Book Title: Vrat Vichar Ras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
View full book text
________________ 37 अनुसंधान-१९ धन हारइ नर बहु जुवटइ, पूण्य विनां व्यापारिं घटइ / जलि बुडइ कुवस्यने जाय, पूण्यकाजि विमासण थाय // 56|| दूहा० // क्यरपी तो द्धन संचीइ, जो कलि मर्ण न होय / ल्यख्यमी बांधी पोटले, सर्य न पोहोता कोय // 57 // क्यरपी कहइ कवी संभलो, तो दीधि स्यु थाय / दाता आपइ अतीधणुं, ते धन केम्व न जाय // 58 // दान सुपत जेणइ दीओ, कोओ सु परउपगार / ते साथिं धन पोटलां, साथि गया नीरधार // 59 // ल्यख्यमी मंदिरमाहां छतां, मागण गया नीरास / तेहनी जनुनी भारि मुई, ऊदरी वर्ष दस मास // 60 // गाहा० // दानेन फलंत कलपदुमा, दांनेन फलंत सोभागं / दांनेन फरंत किर्तिकाम्यनी, दांनेन होअंत नीरमला दीहा // 61 / / ढाल 24 / (23) // देसी० आवि आवि ऋषभनो पूत्र तो० // राग-ध्यन्यासी / दांनि नवनीध्य पांमीइ ए, राजरीध्य सुखभोग, ए दांन वखाणीइ ए / दांनि रूप सोहांमणु ए, दांनि सकल संयोग, ए दान वखाणीइ ए 162 / / आंचली० // दांनि महइला अतिभलि ए, दांनि बंधर जोड्य, ए० / दांनि ऊतम कुल भलु ए, कुटंबतणी कई कोड्य // 63|| ए दान० / / दांनि भोजन अतिभलु ए, सालि दालि घ्रत घोल, ए० / वस्त्र विविध्य वली भातनां ए, मनवांछीत तंबोल // 64 // ए दान० // दांनि रंजइ देवता ए दानि सुरतरु बार्य, ए० / दानि अति पूजा पांमिइ ए, दांन वडु संसार्य // 65 // ए दान० // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112