Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रो जन आत्मानन्द शताब्दि सिरोझ नं. ३
वीतराग-महादेव स्तोत्र
(मूल साथे भाषान्तर)
प्रसिद्धकर्ता. श्री जैन आत्मानन्द सभा
भावनगर
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
न्यायांभोनिधिश्रीमद्विजयानन्दसूरिभ्यो नमः
कलिकालसर्वज्ञ-श्रीहेमचन्द्राचार्यरचितं श्रीवीतराग-महादेव-स्तोत्रम् __ मूल सहित भाषांतर.
-
प्रकाशक
श्री जैन आत्मानन्द सभा-भावनगर.
की प्रत ५०० ] मूल्य चार आना [वीर स. २४६१
विक्रम सं. १९९१ आत्म. सं. ४० इस्वी. १९३५
-
-
-
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुद्रक - शेठ देवचंद दामजी धी आनंद प्रीन्टींग प्रेस - भावनगर
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
000
witho
शासनपति श्री महावीरस्वामी.
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
वक्तव्य.
आत्मानी गुफारूप अंतःकरणमां दिव्य ज्ञान अति सूक्ष्म छतां दिगंतगामी शक्तिवाला अनुभवाय छे, अने สี महापुरुषोनी वाणी अने लेखिनीवडे काव्यरूपे बहार प्रगट थइ अन्यने आनंदरसना सागररूप बने छे के जेना श्रवणमननथी धर्म, भक्ति, नीति अने व्यवहारनी शुद्ध भावनाओ प्रगट थाय छे.
आ श्री वीतराग - महादेव - स्तोत्र पण तेवुं ज परमात्मा परत्वे भक्ति उत्पन्न करावनार, महामंगलवारी अने वीतरागदेवनी स्तुतिरूपे छे. आ स्तोत्रना कर्त्ता कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य महाराजे पोतानी असाधारण प्रति भाथी परमात्मानी स्तुतिरूपे अलंकृत करेल छे, जे वीश प्रकाशमां पूर्ण करेल छे. के जे भक्ति निमित्ते पोतानो अनुभव श्री परमात्मा सन्मुख प्रकट करी पोताना आत्माने निर्मल बनावी रह्या छे.
.
आ स्तुति तो खास जीवदया प्रतिपाल श्री कुमारपाल भूपालना निमिते ज आचार्य महाराजे रचेल छे, के ते राजेन्द्र प्रातःकालमां निरंतर पाठ करी पछी अन्न-पाणी लेता हता. आ स्तोत्रना प्रत्येक प्रकाशमां प्रभुना अतिशयोनुं वर्णन, जगत्कर्तृत्व मिमांसा, अनेकांतवादनी विशिष्टता आत्मनिंदा तीर्थंकर नामकर्मथो उत्पन्न थयेल लब्धिओनुं वर्णन, वगेरे छे ते योगी पुरुषोने वारंवार मननीय अने ध्यान करवा लायक होइ प्रभुभक्तिनो अखूट झरो आ स्तुतिमांथी बहे छे तेम भाविकजनो माने छे.
आवो भक्ति रस उत्पन्न करनार आ स्तुतिरूप स्तोत्र मूल संस्कृत भाषामा आ सभा तरफथो श्री जैन आत्मानंद शता
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
दि सीरीझना प्रथम पुष्प मंगलाचरणरूप प्रकट थयेल छे. जेना संपादक पूज्यपाद आचार्य श्री विजयवल्लभसूरीश्वरजीना प्रशिष्य पंग्यासजी महाराज श्री उमंगविजयजी गणिना शिष्यरत्न मुनिराज श्री चरणविजयजी महाराज छे, के जेअश्रा आवती साल प्रातःस्मरणीय न्यायांभोनिधि श्री विजयानंदसूरीश्वरजी ( आत्मारामजी ) महारांजनी गुरुभक्ति निमित्ते शताब्दि उजववा माटे अपूर्व प्रयत्न सेवी रह्या छे, ते शताब्दिना संस्मरण निमित्ते ज आ शताब्दि सीरीझनी योजना आचार्य श्री विजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराजनी आज्ञा अनं कृपाथी ज करवानं योग्य कार्य हाथ धरी, प्रकट करवानुं कार्य आ सभाने सुप्रत करेल छे.
केवल गूजराती भाषाना जाणकार भावुको आ वीतराग प्रभुमी स्तुतिनो अमूल्य लाभ भक्तिरसद्वारा लइ शके ते माटे आ स्तोत्रनुं मूल साथै सरल गुजराती भाषांतर करावी सभाए या ग्रंथ शताब्दिना त्रीजा पुष्प तरीके प्रसिद्ध करेल छे उंचा कोचली ब्ल्युपेपर उपर सुंदर शास्त्री टाइपथी सुशोभित बाइण्डींगथी अलंकृत करेल छे. सर्व कोइ लाभ लइ शके माटे मात्र चार आना किंमत राखवामां आवेल छे.
आ ग्रंथमां येवला निवासी धर्मात्मा व्हेनो श्रीमती चंचळ व्हेन, मोतीव्हेन अने बबुव्हेने आर्थिक सहाय आपल छे जेथी तेओने धन्यवाद घंट छे.
आत्मानंद भवन
वी. सं. २४६१ आ. सं. ४०
गांधी वल्लभदास त्रिभुवनदास.
सं. १९९१ मा ज्येष्ठ शुद ८ ( गुरु जयंती दिन )
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
00
6o
500
SHOOPSUser 800 4000Geet
0000
न्यायांभोनिधि श्रीमद् विजयानन्दसूरीश्वरजी
आत्मारामजी ) महाराज.
DOOSEDROOSSES
Jain
આનંદ પ્રેસ ભાવનગર
*********see
000
66660000:00000008099
Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
***** 1000009001
•
**** 00000
******************oop00
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीविजयवल्लभसूरिभ्यो नमः । कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचित श्रीवीतराग-महादेव-स्तोत्र ।
भाषांतर सहित.
यः परात्मा परं ज्योतिः, परमः परमेष्टिनाम् । आदित्यवर्ण तमसः, परस्तादामनन्ति यम् ॥ १ ॥
जे परमात्मा ( सर्व संसारी जीवोथी श्रेष्ठ स्वरूपवाळा ) छे, केवळज्ञानमय छे, पंचपरमेष्ठीमां प्रधान छे, तेम ज जे अज्ञाननी पेले पार गयेला अने सूर्यना जेवा उधोत करवावाळा छे एम पंडितजनो माने छे. १
सर्वे येनोदमूल्यन्त, समूलाः क्लेशपादपाः । मूर्ना यस्मै नमस्यन्ति, सुरासुरनरेश्वराः॥ २ ॥
Jain Education Internationat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २ )
जेणे ( समस्त रागद्वेषादिक ) क्लेशकारी वृक्षो मूल सहित उखेडी नांख्या छे अने जेने सुरपति, असुरपति तथा नरपतिओ मस्तक वडे नमस्कार करे छे. २
प्रावर्त्तन्त यतो विद्याः, पुरुषार्थप्रसाधिकाः । यस्य ज्ञानं भवद्भावि - भूतभावावभासकृत् ॥ ३ ॥
जेनाथी धर्म, अर्थ, काम अने मोक्षरूपी पुरुपार्थने सिद्ध करनारी शब्दविद्यादिक १४ विद्याओ प्रवर्ती छे, अने जेनुं ज्ञान अतीत, अनागत अने वर्तमान वस्तु मात्रने प्रकाश करनारुं छे. ३
यस्मिन्विज्ञानमानन्दं, ब्रह्म चैकात्मतां गतम् । स श्रद्धेयः स च ध्येयः, प्रपद्ये शरणं च तम् ॥ ४ ॥
जेनामां विज्ञान
( केवळ ज्ञान ), आनंद, ( अखंड सुख ) अने ब्रह्म ( परमपद ) ए त्रणे एकताने पामेला छे ते ( सर्वज्ञ - वीतराग ) श्रद्धा करवा योग्य छे अने ध्यान करवा योग्य छे. ते परमात्मानुं शरण हुं अंगीकार करूं कुं. ४
तेन स्यां नाथवाँस्तस्मै, स्पृहयेयं समाहितः ।
ततः कृतार्थो भूयासं, भवेयं तस्य किङ्करः ॥ ५॥
Private & Personal Use Onl
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
( समस्त क्लेशवर्जित ) ए प्रभुथी हुं सनाथ छु. (सुरासुरवंदित ए प्रभुने ज) हुं एक मनथी वांछं छं. तेमनाथी ज हुं कृतकृत्य कुं अने (त्रिकाळवेदी एवा ) ते प्रभुनो ज हुँ किंकर छु. ५ तत्र स्तोत्रेण कुर्या च, पवित्रां स्वां सरस्वतीम् । इदं हि भवकान्तारे, जन्मिनां जन्मनः फलम् ॥ ६॥
ते प्रभुनी स्तुति-स्तोत्र करवावडे हुं म्हारी वाणीने पवित्र करुं छं, कारण के आ भव अटवीमां प्राणीओने जन्म पाम्यान ए ज फळ छे.६
क्वाऽहं पशोरपि पशु-र्वीतरागस्तवः क्व च ? उत्तितीपुररण्यानी, पद्भ्यां पङ्गुरिवारम्यतः॥७॥
पशुथी पण पशु जेवो हुँ क्या ? अने (बृहस्पतिने पण अशक्य एवी) वीतरागनी स्तुति क्या ? तेथी पगवडे महाअटवीने उल्लंघन करवा इच्छता पांगळा जेवो हुँ छं. (एटले आ म्हारं आचरण, महा साहसरूप होवाथी हसवा जेवू के.) ७
तथापि श्रद्धामुग्धोऽहं, नोपालभ्यः स्खलन्नपि । विशृङ्खलापि वाग्वृत्तिः, श्रद्दधानस्य शोभते ॥ ८॥
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
तो पण श्रद्धाथी मुग्ध एवो हुँ (प्रभुनी स्तुति करवामां) स्खलना पाएँ तो पण उपालंभने योग्य नथी, केमके श्रद्धाळुनी संबंध वगरनी वचनरचना पण शोभा पामे छे. (आथी म्हारो प्रस्तुत प्रयत्न सफळ थशे. ) ८
श्रीहेमचन्द्रप्रभवा-द्वीतरागस्तवादितः । कुमारपालभूपालः, प्राप्नोतु फलमीप्सितम् ॥९॥
श्री हेमचंद्रसूरिए रचेला आ श्री वीतरागस्तोत्रथी कुमारपाळ भूपाळ इच्छित ( श्रद्धा विशुद्धि अने कर्मक्षयरूप ) फळने प्राप्त करो. ९
॥ इति प्रथमप्रकाशः ॥
Jain Education Internationat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
५ )
मूळ ४ अतिशय वर्णनरूप बीजा प्रकाश.
प्रियङ्ग-स्फटिकस्वर्ण-पद्मरागाञ्जनप्रभः । प्रभो ! तवाधौतशुचिः काय: कमिव नाक्षिपेत् १ ॥ १ ॥
हे प्रभु ! प्रियंगुवत् (नील), स्फटिकवत् ( उज्वळ) स्वर्णवत् ( पीत), पद्मरागवत् ( रक्त ) अने अंजनवत् (श्याम) वर्णनी कांति समान अने धोया विना ज सदा पवित्र थलो आपनो देह, देव मनुप्यादि कोने चकित नथी करतो ? सर्वने करे छे. १
मन्दारदामवन्नित्य--मवासितसुगन्धिनि । तवाङ्गे भृङ्गतां यान्ति, नेत्राणि सुरयोषिताम् ||२॥
कल्पवृक्षनी माळानी जेम सदा स्वभावथी ज सुगंधी युक्त आपना अंग उपर देवांगनाना नेत्रो भ्रमरपणाने पामे के. २
दिव्यामृतरसास्वाद - पोषप्रतिहता इव । समाविशन्ति ते नाथ !, नाङ्गे रोगोरगव्रजाः ॥३॥
हे नाथ ! दिव्य अमृतरसना आस्वादनी पुटिथी जाणे पराभव पामेला होय तेम कास श्वासा
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६ )
दिक रोगरूपी सर्पनो समूह आपना देहमां व्यापी शकतो नथी, ( आप सदा रोग रहित ज छो. ) ३
त्वय्यादर्शतलालीन- प्रतिमाप्रतिरूपके । क्षरत्स्वेदविलीनत्व - कथाsपि वपुषः कुतः ? ॥ ४॥
आप दर्पानी अंदर प्रतिबिंबित थयेला रूपनी समान निर्मळ होवाथी आपनुं शरीर झरता परसेवाथी व्याप्त थयुं छे एवी कथा पण क्यांथी होय ? ४
न केवलं रागमुक्तं, वीतराग ! मनस्तव । वपुः स्थितं रक्तमपि, क्षीरधारासहोदरम् ॥ ५ ॥
हे वीतराग ! केवळ आपनं मन राग रहित थयेलुं छे एम नथी, परंतु आपना शरीरमां रहेलं रक्त (रुधिर ) दूधनी धारा जेवुं धोळु के, पटले आपना रुधिरमांथी पण स्वाभाविक राग-रंग-रताश जती रही छे. ५
जगद्विलक्षणं किं वा, तवान्यद्वक्तुमीमहे ? | यदविमबीभत्सं, शुभ्रं मांसमपि प्रभो ! ॥६॥
वळी जगतथी विलक्षण एवं आपनुं बीजं वर्णन
अमे शुं करी शकीए ? कारण के हे प्रभु! आपनुं मांस
Private & Personal Use Onl
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
पण दुर्गध रहित, (परम सुगंधिवाळू) दुर्गच्छा रहित अने (गायना दूध जेवू ) घोळु छे. ६
जलस्थलसमुद्भूताः, संत्यज्य सुमनःस्रजः । तव निःश्वाससौरभ्य-मनुयान्ति मधुव्रताः ॥७॥
हे वीतराग ! भ्रमराओ, जळनी अंदर उत्पन्न थएला अने स्थलमा उत्पन्न थएला पुष्पोनी माळाओ तजीने आपना नि:श्वासनी खुशबो लेवा (आपना वदन-कमळ पासे) आवे छे. ७
लोकोत्तरचमत्कार-करी तव भवस्थितिः । यतो नाहारनीहारौ, गोचरश्चर्मचक्षुषाम्
॥८॥
हे प्रभु ! आपनी संसारस्थिति लोकोत्तर (अपूर्व) चमत्कारने करवावाळी के, केमके आपना आहार अने नीहार चर्मचक्षुवाळा मनुष्यो जोइ शकता नथी. ८
॥ इति द्वितीयप्रकाशः ।।
-
-
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ८ )
कर्मक्षयोत्पन्न ११ अतिशय वर्णनरूप त्रीजो प्रकाश.
