Book Title: Vitrag Mahadev Stotra Author(s): Hemchandracharya, Publisher: Jain Atmanand SabhaPage 29
________________ ( २० ) हे प्रभु ! ज्योत्स्नावडे परिवरेलो चंद्र जेम चकोर पक्षीना नेत्रोने आनंद आपे छे तेम भामंडळबडे परिवरेला आप सज्जनोना नेत्रोने अत्यंत आनंद आपो को. ६. दुन्दुभिर्विश्वविश्वेश !, पुरो व्योम्नि प्रतिध्वनन् । जगत्याप्तेषु ते प्राज्यं, साम्राज्यमिव शंसति ॥ ७॥ हे सर्व विश्वना (त्रण जगतना) स्वामी ! विहारमां आपनी आगळ आकाशमां रहीने शब्द करतो देवदुंदुभि जाणे के जगतमां आप्त पुरुषोमां आपनुं ज मोटुं साम्राज्य कहेतो होय तेम शोभे छे. ( सर्व देवोमां आपनुं चक्रवर्तीपणुं जणावे छे. ) ७. तयोर्ध्वमूर्ध्व पुण्यर्द्धि-क्रमसब्रह्मचारिणी । छत्रत्रयी त्रिभुवन - प्रभुत्वप्रौढिशंसिनी ॥ ८ ॥ हे प्रभु ! ( सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति, तोर्थकर नामकर्म उपार्जन, स्वर्गगमन, पुनः मनुष्य भवमां सर्वविरति, अपूर्वकरण, क्षपकश्रेणि, शुक्लध्यान, घातिकर्मक्षय, केवळज्ञाननी प्राति, तीर्थंकरनी संपदानो भोग अने छेवट मोक्षगमन - आ प्रमाणे ) पूर्ण समृद्धिना अनुक्रमनी जेवा आपना मस्तक उपर Jain Education International Private & Personal Use Onlwww.jainelibrary.orgPage Navigation
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