Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Jain Atmanand Sabha

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Page 11
________________ ( २ ) जेणे ( समस्त रागद्वेषादिक ) क्लेशकारी वृक्षो मूल सहित उखेडी नांख्या छे अने जेने सुरपति, असुरपति तथा नरपतिओ मस्तक वडे नमस्कार करे छे. २ प्रावर्त्तन्त यतो विद्याः, पुरुषार्थप्रसाधिकाः । यस्य ज्ञानं भवद्भावि - भूतभावावभासकृत् ॥ ३ ॥ जेनाथी धर्म, अर्थ, काम अने मोक्षरूपी पुरुपार्थने सिद्ध करनारी शब्दविद्यादिक १४ विद्याओ प्रवर्ती छे, अने जेनुं ज्ञान अतीत, अनागत अने वर्तमान वस्तु मात्रने प्रकाश करनारुं छे. ३ यस्मिन्विज्ञानमानन्दं, ब्रह्म चैकात्मतां गतम् । स श्रद्धेयः स च ध्येयः, प्रपद्ये शरणं च तम् ॥ ४ ॥ जेनामां विज्ञान ( केवळ ज्ञान ), आनंद, ( अखंड सुख ) अने ब्रह्म ( परमपद ) ए त्रणे एकताने पामेला छे ते ( सर्वज्ञ - वीतराग ) श्रद्धा करवा योग्य छे अने ध्यान करवा योग्य छे. ते परमात्मानुं शरण हुं अंगीकार करूं कुं. ४ तेन स्यां नाथवाँस्तस्मै, स्पृहयेयं समाहितः । ततः कृतार्थो भूयासं, भवेयं तस्य किङ्करः ॥ ५॥ Jain Education International Private & Personal Use Onlwww.jainelibrary.org

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