सर्वाभिमुख्यतो नाथ !, तीर्थकुन्नामकर्मजात् । सर्वथा सम्मुखीनस्त्व - मानन्दयसि यत्प्रजाः ॥ १॥
तीर्थकर नामकर्मजनित सर्वाभिमुख्य नामना अतिशयथी हे नाथ ! आप केवळज्ञानना प्रकाशवडे सर्वथा सर्व दिशाए सन्मुख छतां देव, मनुष्यादिक प्रजाने प्रतिक्षण (परम) आनंद पमाडो छो. १
यद्योजनप्रमाणेऽपि, धर्मदेशनसद्मनि । संमान्ति कोटिशस्तिर्यग्नृदेवाः सपरिच्छदाः ॥२॥
एक योजनप्रमाण धर्मदेशनाना स्थानरूप समवसरणमां परिवार सहित क्रोडो देवताओ, मनुष्यो अने तिर्यचो आपना प्रभावथी सुखपूर्वक समाइ जाय छे.२
तेषामेव स्वस्वभाषा - परिणाममनोहरम् । अप्येकरूपं वचनं, यत्ते धर्मावबोधकृत् ॥ ३ ॥
आपने एक सरखं वचन - उपदेश देव, मनुष्य अने तिर्यचोने पोतपोतानी भाषामां सुखे समजी शकाय एवो छे अने धर्म संबंधी बोधने करावनार होय छे. ३
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
साग्रेपि योजनशते, पूर्वोत्पन्ना गदाम्बुदाः । यदञ्जसा विलीयन्ते, त्वद्विहारानिलोमिभिः ॥४॥
आपना विहाररुपी पवननी लहेरीओथी सवासो (१२५) योजनमा पूर्वे उत्पन्न थयेला रोगरूपी वादळाओ तत्काल अदृश्य थइ जाय छे. ४
नाविर्भवन्ति यद्भूमौ, मूषकाः शलभाः शुकाः । क्षणेन क्षितिपक्षिप्ता, अनीतय इवेतयः ॥५॥
राजाए दूर करी दीधेली अनीतिनी जेम भूमि उपर उंदर, तीड अने शुको विगेरे धान्यने नुकशान करनारा उपद्रवो ज्यां आप विचरो छो त्यां तत्काळ दूर थइ जाय छे. ५
स्त्रीक्षेत्रपद्रादिभवो, यद्वैराग्निः प्रशाम्यति । त्वत्कृपापुष्करावर्त-वर्षादिव भुवस्तले
॥६॥
आपनी कृपारूप पुष्करावर्त मेघनी वृष्टिथी ज होय तेम ज्यां आप चरण धरो छो त्यां स्त्री, क्षेत्र अने सीमाडादिकथी उत्पन्न थयेलो विरोधरूपी अग्नि तमाम शमी जाय छे. ६
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १० ) त्वत्प्रभावे भुवि भ्राम्य-त्यशिवोच्छेदडिण्डिमे । सम्भवन्ति न यन्नाथ !, मारयो भुवनारयः ॥७॥
हे नाथ ! उपद्रवोनो उच्छेद करवा ढोल वगाडवा जेवो आपनो प्रभाव (प्रताप) भूमी उपर प्रसरवाथी (दुष्ट व्यन्तर, शाकिनी प्रमुखथी उत्पन्न थता) मारी (प्लेग) विगेरे जगतना काळ जेवा रोगो-उपद्रवो पेदा ज थता नथी. ७
कामवर्षिणि लोकानां, त्वयि विश्वकवत्सले । अतिवृष्टिरवृष्टिर्वा, भवेद्यन्नोपतापकृत् ॥८॥
विश्वोपकारी अने लोकोना मनवांछितदायक आप विद्यमान होवाथी लोकोने संतापकरनारी अतिवृष्टि के अनावृष्टि थती नथी. ८
स्वराष्ट्रपरराष्ट्रेभ्यो, यत्क्षुद्रोपद्रवा द्रुतम् । विद्रवन्ति त्वत्प्रभावात् , सिंहनादादिव द्विपाः ॥९॥
स्वचक्र अने परचक्र ( स्वराज्य अने परराज्य) थी थयेला क्षुद्र उपद्रवो सिंहनादथी जेम हाथीओ नाशी जाय छे तेम आपना प्रभावथी तत्काळ नष्ट
थइ जाय छे. ९ Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १९ /
यत्क्षीयते च दुर्भिक्षं, क्षितौ विहरति त्वयि । सर्वाद्भुतप्रभावाढ्ये, जङ्गमे कल्पपादपे ॥ १० ॥
सर्व अद्भुत प्रभावशाळी अने जंगम कल्पवृक्ष समान आपना पृथ्वी उपर विचरवाथी दुर्भिक्ष दुष्काळ दूर थइ जाय छे. १०
2.
यन्मूर्ध्नः पश्चिमे भागे, जितमार्त्तण्डमण्डलम् । मा भूद्वपुर्दुरालोक - मितीवोत्पिण्डितं महः ||११||
सूर्यथी पण अधिक प्रभावाळु भामंडळ आपनुं शरीर जोवामां कोईने अडचण ( आड ) न आवे तेला ज माटे देवोए ते आपना मस्तकनी पाछळ स्थापेलुं छे. १९
स एष योगसाम्राज्य - महिमा विश्वविश्रुतः । कर्मक्षयोत्थो भगवन् !, कस्य नाश्चर्यकारणम् १ ||१२||
?
हे भगवन् ! घाती कर्मना क्षयथी उत्पन्न थयेलो, लोक प्रसिद्ध योगसाम्राज्यनो महिमा कया सचेतन प्राणीने आश्चर्य पमाडतो नथी ? अर्थात् सर्व सचेतन प्राणी वर्गने आश्चर्यकारी थाय छे १२
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनन्तकालप्रचित-मनन्तमपि सर्वथा । त्वत्तो नान्यः कर्मकक्ष-मुन्मूलयति मूलतः ॥१३॥
अनन्तकाळथी उपार्जन करेल अने अन्त विनानं कर्मवन आप सिवाय बीजो कोइ सर्व प्रकारे मूळथी उच्छेदी शकतो नथी. १३ तथोपाये प्रवृत्तस्त्वं, क्रियासमभिहारतः । यथानिच्छन्नुपेयस्य, परां श्रियमशिश्रियः ॥१४॥
हे प्रभु! चोरित्ररूप उपायमा पुनः पुनः अभ्यासथी आप एटला वधा प्रवृत्त थयेला छो के परमपदनी श्रेष्ठ संपदारूप तीर्थकरपदवीने नहि इच्छता छतां पण आपने प्राप्त थइ छ. १४ मैत्रीपवित्रपात्राय, मुदितामादशालिने । कृपोपेक्षाप्रतीक्षाय, तुभ्यं योगात्मने नमः ॥१५॥
__ मैत्री भावनाना पवित्र स्थानरूप, पुष्ट प्रमोद भावनाथी शोभित तेम ज करुणा अने माध्यस्थ्य (भावना) वडे पूज्य एवा योगस्वरूपी आपने अमारो नमस्कार थाओ. १५
॥ इति तृतीयप्रकाशः ॥
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १३ )
देवकृत अतिशय वर्णनरूप चोथो प्रकाश.
मिथ्यादृशां युगान्तार्कः, सुदृशाममृताञ्जनम् । तिलकं तीर्थकुलक्ष्म्याः, पुरश्चक्रं तवैधते ॥१॥
मिथ्यादृष्टिओने प्रलयकाळना सूर्यनी जेम संतापकारी अने सम्यग्दृष्टिओने अमृतना अंजननी जेम शान्तिकारी एवं तीर्थंकरलक्ष्मीना तिलक समान धर्मचक्र आपनी आगळ दीपी रह्युं छे. १
एकोऽयमेव जगति, स्वामीत्याख्यातुमुच्छ्रिता । उच्चैरिन्द्रध्वजव्याजा - तर्जनी जंभविद्विषा ॥२॥
जगतमां आ वीतराग ज एक स्वामी छे, एम जणाववा माटे इंद्रे उंचा इंद्रध्वजना मिषथी पोतानी तर्जनी अंगुली उंची करी छे, एम जणाय छे. २
यत्र पादौ पदं धत्त - स्तव तत्र सुरासुराः । किरन्ति पङ्कजव्याजा - च्छ्रियं पङ्कजवासिनीम् ||३||
ज्यां आपना चरण पडे छे त्यां देव अने दानवो नव सुवर्णकमळना व्याजथी कमळमां स्थिति करनारी लक्ष्मीने विस्तारे छे. ३
Private & Personal Use Onl
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १४ ) दानशीलतपोभाव-भेदाद्धर्म चतुर्विधम् । मन्ये युगपदाख्यातुं, चतुर्वक्त्रोऽभवद्भवान् ॥४॥
दान, शोल, तप अने भावनारूप चार प्रकारना धर्मने एकी साथे कहेवा माटे आप चतुर्मुख थया छो एम हुँ मार्नु छं. ४
त्वयि दोषत्रयात्रातुं, प्रवृत्ते भुवनत्रयीम् । प्राकारत्रितयं चक्रु-त्रयोऽपि त्रिदिवौकसः ॥५॥
राग, द्वेष अने मोहरूप तथा मन, वचन अने काया संबंधी त्रण दोषथी त्रिभुवनने बचाववाने आप प्रवृत्त थयेल होवाथी त्रण प्रकारना (वैमानिक, ज्यातिषी अने भुवनपति) देवोए रत्न, सुवर्ण अने रूप्यमय त्रण गढनी रचना करी छे. ५
अधोमुखाः कण्टकाः स्यु-र्धात्र्यां विहरतस्तव । भवेयुः सम्मुखीनाः किं, तामसास्तिग्मरोचिषः ? ॥६॥
पृथ्वी उपर आप विचरो छो त्यारे कांटा पण उंधा पडी जाय छे. सूर्य उदय पामे छे त्यारे घूवड
अथवा अंधकारनो समूह शुटकी शके खरो ? ६ Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
केशरोमनखश्मश्रु, तवावस्थितमित्ययम् । बाह्योऽपि योगमहिमा, नाप्तस्तीर्थकरैः परैः ॥७॥
केश, रोम, नख अने दाढी-मूछ दीक्षा ग्रहण अवसरे जेवां समारेलां होय तेवां ज रहे, जरा पण बधे नहि एवो आ बाह्य ( प्रगट देखातो) योग महेमा पण अन्य हरिहरादिक देवोए प्राप्त कर्यों नथी यारे अंतरंग ( सर्वाभिमुख्यतादि ) योगनी वात तो दूर ज रही. ७ शब्दरूपरसस्पर्श-गन्धाख्याः पञ्च गोचराः ।। भजन्ति प्रातिकूल्यं न, त्वदने तार्किका इव ॥ ८ ॥ __ हे वीतराग ! बौद्ध, नैयायिकादि तर्कवादीओनी जेम शब्द, रूप, रस, गंध अने स्पर्शरूप पांचे इंद्रियोना विषयो आपनी आगळ अनुकूळताने भजे छे-प्रतिकूळपणे वर्तता नथी. ८ त्वत्पादावृतवः सर्वे, युगपत्पर्युपासते। आकालकृतकन्दर्प-साहाय्यकमयादिव ॥९॥
अनादिकाळथी आपना विरोधी कामदेवने सहायक थयाना भयथी ज होय तेम समकाळे सघळी ऋतुओ आवी आपना चरणकमळने सेवे छे. ९
Jain Education Internationat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १६ )
सुगन्ध्युदकवर्षेण, दिव्यपुष्पोत्करेण च । भावित्वत्पादसंस्पर्शा, पूजयन्ति भुवं सुराः ॥ १० ॥
जे भूमिने आपनो चरणस्पर्श थवानो छे ते भूमिने देवताओ सुगन्धी जळनी वृष्टिवडे अने दिव्य पंचवर्णवाळा पुष्पना पुंजवडे पूजे छे. १०
जगत्प्रतीक्ष्य ! त्वां यान्ति, पक्षिणोऽपि प्रदक्षिणम् । का गतिर्महतां तेषां त्वयि ये वामवृत्तयः १ ॥ ११ ॥
हे त्रैलोक्यपूज्य ! ( अज्ञान ) पक्षीओ पण आ पने प्रदक्षिणा दे छे, तो पछी विवेकी अने बुद्धिशाली होवा छतां आपना प्रति प्रतिकूळ वर्त्ते छे एवा मानवीओनी शी गति थशे ? ११
पञ्चेन्द्रियाणां दौः शील्यं, क्व भवेद्भवदन्तिके ? | एकेन्द्रियोऽपि यन्मुञ्च - त्यनिलः प्रतिकूलताम् ॥ १२ ॥
संज्ञोपंचेन्द्रिय मनुष्यादिकनुं
दुष्टपणं आपनी
एवो पवन पण
पासे क्यों रहे ? केमके एकेन्द्रिय प्रतिकूळताने तजी दे छे ( तो बीजानुं कहेवुं ज शुं ? )
मतलब ए के पवन पण सुखकारी ज वाय छे. १२
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १७ )
मूर्ध्ना नमन्ति तरवस्त्वन्माहात्म्यचमत्कृताः । तत्कृतार्थं शिरस्तेषां व्यर्थ मिथ्यादृशां पुनः || १३ ॥
हे प्रभु ! वृक्षो पण आपना माहात्म्यथी चमत्कार पामीने आपने मस्तकवडे नमस्कार करे छे. ( एकेद्वियोने भय, राग विगेरे संज्ञा होय छे तेम चमत्कार पण संभवे छे, तेथी आपना विहार वखते ते वृक्षो आपने जोइने नम्र थाय छे ) तेथी तेमना मस्तक कृतार्थ छे, अने मिथ्यादृष्टिओ आपने नमता नथी तेथी तेआना मस्तक व्यर्थ के. १३.
