Book Title: Vrat Vichar Ras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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________________ March-2002 अधोमुख्य त्याहा कहु कंटीक, सकल विर्ष नमंत रे / दूदभी आकाश वाजइ, शब्द[स]हुअ रचंत रे // 64 // पवन फरुकइ कुअलु, अतिझीणो अनुकुलु / पंखी दइ परदक्षणा, स्युक[न बोलइ] मुख्य मुलु // मुल मुख्यथी स्युकन बोलइ सुगंधव्रीष्ट सोहांमणी / सूर सोभागी सोय वरसइ पूफविष्ट होइ घणी // समोसरणि पंचवर्णां पूफ ते ढीचणसमइ / नख केस रोमह ते न वाधइ सुरकोड्य त्याहां रंगि रमइ // अंद्रीनिं अनुकुल होइ षट सोय रत्ती सोहामणी / चोत्तीस अतीसहइ एह च्यंतइ लहइ संपति सो घणी // 65|| दहा० // संपइ सुख बहु पामीइ, धन कण कंचन हाट / ते जिन कां नवि समरीइ, जिणइ मद जी[प्या] आठ // 66 / / ढाल० 8 // (7) // देसी० नंदनकु त्रीसला हुलरावइ० // आठइ मद जे मेगल सरीखा, जिन जिपी जिन वारइ रे / मान[थकी] गति लहीइ नीची, पंडीत आप वीचारइ रे // 67 // __ आठइ मद जे मेगल सरीखा० अंचली० // जाति[मद] नवि कीजइ भाई, लाभतणो मद तजीइ रे / ऊंच कुलांनुं मांन क[रीनइ] [नीच] कुलां जई भजीइ रे ॥आठइ०॥६८।। प्रभुताने ए बलमद वारो, रूपमांन एकमन्नो रे / स[नतकु]मार जुओ जगी चक्रवइ, अंगिं रोग ऊपनो रे |आठइ०॥६९।। तपमद करतां पूण्य पलाइ, श्रुतमद मुर्यख थईइ रे / कहइ जिनराज सुणो रे लोगा, चोखइ च्यंति रहीइ रे ।आठइ०॥७०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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