Book Title: Vitrag Mahadev Stotra Author(s): Hemchandracharya, Publisher: Jain Atmanand SabhaPage 76
________________ ( ६७ ) हे वीतराग ! हुं सर्व (चाराशी लाख जोवायोनिमा रहेला ) जीवोने खमायुं कुं, अने ते सर्व जीवो मारे विषे क्षमा करो. आपना ज एक शरणमां रहेला मारे ते सर्व जीवोने विषे मैत्री हो. ६. एकोऽहं नास्ति मे चिन चाहमपि कस्यचित् । त्वदङ्घ्रिशरणस्थस्य, मम दैन्यं न किञ्चन ॥७॥ हे वीतराग ! हुं एकलो ज कुं ( पिता, पुत्र, शिष्यादिक उपर मोह रहित होवाथी एकलो हुं ). माहं कोइ नथो, हुं पण कोइनो नथी. आपना चरजना शरणमां रहेला मारे कांइ पण दोनता नथी. ७ यावनानोमि पदवीं, परां त्वदनुभावजाम् । ताक मयि शरण्यत्वं मा मुञ्चः शरणं श्रिते ॥८॥ हे प्रभु! आपना प्रसादथी उत्पन्न थयेली उत्कृष्ट पदवी ( मुक्ति ) ने हुं ज्यां सुधी न पामुं, त्यां सुधी ( आपना ) शरणने पामेला मारा उपर शरण्यपणाने (शरणे आवेलानी उपरना वात्सल्यने) कशो नहीं. ८. इति सप्तदशप्रकाशः Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106