जघन्यतः कोटिसङ्ख्यास्त्वां सेवन्ते सुरासुराः । भाग्यसंभारलभ्येऽर्थे, न मन्दा अप्युदासते || १४ ॥
हे प्रभु ! आपने जघन्यथी पण एक करोड देवा अने असुरो सेवे छे केमके पुण्यना समूहथी पामी शकाय तेवा पदार्थमां मंद प्राणीओ पण उदासीन रहेता नथी, तो पछी देवताओ केम आलसु थाय ? १४
इति चतुर्थः प्रकाशः. ४.
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १८ ) अथ पंचम प्रकाश ५. शेष अतिशयानुं वर्णन.
गायन्निवालिविरुत-नत्यन्निव चलैर्दलैः । त्वद्गुणैरिव रक्तोऽसौ, मोदते चैत्यपादपः ॥१॥
हे प्रभु ! आपना शरीरमानथी बारगुणा आ चैत्यवृक्ष भमराना शब्दवडे जाणे गायन करतो होय, वायुथी चलायमान थतां पांदडाओवडे जाणे नृत्य करतो होय अने आपना गुणोवडे जाणे रक्त (रातो) थयो होय तेम हर्ष पामे १.
आयोजनं सुमनसो-ऽधस्तानिक्षिप्तबन्धनाः । जानुदन्नीः सुमनसो, देशनोा किरन्ति ते ॥२॥
हे प्रभु ! ओपनी देशना भूमि (समवसरण) मां देवताओ एक योजन सुधी नीचा डीटवाळा जानुप्रमाण पुष्पोने विखेरे छे-वरसे छे २.
मालवकैशिकीमुख्य-ग्रामरागपवित्रितः । तव दिव्यो ध्वनिः पीतो, हर्षोद्ग्रीवैZगैरपि ॥३॥
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १९ )
हे प्रभु ! वैराग्यने दीपन करनारा मालव, कैशिकी विगेरे ग्राम पर्यंत रागोवडे पवित्र थयेलो आपनो दिव्य ध्वनि हर्षथो उंची डोकवाळा मृगोए पण पीधो (सांभळ्यो ) छे. ३.
तवेन्दुधामधवला, चकास्ति चमरावली । हंसालिरिव वक्त्राज-परिचर्यापरायणा ॥४॥
हे प्रभु ! चंद्रना किरणो जेवो उज्वल चमरावलो (चामरनी श्रेणी ) जाणे के आपना मुखकमळनी सेवामां तत्पर थयेलो हंसनी श्रेणी होय तेम शामे छे. ४.
मृगेन्द्रासनमारूढे, त्वयि तन्वति देशनाम् । श्रोतुं मृगाः समायान्ति, मृगेन्द्रमिव सेवितुम् ॥५॥
हे प्रभु ! ज्यारे आप सिंहासन उपर आरूढ थइने देशना आपो छो त्यारे आपनी देशना सांभळवा माटे मृगलाओ पण आवे छे. ते जाणे के मृगेन्द्र ( पोताना स्वामी ) नी सेवा करवा आवता होय तेम लागे छे. ५.
भासां चयैः परिवृतो, ज्योत्स्नाभिरिव चन्द्रमाः। चकोराणामिव दृशां, ददासि परमां मुदम् ॥६॥
Jain Education Internationat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २० )
हे प्रभु ! ज्योत्स्नावडे परिवरेलो चंद्र जेम चकोर पक्षीना नेत्रोने आनंद आपे छे तेम भामंडळबडे परिवरेला आप सज्जनोना नेत्रोने अत्यंत आनंद आपो को. ६.
दुन्दुभिर्विश्वविश्वेश !, पुरो व्योम्नि प्रतिध्वनन् । जगत्याप्तेषु ते प्राज्यं, साम्राज्यमिव शंसति ॥ ७॥
हे सर्व विश्वना (त्रण जगतना) स्वामी ! विहारमां आपनी आगळ आकाशमां रहीने शब्द करतो देवदुंदुभि जाणे के जगतमां आप्त पुरुषोमां आपनुं ज मोटुं साम्राज्य कहेतो होय तेम शोभे छे. ( सर्व देवोमां आपनुं चक्रवर्तीपणुं जणावे छे. ) ७.
तयोर्ध्वमूर्ध्व पुण्यर्द्धि-क्रमसब्रह्मचारिणी । छत्रत्रयी त्रिभुवन - प्रभुत्वप्रौढिशंसिनी
॥ ८ ॥
हे प्रभु ! ( सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति, तोर्थकर नामकर्म उपार्जन, स्वर्गगमन, पुनः मनुष्य भवमां सर्वविरति, अपूर्वकरण, क्षपकश्रेणि, शुक्लध्यान, घातिकर्मक्षय, केवळज्ञाननी प्राति, तीर्थंकरनी संपदानो भोग अने छेवट मोक्षगमन - आ प्रमाणे ) पूर्ण समृद्धिना अनुक्रमनी जेवा आपना मस्तक उपर
Private & Personal Use Onl
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २१ )
उपराउपरी रहेला त्रण छत्रो त्रण जगतना प्रभुपणानो मोटाईने कहेता होय तेम शोभे छे. ८.
एतां चमत्कारकरी, प्रातिहार्यश्रियं तव । चित्रीयन्ते न के दृष्ट्वा, नाथ! मिथ्यादृशोऽपि हि १॥९॥
हे नाथ ! चमत्कारने. करनारी आपनी प्रातिहार्य लक्ष्मीने जोइने क्या मिथ्यादृष्टि जनो पण आश्चर्य नथी पामता ? सर्व जनो आश्चर्य पामे छे. ( जो के तीर्थकरोने अनंत अतिशया होय छे तो पण बाळजनोना बोधने माटे स्थूल दृष्टिथो चोत्रीश अतिशयो कहेवामां आवे छे. ) ९.
इति पंचम प्रकाश. ५.
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २२)
अथ षष्ठप्रकाशः
लावण्यपुण्यवपुषि, त्वयि नेत्रामृताञ्जने । माध्यस्थ्यमपि दौःस्थ्याय, किं पुनद्वेषविप्लवः? ॥१॥
हे प्रभु ! तमे लावण्यवडे पवित्र शरीरवाळा होवोथी प्राणीओना नेत्रोने अमृतना अंजन समान छो; कृतां तमारे विषे मध्यस्थपणुं धारण कर (एटले के बीजा हरिहरादिक देव जेवा आप पण देव छो एम जे मानवू) ते पण मोटा खेदने माटे छे तो पछी आपने विषे द्वेषभाव राखवो ते तो अत्यंत खेदने माटे होय तेमां शुं कहेवू ? १.
तवापि प्रतिपक्षोऽस्ति, सोऽपि कोपादिविप्लुतः । अनया किंवदन्त्यापि, किं जीवन्ति विवेकिनः?॥२॥
हे नाथ ! आपने पण शत्रु के अने ते पण क्रोधादिक कषायथी व्याप्त छे. आवी वार्ताए करीने पण शुं विवेकी पुरुषो जीवी शके ? न ज जीवे. ( नहीं सांभळवा योग्य वचन सांभळवा करतां मरण ज श्रेष्ठ छे. ) २.
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २३ )
विपक्षस्ते विरक्तश्चेत्, स त्वमेवाथ रागवान् । न विपक्षो विपक्षः किं, खद्योतो द्युतिमालिनः १ ॥ ३ ॥
जो कदाच आपनो शत्रु विरागी होय तो ते विरागी आप ज हो ( तेथी तेवो शत्रु होई शके नहीं मित्र ज होय ) अने जो ते आपनो शत्रु रागी होय तो पण ते अणघटतो शत्रु होइ शके नहीं. शुं खद्योत सूर्यनो शत्रु होइ शके ? न ज होय ( कारण के समान पराक्रमी ज शत्रु होइ शके छे ) ३.
स्पृहयन्ति त्वद्योगाय यत्तेऽपि लवसत्तमाः । योगमुद्रादरिद्राणां परेषां तत्कथैव का ? 118 11
हे प्रभु ! ते लवसत्तम (अनुत्तरविमानवासी) देवो पण आपना योगनी स्पृहा करे छे. तो योगमुद्राए ( रजोहरणादिके ) करीने रहित अन्य दर्शनीओने ते योगमार्गनी कथा ज शानो होय ? न ज होय. ४.
त्वां प्रपद्यामहे नाथं त्वां स्तुमस्त्वामुपास्महे । त्वत्तो हि न परस्त्राता, किं ब्रूमः ? किमु कुर्महे ? ॥ ५ ॥
हे नाथ ! अमे आपने अंगीकार करीए छीए, आपनी स्तुति करीए छीए, आपनी उपासना (सेवा)
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २४ )
करीए छोए, आपनाथी बीजो कोई ( देवादिक) रक्षण करनार नथी आथी बोजुं अमे शुं बोलीए ? अने शुं करोए ? ५.
स्वयं मलीमसाचारैः, प्रतारणपरैः परैः । वंच्यते जगदप्येतत्, कस्य पूत्कुर्महे पुरः १ ॥ ६ ॥
पोते मलिन आचारवाळा अने बीजाने ठगवामां तत्पर एवा अन्य देवो आ आखा जगतने ठगे छे. तो हे नाथ! अमे कोनी पासे आ पोकार करीए ? ( आप सिवाय बीजा कोईनी पासे कहीए तेतुं नथी. ) ६.
नित्यमुक्तान् जगज्जन्म - क्षेमक्षयकृतोद्यमान् । वन्ध्यास्तनन्धयप्रायान्, को देवांश्चेतनः श्रयेत् १ ॥७॥
निरंतर मुक्त तथा जगतनी उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय करवामां उद्यमवान एवा : वंध्या पुत्र समान देवोने कोण चेतनावाळो प्राणी आश्रय करे ? ( देव तरिके माने ? ) ७.
कृतार्था जठरोपस्थ - दुःस्थितैरपि देवतैः । भवादृशानिह्नवते, हाहा ! देवास्तिकाः परे ॥ ८ ॥
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
हे देव ! बीजा आस्तिको (ब्राह्मणादि) जठर अने उपस्थ (क्षुधा अने कामविकार) थी दुःखी थयेला देवोवडे पण कृतार्थ थइ आपना जेवा: वीतराग देवोने छपावे छे-निषेध करे छे, ते अति खेदनी चात छे. ८.
खपुष्पप्रायमुत्प्रेक्ष्य, किश्चिन्मानं प्रकल्प्य च ।। संमान्ति देहे गेहे वा, न गेहेनर्दिनः परे ॥९॥
हे प्रभु ! गेहेनर्दी (घरमा ज शुरवोर ) एवा केटलाक लोको आकाश-पुष्पनी जेवी मिथ्या उत्प्रेक्षा (तर्क) करीने, अने कांइक प्रमाणनी कल्पना करीने पोताना देहमां अने घरमां माता नथी ( अमारो ज धर्म श्रेष्ठ के एम मानी मस्तनी जेम रहे छे.) ९.
कामरागस्नेहरागा-वीषत्करनिवारणौ । दृष्टिरागस्तु पापीयान, दुरुच्छेदः सतामपि ॥ १० ॥
हे प्रभु ! कामराग अने स्नेहराग ए बन्नेनुं निवारण कर सहेलुं छे परन्तु (मारी मान्यता ज सत्य छे एवा प्रकारना ) दृष्टिराग तो अत्यंत पापी छे. तेने सत्पुरुषो पण दुःखे करीने छेदी शके छे. १०
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २६ ) प्रसन्नमास्यं मध्यस्थे, दृशौ लोकम्पृणं वचः । इति प्रीतिपदे बाढं, मूढास्त्वय्यप्युदासते ॥११॥
हे प्रभु! आपनुं मुख प्रसन्न छे, बन्ने नेत्रो मध्यस्थ (विकार रहित ) छे अने आपनुं वचन लोकोने प्रीतिकारक छे. आ प्रमाणे आप सर्वने प्रीति करनार छतां पण मूढ लोको आपना उपर उदासीन रहे छे. ११.
