Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Jain Atmanand Sabha

Previous | Next

Page 56
________________ ( ४७ ) हे वीतराग ! सर्वदा एटले दीक्षा ग्रहण कर्या पहेलां पण विषयोथी विरक्त थरला आप ज्यारे योग ( ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप दोक्षा )ने अंगीकार करो छो त्यारे आ विषयोथी सर्यु एम विचारतां आपने मोटा वैराग्य ज छे. ५. सुखे दुःखे भवे मोक्षे, यदौदासीन्यमीशिषे । तदा वैराग्यमेवेति, कुत्र नासि विरागवान् १ || ६ || सुखमां, दुःखमां, संसारमां, मोक्षमां सर्वत्र आप ज्यारे उदासीनता ( मध्यस्थता ) करो छो त्यारे पण आपने वैराग्य ज छे, तेथी आप क्यां अने क्यारे वैराग्यवाळा नथी ? सर्वत्र वैराग्यवाळा ज छो. ६. दुःखगर्भे मोहगर्भे, वैराग्ये निष्ठिताः परे । ज्ञानगर्भ तु वैराग्यं, त्वय्येकायनतां गतम् 11911 बीजा (परतीर्थिको ) दुःखगर्भित अने मोहगर्भित वैराग्यमां रहेला छे, परंतु ज्ञानगर्भित वैराग्य तो आपने विषे एकीभावने ( तन्मयपणाने ) पाम्युं छे. ( इष्टना वियोगथो अने अनिष्टना संयोगथो थयेलो वैराग्य दुःखगर्भित कहेवाय छे. कुशात्र कहेलां अध्यात्मना लेशने सांभळवाथी जे वैराग्य थाय ते मोह Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106