Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya,
Publisher: Jain Atmanand Sabha
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(४६ ) विवेकशाणैर्वैराग्यशस्त्रं शातं त्वया तथा । यथा मोक्षेऽपि तत्साक्षादकुण्ठितपराक्रमम्
॥३॥
हे प्रभु! विवेकरूपी शाण (शराण ) उपर वैराग्यरूपी शस्त्रने आपे तेवी रीते घसीने तोक्षण कर्यु छे के जेथी मोक्षने विषे पण ते. (वैराग्यरूपो. शस्त्र ) पराक्रम जरा पण हणायुं नथी.
यदा मरुनरेन्द्रश्रीस्त्वया नाथोपभुज्यते । यत्र तत्र रतिर्नाम विरक्तत्वं तदापि ते
हे नाथ ! ज्यारे आप पूर्वभवमा देवनी ऋद्धिने अने ते पछीना तीर्थकरना भवमा राज्यलक्ष्मीने भोगवो छो त्यारे पण तमारो वैराग्य ज छे; केमके ज्यां त्यां पण तमारे रति ( समाधि )ज छे एटले के देव अने राज्यनी लक्ष्मी भोगवतां छतां पण आप भोग्य फळवाळं कर्म भोगव्या विना क्षय पामशे नहीं एम विचारीने अनासक्तपणे भोगवो छो तेथी ते कर्मनी निर्जरा ज थाय छे. ४
नित्यं विरक्तः कामेभ्यो, यदा योगं प्रपद्यसे । अलमेभिरिति प्राज्य, तदा वैराग्यमस्ति ते ॥५॥
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