तिष्ठेद्वायुवेदद्रि-ज़लेजलमपि कचित् । तथापि ग्रस्तो रागाथै- तो भवितुमर्हति ॥ १२ ॥
दे जिनेन्द्र ! कदाच वायु स्थिर थइ जाय, पर्वत गळी जाय अने पाणी पण अग्निनी जेम जाज्वल्यमान थाय; तो पण जे ( देवो ) रागद्वेषादिकवडे व्याप्त होय ते आप्त ( हितकारक ) थवाने लायक नथी अर्थात् वीतराग सिवाय बीजा कोइ सत्य देव छे ज नहों. ११.
इति षष्ठप्रकाशः
Jain Education Internationat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२७ )
अथ सप्तमप्रकाश. हवे जगत्कर्तृनिरास नामनो सातमो प्रकाश कहे छे. धर्माधर्मी विना नाङ्गं, विनाङ्गेन मुखं कुतः । मुखाद्विना न वक्तृत्वं, तच्छास्तारः परे कथम् ? ॥१॥
धर्म अने अधर्म ( पाप-पुण्य ) विना शरीर होइ शकतुं नथी. शरीर विना मुख क्याथी होय ? अने मुख विना वक्तापणुं संभवतुं नथी; तेथी अन्य देवो (के जेओ नित्य मुक्त मानेला छे अने शरीरादिक रहित छ तेओ) उपदेशदाता शी रीते होइ शके ? १.
अदेहस्य जगत्सर्गे, प्रवृत्तिरपि नोचिता । न च प्रयोजनं किंचित, स्वातन्त्र्यान पराज्ञया ?॥२॥
. वळी शरीर रहित देवनी जगतने उत्पन्न करवामां प्रवृत्ति पण उचित नथी. तेम ज स्वतंत्रपणु होवाथी तेवी प्रवृत्तिमां कांइ पण प्रयोजन नथी अने ते बीजानी आज्ञाथी प्रवर्तता पण नथी. २.
क्रीडया चेत्प्रवर्तेत, रागवान् स्यात् कुमारवत् । कृपयाऽथ सृजेत्तर्हि, सुख्येव सकलं सृजेत् ॥३॥
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२८
)
जो कदाच ते देव क्रीडाथी ज जगतनी सृष्टि विगेरेमा प्रवर्ते छे एम कोइ कहे तो तेने बाळकनी जेम रागवान कहेवो जोइशे, अने जो कृपाथी सर्जे छे एम कहेता हो तो तेणे समग्र जगतने सुखी ज सर्जदूं जोइए. ३.
दुःखदौर्गत्यदुर्योनि-जन्मादिक्लेशविह्वलम् । जनं तु सृजतस्तस्य, कृपालोः का कृपालुता ॥४॥
परंतु ते तो इष्ट वियोगादिक दुःख, दरिद्रता, दुष्टयोनि अने जन्ममरणादिक क्लेशवडे व्याप्त एवा जनोने सर्जे छे; तेथी ते कृपाळुनी कइ कृपाळुता समजवी ? ४.
कर्मापेक्षः स चेत्तर्हि, न स्वतंत्रोऽसदादिवत् । कर्मजन्ये च वैचित्र्ये, किमनेन शिखण्डिना ? ॥५॥
जो कदाच तमे एम कहेशो के ते देव तो प्राणीओना कर्मने अनुसारे सर्व करे छे, तो ते देव आपणी जेम स्वतंत्र नथी. जो कर्मथी उत्पन्न थयेर्छ विचित्रपणुं मानता हो तो आ नपुंसक जेवा इश्व• रने मानवाथी शुं फळ ? ५.
Private & Personal Use Onl
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २९ )
अथ स्वभावतो वृत्ति - रवितर्क्या महेशितुः । परीक्षकाणां तष, परीक्षाक्षेपडिण्डिमः
॥ ६ ॥
जो कदाच " ईश्वरनो जगत सृष्टि संबंधी स्वभाविक प्रवृत्ति बोजा काइना तर्कमां आवी शके तेवी नथी " एम कहेशा तो परीक्षकाने परीक्षानो निषेध करनार आ डिंडिम (ढोल) वगडाववा जेवुं छे. ६.
सर्वभावेषु कर्तृत्वं, ज्ञातृत्वं यदि सम्मतम् । मतं नः सन्ति सर्वज्ञा, मुक्ताः कायभृतोऽपि च ॥ ७ ॥
जो " सर्व पदार्थोनुं जाणवापशुं ए ज कर्तापणं छे" एम तमे मानता हो तो ते वात अमारे पण मान्य ज छे; केमके अमारा जिनशासनमां शरीरधारी अरिहंत सर्वज्ञ ( जीवन मुक्त ) अने शरीर रहित सिद्ध ( विदेह मुक्त ) एम बे प्रकारना सर्वज्ञो छे ७.
सृष्टिवादकुहेवाक - मुन्मुच्येत्यप्रमाणकम् । त्वच्छासने रमन्ते ते येषां नाथ ! प्रसीदसि ॥ ८ ॥
>
हे नाथ ! जेमना उपर आप प्रसन्न थया छो ते पुरुषो उपर कह्या प्रमाणे प्रमाण रहित सृष्टिवादना कदा ग्रहने छोडीने आपना शासनमां ज आनंद पामे छे. ८. इति सप्तमप्रकाशः
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३० )
अथ अष्टम प्रकाश. हवे एकांतपक्षनिराश नामनो आठमोप्रकाश कहे छेसत्त्वस्यैकान्तनित्यत्वे, कृतनाशाकृतागमौ । स्यातामेकान्तनाशेऽपि, कृतनाशाकृतागमौ ॥१॥
हे प्रभु ! पदार्थ- एकांत नित्यपणुं मानवामां कृतनाश ( करेलानो नाश ) अने अकृतागम ( नहीं करेलानी प्राप्ति ) नामना बे दोष लागे छे, तेमज पदार्थनु एकांत अनित्यपणुं मानवामां पण कृतनाश . अने अकृतागम नामना बे दोष लागे छे. १.
आत्मन्येकान्तनित्ये स्यान भोगः सुखदुःखयोः । एकान्तानित्यरूपेऽपि, न भोगः सुखदुःखयोः ॥२॥
आत्माने एकांत नित्य मानवाथी सुखदुःखनो भोग घटी शकतो नथी अने आत्माने एकांत अनित्य मा. नवाथी पण सुखदुःखनो भोग घटतो नथी. २.
पुण्यपापे बन्धमोक्षौ, न नित्यकान्तदर्शने । पुण्यपापे बन्धमोक्षौ, नानित्यैकान्तदर्शने ॥३॥
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१)
एकांत नित्यपक्षमा पुण्य--पाप तथा बंध-मोक्ष संभवता नथी, तेम ज एकांत अनित्य पक्षमां पण पुण्य-पाप तथा बंध-मोक्ष संभवता नथी. ३. क्रमाक्रमाभ्यां नित्यानां, युज्यतेऽर्थक्रिया न हि । एकान्तक्षणिकत्वेऽपि, युज्यतेऽर्थक्रिया न हि ॥ ४ ॥
जीवाजीवादिक पदार्थोने एकांत नित्य मानीए तो क्रमे अथवा अक्रमे तेमनी अर्थ क्रिया घटी शकशे नहीं. ते ज रीते एकांत अनित्य मानवामां पण अर्थ क्रिया थइ शकशे नहों. ४. यदा तु नित्यानित्यत्व-रूपता वस्तुनो भवेत् ।। यथात्थ भगवन्नैव, तदा दोषोऽस्ति कश्चन ॥५॥
तेथो करीने हे भगवन् ! जेम आपे कर्तुं छे. तेम ज्यारे पदार्थनु नित्यानित्यपणुं मानीए, त्यारे कोइ पण जातनो दोष आवतो नथी. ५. गुडो हि कफहेतुः स्यानागरं पित्तकारणम् । द्वयात्मनि न दोषोऽस्ति, गुडनागरभेषजे ॥६॥
जेमके गोळ कफनो हेतु छे अने सुंठ पित्तनुं कारण छे. ते बन्ने गोळ अने सुंठ रुप औषधने विषे कफ के पित्त पत्र दोष नथी. परंतु उलटुं पुष्टिनुं कारण थाय छे. ६.
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३२ ) द्वयं विरुद्ध नैकत्रा-सत्प्रमाणप्रसिद्धितः । विरुद्धवर्णयोगो हि, दृष्टो मेचकवस्तुषु
ते ज प्रमाणे घटादिक कोइ पण एक वस्तुमा नित्यता अने अनित्यता ए बन्ने मानवाथी कांइ पण विरोध आवतो नथी. केमके तेवो विरोध (कोई पण प्रत्यक्षादिक) विधमान प्रमाणोवडे सिद्ध थई शकता नथी एटले के तेवी काई पण युक्ति नथी के जेनाथी नित्यानित्यने विषे विरोध साधी शकाय. कारण के (कृष्ण अने श्वेत विगेरे) विरुद्ध वर्णनो योग पटादिक शबल ( जूदा जूदा विचित्र वर्णवाळी ), वस्तुने विषे प्रत्यक्ष जोवामां आवे छे. ७.
विज्ञानस्यैकमाकारं, नानाकारकरम्बितम् । इच्छंस्तथागतः प्राज्ञो, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ ८ ॥
विज्ञान ( ज्ञान ), एक ज स्वरूप छे अने ते घटादिकना विचित्र आकारे करीने सहित छ एम इच्छता प्राज्ञ बौद्ध अनेकांत ( स्याद्वाद ) ने उत्थापी शकतो नथो. एटले के एक स्वरुपवाळा ज्ञानने विचित्र आकारवाळु मानवाथी अनेकांत मत मान्यो ज कहेवाय छतां तेने नहीं स्वीकारतो बौद्ध खरेखर प्राज्ञ (प्रxअज्ञ-मोटो अज्ञानी) छे. ८. Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३३ )
चित्रमेकमनेकं च रूपं प्रामाणिकं वदन् । योगो वैशेषिको वापि, नाडनेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ ९॥
एक ज रूप (घटादिक) अनेक रूप (आकार) वाळु छे, ते प्रमाणसिद्ध के. एम बोलतां नैयायिक अने वशेषिक | मतबाळा पण अनेकांतमतने उत्थापी शकता नथी. ९.
इच्छन्प्रधानं सत्त्वाद्यै- विरुद्वैर्गुम्फितं गुणैः । साङ्ख्यः सङ्ख्यावतां मुख्यो, नाडनेकान्तं प्रतिक्षिपेत् १०
विद्वानोमा मुख्य एवो सांख्य मत सत्त्वादिक विरुद्ध गुणे करीने सहित प्रधानने ( प्रकृतिने ) इच्छे छे, पटले के सत्त्वगुण, रजोगुण अने तमोगुण ए त्रिगुणात्मक प्रकृति छे एम इच्छे छे. ते त्रणे गुणो परस्पर विरुद्ध छे, तेने एक ज वस्तु (प्रकृति) मां माने छे; तेथी ते अनेकांत मतने उत्थापी शकतो नथी. १०.
विमतिः सम्मतिर्वापि, चार्वाकस्य न मृग्यते । परलोकात्ममोक्षेषु, यस्य मुह्यति शेमुषी ॥ ११ ॥
हे प्रभु ! परलोक, जीव अने मोक्षमां पण जेनी
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३४ )
मति मुंझायेली छे ते चार्वाक (नास्तिक) नी अहीं विमति छे के संमतिछे ते काइ विचारवानी जरुर नथी; केमके बाळ-गोपाळ पर्यंत सर्व कोइ परलोकादिकने माने छे. तेने ज जे मानता नथी एवा चार्वाकनी विमति के संमतिथी शुं फळ ? ११. तेनोत्पादव्ययस्थेम-सम्भिन्नं गोरसादिवत् । त्वदुपज्ञं कृतधियः, प्रपन्ना वस्तुतस्तु सत् ॥ १२ ॥
आथी करीने हे वीतराग ! कुशळ बुद्धिवाळा (ज्ञानी) पुरुषोए गोरसादिकनी जेम उत्पात, व्यय अने ध्रौव्यस्वरूपवाळी सत् वस्तु के जे आपे सौथी प्रथम प्ररूपी के तेने ज अंगीकार करी छे. जेम गोरस (दूध ) दूधपणावडे नाश पामी दहीपणे उत्पन्न थयं ते पण गोरस ज कहेवोय छे. एटले के धरूप द्रव्यना दहीरूप पर्याय थयो. तेज रीते मृत्तिकादिक द्रव्यनो घटादिक पर्याय छे. तेज रोते जोव द्रव्यनो मनुष्यादिक पर्याय छे विगेरे. १२.
इत्यष्ठमप्रकाश
Jain Education Internationat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३५ )
अथ नवम प्रकाश. ९.
