्गंथाणं हेमंतगिम्हासु दो मासे वत्थए, अंतो इक्कं मासं, बाहिं इक्कं मासं, अंतो वसमाणाणं अंतो भिक्खायरिया, बाहिं वसमाणाणं बाहिं भिक्खायरिया ॥७॥ से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि अबाहिरियसि कप्पइ निग्गंथीणं हेमंतगिम्हासु दो मासे वत्थए ॥८॥ से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि सबाहिरियसि कप्पइ निग्गंथीणं हेमंतगिम्हासु चत्तारि मासे वत्थए, अंतो दो मासे, बाहिं दो मासे, अंतो वसमाणीणं अंतो भिक्खायरिया, बाहिं वसमाणीणं बाहिं भिक्खायरिया ॥९॥ से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा एगवडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा एगयओ वधए ॥१०॥ गामंसि वा जाव रायहाणिसिवा अभिणिवगडाए अभिनिदुवाराए अभिणिक्खमणपवेसाए कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा एगयओ वत्थए ॥११॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नो कप्पइ निग्गंथीणं आवणगि हंसि वा रत्थामुहंसि वा, सिंघाडगंसि वा चउक्कंसि वा चच्चरंसि वा अंतरावणंसि वा वत्थए ॥१२॥ कप्पइ निग्गंथाणं आवणगिहंसि वा जाव अंतरावणंसि वा वत्थए ॥१३॥ नो कप्पइ निग्गंथीणं अवंगुयदुवारिए उवस्सए वत्थए । एगं पत्थारं अंतो किच्चा एगं पत्थारं बाहिं किच्चा ओहाडियचिलिमिलियागंसि एवं णं कप्पइ वत्थए ॥१४॥ कप्पइ निग्गंथाणं अवंगुयदुवारिए उवस्सए वत्थए ॥१५॥ कप्पइ निग्गंथीणं अंतोलितं घडिमत्तयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥१६॥ नो कप्पइ निग्गंथाणं अंतोलित्तं घडिमत्तयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥१७॥ कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथोणं वा चेलचिलिमिलियं धारित्तए वा, परिहरिए बा। नो कप्पइ निग्गंथाण निग्गंथीण वा दगतीरंसि चिट्टित्तए वा निसीइत्तए वा, तुयत्तिए वा निदाइत्तए वा, पयलाइत्तए वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अहरित्तए, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिद्ववित्तए, सज्झायं वा करित्तए, धम्मजागरियं वा जागरित्तए, काउस्सग्गं वा करित्तए, ठाणं वा ठाइत्तए॥१९॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सचित्तकम्मे उवस्सए वत्थए ॥२०॥ कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अचित्तकम्मे उवस्सए वत्थए ॥२१॥ नो कप्पइ निग्गंथीणं सागारियअणिस्साए वत्थए ॥२२॥ कप्पइ निग्गंथीणं सागारियणिस्साए वत्थए ॥२३॥ कप्पइ निग्गंथाणं सागारियस्स णिस्साए वा अणिस्साए वा वत्थए ॥२४॥ नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा सागारियउवस्सए वत्थए ॥२५॥ कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अप्पसागारिए उवस्सए वत्थए ॥२६॥ नो कप्पइ निग्गंथाणं इत्थीसागारिए उवस्सए वत्थए ॥२७॥ कप्पइ निग्गंथाणं पुरिससागारिए उवस्सए वत्थए ॥२८॥ नो कप्पइ निग्गंथीणं पुरिससागारिए उवस्सए वत्थए ॥२९॥ कप्पइ निग्गंथीणं इत्थीसागारिए उवस्सए वत्थए ॥३०॥ नो कप्पइ निग्गंथाणं पडिबद्धसिज्जाए वत्थए ॥३१॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कप्पइ निग्गंथीणं पडिबद्धसिज्जाए वत्थए ॥३२।। नो कप्पइ निग्गंथाणं गाहावइकुलस्स मज्झमझेणं गंतुं वत्थए ॥३३॥ कप्पइ निग्गंथीणं गाहावइकुलस्स मज्झमज्झेण गंतु वत्थए ॥३४॥ भिक्खू य अहिगरणं कटु तं अहिगरणं विओसवित्ता विओसवियपाहुडे, इच्छाए परो आढाइज्जा इच्छाए परो नो आढाइज्जा, इच्छाए परो अब्भुट्ठिज्जा, इच्छाए परो नो अब्भुहिज्जा, इच्छाए परो वंदिज्जा इच्छाए परो नो वंदिज्जा, इच्छाए परो सं . जिज्जा, इच्छाए परो नो संभुंजिज्जा, इच्छाए परो संवसिज्जा, इच्छाए परो नो संवसिज्जा, इच्छाए परो उपसमिज्जा, इच्छाए परो नो उवसमिज्जा, जो उवसमइ तस्स अत्थि आराहणा, जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा, तम्हा अप्पणा चेव उवसमियव्वं । से किमाहु भंते ! ? उवसमसारं सामण्णं ॥३५॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वासावासेषु चरित्तए ॥३६॥ कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा हेमंतगिम्हासु चरित्तए ॥३७॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वेरज्जविरुद्धरजसि सज्ज गमणं सज्ज आगमण सज्ज गमणागमणं करित्तए। जो खल्ल निग्गंथो वा निग्गंथी वा वेरज्जविरुद्धरजंसि सज्ज गमणं सज्ज आगमणं सज्ज गमणागमणं करेइ करेंतं वा साइज्जई से दुहोवि वीइकममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं ॥३८॥ निग्गथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविहं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेज्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय आयरियपायमूले ठवित्ता दोच्चपि उग्गहं अणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए ॥३९॥ निग्गंथं च णं बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खंतं समाणं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेज्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय आयरियपायमूले ठवित्ता दोच्चंपि उग्गहं अणुण्ण वित्ता परिहारं परिहरित्तए ॥४०॥ निग्गंथिं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविर्से केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेज्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय पवत्तिणोपायमले ठवित्ता दोच्चंपि उग्गहं अणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए ॥४१॥ निग्गंथि च ण वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खंतं समाणं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेज्जा कप्पइ से सागारकडं गहाय पवत्तिणीपायमूले ठवित्ता दोच्चंपि उग्गहं अणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए ॥