Book Title: Vrat Vichar Ras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

View full book text
Previous | Next

Page 58
________________ March-2002 जे जगी तरस नि थावरा, जीव सकल ऊगार्य रे / जंतु हीडइ जगी जीववा, तेहनि तुं म म मार्य रे // 74 / / - वयण सुणो० // कर्मवीपाकमाहिं कह्यु, करइ जीवसंघार रे / ते नरा पापमाहा बुडसइ, नवी पामसइ पार रे // 75 / वयण०|| सीह सीआल नि सुकरां, अजा जे मृगबाल रे / हिंवर हरण निं हाथीआ, देता वाघला फाल रे // 76 // अजगीर संवर रोझडां, वछ चीखल गायं रे / चीतरा चोर निं मंकडा, दीधा नाग नई घाय रे // 77 // वयण०॥ पंखीआ पासम्हां पाडोआ, मछ कछनी जात्य रे / जे नरा मंशना लोलपी, फरइ नरग ते सात्य रे // 78|| व०॥ पंखीआ गुरड नि हंसला, लावां तीतर मोर रे / समलीअ सारीस जीवनि, हणि कर्म कठोर रे // 79 // वयण०॥ काग नि अंबनी-कोकिला, चडी चास न मार्य रे / चक्रवा चातुक जीवनि, हणी पंडि म भार्य रे ||80 // वयण०॥ दूहा० // पापि पंडी ज भारतो, करतो पातीग वात / आप-सवारथ कारणिं, पर प्रांणीनो घात // 8 // . ढाल 45 / (44) // देसी० एम व्यपरीत परूपतां० / / राग-असाओरी सीधुओ / / कीधां कर्म पराचीआं, नर दीधला घायरे, थाय रे, पापकर्म तेणइ एगठां ए // 82 // धन कारणि नर वेधीआ, दीइ कातडी कंठिं रे, ऊलंठि रे, पापकर्म एहेवां कीआं ए ||83|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112