DO
यत्राल्पेनापि कालेन, त्वद्भक्तैः फलमाप्यते । कलिकालः स एकोऽस्तु, कृतं कृतयुगादिभिः ॥१॥
आ प्रमाणे एकांत मतनो निराश करीने आ कलिकालनी उत्तमता देखाडवापूर्वक वीतराग प्रभुनु धर्मचक्रवर्तीपणुं बतावे छे
जे कलिकालमां थोडाकाळवडे पण आपना भक्तो आपनी भक्तिना फळने पामे छे ते कलिकाल ज एक हो. कृतयुग वगेरे युगोथो सयु. तेनुं कांइ काम नथी. कहुं छे के "कृतयुगमा हजार वर्ष सुधी करेलो भक्तिनुं जे फळ प्राप्त थाय हे ते फळ त्रेतायुगमा एक वर्षवडे, द्वापरमां एक मासवडे अने कलियुगमा एक अहोरात्रवडे प्राप्त थाय छे." १.
सुषमातो दुःषमायां, कृपा फलवती तव । मेरुतो मरुभूमौ हि, श्लाध्या कल्पतरोः स्थितिः॥२॥
हे प्रभु ! सुषमा काळ करतां दुःषमा (कलि) काळमां आपनी कृपा (होय तो ते) फळवाळी उत्तम
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
फळने आपनारी छे, केमके मेरुपर्वत करतां मारवाडनो भूमिमां कल्पवृक्षनी स्थिति वखाणवा लायक छे. २. श्राद्धः श्रोता सुधीवक्ता, युज्येयातां यदीश ! तत् । त्वच्छासनस्य साम्राज्यमेकच्छत्रं कलावपि ॥३॥
हे प्रभु ! श्रद्धावान श्रोता अने सुधी (ओपना आगमना रहस्यने जाणनार) वक्ता ए बेनो जो समा गम थाय तो आवा कलियुगमां पण आपना शासननु एकछत्रवाळंज साम्राज्य छे. अहीं कुमारपाल राजा श्रोता अने पोते ( श्री हेमचन्द्राचार्य ) वक्ता ए बेनो योग थवाथी शासननु साम्राज्य थयुं तेथी आ अनुभवसिद्ध कवितुं वचन छे. ३. .
युगान्तरेऽपि चेन्नाथ !, भवन्त्युच्छ्रङ्खलाः खलाः । वृथैव तर्हि कुप्यामः, कलये वामकेलये ॥४॥
हे नाथ ! जो कृतयुग विगेरे बीजा युगमां पण मंखलिपुत्र जेवा उद्धत खळपुरुषो होय छे, ता पछी अयोग्य चरित्रवाळा कलियुगनी उपर अमे फोगट ज कोप करीए छोए. ४. कल्याणसिद्धयै साधीयान्, कलिरेव कषोपलः । विनाग्निं गन्धमहिमा, काकतुण्डस्य नैधते ॥५॥
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३७ )
कल्याणनो सिद्धिने माटे कसोटीना पत्थर जेवो कलियुग ज वधारे सारा छे, केमके अग्नि विना अगरुना गन्धनो महिमा वृद्धि पामतो नथी. ५.
निशि दीपोऽम्बुधौ द्वीपं मरौ शाखी हिमे शीखी । कलौ दुरापः प्राप्तोऽयं, त्वत्पादाब्जरजःकणः || ६ ||
हे प्रभु ! कलियुगमां दुखे करोने पामी शकाय एवी आ आपना चरणकमळना रजनी कणीओ रात्रीए दीवानी जेम, समुद्रमां द्वीपनी जेम, मारवाडमां वृक्षनी जेम, अने शियाळामां अग्निनी जेम अमने प्राप्त थइ छे. ६.
युगान्तरेषु भ्रान्तोऽस्मि, त्वद्दर्शनविनाकृतः । नमोऽस्तु कलये यत्र त्वदर्शनमजायत ||७||
हे प्रभु ! बीजा युगोमां हुं आपना दर्शन विनानो ज आ संसाररूपी अरण्यमां भटक्यो तेथी आ कलियुगने ज नमस्कार हो के जेमां आपर्नु दर्शन थयुं. ७.
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
बहुदोषो दोषहीनात्वत्तः कलिरशोभत । विषयुक्तो विषहरात्फणीन्द्र इव रत्नतः ॥८॥
हे प्रभु! जेम विषने हरण करनारा मणिवडे विष युक्त सर्प शोभे छे तेम अढार दोष रहित आपवडे घणा दोषवाळो कलियुग शोभे छे. ८.
इति नवमप्रकाशः
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ दशम प्रकाश १०.
मत्प्रसत्तेस्त्वत्प्रसादस्त्वत्प्रसादादियं पुनः। इत्यन्योन्याश्रयं भिन्धि, प्रसीद भगवन् ! मयि ॥१॥
हे भगवन् ! मारा मननी प्रसन्नताथी एटले (निर्मळताने अनुसारे) आपनी प्रसन्नता (कृपा)मारा पर थाय छे अने आपना प्रसादथी ( कृपाथी ) आ मारा मननो प्रसन्नता (निर्मळता ) थाय छे. आ प्रमाणे उत्पन्न थयेला अन्योन्याश्रय दोषने आप भेदी नाखो अने मारा उपर आप प्रसन्न थाओ (कृपा करो) एटले के मारी तुच्छ प्रसन्नतानो अनादर करी प्रथमथी ज आप मारा पर कृपा करो के जेथी आपनी प्रसन्नताथी हुं अवश्य प्रसन्न थइश. १.
निरीक्षितुं रूपलक्ष्मी, सहस्राक्षोऽपि न क्षमः । स्वामिन् ! सहस्रजिह्वोऽपि, शक्तो वक्तुं न ते गुणान् ॥२॥
हे स्वामिन् ! आपनी रूपलक्ष्मी जोवाने हजार नेत्रवाळो इंद्र पण समर्थ नथी अने आपनो गुण गोवाने हजार जिहावाळो शेषनाग पण समर्थ नथी. २. Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
(४०) संशयान नाथ ! हरसेऽनुत्तरस्वर्गिणामपि । अतः परोऽपि कि कोऽपि, गुणः स्तुत्योऽस्ति वस्तुतः१३॥
हे नाथ ! आप अहीं रह्या छतां ज अनुत्तर विमानमा रहेला देवोना पण संशयोने हरो छो, तो शुं आथी बीजो वस्तुतः (परमार्थथी) स्तुति करवा लायक कोइ पण गुण के. ? नथी ज. ३.
इदं विरुद्धं श्रद्धत्तां, कथमश्रद्दधानकः । आनन्दसुखसक्तिश्च, विरक्तिश्च समं त्वयि ॥४॥
हे प्रभु ! अनंत आनंदरूप सुखमां आसक्ति अने सर्व संगनी विरक्ति ए बन्ने एकी साथे आपनामां छे. आवी विरुद्ध बाबत श्रद्धा विनानो ( आपना लोकोत्तर चरित्रने नहि जाणनार ) पुरुष शी रीते श्रद्धा करे ( माने )? ४.
नाथेयं घट्यमानापि, दुर्घटा घटतां कथम् ?। उपेक्षा सर्वसत्त्वेषु, परमा चोपकारिता ॥५॥
हे नाथ ! आपनी सर्व प्राणीओने विषे उपेक्षा ( मध्यस्थपणुं-राग द्वेष रहितपणुं ) अने ज्ञानादिक मोक्षमार्ग देखाडवाए करीने महा-उपकारीपणुं आ Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
बे बाबत आपने विषे प्रत्यक्ष देखाती होवाथो-घटमान छतां अन्यत्र अघटमान होवाथी शो रीते घटी शके ? ५. द्वयं विरुद्ध भगवंस्तव नान्यस्य कस्यचित् । निर्गन्थता परा या च, या चोचैश्चक्रवर्तिता ॥६॥
हे भगवन् ! जे उत्कृष्ट निग्रंथपणुं (निःस्पृहपणुं ) अने जे उत्कृष्ट चक्रवर्तीपणुं-आ बे विरुद्ध बाबतो के जे बीजा कोइ हरिहरादिकमां नथी, ते आपनामां स्वभाविक ज रहेली के, ६. नारका अपि मोदन्ते, यस्य कल्याणपर्वसु । पवित्रं तस्य चारित्रं, को वा वर्णयितुं क्षमः ? ॥७॥
जेमनी पांचे कल्याणक तिथिओमां नारकीओ पण एक मुहर्त मात्र आनंद पामे छे तेमनुं (आपर्नु) पवित्र चारित्र वर्णन करवा कोण समर्थ छे. ? ७. शमोऽद्भुतोद्भुतं रूपं, सर्वात्मसु कृपाद्भुता । सर्वाछुतनिधीशाय, तुभ्यं भगवते नमः ॥८॥
हे वीतराग ! आपने विषे अद्भुत समता, अदभुत रूप अने सर्व प्राणीओ उपर अद्भुत दया छे, तेथी सवं अद्भुतना महानिधानरूप आप भगवानने नमस्कार हो ! ८.
प्रकाशः
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४२ )
अथ एकादश प्रकाश. ११.
अचिंत्य महात्म्यनुं वर्णन -
निमन्परीषहचमूमुपसर्गान् प्रतिक्षिपन् । प्राप्तोऽसि शमसौहित्यं, महतां कापि वैदुषी ॥१॥
हे वीतराग ! आप परीसहोनी सेनाने हणता अने उपसर्गोनो तिरस्कार करता समतारूप अमृतनी तृप्तिने पाम्या हो, तेथी मोठा पुरुषोनी चतुराई कोह अद्भुत ज होय छे. १.
अरक्को भुक्तवान्मुक्तिमद्विष्टो हतवान्द्विषः । अहो ! महात्मनां कोsपि, महिमा लोकदुर्लभः ||२||
हे वीतराग ! आपे राग रहित छतां मुक्ति-स्त्रीने भोगवी छे अने द्वेष रहित छतां कषायादिक शत्रुओने हण्या छे. अहो ! लोकमां दुर्लभ एवो महात्माओनो महिमा कोई अद्भुत ज छे. २.
सर्वथा निर्जिगीषेण, भीतभीतेन चागसः । त्वया जगत्त्रयं जिग्ये, महतां कापि चातुरी ॥३॥
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
हे प्रभु! सर्व प्रकारे शत्रुने जीतवानी नही इच्छावाळा अने पापथी अत्यंत भय पामेला छतां पण ओपे त्रण जगत्ने जीती लीधा छे, तो महापुरुषोनी चतुराइ कोइ अद्भुत ज छे. ३. दत्तं न किञ्चित्कस्मैचिन्नात्तं किञ्चित्कुतश्चन ।। प्रभुत्वं ते तथाप्येतत्कला कापि विपश्चिताम् ॥४॥
हे प्रभु ! आपे कोईने कांइ गाम विगेरे आप्यु मथी तेम ज कोइनी पासेथी कांई दंडादिक लीधुं 'नथी, तो पण आपनुं आ (समवसरणादिक लक्ष्मीरूप) ऐश्वर्य छे तो विद्वानोनी कळा कोइक अपूर्व
यदेहस्यापि दानेन, सुकृतं नार्जितं परैः । उदासीनस्य तन्नाथ !, पादपीठे तवालुठत् ॥५॥
हे नाथ ! बीजा बौद्धादिके पोताना देहने आपबावडे पण जे सुकृत उपार्जन कर्यु नथी ते ( उपकारीपणारूप सुकृत) उदासीन भावे रहेला -आपना पादपीठमां आलोटयु छे. ५. रागादिषु नृशंसेन, सर्वात्मसु कृपालुना। भीमकान्तगुणेनोच्चैः, साम्राज्यं साधितं त्वया ॥६॥
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
(४४)
हे प्रभु ! रागादिकने विषे दया रहित अने सर्व प्राणी उपर दयावाळा आपे प्रतापादिक भयंकर अने समतादिक मनोहर गुणे करीने मोटुं साम्राज्य साध्यु छे. ६. सर्वे सर्वात्मनाऽन्येषु, दोषास्त्वयि पुनर्गुणाः । स्तुतिस्तवेयं चेन्मिथ्या, तत्प्रमाणं सभासदः।। ७ ॥
हे नाथ ! हरिहरादिक अन्य देवोमां सर्व दोषो सर्व प्रकारे रहेला छे अने आपने विषे सर्वथा सर्व गुणो रहेला छे. आ आपनी स्तुति जो मिथ्या होय तो सभासदो प्रमाणभूत छे. तेओ जे कहे ते साचुं. ७.
महीयसामपि महान, महनीयो महात्मनाम् । अहो ! मे स्तुवतः स्वामी, स्तुतेर्गोचरमागतः ॥८॥
मोटामां मोटा अने महात्माओना पण पूज्य एवा स्वामी आजे स्तुति करता एवा मारी स्तुतिना विषयने पाम्या छे. ९.
इति एकादश प्रकाश. ११.
-
-
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
(४५)
अथ द्वादश प्रकाश. १२.
प्रभुने आटली बधी संपत्तिनी प्राप्ति थई तेनो उपायरूप वैराग्य बतावे छे
पथभ्यासादरैः पूर्व, तथा वैराग्यमाहरः । यथेह जन्मन्याजन्म, तत्सात्मीभावमागमत्
॥१॥
हे वीतराग ! आपे पूर्व भवमा सुंदर अभ्यासना आदरे करीने एहवो वैराग्य प्राप्त को हतो के जेथी आ (तीर्थकरना ) भवमा ते वैराग्य जन्मथो ज सहज भावने पामेल छ अर्थात् जन्मथी ज आपनो आत्मा वैराग्यथी रंगायेलो छे.
