Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Jain Atmanand Sabha

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Page 73
________________ (६४) भ्रान्तस्तीर्थानि दृष्टस्त्वं, मयैकस्तेषु तारकः । तत्तवाझौ विलग्नोऽस्मि, नाथ! तारय तारय ॥७॥ __ हे ! नाथ ९ घणां तीर्थोमां भम्यो छु, ते सर्वा में आपनेज एक तारक जोया. तेथी हुँ आपना चर• णमां लोगेलो छु. माटे मने तारो तारो. ७. भवत्प्रसादेनैवाहमियती प्रापितो भुवम् । औदासीन्येन नेदानीं, तव युक्तमुपेक्षितुम् ॥८॥ हे प्रभु ! आपनी कृपाथीज हुँ आटली भूमिकाने ( आपनो सेवानी योग्यतोने) पाम्यो छ. तो हवे आपने उदासीनपणाए करीने मारी उपेक्षा करवी योग्य नथी. ८. ज्ञाता तात! त्वमेवैकस्त्वत्तो नान्यः कृपापरः। नान्यो मत्तः कृपापात्रमेधि यत्कृत्यकर्मठः ॥९॥ हे पिता! आपज एक शोता छो, आपनाथी बीजो कोइ कृपाळु नथी अने मारा विना बीजो कोई कृपानुं पात्र (स्थान) पण नथी. तेथी आपज करवा लायक कार्यमां तत्पर थाओ (जे करवानुं होय ते करो). ९. इति षोडशः प्रकाशः १६. Jain Education Internationat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org

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