Book Title: Vrat Vichar Ras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 50
________________ 50 March-2002 सापि समर्यु ईस्वर देव, तो कंठि घाल्या ततखेव / राय वभीषण संगति रांम, लंकापति दीधुं तस नाम // 95 / / ए संगतिना सुणि द्रीष्टांत, मीथ्याशंग तंजो एकात / कही भवि भमतां परीचो जेह, मीछादूकड दीजइ तेह // 96 // दहा० // एम अतीचार टालीइ, समकीत राखे सार / सूधो श्रावक ते कहुं, जे पालइ व्रत बार // 17 // ढाल 36 / (35) / देसी० प्रणमी तुम सीमंधरुजी० // पहइलुं व्रत इम पालीइजी, त्रसनो न कीजइ रे घात / आरंभि जइणा कही जी, एम बोल्या यगनाथ || सुणो नर, धर्म दयाई रे होय, दया विना नर को वलीजी / मोक्ष न पोहोतो कोय, सुणो नर, धर्म दयाई रे होय ॥आंचली० // 98 // कर्म वालादीक कीडलाजी, काया जीव अनेक / अनुकंपाइं काढताजी, दोष न लागइ रेख // 99 // सुणो नर०॥ मुढपणुं ते परीहरो जी, राखो जीव एकाति / / मानवपणुं छइ दोहेलुंजी, लहीइ दस द्रीष्टाति // 400 / सुणो न०॥ चक्री भोजन ते भखीजी, लखी लइ घरिघरि आहार / फरी चकवइ-अन किम लहइजी, तिम मानव अवतार // 1 // सुणो न० // मेरसमा ढगला करीजी, अन अन माहिं रिभेलि / वधा विणी कीम दीइजी, तिम मानवभव मेलिं // 2 // सु० // देवि पासा सोगठांजी, नरनि दीधां दोय / ते साथिं जो जीपीइ जी, तो मानवभव होय // 3 // सु० // अठोतर सो थाभला जी, थांभइ थांभइ रे जाण्य / त्यांहां ते तेती पुतलिजी, सुदर रूप वखाण्य // 4 // सु०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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