दुःखहेतुषु वैराग्यं, न तथा नाथ ! निस्तुषम् । मोक्षोपायप्रवीणस्य, यथा ते सुखहेतुषु ॥२॥
हे नाथ ! मोक्षना उपाय ( ज्ञानादिक) मां प्रवीण एवा आपने सुखना हेतुने विषे जेवो निर्मळ वैराग्य होय छे. तेवो दुःखना हेतुने विषे नथी होतो. एटले जे दुःखहेतुक वैराग्य होय ते क्षणिक होय छे अने सुखहेतुक वैराग्य होय ते निश्चल होवाथी मोक्षनुं साधन अवश्य थाय छे. २. Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
(४६ ) विवेकशाणैर्वैराग्यशस्त्रं शातं त्वया तथा । यथा मोक्षेऽपि तत्साक्षादकुण्ठितपराक्रमम्
॥३॥
हे प्रभु! विवेकरूपी शाण (शराण ) उपर वैराग्यरूपी शस्त्रने आपे तेवी रीते घसीने तोक्षण कर्यु छे के जेथी मोक्षने विषे पण ते. (वैराग्यरूपो. शस्त्र ) पराक्रम जरा पण हणायुं नथी.
यदा मरुनरेन्द्रश्रीस्त्वया नाथोपभुज्यते । यत्र तत्र रतिर्नाम विरक्तत्वं तदापि ते
हे नाथ ! ज्यारे आप पूर्वभवमा देवनी ऋद्धिने अने ते पछीना तीर्थकरना भवमा राज्यलक्ष्मीने भोगवो छो त्यारे पण तमारो वैराग्य ज छे; केमके ज्यां त्यां पण तमारे रति ( समाधि )ज छे एटले के देव अने राज्यनी लक्ष्मी भोगवतां छतां पण आप भोग्य फळवाळं कर्म भोगव्या विना क्षय पामशे नहीं एम विचारीने अनासक्तपणे भोगवो छो तेथी ते कर्मनी निर्जरा ज थाय छे. ४
नित्यं विरक्तः कामेभ्यो, यदा योगं प्रपद्यसे । अलमेभिरिति प्राज्य, तदा वैराग्यमस्ति ते ॥५॥
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४७ )
हे वीतराग ! सर्वदा एटले दीक्षा ग्रहण कर्या पहेलां पण विषयोथी विरक्त थरला आप ज्यारे योग ( ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप दोक्षा )ने अंगीकार करो छो त्यारे आ विषयोथी सर्यु एम विचारतां आपने मोटा वैराग्य ज छे. ५.
सुखे दुःखे भवे मोक्षे, यदौदासीन्यमीशिषे । तदा वैराग्यमेवेति, कुत्र नासि विरागवान् १ || ६ ||
सुखमां, दुःखमां, संसारमां, मोक्षमां सर्वत्र आप ज्यारे उदासीनता ( मध्यस्थता ) करो छो त्यारे पण आपने वैराग्य ज छे, तेथी आप क्यां अने क्यारे वैराग्यवाळा नथी ? सर्वत्र वैराग्यवाळा ज छो. ६.
दुःखगर्भे मोहगर्भे, वैराग्ये निष्ठिताः परे । ज्ञानगर्भ तु वैराग्यं, त्वय्येकायनतां गतम्
11911
बीजा (परतीर्थिको ) दुःखगर्भित अने मोहगर्भित वैराग्यमां रहेला छे, परंतु ज्ञानगर्भित वैराग्य तो आपने विषे एकीभावने ( तन्मयपणाने ) पाम्युं छे. ( इष्टना वियोगथो अने अनिष्टना संयोगथो थयेलो वैराग्य दुःखगर्भित कहेवाय छे. कुशात्र कहेलां अध्यात्मना लेशने सांभळवाथी जे वैराग्य थाय ते मोह
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
(४८ ) गर्भित अने यथास्थित संसारनुं स्वरूप जोइने जे वैराग्य थाय ते ज्ञान गर्भित वैराग्य कहेवायछे.) ७..
औदासीन्येऽपि सततं, विश्वविश्वोपकारिणे । नमो वैराग्यनिनाय, तायिने परमात्मने ॥८॥
हे वीतराग ! उदासीनता ( मध्यस्थपणा ) ने विषे पण निरंतर सर्व विश्वने उपकार करनार, वैराग्यमां तत्पर, सर्वना रक्षक अने परब्रह्मस्वरूप एवा आपने अमारो नमस्कार हो. ८.
इति द्वादश प्रकाशः १२.
Jain Education Internationat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४९ )
अथ त्रयोदश प्रकाशः १३.
प्रभु सर्वत्र हेतु विना ज स्वेच्छाए प्रवर्ते छे, से बतावे छे.
अनाहूतसहायस्त्वं, त्वमकारणवत्सलः । अनभ्यर्थितसाधुस्त्वं, त्वमसम्बन्धबान्धवः
॥१॥
हे वीतराग ! मुक्तिपुरीना मार्गमां जनारा प्राणीओने आप बोलाव्या विना ज सहायकारक छो, आप कारण ( स्वार्थ ) विना ज हितकारक छो, आप प्रार्थना कर्या विना ज साधु एटले परनुं कार्य करनारा छो; तथा आप संबंध विना ज बांधव छो. १.
अनक्तस्निग्धमनसममृजोज्ज्वलवाक्पथम् । अधौतामलशीलं त्वां शरण्यं शरणं श्रये ॥२॥
ममतारूपी स्नेहवडे नहीं चोपडाया छतां स्निग्ध मनवाळा, मार्जन कर्या विना ज उज्वळ वाणीने बोलनारा, धोया विना ज निर्मळ शीलवाळा अने तेथो करीने ज शरण करवा लायक एवा आपनुं हुं शरण लउं छं. २
४
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५० ) अचण्डवीरवतिना, शमिना शमवर्तिना । त्वया काममकुट्यन्त, कुटिलाः कर्मकण्टकाः ॥३॥
क्रोध विना ज वीरव्रतवाळा ( सुभटनी वृत्तिवाळा ), शमतावाळा अने शमतामा वर्तनारा आपे कुटिल कर्मरूपी कांटाओना अत्यंत नाश को के. ३.
अभवाय महेशायाऽगदाय नरकच्छिदे । अराजसाय ब्रह्मणे, कस्मैचिद्भवते नमः
॥४॥
भव (महादेव) रहित महेश्वररूप, गदा रहित नरकच्छिद (विष्णु) रूप अने रजोगुण रहित ब्रह्मारूप एवा काइ (न कही शकाय तेवा) आपने नमस्कार हो. ( अहीं कहेला छए शब्दो परस्पर विरुद्ध छे एटले के जे भव ( महादेव ) न हाय ते महेश्वर पण न होय, जे गदा रहित होय ते विष्णु न होय अने जे रजोगुण रहित होय ते ब्रह्मा न होय केमके भव ज महेश्वर छे, विष्णु गदो सहित ज छे अने ब्रह्मा रजोगुण सहित ज छे. आ विरोधने दूर करवा माटे आवो अर्थ करवो-श्री वीतराग प्रभु अभव एटले संसार रहित छे, महेश एटले तीर्थकर संबंधी परम ऐश्वर्य सहित छ; अगद एटले राग रहित छे, नरकच्छिद एटले धर्मतीर्थनो प्रवृत्ति कर Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५१ )
वाथो भव्य प्राणीओनी नरकगतिने छेदनार छे. अराजस एटले कर्मरूपी रज रहित छे अने ब्रह्मा एटले परब्रह्म ( मोक्ष ) ने विषे लय पामेला होवाथी ब्रह्मारूप छे. ) ४.
अनुक्षितफलोदग्रादनिपातगरीयसः । असङ्कल्पित कल्पद्रोस्त्वत्तः फलमवाप्नुयाम् ॥५॥
( सर्व वृक्षो निरंतर जळसिंचन करवाथो ज अमुक समये ज मात्र फळने आये छे, वळी पडवाए करीने ज मोठा भारवाळा होय छे अने प्रार्थना करवाथी ज इच्छित वस्तुने आपनार होय छे, परंतु ) आप तो सिंचन कर्या विना ज उभयलोकना सुखरूपी फळोए करीने परिपूर्ण छो, पड्या विना ज एटले स्वस्वरूपमा रहेवाथो ज गौरवतावाळा को अने प्रार्थना कर्या विना ज इच्छित वस्तुने आपनारा को. तेथी आवा प्रकारना कल्पवृक्षरूप आपनाथी हुं फळने पामुं कुं. ५
असङ्गस्य जनेशस्य, निर्ममस्य कृपात्मनः । मध्यस्थस्य जगत्रातुरनङ्कस्तेऽस्मि किङ्करः
॥६॥
( आ लोकमां पण परस्पर विरुद्ध छ विशेपणो आ रीते छे-जे संग रहित होय ते जनेशलोकना स्वामी होइ शके नहीं, ममता रहित होय
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५२ )
ते कोइना पर कृपा करे नहीं, अने मध्यस्थ-उदासीन होय ते बीजार्नु रक्षण करे नहीं, तो पण ) आप तो सर्व संगनो त्याग करी तीर्थकरपदना प्रभावथी इच्छा रहित छतां पण त्रण जगतना लोकोने सेव्य होवाथी जनेश छो, तथा वीतरागपणाथकी ज ममता रहित छतां पण दुष्कर्मथी पीडाता त्रण जगतना प्राणीओ उपर कृपाळु छो, तथा रागद्वेष रहितपणाने लीधे मध्यस्थ एटले उदासीन छतां पण एकांत हितकारक धर्मोपदेश देवाथी आभ्यंतर शत्रुथी त्रास पामेला जगत्ना जोवोना रक्षक छो; ओवा विशेषणवाला आपनो हुँ अंक ( चिह्न ) रहित किंकर छं. जे किंकर होय ते खङ्गादिक चिह्नवाळो होय छे, पण हुं तो द्विपदादि परिग्रह रहित एवा आपनो कदाग्रहरूपी कलंक रहित ज सेवक छं. ६.
अगोपिते रत्ननिधाववृते कल्पपादपे । अचिन्त्ये चिन्तारत्ने च, त्वय्यात्माऽयं मयार्पितः ॥७॥
( आ श्लोकमां पण छ शब्दो परस्पर विरुद्ध आ रीते छे. रत्ननो निधि गोपव्या विना रही शके नहीं, कल्पवृक्ष वाड विना रही शके नहीं अने चितामणि रत्न प्रार्थना कर्या विना कांइ पण आपे नहीं तो पण) आप तो नहीं गुप्त करेला-प्रगट रत्नना निधि समान, कर्मरूपी वाड विनाना कल्प. Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५३ )
वृक्ष समान अने अचिंत्य चिंतामणि समान आपने विषे में मारो आ आत्मा अर्पण कर्यों छे. ७.
(पहेलेथी ओ सातमा श्लोक सुधीमा अनुक्रमे पहेलेथी साते विभक्तिओ लीधेली छे.)
फलानुध्यानवन्ध्योऽहं, फलमात्रतनुर्भवान् । प्रसीद यत्कृत्यविधौ, किङ्कर्तव्यजडे मयि
|८||
आप सिद्धत्वरूप फळ मात्र शरीरवाळा छो अने हुं फळरूप आपना ध्यान रहित छु, तेथी मारे शंकर ? ए बाबतमा जड-मूढ थयेला मारा उपर मारे जे करवा लायक होय ते विधि देखाडवामा कृपा करो. ८.
इति त्रयोदश प्रकाशः १३.
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५४ )
अथ चतुर्दश प्रकाश. १४.
हवे योगनी शुद्धि बतावे छे.मनोवचःकायचेष्टाः, कष्टाः संहृत्य सर्वथा । लत्वेनैव भवता, मनःशल्यं वियोजितम्
11211
हे भगवन् ! कष्टकारक एटले पापवाळी मन, वचन अने कायानी चेष्टाने सर्वथा तजीने शिथिलपणावडे ज आपे मनना शल्यने दूर कर्यु छे. ( शरीरमां कोइ ठेकाणे शल्य ( कांटो ) लाग्यो होय तो बाह्य चेष्टानो निरोध करी शरीरने शिथिल कर - वाथी ( ढीलुं मूकवाथी ) तरत ज ते शल्य चीपीया विगेरेथी नोकळी शके छे. ते ज रीते सर्व चेष्टाआने रुंधी मनने शिथिल ( मोकळु ) मूकवाथी ते मन पोतानी मेळे ज शांत थह जाय छे; केमके विपरीत शिक्षावाळा अश्वनी जेम मननुं नियंत्रण करवाथी ते उलटुं वधारे प्रसरे छे- चपळ थाय छे अने शिथिल मूकवाथी पोतानी मेळे ज स्थिर थाय छे. ) १.
A
संयतानि न चाक्षाणि नैवोच्छृङ्खलितानि च । इति सम्यक्प्रतिपदा, त्वयेन्द्रियजयः कृतः
॥२॥
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५५ ) हे वीतराग ! आपे इंद्रियोने बलात्कारे नियंत्रित करी नथी, तेम ज लोलुपताथी छूटी पण मूकी नथी. आ रीते सम्यक प्रकारे वस्तुतत्त्वने अंगीकार करनारा आपे इंद्रियोनो जय कर्यो छे. ( इन्द्रियोने बळात्कारे बांधवाथी ते कौतुकवाळी, थइने बंधनमा रहेतो नथी अने जो केटलोक काळ तेने छूटी मूकवामां आवे तो विषयना स्वरूपने जाणी, अनुभवी, कौतुक रहित थइ पोतानी जाते ज निवृत्ति पामे छे अने फरीथी ते कदापि विकार पामती नथो. आ हकीकत ज्ञानी महात्मा माटे छे, अन्य जनोए तो इन्द्रियोनो जय करवा सर्वथा शक्ति फोरववी जोइए.) २.