४२॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा राओ वा वियाले वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्तए, नन्नत्थ एगेणं पुवपडिलेहिएणं सेज्जासंथारएण ॥४३॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा राओ वा वियाले वा वत्थं वा पडिग्गह वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिग्गाहित्तए, नन्नत्थ एगाए हरियाहडियाए, साविय परिभुत्ता वा धोया वा रत्ता वा घट्ठा वा मट्ठा वा संपधृमिया वा ॥४४॥ - नो कप्पइ निग्गंथाण वा, निग्गंधीण वा राओ वा, वियाले वा, अद्धाणगमणं एत्तए ॥४५॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा संखडिं वा संखडिपडियाए अद्धाणगमणं एत्तए ॥४६॥ नो कप्पइ निग्गंथस्स एगाणियस्स राओ वा वियाले वा बहिया वियारभूमि वा, विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा । कप्पइ से अप्पबिइयस्स वा अप्पतइयस्स वा, राओ वा, वियाले वा बहिया वियारभूमि वा, विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥४७॥ नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए राओ वा क्यिाले वा बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा । कप्पइ से अप्पविइयाए वा अप्पतइयाए वा अप्पचउत्थीए वा राओ वा वियाले वा बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥४८॥ कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुरथिमेणं जाव अंगमगहाओ एत्तए, दक्खिणेणं जाव कोसंबीओ, पच्चत्थिमेणं जाव थूणाविसयाओ, उत्तरेणं जाव कुणालाविसयाओ एत्तए, एतावताव कप्पइ, एतावताव आरिए खेत्ते, णो से कप्पइ एत्ती बाहिं । तेण परं जत्थ नाणदंसणचरित्ताई उस्सप्पंति-त्ति बेमि ॥४९॥ पढमो उद्देसो समत्तो ॥१॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ बीओ उद्देसो ॥ उवस्सयस्स अंतो वगडाए सालीणि वा वीडीणि वा मुग्गाणि वा मासाणि वा तिलाणि वा कुलत्थाणि वा गोहूमाणि वा जवाणि वा जवजवाणि वा उक्खित्ताणि वा विक्खित्ताणि वा विकिण्णाणि वा विष्पकिण्णाणि वा नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथी वा अहालदमवि वत्थ ॥ १ ॥ अह पुण एवं जाणिज्जा - ( उवस्सयस्स अंतो वगडाए सालीणि वा० ) नो उक्खिताई नो विक्खित्ताइं नो विइकिण्णाई नो विष्प किण्णाई (किन्तु ) रासिकडाणि वा पुंजकाणि वा भित्तिकडाणि वा कुलियाकडाणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पहिof an arus निम्गंथाण वा निग्गंथीण वा हेमंत गिम्हासु वत्थए ||२॥ अह पुण एवं जाणिज्जा ( उवस्सयस्स अंतो वगडाए सालीणि वा० ) नो रासि - कडाई, नो पुंजकडाई, नो भित्तिकडाई, नो कुलियाकडाई, ( किन्तु ) कोहाउत्ताणि वा, पल्ला उत्ताणि वा मंच उत्ताणि वा, मालाउत्ताणि वा ओलिताणि वा लित्ताणि वा, पिहियाणि वा लंछियाणिवा, मुद्दियाणि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वासावासं वत्थए ||३|| उवस्सस्स अंतो वगडाए सुरावियडकुंभे वा, सोवीरवियडकुंभे वा उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमबि वत्थए । हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, जे तत्थ गयाओ वा दुरायाओ वा परं वसई से संतरा छेए वा परिहारे वा ||४|| उवस्सयस्स अंतो वगडाए सीओदगवियडकुंभे वा उसिणोदगवियडकुंभे वा उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निरगंधाण वा निमांथीण वा अहालंदमपि वत्थए । हुत्था य उवस्यं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा एवं से कप्पर एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा पर वसई से संतरा छेए वा परिहारे वा ||५|| उस्सस्स अंतो वगडाए सव्वराईए जोई झियाएज्जा नो कप्पइ निमगंथाण वा निगथीण वा अहालंदमवि वत्थए, हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा एवं से कप्पर एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसई से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ ६ ॥ उवस्सस्स अंतो वगडाए सव्वराईए पईवे पईवेज्जा नो कप्पर निम्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदममि वत्थए । हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लभेज्जा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए. जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा-परं वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥७॥ उवस्सयस्स अंतो वगडाए पिंडए वा लोयए वा खीरे वा दहि वा णवणीए वा सप्पिं वा तेल्ले वा फाणिए वा पूर्व वा सक्कुली वा सिहरिणी वा उक्खित्ताणि वा विक्खित्ताणि वा विइकिण्णाणि वा विप्पइण्णाणि वा नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा अहालंदमवि वत्थए ॥८॥ ____ अह पुण एवं जाणेज्जा-(उवस्सयस्स अंतो वगडाए पिंडए वा०) नो उक्खिताई वा, नो विक्खित्ताई वा नो विडकिण्णाई वा नो विप्पकिण्णाई वा (किन्तु) रासिकडाणि वा पुंजकडाणि वा भित्तिा.डाणि वा कुलियाकडाणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गथीण वा हेमंतगिम्हासु वत्थए ॥९॥ __अह पुण एवं जाणेज्जा (उवस्सयस्स अंतो वगडाए पिंडए वा०) नो रासिकडाणि वा नो पुंजकडाणि वा नो भित्तिकडाणि वा नो कुलियाकडाणि वा (किन्तु)कोटाउत्ताणि वा पल्लाउत्ताणि वा मंचाउत्ताणि वा मालाउत्ताणि वा ओलित्ताणि वा विलित्ताणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा, कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गं. थीण वा वासवासं वत्थए ॥१०॥ नो कप्पइ निगंथीणं अहे आगमणगिर्हसि वा वियडगिहंसि वा पंसीमूलंसि वा रुक्खमूलंसि वा अब्भावगासियंसि वा वत्थए ॥११॥ कप्पइ निग्गथाणं अहे आगमणगिर्हसि वा वियडगिहंसि वा वसीमूलंसि वा रुक्खमूलंसि वा अब्भावगासियंसि वा वत्थए ॥१२॥ एगे सागारिए पारिहारिए, दो तिन्नि चत्तारि पंच सागारिया पारिहारिया, एग तत्थ कप्पागं ठवित्ता अवसेसे निव्विसेज्जा ॥१३॥ नो कप्पइ निग्रंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंडं बहिया अनीहडं असंसटुं वा पडिग्गाहित्तए ॥१४॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंडं बहिया नीहडं असंसर्ट पडिगाहित्तए । कप्पई निग्गंथाण वा निगंथीण वा सागारियपिंडं बहिया नीहडं संसर्ट पडिगाहित्तए ॥१५॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो खलु निगंथो वा निग्गंथी वा सागारियपिंडं बहिया नीहड़ असंस संस करे, करें वा साइज्जर से दुहओ वीइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहाराणं अणुग्धायं ॥ १६॥ सागारयस्स आहडिया सागारिएण पडिग्गहिया तम्हा डिग्गाहिए ||१७|| सागारियस्स आहडिया सागारिएण दाव एवं से कप्प पडग्गाहित्तए || १८ || सागारियस नीहडिया परेण अप्पडिग्गहिया तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिमात्तिए । सागारियस नीहडिया परेण पडिग्गहिया तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए || १९ ॥ दावए नो से कप्पइ अप्पडिग्गहिया तहा सागारिस सियाओ अविभत्ताओ अव्वोच्छिन्नाओ अव्बोगडाओ अणिज्जूढाओ तम्हा दाव नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए || सागारियस्त अंसियाओ विभताओ वोच्छिन्नाओ वोगडाओ णिज्जूढाओ तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गा - हित्तए ॥ २० ॥ सागारियस प्याभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए, सागारियस्स उवगरणजाए निहिर निसि पाडिहारिए, तं सागारिओ देज्जा, सागारियस्स परिजनो वा देज्जा तम्हा दावए नो से कप्पड़ पडिग्गाहित्तए ॥ २१ ॥ सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए सागारियस उवगरणजाए निट्टिए निसि पाडिहारिए तं नो सागारिओ देज्जा, नो सागारियस्स परिजणो वा देज्जा सागारियस या देज्जा तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ||२२|| सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए सागारियस्स उवगरणजाए fafe fafe curfeहारिए तं सागारिओ देइ सागारियपरिजणो वा देइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ||२३|| सागारयस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए सागारियस्स उवगणजाए निट्ठिए निसि अपाडिहारिए तं नो सागारिओ देइ, नो सागारियस्स परिजणो वा देइ, सागारिFस पूया देइ तम्हा दावए एवं से कप्पइ पहिग्गाहित्तए || २४॥ sure निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाई पंच वत्थाई धारितए वा परिहरितए वा तं जहा - जंगिए भंगिए साणए पोत्तर तिरीडपट्टे नामं पंचमे ॥ २५ ॥ कप्पर निम्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाई पंच रयहरणाई धारितए वा परिहरितए वा, तंजा - उणिए, उहिए, साणए, बच्चाचिप्पए, मुंजचिप्पए नामं पंचमे ॥ २६ ॥ ॥ बीओ उद्देसो समत्तो ॥२॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तइओ उद्देसो॥ नो कप्पइ निग्गथाणं निग्गंथीणं उबस्सयंसि चिट्टित्तए का निसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा निदाइत्तए वा पयलाइत्तए वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारं आहरित्तए, वा उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिट्ठवित्तए, सज्झायं वा करित्तए, झाणं वा झाइत्तए काउस्सग्गं वा करित्तए, ठाणं वा ठाइत्तए ॥१॥ नो कप्पइ निग्गंथीणं निग्गंथउवस्सयंसि चिद्वित्तए वा जाव काउस्सग्गं वा करित्तए ठाणं वा ठाइत्तए ॥२॥ नो कप्पइ निग्गंथीणं सलोमाइं चम्माइं अहिछित्तए ॥३॥ कप्पइ निग्गंथाणं सलोमाई चम्माई अहिद्वित्तए, सेवि य परिभुत्ते नो चेव णं अपरिभुत्ते, सेवि य पाडिहारिए नो चेव णं अपाडिहारिए, सेवि य एगराइए नो चेव णं अणेगराइए ॥४॥ ____नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा कसिणाई चम्माइं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥५॥ कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अकसिणाई चम्माइं धारित्तए वा परिहरितए वा ॥६॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा कसिणाई वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा । कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथोण वा अकसिणाई वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥७॥ __नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अभिन्नाई वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥८॥ कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गथीण वा भिन्नाइं वत्थाइंधारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ नो कप्पइ निग्गंथाणं उग्गहणंतगं वा उग्गहपट्टगं वा धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ कप्पइ निग्गथीणं उग्गहणंतगं वा उग्गहपट्टगं वा धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥११॥ निग्गंथीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठाए चेलटे समुप्पज्जेज्जा, नो से कप्पइ अप्पणो नीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए, कप्पइ से पवत्तिणोणीसाए चेल पडिग्गाहित्तए । नो य से पवित्तिणी सामाणा सिया जे से तत्थ सामाणे आयरिए Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा उवज्झाए वा पवत्तए वा थेरे वा गणी वा गणहरे वा गणाक्च्छे यए वा जं चऽन्नं पुरओ कटु विहरइ कप्पइ से तन्नीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए ॥१२॥ . ___ निग्गंथस्स णं तप्पढमयाए संपव्ययमाणस्स कप्पइ रयहरणगोच्छगपडिग्गहमायाए तिहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्तए, से य पुबोवहिए सिया एवं से नो कप्पइ रयहरणगोच्छगपडिग्गहमायाए तिहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपन्चइत्तए, कप्पइ से अहापडिग्गहियाई वत्थाई गहाय आयाए संपव्वइत्तए ॥