Book Title: Vrat Vichar Ras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 14
________________ March-2002 लोभरहीत मुनी लागुं पाय, जिम आतमदूख सघलां जाय / बारे भेदे जे तप तपइ, अष्ट कर्म ते हेलां खपइ // 31 // बारइ भेद मुनी एम आदरइ, उपवास अणोदर बहु तप करइ / द्रव्यसंखेपण रसनी ताय, कायकलेश करइ मनदाहाझि // 32 // संवरइ अंदी पोतातणां, तो तस कर्म खपइ अतीघणां / गुरु पासइ आलुअणी लीइ, आतम सीख एणी परि दीइ // 33 / / वीनो वा(व)डानो सरावइ जेह, वयावछादीक करतो तेह / वली तप भाख्युं जे सझाय, ध्यान करतां पात्यग जाय // 34 / / काओसर्ग तो एम करवो कह्यु, जिम थीर पासकुंमारह रघु / ते जिनवरनुं नाम ज जपइ, बारे भेदे एम तप तपइ // 35 / / संयम चोखुं पालइ जेह, सत्यभाषा मुख्य भाखइ तेह / नीर्मल आतम राखइ अस्यु, तेहनि दोष न लागइ कस्यु // 36 // कोडी एक न राखइ कनई, ते मुनीवर पणि तारइ तनइं / ब्रह्मचरय नवविध्यस्यु धरइ, ते मुनिवर जगि तारइ तरइ // 37 / / दूहु०॥ दसविधि धर्म यतीतणो, कह्यं ते सुणयु सार / नर ऊत्तम ते सांभलो, श्रावक कुल आचार // 38 // बारइ व्रत श्रावकतणां, श्रावक सो गुणवंत / गुण एकवीसइ तेहना, सहु सुणज्यु एकच्यंत // 39 // ढाल० 5(4) // देसी० नंदनकु त्रीसला हुलरावइ ।राग० असाउरी०|| धर्मरत्ननि युगि कहीजइ, जस गुण ए एकवीसो रे / छिद्ररहीत जे श्रावक होइ, तस चणे मुझ सीसो रे // 40 // धर्मनि युगि कहीजइ० आंचली० // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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