योगस्याऽष्टाङ्गता नून, प्रपञ्चः कथमन्यथा ? | आबालभावतोऽप्येष, तब सात्म्यमुपेयिवान् ॥३॥
हे प्रभु ! अन्य शास्त्रोमा यम १, नियम २. आसन ३, प्राणायाम ४, प्रत्याहार ५, धारणा ६, ध्यान ७ अने समाधि ८ आ आठ अंग योगना ( समाधिना ) कह्या छे ते मात्र प्रपंच ( आडंबरविस्तार ) हाय तेम भासे छे, कारण के तेम न हाय ता आपने बाल्यावस्थाथी ज आ योग सहजपणाने शो रीते पामे ? (ओसनादिक बाह्य विस्तार विना ज परम ज्ञान-वैराग्यादिकरूप योग आपने स्वाभाविक ज प्राप्त थयो छे.) ३.
Private & Personal Use Onl
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५६ )
विषयेषु विरागस्ते, चिरं सहचरेष्वपि । योगे सात्म्यमदृष्टेऽपि, स्वामिन्निदमलौकिकम् ॥४॥
हे स्वामी ! घणा काळना परिचयवाला विषयो उपर पण आपना वैराग्य छे अने जन्म पर्यंत नही जोयेला एवा पण योगने विषे एकपणुं - तन्मयपशुं छे. आ आपनुं चरित्र अलौकिक छे. ४.
तथा परे न रज्यन्त, उपकारपरे परे । यथाsपकारिणी भवानहो ! सर्वमलौकिकम् ॥५॥
हे वीतराग ! अपकार करनारा कमठ, गौशालक विगेरे उपर पण आप जे प्रमाणे रागी (खुशी) थाओ छो ते प्रमाणे अन्य देवो उपकार करनारा सेवक उपर पण रागी थता नथी. अहा ! आपनुं सर्व चरित्र अलौकिक छे. ( कर्मक्षय करवामां प्रवर्तेला मने कमठ ठीक सहायभूत थयो छे एम धारी आप तेना पर खुशी थाओ छो. ) ५.
हिंसका अप्युपकृता, आश्रिता अप्युपेक्षिताः । इदं चित्रं चरित्रं ते, के वा पर्यनुयुञ्जताम् १ || ६ ||
हे प्रभु ! चंडकौशिक विगेरे हिंसकोने पण सद्गति पमाडवावडे आपे उपकार कर्यो छे, अने
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५७ )
सर्वानुभूति तथा सुनक्षत्र विगेरे आश्रितोनी पण आपे उपेक्षा करो छे एटले के आ भव संबंधी आपत्तिथो तेमनुं रक्षण कर्यु नथो. आवा आश्चर्यकारक आपना चरित्रने कोण पूछवाने पण उत्साह धारण करे ? आप आq चरित्र केम करो छो ? एम कोइ पूछो पण शके तेम नथी. ६.
तथा समाधौ परमे, त्वयात्मा विनिवेशितः। सुखी दुःख्यस्मि नास्मीति, यथा न प्रतिपन्नवान् ॥७॥
हे भगवन् ! आपे आपना आत्माने एवी रीते उत्तम समाधिमां स्थापन को छे के जेथी हुं सुखी छ ? के दुःखो र्छ ? के नथो ? एम जरा पण आपे स्वीकार्यु नथी. अर्थात् आप संकल्प रहित हो. ७. ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं, त्रयमेकात्मतां गतम् । इति ते योगमाहात्म्यं, कथं श्रद्धीयतां परैः ? ॥८॥
हे प्रभु ! ध्याता, ध्येय अने ध्यान आ त्रणे ओपने विषे एकपणाने (अभेदने ) पामेला छे. ओवा प्रकारना ओपना योगमहात्म्यने अन्य जनो (सूक्ष्ममार्गने नहीं जाणनारा लोको ) शी रीते श्रद्धा करे-माने ? ८.
इति चतुर्दशप्रकाशः Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५८ )
अथ पंचदश प्रकाशः १५.
हवे भक्तिपूर्वक स्तुति करे छे. -
जगज्जैत्रा गुणास्त्रातरन्ये तावत्तवासताम् । उदात्तशान्तया जिग्ये, मुद्रयैव जगत्त्रयी
॥१॥
हे रक्षक ! प्रथम तो जगतने जीतनारा बीजा आपना गुणो दूर रहो, परंतु उदात्त ( पराभव न पमाडी शकाय एवी ) अने शांत ( सौम्य ) एवी आपनी मुद्राए ज त्रण जगतने जीती लोधा छे. १.
मेरुस्तृणीकृतो मोहात्, पयोधिर्गोष्पदीकृतः । गरिष्ठेभ्यो गरिष्ठो यैः पाप्मभिस्त्वमपोदितः ॥२॥
हे नाथ ! जे पापीओए मोटाथी पण माटा एटले इंद्रादिकथी पण मोटा एवो आपनो अनादर कर्यो छे, तेओए अज्ञानथी मेरुपर्वतने तृण जेवडो गण्यो छे अने समुद्रने गोष्पद ( गायनी खरी ) जेवडो गण्या के. २.
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५९ ) च्युतश्चिन्तामणिः पाणेस्तेषां लब्धा सुधा मुधा। यैस्ते शासनसर्वस्वमज्ञानैर्नात्मसात्कृतम् ॥३॥
जे अज्ञानीओए आपन शासनरूपी सर्वस्व (धन) पोताने आधीन कर्यु नथी तेओ (निर्भागीओ) ना हाथथी चिंतामणि रत्न पडी गयुं छे अने प्राप्त थयेळु अमृत निष्फळ थयुं छे. ३.
यस्त्वय्यपि दधौ दृष्टिमुल्मुकाकारधारिणीम् । तमाशुशुक्षणिः साक्षादालप्यालमिदं हि वा ॥४॥
हे प्रभु ! जे (निर्भागी) मनुष्य निष्कारणवत्सल आपना उपर पण बळता उंबाडीयानी जेवी इावाळी दृष्टिने धारण करे छे, तेने साक्षात् अग्नि (बाळी नांखों ) अथवा तो ओवु वचन बोलवाथी सर्यु ( न बोलवू ज सारुं छे.) ४.
त्वच्छासनस्य साम्यं ये, मन्यन्ते शासनान्तरैः । विषेण तुल्यं पीयूषं, तेषां हन्त ! हतात्मनाम् ॥५॥
हे प्रभु ! खेदनी वात के के जे लोको आपना शासनने बीजा दर्शनोनी साथे तुल्य माने छे, ते अज्ञानथी हणायेला जनोने अमृत पण विष तुल्य छे. (तेओ
अमृतने विष समान गणे छे एम जाणवू. ) ५ -Jain Education Internatiohat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६० )
अनेडमूका भूयासुस्ते येषां त्वयि मत्सरः । शुभोदाय वैकल्यमपि पापेषु कर्मसु
॥६॥
हे प्रभु ! जेओने आपना उपर इा छे, ते लोको बहेरा ने मुंगा ज हो ( कान अने वचन रहित ज हो), केमके परनिदादिक पापव्यापारमा इंद्रियोनुं विकळपणुं ( रहितपणुं ) पण शुभ परिणामने माटे ज के अर्थात् विकळपणाथकी आपनी निंदादिक न करी शकवाथी तेओ दुर्गतिमां जशे नहों, ए ज तेओने माटे मोटो लाभ छे. ६. ।
तेभ्यो नमोऽञ्जलिरयं, तेषां तान समुपास्महे । त्वच्छासनामृतरसरात्माऽसिच्यतान्वहम् ॥७॥
जेओए आपना शासनरूपी अमृतरसवडे निरंतर पोताना आत्माने सिंच्यो छे, तेमने अमारो नमस्कार थाओ, तेमने अमे बे हाथ जोडीए छोए अने तेमने अमे सेवीए छीए. ७.
भुवे तस्यै नमो यस्यां, तब पादनखांशवः । चिरं चूडामणीयन्ते, महे किमतः परम् ? ॥८॥
हे प्रभु ! जे भूमि पर आपनो पगना नखना
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६१ ) किरणो चिरकाल सुधी चूडामणिनी जेवा शोभे छे, ते भूमिने नमस्कार हो. आथी वधारे अमे शुं कहीए ? आथी वधारे भक्तिनुं वचन अमारी पासे छे नहीं. ८.
जन्मवानस्मि धन्योऽस्मि, कृतकृत्योऽस्मि यन्मुहुः । जातोऽस्मि त्वद्गुणग्रामरामणीयकलम्पटः ॥९॥
हे वीतराग ! आपना गुणसमूहरूपी रमणीकतामां हुँ वारंवार लंपट (मग्न) थयो छु, तेथी मारो जन्म सफळ छे, मने धन्य छे, अने हुं कृतकृत्य ( कृतार्थ) थयो छं. ९.
इति पंचदशप्रकाशः
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
(६२)
अथ षोडशः प्रकाशः १६ हवे प्रभु पासे स्तुतिकार पोतानी फरीयाद करे छे. त्वन्मतामृतपानोत्था, इतः शमरसोर्मयः । पराणयन्ति मां नाथ !, परमानन्दसम्पदम् ॥१॥
हे नाथ! एक बाजुए आपना मतरूपी (आगमरूपी) अमृतना पानथो उत्पन्न थयेला शमता रसना तरंगो मने परमानंदनी लक्ष्मी प्राप्त करावे छे. १. इतश्चानादिसंस्कारमूच्छितो मूर्च्छयत्यलम् । । रागोरगविषावेगो, हताशः करवाणि किम् ? ॥२॥
तथा बीजो बाजुए अनादि काळना भवभ्रमणना संस्कारथी उत्पन्न थयेलो रागरूपो सर्पना विषनो वेग मने अति मूळ पमाडे छे (सत्यज्ञान रहित करी दे छे.) ता हगायेलो आशोवाळो हुँ शुं करूं ? २ रागाहिगरलाघ्रातोकार्ष यत्कर्मवैशसम् । तद्वक्तुमप्यशक्तोऽस्मि, धिग्मे प्रच्छन्नप्रापताम् !॥३॥
हे प्रभु ! रागरूपी सर्पना विषथी व्याप्त थएला में जे अयोग्य कृत्य कर्यु छे ते आपनो पासे कहेवाने पण हुँ अशक्त छं. तेथी मारा गुप्त पाप करवापणाने धिक्कार छे. ३.
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६३ )
क्षणं सक्तः क्षणं मुक्तः, क्षणं क्रुद्धः क्षणं क्षमी । मोहाद्यैः क्रीडयैवाऽहं, कारितः कपिचापलम् ॥४॥
हे प्रभु! हुं कोइवार संसारना सुखमां आशक थयो कुं तो कोईवार तेनाथो मुक्त (निर्लोभ ) थया कुं. काईवार को पाम्यो कुं, तो कोईवार क्षमावाळो थया कुं. आवी रीते, मोहादिके मने वांदरा जेवी चपलता करावी छे-वांदरानो जेम नचाव्यो छे. ४.
प्राप्यापि तव सम्बोधि, मनोवाक्काय कर्मजैः । दुवेष्टितैर्मया नाथ !, शिरसि ज्वलितोऽनलः ||५||
हे नाथ ! आपनो धर्म पाम्या छतां पण मन वचन अने कायाना कर्मथी उत्पन्न थयेली दुष्ट चेष्टाओ वडे में मारा मस्तकपर अग्नि सळगाव्यो छे पेटले के दुर्गतिनुं दुःख उपार्जन कर्तुं छे. ५.
त्वय्यपि त्रातरि त्रातर्यन्मोहादिमलिम्लुचैः । रत्नत्रयं मे द्वियते, हताश हा ! हतोऽस्मि तत् ॥ ६ ॥
हे रक्षक ! आप रक्षण करनार छतां पण मोहादिक शत्रुओ मारां ज्ञान, दर्शन अने चरित्ररूप त्रण रत्नो हरण करे छे, तेथी हणायेलो आशावालो हुं हणायो कुं. ६.
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
(६४) भ्रान्तस्तीर्थानि दृष्टस्त्वं, मयैकस्तेषु तारकः । तत्तवाझौ विलग्नोऽस्मि, नाथ! तारय तारय ॥७॥ __ हे ! नाथ ९ घणां तीर्थोमां भम्यो छु, ते सर्वा में आपनेज एक तारक जोया. तेथी हुँ आपना चर• णमां लोगेलो छु. माटे मने तारो तारो. ७. भवत्प्रसादेनैवाहमियती प्रापितो भुवम् । औदासीन्येन नेदानीं, तव युक्तमुपेक्षितुम् ॥८॥
हे प्रभु ! आपनी कृपाथीज हुँ आटली भूमिकाने ( आपनो सेवानी योग्यतोने) पाम्यो छ. तो हवे आपने उदासीनपणाए करीने मारी उपेक्षा करवी योग्य नथी. ८. ज्ञाता तात! त्वमेवैकस्त्वत्तो नान्यः कृपापरः। नान्यो मत्तः कृपापात्रमेधि यत्कृत्यकर्मठः ॥९॥
हे पिता! आपज एक शोता छो, आपनाथी बीजो कोइ कृपाळु नथी अने मारा विना बीजो कोई कृपानुं पात्र (स्थान) पण नथी. तेथी आपज करवा लायक कार्यमां तत्पर थाओ (जे करवानुं होय ते करो). ९.