१॥ निग्गंथीए णं तप्पढमयाए संपन्वयमाणीए कप्पइ रयहरणगोच्छगपडिग्गहमायाए चउहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपन्नइत्तए । सा य पुचोवद्विया सिया एवं से नो कप्पइ रयहरणगोच्छगपडिग्गहमायाए चउहि कसिणेहिं वत्थेहि आयाए संपवइत्तए, कप्पई से अहापडिग्गहियाई वत्थाई गहाय आयाए संपव्वइत्तए ॥१४॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पढमसमोसरणुद्देसपत्ताई चेलाई पडिग्गाहित्तए । कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा दोच्चसमोसरणुद्देशपत्ताई चेलाई पडिग्गाहित्तए ॥१५॥ कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा अहारायणियाए चेलाई पडिग्गाहित्तए ॥१६॥ कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहारायणियाए सेज्जासंथारए पडिग्गाहित्तए ॥१७॥ ___ कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहारायणियाए किइकम्म करित्तए ॥१८॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अंतरागिहंसि चिहित्तए वा निसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा निदाइत्तए व पयलाइत्तए वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारं आहरित्तए, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिघाणं वा परिद्ववित्तए, सज्झायं वा करित्तए, शाणं वा झाइत्तए, काउस्सग्गं वा करित्तए, ठाणं वा ठाइत्तए । अह पुण एवं जाणेज्जा वाहिए जराजुण्णे तवस्सी दुब्बले किलंते मुच्छिज्ज वा पवडिज्ज वा एवं से कप्पइ अंतरागिहंसि चिद्वित्तए वा जाव ठाणं वा ठाइत्तए ॥१९॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अंतरागिहंसि जाव चउग्गाहं वा पंचगाहं वा आइक्खित्तए वा विभावित्तए वा किट्टित्तए वा पवेइत्तए वा नन्नत्थ एगणाएण वा एगवागरणेण वा एगगाहाए वा एगसिलोएण वा, सेवि य ठिच्चा नो चेव णं अहिच्चा ॥२०॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मो कप्पइ निग्गंणाणं वा निग्गंधीणं वा अंतरागिर्हसि इमाइं पंच महव्ययाई समा. वणाई आइक्खित्तए वा. विभावित्तए वा किट्टित्तए वा पवेइत्तए वा, नन्नस्थ एगनाएण वा जाव एगसिलोएण या, सेवि य ठिचा नो वेव णं अद्विचा ॥२१॥ नो कप्पइ मिग्गंधाण वा मिरगयीण वा पाडिहारियं सागारियसंतयं सेज्जासंथारयं आयाए अपडिहटु संपवइत्तए ॥२२॥ नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा पाडिहारियं सागारियसंतयं सिज्जासंथारयं आयाए अविकरणं कटु संपव्वइत्तए ॥२३॥ कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाटिहारियं सागारियसतयं सेज्जासंथारयं आयाए विकरणं कटु संपव्वइत्तए ॥२४॥ इह खलु निग्गंयाण वा निग्गंधीण वा पाडिहारिए सागारियसंतए सेज्जासंथारए विप्पणसिज्जा से अणुगवेसियव्वे सिया, से य अणुगवेस्समाणे लभेजा तस्सेव पडिदायव्वे सिया, से य अणुगवेस्समाणे नो लभेज्जा एवं से कप्पइ दोच्चंपि उग्गई अणुन्नवित्ता परिहारं परिहरिसए ॥२५॥ जदिवसं समणा निग्गंथा सेज्जासंथारयं विप्पजहंति तदिवसं अवरे समणा मिग्गंथा हव्यमागच्छेज्जा सच्चेष उग्गहस्स पुष्वाणुण्णवणा चिट्ठइ अहालंदमयि उग्गहे ॥ अस्थि या इस्य केइ उक्स्सयपरियावन्नए अचित्ते परिहरणारिहे सच्चेव उग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइ अहालंदमवि उग्गहे ॥२७॥ से वत्थुसु अध्वावडेसु अव्वोगडेसु अपरपरिग्गहिएसु अमरपरिग्गहिएसु सच्चेव उग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइ अहालंदमवि उग्गहे ॥२८॥ से वत्थुसु वावडेसु वोगडेसु परपरिग्गहिएसु भिक्खुभावस्स अट्टाए दोच्चंपि उग्गहे अणुण्णवेयवे सिया अहालंदमवि उग्गहे ॥२९॥ से अणुकु इडेसु वा अणुभित्तिसु वा अणुचरियासु वा अणुफलिहासु वा अणुपंथेसु वा अणुमेरासु वा सज्चेव उग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा अदालंदमवि उग्गहे ॥३०॥ से गामस्स वा जाव रायहाणीए वा बहिया सेण्णं संनिविद्रं पेहाए कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा तदिवसं भिक्खायरियाए गंतुं पडिनियत्तए । नो से कप्पइ तं रयणि तत्थेव उवाइणावित्तए, जो रवलु निग्गंथो वा निग्गंथी वा तं रयणि तत्थेव उवाइणावेइ, उवाइणावंतं वा साइज्जइ, से दुहओवि अइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयं ॥३१॥ से गामसि वा जाव रायहाणिसि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सव्वओ समंता सकोसं जोयणं उग्गहं ओगिण्डित्ता णं चिहित्तए ॥३२॥ ॥ तइओ उहेसो समत्तो.॥३॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । चउत्थो उद्देसो। तो अणुग्धाइया पण्णत्ता तंजहा-हत्यकम्मं करेमाणे १, मेहुणं पडिसेवमाणे २, राइभोयणं भुंजमाणे ३ ॥१॥ तो पारंचिया पण्णत्ता, तंजहा-दुढे पारंचिए १, पमते पारंचिए २, अन्नमन्नं करेमाणे पारंचिए ३ ॥२॥ तओ अणवठ्ठप्पा पण्णत्ता, तंजहा-साहम्मियाणं तेणं करेमाणे १, अन्नधम्मियाणं तेणं करेमाणे २, इत्यादालं दलमाणे ३ ॥३॥ ___ तओ नो कप्पंति पवावित्तए तंजहा-पंडए १, काइए २, की ३॥सू०४॥ एवं मुंडावितए ॥ सू० ५ ॥ सिक्खावित्तए । ० ६ ॥ उवावितए । सू० ७॥ संभुजित्तए । सू० ८॥ संवासित्तए ॥ सू० ९॥ तो नो कप्पंति वाइत्तए, तंजहा-अविणीए, बिगइपडिबद्धे, अविओसक्यिपाहुडे ॥ तओ कप्पंति वाइत्तए, तंजहा-विणीए, नोक्मिइपडिबदे. वियोसविक्पाहुडे ॥११॥ तो दुस्सन्नप्पा पण्णचा, तंजहा-दुढे, मूढे, बुग्गहिए ॥ १२॥ तओ सुसण्णप्पा पण्णत्ता, संजहा-अदुहे, अमूढे, अम्बुग्गहिए ॥१३॥ निग्गंथिं च णं गिलायमाणि पिया वा भाया वा पुत्तो वा पलिस्सएज्जातं च निग्मंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ता, आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं ॥