Book Title: Vrat Vichar Ras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 57
________________ 57 अनुसंधान-१९ पोहोलपणइ वीस आंगलां, लंबपणइ वली त्रीस रे / ते गलगुं रे बेवड करी, जल गलीइ नसदीस रे // 65 // अणगल० // गलतां झालक परीहरो, टुंपो तो नवि दीजइ रे / जे जलनो जीव ऊपनो, तेहनई त्याहिं मुकीजइ रे // 66 // अ०॥ वीछलतां रे गलणुं वली, आलस म करि लगार रे / जल विन जीव जीवइ नही, हईडइ करोअ वीचार रे // 67|| अ०॥ संखारो म म सुकवो, जो तुम हईअडइ सांन रे / जीव सकलनि रे जीवाडीइ, म करो मनि अभीमांन रे // 68 // अ०॥ खारु नीर न भेलीइ, मीठा जल तणइ साथ्य रे / संखारो नवि दीजीइ, नीचा जण तणइ हाथ्य रे // 69 // अण०॥ समोअण ते नवी मुकीइ, ऊनि जल वली जाण्य रे / जलना जीव वीणासतां, पूण्य तणि होयि हांण्य रे // 70 // अण०।। कीडी कुजर कंथुओ, सुरपति सरखो जोय रे / / जीव नि युन्य विणासता, पातिग अतिघणुं होय रे 171 / / अण० // दूहा० // पातिग बोहोलुं त(ते)हनिं, करतां प्रांणीघात / / पर हंसा नि दूहवता, भवि भवि होय अनाथ // 72 // ढाल 44 / (43) // देसी० सुणि हवं एक ल्यष्यमी पूरु० // आपसमा सवि जीवडा, हईइ च्यंत अपार रे / जे नरा जीवनि मारसइ, फरइ ते गति च्यार रे // 73 / / वयण सुणो जगि सहु नरा, दया धर्म ते सार रे / तप जप ध्यान तो छइ भलुं, दया विन अते छाहार रे // वयण सुशो जगी सहु नरा ।आंचली०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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