Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Jain Atmanand Sabha

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Page 61
________________ ( ५२ ) ते कोइना पर कृपा करे नहीं, अने मध्यस्थ-उदासीन होय ते बीजार्नु रक्षण करे नहीं, तो पण ) आप तो सर्व संगनो त्याग करी तीर्थकरपदना प्रभावथी इच्छा रहित छतां पण त्रण जगतना लोकोने सेव्य होवाथी जनेश छो, तथा वीतरागपणाथकी ज ममता रहित छतां पण दुष्कर्मथी पीडाता त्रण जगतना प्राणीओ उपर कृपाळु छो, तथा रागद्वेष रहितपणाने लीधे मध्यस्थ एटले उदासीन छतां पण एकांत हितकारक धर्मोपदेश देवाथी आभ्यंतर शत्रुथी त्रास पामेला जगत्ना जोवोना रक्षक छो; ओवा विशेषणवाला आपनो हुँ अंक ( चिह्न ) रहित किंकर छं. जे किंकर होय ते खङ्गादिक चिह्नवाळो होय छे, पण हुं तो द्विपदादि परिग्रह रहित एवा आपनो कदाग्रहरूपी कलंक रहित ज सेवक छं. ६. अगोपिते रत्ननिधाववृते कल्पपादपे । अचिन्त्ये चिन्तारत्ने च, त्वय्यात्माऽयं मयार्पितः ॥७॥ ( आ श्लोकमां पण छ शब्दो परस्पर विरुद्ध आ रीते छे. रत्ननो निधि गोपव्या विना रही शके नहीं, कल्पवृक्ष वाड विना रही शके नहीं अने चितामणि रत्न प्रार्थना कर्या विना कांइ पण आपे नहीं तो पण) आप तो नहीं गुप्त करेला-प्रगट रत्नना निधि समान, कर्मरूपी वाड विनाना कल्प. Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org

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