Book Title: Vrat Vichar Ras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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ढाल ६८ ॥
देसी० हीरविजइ गुणपेटी० ॥ राग विराडी ॥
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March-2002
कर्म अंगाल न कीजइ भाई, पातिगनो नही पारो । बहु आरंभ करंतां पेखो, नर्ग लहइ नीरधारो, भवीका, अग्यनकर्म नवी कीजइ, अतीअनुकंपा रीदइअ धरीनिं अभइदांन जगि दीजई, भवीका, अग्यन कर्म नवि कीजइ ॥ आचली ॥४०॥
आगर ईटिनी हिमा नवी कीजइ, बहुरी ( रां) गणीजे ल्याहाला । कर्म कुकर्म करंतां भाई, जीव होइ अतीकाला ||४१ || भवीका० ॥
करसण वर्ष म म छेदीश जन तुं, सीख देउ तुझ सारी । पूफ पत्र फल सोय सुडंतां, हंसा राखे वी (वा) री ॥ ४२ ॥ भवीका० ॥
गाडी वहइल्यु हल दंताला, नावी जे नोपजावी ।
सो पणि वणज तजइ नर जेता, तस मति चोखी आवी ॥ ४३ ॥ भ० ||
गाडावाही म करो मांनव, चोमासइ चीत वारो ।
थाइ प्रथवी सकल जंतमइ, हीत करी ते ऊगाये ||४४ ॥ भ० ||
दयाधर्म जगि सारो, भ० ॥ आतम आपसो तारो, भ० ॥ को मम प्रांणी मारो, भ० ॥ लाघो धर्म म म हारो, भ० || फोडीकर्म न कीजइ भाई, कुप सरोवर वाव्यु |
भोमिफोड कीओ द्रहइ कारणि, नर भव्य सो नवि फाव्यो || ४५ ॥ भ० ॥
मच्छ कच्छ मिंडक बहु बगला, एक एकनि मारइ । पापतणुं भाजन ए करतां, आप केही परी तारइ ||४६ ॥ भ० ||
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दूहा० ॥ आप केही परि तारसइ, करतो भाजन पाप ।
वणज कुवणज न परहरइ, ते कीम छोडइ आप ॥४७॥
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