१४॥ निम्गंथं च षं गिलायमाणं माया का भमिपी साध्या वा पलिस्सएज्जा, तं च निगंथे साइज्जेज्जा मेहुणपडि सेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अणुधाइयं ॥ नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंधीणं या असणं वा पाणं का खाइमं का साइमं वा पदमाए पोरिसीए पडिग्गाहित्ता पच्छिमं पोरिसिं उवाझ्पावित्तए, से य आहच्च उवाइपाविर सिया तं नो अप्पणा {जिज्जा, नो अन्नेसिं अणुप्पएज्जा, एमंते बहुफासुए थंडिले पडिले हित्ता पमज्जिता परिटवेयवे सिया, वं अप्पमा भुंजमाणे अन्नेसिं वा दलमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्याइयं ॥१६॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गयीम का असणं स पाणं का खाइमं वा साइमं वा परं अद्धजोयण मेराए उवाइणावित्तए, से य आइच्च उसइणाविए सिया तं नो अप्पणा भुजिज्जा, नो अन्नेसिं अणुप्पएज्जा, एगते बहुफासुए थंडिले पडिलेहिता पमज्जित्ता परिहवेयवे सिया, तं अप्पणा भुंजमाणे अनेमि वा दलमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्याइयं ॥१७॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुष्पविद्वेणं अन्नयरे अचित्ते अणेसणिज्जे पाणभोयणे पडिग्गाहिए सिया, अत्थि या इत्थ केइ सेहतराए अणुवट्ठावियए कप से तस्स दाउँ वा अणुष्पदाउं वा, नत्थि या इत्थ केइ सेहतराए अणुबट्ठावियए तं नो अप्पणा भुंजिज्जा नो अन्नेसिं दावए, एगंते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिवेयव्वे सिया ॥ १८ ॥ जे कडेकपट्ठियाणं कप्पड़ से अकप्पट्ठियाणं, नो से कप्पड़ कप्पट्ठियाणं, जे कडे अपट्ठियाणं णो से कपइ कप्पट्ठियाणं कप्पर से अकप्पट्ठियाणं, कप्पे ठिया कप्पट्ठिया, raud ठिया अकपट्टिया ॥ १९ ॥ भिक्खू य गणाओ अवकम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नो से कप अणापुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वा पवत्तयं वा थेरं वा गणि वा गणहरं वा गणावच्छेयगं वा अन्नं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पड़ से आपुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वा पवत्तयं वा थेरं वा गणि वा गणहरं वा गणावच्छेयगं वा अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरितए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अन्नं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरित ॥ २० ॥ गणावच्छेयए य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गण उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नो से कप्पड़ गणावच्छेयगस्स गणावच्छेयगत्तं अणिक्खिवित्ता अन्नं गणं उवसंपजित्ताणं विहरित्तए, कप्पर गणावच्छेयगस्स गणावच्छेयगत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरिक्तए, णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वा पवतयं वा थेरं वा गणि वा गणहरं वा गणावच्छेयगं वा अन्नं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पर से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पर अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से णो वियरेज्जा एवं से णो कप्पर अण्णं गणं उत्रसंपज्जित्ताणं विहरत् ॥ २१ ॥ आयरिउवज्झाए य गणाओ अवकम्म इच्छेज्जा अण्णं गण उवसंपज्जित्ता गं विहरित्तए नो से कप्प आयरियउवज्झायस्स आयरियउवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता अण्ण गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पड़ से आयरियउवज्झायस्स आयरियउवज्झायत्त णिक्खिवित्ता अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नो से कप्पइ अगापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं बा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरितए, कप्पइ से आपुच्छित्ता Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरियं वा जाब गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं उबसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता ण विहरित्तए ॥२२॥ भिक्खू य गणाओ अवकम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावछेयगं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विह रित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जिता गं विहरित्तए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उबसंपज्जित्ता ण विहरित्तए ॥२३॥ गणावच्छेयए य गणाओ अवक्फम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए णो से कप्पइ गणावच्छेयत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ से गणावच्छेयत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उपसंपज्जित्ता णं विह रित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जिता णं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्ण गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।२४। __ आयरियउवज्झाए य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए णो से कप्पइ आयरियउवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए, उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ से आयरियउवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं बा अण्णं गणं संभोगपडियाए Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्ण गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गण संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता गं विहरित्तए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा एवं से नो कप्पई अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥२५॥ मिक्खू य इच्छेज्जा अण्ण आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पद से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्सए. ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अगं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, नो से कप्पइ तेसि कारणं अदीवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पड से तेर्सि कारणं दीवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए ॥२६॥ गणावच्छेयए य इच्छेज्जा अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए नो से कप्पइ गणावच्छेयगत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पइ से गणावच्छेपगत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्मं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कष्पइ अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, नो से कष्पइ तेसिं कारणं अदीवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कष्पइ से तेसिं कारणं दीवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए ॥२७॥ आयरिय-उवज्ञाए य इच्छिज्जा अन्नं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए नो से कप्पा आयरियउवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसाक्तिए, कप्पइ से आयरियउवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं आयरियउपज्झायं उदिसावित्तए, णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं आयरिय उवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पा से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं आयरियउवझायं उद्दिसावित्तए, ते य से वियरेन्जा एवं से कप्पइ अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, ते य से नो विथरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, नो से कप्पइ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ तेस कारण अदीवत्ता अण्ण आयरियउवज्झायं उहिसावित्तए, कप्पर से तेसिं कारण दीवित्ता अण्ण आयरियउवज्झायं उहिसाबितए ||२८|| भिक्खू राओ वा वियाले वा आहच वीसुंभिज्जा, तं च सरीरंग केइ वेयावच्चकरे भिक्खू इच्छिज्जा एगंते बहुफासुर थंडिले परिववित्तए, अस्थि य इत्थ केइ सागारियसंतए उवगरणजाए अचित्ते परिहरणारिहे कप्पर से सागारियकडं महाय तं सरीरगं एते बहुफासुर थंडिले परिट्ठवित्ता तत्थेव उपनिक्लियठवे सिया ||२९|| भिक्खू य अहिगरणं कट्टु तं अहिगरणं अविओसवित्ता नो से कप्पर गाहावइकुलं भत्ता वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा णिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, गामाशुगामं वा दुइज्जित्तर, गणाओ गणं संकमित्तए, वासावास वा वत्थए, जत्थेव अप्पणो आयरियं उवज्झायं पासेज्जा, बहुस्सुयं बभागमं तस्संतिए आलोइज्जा पडिक्कमिज्जा निदिज्जा गरहिज्जा बिउटूटेज्जा विसोहेज्जा अकरणाए अन्भुट्टिज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा, सेय सुण पविए आइयव्वे सिया, से य सुएण नो पट्ठविए नो आइयवे सिया, से य सुएण पट्टविज्जमाणं नो आइयइ से निज्जूहियव्वे सिया ॥ ३० ॥ परिहारकप्पद्वियस्स णं भिक्खुस्स कप्पर आयरिय-उवज्झाएणं तद्दिवसं एगगिहंसि पिंडवा दवावित्त, तेण परं णो से कप्पर असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदा वा, कप्पर से अन्नयरं वेयावडियं करित्तए, तं जहा उद्वावणं वा निसीयाबणं वा तुयट्टावणं वा उच्चार पासवण - खेल-सिंघाण विचिणं वा विसोहणं वा करित्तए, अह पुण एवं जाणिज्जा - छिन्नावासु पंथेसु आउरे झिंझिए पिवासिए तवस्सी दुब्बाले किलंते मुच्छिज्जा पवज्जि वा, एवं से कप्पर असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं अणुपदा वा ॥ ३१ ॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाओ पंच महानईओ उद्दिट्ठाओ गणिओ जियाओ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरितए वा संतरितए वा, तंजा - गंगा १, जउणा २, सरऊ ३, कोसिया ४, मही ५ ॥ ३२ ॥ अह पुण एवं जाणिज्जा एरवई कुणालाए जत्थ चक्किया एगं पायं जले किच्चा एग पाय थले किच्चा एवं से कप्पइ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरितए वा, एवं नो चक्किया एवं णं नो कष्पइ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरितए वा संतरितए वा ॥ ३३॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से तणेसु वा तणजेसु वा पलालेख वा पलालपुंजेसु वा अप्पंडेसु अप्पपाणेसु अप्पबीएसु अप्पहरिएसु अप्पुस्सेसु अप्पुत्तिंग-पग-दगमटिय-मक्कड़गसंताणगेसु अहे सवणमायाए नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए हेमंतगिम्हासु वत्थए ॥३४॥ से तणेसु वा जाव-संताणएमु उप्पि सवणमायाए कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गयीण वा तहप्पगारे उवस्सए हेमंतगिम्हासु वत्थए ॥३५॥ से तणेसु वा जाव संताणएम अहे रयणिमुक्कमउडेसु नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए वासावासं वत्थए ॥३६॥ से तणेसु वा जाव संताणएमु वा उप्पि रयणिमुक्कमउडेसु कप्पइ निगंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए वासावासं वत्थए ॥३७॥ ॥ चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥४॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पञ्चमोद्देशः । देवे य इत्थवं विउन्वित्ता निग्गंथ पडिग्गाहिज्जा, तं च निग्गंथे साइज्जेज्जा, मेहुण डिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मा सियं परिहारद्वाणं अणुग्धाइयं ॥ १॥ देवे य पुरसरूवं विउव्वित्ता निग्गंथिं पडिग्गाहिज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा मेहुणपडि सेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मा सियं अणुग्घाइयं ॥ २ ॥ देवी य इत्थवं विव्वित्ता निग्गंथं पडिग्गाहिज्जा, तं च निग्गंथे साइज्जेज्जा, मेहुणपडि सेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घायं ||३|| देवी य पुरिसख्वं विउव्वित्ता निम्बंथिं पडिग्गाहिज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडि सेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं अणुग्धा इयं ||४|| भिक्खू य अहिगरणं कट्टु तं अहिगरणं अविओसवित्ता इच्छिज्जा अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पर तस्स पंचराईदियं छेयं कटु परिनिव्नविय परि निव्वविय दोच्चपि तमेव गणं पडिणिज्जाएयन्वे सिया जहा वा तस्स गणस्स पत्तियं सिया ॥५॥ भिक्खू य उग्गयवित्तिए अणत्थमियसंकप्पे संथडिए णिव्वितिगिच्छे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहिता आहारं आहारेमाणे अह पच्छा जाणिज्जाअrore सूरिए, अत्थमिए वा, जं च आसयंसि जं च पार्णिसि जं च पडिग्गहे तं afiaमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमर, तं अप्पणा भुंजमाणे अण्णेसिं वा दलमाणे राइभोयणपडि सेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अणुग्धाइयं ॥६- १॥ भिक्खु य उग्गयविचिए अणत्थमियसंकप्पे संथडिए वितिमिच्छासमावन्ने असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्ता आहारं आहारेमाणे जाव अन्नेसिं वा दलमाणे राइभोयण पडि सेवण पत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अणुग्धाइयं ॥७-२ ॥ भिक्खू य उग्गयवित्तिए अणत्थमियसंकप्पे असंथडिए निव्वितिमिच्छे असण वा पाण ं वा खामं वा साइमं वा पडिग्गाहित्ता आहारं आहारेमाणे जाव अन्नेसिं वा दमाणे रामयणपडि सेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाण अणुग्धाइये । ८- ३ | 3 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઢ भिक्खू य उग्गयवित्तिए अणत्थमियसंकप्पे असंथडिए वितिमिच्छासमावन्ने असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्ता आहारं आहारेमाणे जाव अन्नेसिं वा दलमाणे राइभोयणपडि सेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अणुग्धाइयं ॥ ९-४॥ इह खलु निग्गंथस्स वा निग्गंथीए वा राओ वा वियाले वा सपाणे सभोयणे उग्गाले आगच्छेज्जा, तं विfर्गचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमड़, तं उग्गिलित्ता पच्चो गिलमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुस्वाइयं ॥ १०॥ निग्गंथस्स वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुष्पविट्ठस्स अंतो पडिग्गहंसि पाणाणि वा बीयाणि वा रए वा परियावज्जेज्जा तं च संचाएइ विर्गिचित्तए वा विसो हित्तए वा तं पुव्वामेव लाइय विसोहिय विसोहिय तओ संजयामेव भुंजेज्ज वा पिबेज्ज वा, तं च नो संचाए विर्गिचितए वा विसोहित्तए वा तं नो अप्पणा भुंजिज्जा नो अन्नेसिं दावए, एते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिद्ववेयव्वे सिया ॥ ११॥ fairs य गाहाइकुलं पिंडवायपडियाए अणुष्पविट्ठस्स अंतो एडिग्गहंसि दगे वा दगर वा दगफुसिए वा परियावज्जेज्जा, से य उसिणे भोयणजाए भोतव्वे सिया, से य सीए भोयणजाए तं नो अप्पणा भुंजिज्जा नो अन्नेसिं दावए, एते बहुफासु थंडिले परिद्ववेयव्वे सिया ॥ १२ ॥ निग्गंथीए राओ वा वियाले वा उच्चारं वा पासवर्णं वा विगिचमाणीए वा विसोमाणी वा अन्नयरे पसुजाइए वा पक्खिजाइए वा अन्नयरं इंदियजायं परामुज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, हत्थकम्मपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मा सियं अणुग्घायं ||१३|| fairly राओ वा त्रियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिंचमाणीए वा विसोहेाणी वा अन्नयरे पसुजाइए वा पक्खिजाइए वा अन्नयरंसि सोयंसि ओगाहिज्जा, तं च निम्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडि सेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं अणुग्घाइयं || १४ || नो कप्पs निग्गंथीए एगाणियार होत ॥ १५॥ नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए निक्खमित्तए वा वित्ति वा ॥ १६॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ नो sure निगंथीए एगाणियाए बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खमित्त वा पविसित्तए वा ॥ १७॥ नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए गामाणुगामं दूइज्जित्तए वा वासावासं वा वत्थए ||१८|| नो aus निगंथीए अचेलियाए होत ॥ १९ ॥ नो कपs निग्गंथीए अपाइयाए होतए ॥ २०॥ नो कप्पर निम्गंथीए वोसकाइयाए होतए ॥ २१ ॥ नो कप निथीए बहिया गामस्स वा नगरस्त वा खेडस्स वा कब्बडस्स वा पट्टणस्स वा मबस वा आगरस्स वा दोणमुहस्स वा आसमस्स वा सण्णिवेसस्स वाउ बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय सूराभिमुहीए एगपाइयाए ठिच्चा आयावore आयात्तिए, कप्पर से उवस्सयस्स अंतो वगडाए संघाडिपडिबद्धाए पलंबियना - हियाए समतलपाइयाए ठिच्चा आयावणाए आयावित्तर ||२२|| नो कप निरथी ठाणायइयाए होत्तए ||२३|| नो कपइ निग्गंथीए पडिमछाइया होत् ॥ ० २४ ॥ नो कप्पइ निग्गंथीए सिज्जियार होत्तए । ० २५ ।। नो कपड़ निग्गंथीe उक्कुडुगासणियाए ( ठाणुक्कुडियाए ) होत्तए । सू० २६ ॥ नो कप्पs निग्गंथीए वीरासणियार होत्तए । ० २७ ॥ नो कप्पइ निग्गंथीए दंडासणिया हो । ०२८ ॥ नो कप्पइ निग्गंथीए लगंडासणियाए होत्तए । सू० २९ ॥ नो कपइ निग्गंथीए एगपासियाए होत्तए । सू० ३० ॥ नो कप्पर निग्गंथीए उत्ताणासणिया होत्तए || सू० ३१ ॥ नो कप्पइ निग्गंथीए ओमंथिया होत्तए ||सू० ३२ || नो कपs निग्गंथीए अंबखुज्जियाए होत्तए । सू० ३३ ॥ नो कप निग्गंथी आकुंचणपट्टगं धारितए वा परिहरितए वा ॥ ३४ ॥ atus निग्गंथाणं आकुंचणपट्टगं धारितए वा परिहरिसए वा ।। ३५ ।। नो कप निम्गंथीणं सावस्सयंसि आसणंसि चिट्ठित्तए वा निसीहत्तए वा ॥ ३६ ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कप्पइ निग्गंथाणं सावस्सयंसि आसणंसि चिट्ठित्तए वा निसीइत्तए वा ॥३७॥ नो कप्पइ निग्गंथीणं सविसाणंसि पीढंसि वा फलगंसि वा चिट्टित्तए वा निसीइत्तए वा ॥ ३८ ॥ कप्पइ निग्गंथाणं सविसाणंसि पीढंसि वा फलगंसि वा चिद्वित्तए वा निसीइत्तए वा ॥ ३९॥ नो कप्पइ निग्गंथीणं सवेंटगं लाउयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥४०॥ कप्पइ निग्गंथाणं सवेंटगं लाउयं धारित्तए वा परिहरित्तए बा ॥४१॥ नो कप्पइ निगंथीणं सबेंटियं पायकेसरियं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥४२॥ कप्पइ निग्गंथाणं सबेटियं पायकेसरियं धारित्तए वा परिहरितए वा ॥४३॥ नो कप्पइ निग्गंथीणं दारुदंडयं पायपुंछणं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥४४॥ कप्पइ निग्गंथाणं दारुदंडयं पायपुंछणं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ ४५ ॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अन्नमन्नस्स मोयं आपिबित्तए वा आयमित्तए वा, नन्नत्थ गाढागाडेहिं रोगायंकेहि ॥ ४६॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परियासिय भोयणजायं जाव तयप्प. माणमेत्तं वा भूइप्पमाणमेत्तं वा तोयबिंदुप्पमाणयेत्तं वा आहारं आहरित्तए, नन्नत्य गाढागाडेहिं रोगायंकेहि ॥४७॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परिवासिएणं आलेक्णजाएगे आलिंपित्तए । विलिंपित्तए वा, नन्नत्थ गाढागाढेहिं रोगायंकेहि ॥४८॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परिवासिएण तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा गायाई अब्भंगित्तए वा मक्खित्तए वा, नन्नत्य गाढागादेहि रोगायंकेहि ॥ ४९ ॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परिवासिएण कक्केण वा लोरेण वा पवणेण वा अन्नयरेण वा आलेवणजाएण गायाई उवलित्तए वा उध्वट्टित्तए वा, नन्नत्थ, गाढागाढेहिं रोगायंकेहिं ।। ५० ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारकप्पडिए भिक्खू पहिया येसामः वेयावडियाए गच्छेज्जा, से य आहञ्च अइक्कमिज्जा, तं च थेरा जाणिज्जा अप्पों आगमेणं अन्नेसि वा अंतिए मुच्चा, तो पच्छा तस्य अहालहुस्सए नाम ववश, पटवेयच्चे सिया ॥११॥ ____ निगंथीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविद्वाए अन्नयरे पुलागमते पजिम्माहिए: सिया, सा य संपाहिज्जा कप्पद से तदिवस तेणेक भनटेणं पज्योसवि. . तए, नो से कप्पइ कुष्यपि माहावाकुक पिंडवायपडियाए पविसितार, सा नो संवरिष्जा एवं से कपइ दुख्नपि माहावाकुर पिंडवावाडियार पविसिय ॥ ५२ ॥ ॥ पंचमो उसो समतो ॥५॥ MERA Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ षष्ठोद्देशकः ॥ नो कप णिम्गंथाण वा णिग्गंथीण वा इमाई छ अवयणाई वदित्तए, तं जहाअलियवयणे, हीलियवयणे, खिंसियवयणे, फरुसवयणे, गारत्थियवयणे, विउसवियं वा पुणो उदीरित ॥१॥ कप्पस्स छ पत्थारा पन्नत्ता, तंजहा - पाणाइवायस्स वायं वयमाणे, मुसावायस्वायं वयमाणे, अदिन्नादाणस्स वायं वयमाणे, अविरइयावायं वयमाणे, अपुरिसवायं वयमाणे, दासवायं वयमाणे, इच्चेते छ कप्पस्त पत्थारे पत्थारेता सम्मं अपडि - पूरेमाणे तद्वाणपत्ते सिया ||२|| णिग्गंथस् य आहे पायंसि खाणू वा कंटए वा हीरए वा सक्करे वा परियावज्जेज्जा तं च णिग्गंथे नो संचाएइ नीहरितए वा विसोहित्तए वा तं णिग्गंथो णीहरमणी वा विसोमाणी वा णाइकमइ ||३|| fire अच्छिसि पाणे वा बीए वा रए वा परियावज्जेज्जा तं च friथे नो संचाes णीहरितए वा विसोहित्तए वा तं णिग्गंथी णीहरमाणी वा बिसो - tart at uttarat || ४ || निग्गंथीए य अहे पायंसि खाणू वा कंटए वा हीरए वा सक्करए वा परियावज्जेज्जा, तं च णिग्गंथी जो संचाएर पीडरितए वा विसोहित्तए वा तं च णिग्गंथे नहरमाणे वा विसोहेमाणे वाणाइक्कम furiate अच्छिसि पाने वा बीए वा रए वा परियावज्जेज्जा तं च णिग्गंथी णो संचाएइ णीहरितए वा विसोहित्तए वा तं च णिग्गंथे णीहरमाणे वा विसोहेमाणे इक्कम || ६ | णिग्थे णिग्गंथिं दुग्गंसि वा विसमंसि वा पव्वयंसि वा पक्खलमाणि वा पवडमाणि वा गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णाइक्कमइ ||७|| णिग्गंथे णिग्गंथि सेयंसि वा पंकंसि वा पणगंसि वा उदगंसि वा ओकसमार्णि वा ओवुडमार्णि वा गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णाइक्कम ||८|| णिग्गंथे णिग्गंथिं णावं आरोहमाणि वा ओरोहमाणि वा गिण्हमाणे वा अवलंब - माणे वा इक्कम ॥९॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खित्तचित्तं निगथि निग्गंथे निण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णाइक्कमइ ॥१०॥ एवं दित्तचित्तं० ॥११॥ जक्खाइटुं० ॥१२॥ उम्मायपत्तं ॥१३॥ उवसम्गपत्तं णिगंथि थिग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ ॥१४॥ साहिगरणं ॥१५॥ सपायच्छित्तं ॥१६॥ भत्तपाणपडियाइक्खियं ॥१७॥ अट्ठजायं निग्गंथि णिग्गंथे निण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णाइक्कमइ ॥१८॥ छ कप्पस्स पलिमंथू पन्नत्ता, तं जहा-कोकुइए संजमस्स पलिमंथू १, मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमंथू २, तितिणिए एसणागोयरस्स पलिमंथू ३, चक्खुलोलए इरियावहियाए पलिमंथू ४, इच्छालोलुए मुत्तिमग्गस्स पलिमंथू ५, भिज्जाणियाणकरणं सिद्धिमग्गस्स पथिमंथू, सव्वत्थ भगवया अणियाणया पसत्था ६ ॥१९॥ छव्विहा कप्पट्टिई पण्णत्ता तंजहा-सामाइय संजयकप्पट्टिई १, छेओवट्ठावणियसंजयकप्पट्टिई २, णिव्विसमाणकप्पट्टिई ३, णिविट्ठकाइयकप्पट्टिई ४, जिणकप्पट्टिई ५, थेरकप्पट्टिई ६, त्ति बेमि ॥२०॥ ॥ कप्पस्स छटो उद्देसो समत्तो ॥६॥ ॥ इति श्री-बृहत्कल्पसूत्रस्य मूलपाठः समाप्तः॥ IAMINIDATINITIATISTIATIMIMINIA Page #209 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