Book Title: Vrat Vichar Ras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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ढाल ७० ॥
देसी० तुगी आगीरसीखरि सोहइ० ॥ राग परजीओ ॥ जंत्रपीलण जन न कीजइ, घ्यंट घांणी जेह रे । ऊखल मुसल जेह कोहोलुं, तु म वाहीश तेह रे ॥ ५८ ॥ जंत्रपीलण जन न कीजइ ॥ आंचली० ॥
जंत्र वाहातां जीव केता, प्राणविहुणा थाय रे ।
तेइ कारण ए कर्म तजीइ भजो अवर उपाय रे ॥ ५९ ॥ जंत्र० ॥
March-2002
आंक पाडइ पूण्य हारइ, तजि नालछेदन करम रे । कर्ण - कंबल कांई कापो, जो जाणो जिनधर्म रे || ६० ॥ जं० ॥
बाल तुरंगम वच्छ पूर्षा, नर समारइ सोय रे ।
नीचगती ते लहइ नीसचइ, वली नपुंसक होय रे ॥ ६१ ॥ जं० ॥
दव लगाइ पसु बालइ, सो सुखी किम थाय रे ।
छेदन भेदन लहइ नर ते, भाष [इ] श्री जिनराय रे ॥ ६२ ॥ जं० ॥
कुआ वाव्यु द्रहइ म सोसो, जीव केति कोडि रे । प्रांण परनो ज्याहा हणाइ, एह मोटी खोड्य रे || ६३ || जंत्र० ॥
मछ कसाई अनि तेली, वागरी ववसाय रे !
नीच जननी संगति करतां, हंस भइलो थाय रे || ६४ ॥ जं० ॥
स्वान कुरकुट मांजारा, पोषीइ कुण कांम्य रे ।
एह पनर खरकर्म टालु, वसो सीवपूर ठाम्य रे ॥ ६५ ॥ जं० ॥ दूहा० ॥ सीवपूर ठांमि सो वसई, जे नवी करइ कुकर्म । अष्टम वरति जे कछु, सुणिहो तेहनो मर्म ॥६६॥
ढाल ७१ ॥
देसी० तो चढीओ घन मानगजे० ॥
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व्रत आठमु एम पालीइ ए टाले अनर्थडंड तो । खेला नाटिक पेखणु ए, नवि जोईइ पाखंड तो ॥ ६७ ॥
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