इति षोडशः प्रकाशः १६.
Jain Education Internationat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६५ )
अथ सप्तदशः प्रकाशः १७.
हवे भगवानने ज शरणरूपे ग्रहण करे छे.
स्वकृतं दुष्कृतं गर्हन्, सुकृतं चाऽनुमोदयन् । नाथ ! त्वच्चरणौ यामि, शरणं शरणोज्झितः ॥ १ ॥
हे नाथ ! पोते ( में ) करेला दुष्कर्मनी ग ( निंदा ) करतो अने सुकृतनी अनुमोदना करतो शरण रहित हुं आपना चरणने शरण करुं छं. १
मनोवाक्कायजे पापे, कृतानुमतिकारितैः । मिथ्या मे दुष्कृतं भूयादपुनः क्रिययान्वितम् || २ ||
करवुं, कराव अने अनुमोदधुं ए त्रणवडे मन, वचन अने कायाथो उत्पन्न थयेला पापने विषे जे मने दुष्कृत लाग्यं होय ते फरीथी नहीं करवा पूर्वक माहं दुष्कृत मिथ्या थाओ. २.
यत्कृतं सुकृतं किंचिद्, रत्नत्रितयगोचरम् । तत्सर्वमनुमन्येऽहं मार्गमात्रानुसार्येपि
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
11311
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६६ )
हे प्रभु ! मात्र आपना मार्गने जे अनुसरनाई ज होय एवं पण जे कांइ ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप रत्नत्रयना विषयवाद्धुं माहं सुकृत होय ते सर्वनी हुं अनुमोदना करूं छं. ३.
सर्वेषामहदादीनां, यो योऽर्हचादिको गुणः । अनुमोदयामि तं तं सर्व तेषां महात्मनाम् ||४||
सर्वे तीर्थंकरादिकना (अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधुना ) अरिहंतपणुं विगेरे जे जे गुण होय, ते सर्वे महात्माओना ते ते सर्व गुणनी हुं अनुमोदना करूं कुं. ४.
त्वां त्वत्फलभूतान् सिद्धांस्त्वच्छासनरतान मुनीन् । त्वच्छासनं च शरणं, प्रतिपन्नोऽस्मि भावतः ॥५॥
हे वीतराग ! हुं आपनुं, आपना फलभूत एटले आपनी बतावेली क्रिया करवाना फळरूप सिद्धानुं, आपना शासनमां रक्त थयेला मुनिओनुं अने आपना शासननुं भावथी (हृदयनो शुद्धिथी) शरण पाम्यो कुं. ५.
क्षमयामि सर्वान् सच्चान्, सर्वे क्षाम्यन्तु ते मयि ।
मैत्र्यस्तु तेषु सर्वेषु, त्वदेकशरणस्य मे
॥६॥
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६७ )
हे वीतराग ! हुं सर्व (चाराशी लाख जोवायोनिमा रहेला ) जीवोने खमायुं कुं, अने ते सर्व जीवो मारे विषे क्षमा करो. आपना ज एक शरणमां रहेला मारे ते सर्व जीवोने विषे मैत्री हो. ६.
एकोऽहं नास्ति मे चिन चाहमपि कस्यचित् । त्वदङ्घ्रिशरणस्थस्य, मम दैन्यं न किञ्चन ॥७॥
हे वीतराग ! हुं एकलो ज कुं ( पिता, पुत्र, शिष्यादिक उपर मोह रहित होवाथी एकलो हुं ). माहं कोइ नथो, हुं पण कोइनो नथी. आपना चरजना शरणमां रहेला मारे कांइ पण दोनता नथी. ७
यावनानोमि पदवीं, परां त्वदनुभावजाम् । ताक मयि शरण्यत्वं मा मुञ्चः शरणं श्रिते
॥८॥
हे प्रभु! आपना प्रसादथी उत्पन्न थयेली उत्कृष्ट पदवी ( मुक्ति ) ने हुं ज्यां सुधी न पामुं, त्यां सुधी ( आपना ) शरणने पामेला मारा उपर शरण्यपणाने (शरणे आवेलानी उपरना वात्सल्यने) कशो नहीं. ८.
इति सप्तदशप्रकाशः
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ अष्टादशः प्रकाशः १८.
हवे कठोर वचनवडे प्रभुनी स्तुति करे छे.न परं नाम मृद्वेव, कठोरमपि किञ्चन । विशेषज्ञाय विज्ञप्य, स्वामिने स्वान्तशुद्धये ॥१॥
केवल कोमळ वचनथी ज नहीं परन्तु विशेष जाणनारा स्वामीने पोताना मननी शुद्धिने माटे काइको कठोर वचनथी पण विनंति कराय छे. १. न पक्षिपशुसिंहादिवाहनासीनविग्रहः। न नेत्रगात्रवक्त्रादिविकारविकृताकृतिः ॥२॥ __ हे प्रभु ! आपे हंस, गरुड विगेरे पक्षी, बकरो, बळद विगेरे पशुओ अने सिंह विगेरे वाहनो उपर शरीरने आरूढ कयु नथी; तेम ज नेत्र, अवयव अने मुख विगेरेना विकारवडे ओपनी आकृति विकारवाळी नथी. २.
न शूलचापचक्रादिशस्त्राङ्ककरपल्लवः । नाङ्गनाकमनीयाङ्गपरिष्वङ्गपरायणः
॥३॥ Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
आपना हस्तपल्लवनी मध्ये त्रिशूळ, धनुष्य अने चक्रादिक शस्त्रो नथो, आप स्त्रीना मनोहर अंगनुं आलिंगन करवामां तत्पर नथी. ३.
न गर्हणीयचरितप्रकम्पितमहाजनः । न प्रकोपप्रसादादिविडम्बितनरामरः
॥४॥
निंदा करवा लायक चरित्रावडे आधे महापुरुषोने कंपाव्या नथी, तेमज कोप अने कृपादिक बडे मनुष्योने अने देवोने विडंबना पमाड्या नथी. ४.
न जगजननस्थेमविनाशविहितादरः । न लास्यहास्यगीतादिविप्लवोपप्लुतस्थितिः ॥५॥
जगतनी उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय ( नाश) करवामां आये उद्यम कर्यो नथी तेमज नट-विटने उचित एवा नृत्य, हास्य अने गीतादिक विलासोवडे आये आपनी स्थितिने उपद्रववाळो करी नथी. ५. तदेवं सर्वदेवेभ्यः, सर्वथा त्वं विलक्षणः । • देवत्वेन प्रतिष्ठाप्यः, कथं नाम परीक्षकैः ? ॥६॥
तेथी करीने आ उपर कह्या प्रमाणे सर्व देवोथको सर्वथा आप विलक्षण छो नेथी परीक्षक Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७० )
लोको आपने शो रीते देव तरीके स्थापन करी शके ? ६.
अनुश्रोतः सरत्पर्णतृणकाष्ठादि युक्तिमत् || प्रतिश्रोतः श्रयद्वस्तु, क्या युक्त्या प्रतीयताम् ? ॥७॥
हे प्रभु! पांदडां, घास, कोष्ट विगेरे वस्तु जळना प्रवाहने अनुसरी चाले ते तो युक्तिवाळु के, परन्तु तेवो वस्तु सामे प्रवाहे चाले ते कइ युक्तिवडे लोको मानी शके ? ७.
अथवाऽलं मन्दबुद्धिपरीक्षकपरीक्षणैः । ममापि कृतमेतेन, वैयात्येन जगत्प्रभो ! ॥८॥
अथवा ता हे जगत्प्रभु ! मंद बुद्धिवाळा परीक्षकानी परीक्षावडे सयुं, तेम ज मारे पण आ परीक्षा करवाना कदाग्रहथी सर्यु. ८.
यदेव सर्वसंसारिजन्तुरूपविलक्षणम् । परीक्षन्तां कृतधियस्तदेव तव लक्षणम्
॥९॥
हे प्रभु ! सर्व संसारी जीवांना स्वरूपथी जे काइ पण विलक्षण होय, ते ज आपनुं देवपणानुं लक्षण छे एम विद्वान जनो विचारो ९.
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
,
क्रोधलोभभयाक्रान्तं, जगदस्माद्विलक्षणः । न गोचरो मृदुधियां, वीतराग ! कथञ्चन ॥ १० ॥
हे वीतराग ! ( सुर, असुर अने मनुष्यादिकरूप ) आ सर्व जगत् क्रोध, लोभ अने भयथो व्याप्त छे अने आप तेनाथी विलक्षण छो; तेथी जिनशासनने नहीं जाणनारा अल्पबुद्धिवाळा प्राणीओने आप कोइ पण प्रकारे गोचर (प्रत्यक्ष ) नथो. १०.
इति अष्टादशः प्रकाशः १८.
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७२ ) अथ एकोनविंशतितमः प्रकाशः १९. .
भगवाननी आज्ञा आराधयाथी ज भगवाननी आराधनो थाय छे, तेथी आज्ञास्तवने स्तुतिकार कहे के.
तव चेतसि वर्तेऽहमिति वार्ताऽपि दुर्लभा । मञ्चित्ते वर्तसे चेत्वमलमन्येन केनचित् ॥१॥
हे वीतराग ! हुं आपना चित्तमा वर्तु ( रहुं ) ए वार्ताज दुर्लभ ( असंभवित) छे, परंतु जो आप मारा चित्तमा वर्तों ( रहो ) तो बीजा कोइ पण (प्रभुतादिक आपवा) वडे सयु (आप सिवाय मारे कोइनी जरुर नथी. ) १.
निगृह्य कोपतः कांश्चित्, कांश्चितुष्टयाऽनुगृह्य च । प्रतार्यन्ते मृदुधियः, प्रलम्भनपरैः परैः ॥२॥
लोकोने छेतरवामां तत्पर एवा हरिहरादिक अन्य देवो केटलाक (पोताथी प्रतिकूल रहेनार जनो)ने क्रोधथी शाप-वधादिकवडे निग्रह करीने अने
केटलाक (पोताना भक्तजनो ) ने प्रसन्नतावडे वर Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७३ ) दान विगेरे आपवाथी अनुग्रह करीने मुग्धबुद्धि. चाळा जनोने छतरे छे, तेथी आप जेना चित्तमा वर्तता हो ते मनुष्यो ते देवोथी छेतराता नथी, अने तेथी करीने ज आप मारा चित्तमां वर्तता हो तो हुं कृतकृत्य ज ढु. २. अप्रसन्नात् कथं प्राप्यं, फलमेतदसङ्गतम् ? । चिन्तामण्यादयः किं न, फलन्त्यपि विचेतनाः? ॥३॥
राग-द्वेषादिकनो अभाव होवाथी कदापि प्रसन्न नहीं थनारा वीतराग देवथी शी रीते फळ ( मोक्षादि ) पामी शकाय ? आ प्रमाणे कोइ शंका करे तो ते तेनुं कहेवू अयोग्य छ, केमके चिंतामणि विगेरे विशिष्ट चेतना रहित पदार्थो शुंफलीभूत नथी थता ? अर्थात् चेतना रहित पदार्थो कोइना पर प्रसन्न थता ज नथी, तो पण तेमनुं विधि प्रमाणे आराधन करवाथी तेनुं फळ प्राप्त थाय छे, एवी ज रीते वीतराग पण फळ आपनार कहे. वाय छे. ३. वीतराग ! सपर्यातस्तवाज्ञापालनं परम् । आज्ञाऽऽराद्धा विराद्धा च, शिवाय च भवाय च ॥४॥
हे वोतराग ! आपनी सेवा करवा करतां
-
Jain Education Internationat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
(७५)
आज्ञानुं पालन करवू, ते भावस्तवरूप होवाथी उत्कृष्ट फळने आपनोर छ, केमके आपनी आशानुं आराधन मोक्षने माटे छे अने आपनी आशानी विराधना संसारने माटे छे. ४.
आकालमियमाज्ञा ते, हेयोपादेयगोचरा । आश्रवः सर्वथा हेय, उपादेयश्च संवरः
॥५॥
हे प्रभु ! हेय अने उपादेय स्वरूपवाली आपनी आ आज्ञा सदाकाळ एक सरखो ज छे, ते आ प्रमाणे-कषाय, विषय, प्रमाद, विगेरे स्वरूपवाळो आश्रव सर्व प्रकारे हेय ( त्याग करवा लायक ) छे अने सत्य, शौच, क्षमा विगेरे स्वरूपवाळो संवर सर्व प्रकारे उपादेय ( ग्रहण करवा लायक छे. ) ५.
आश्रवो भवहेतुः स्यात्, संवरो मोक्षकारणम् । इतीयमार्हती मुष्टिरन्यदस्याः प्रपञ्चनम् ॥६॥
कारण के आश्रव ते संसारचं कारण छ, अने संवर ते मोक्षy कारण छे. आ प्रमाणे आ अर्हत संबंधी मुष्टि एटले सर्व उपदेशना साररूप मूळ ग्रंथि छे. बीजं अंग-उपांग विगेरे सर्व आनो ज विस्तार छे. ६
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
इत्याज्ञाराधनपरा, अनन्ताः परिनिर्वृताः । निर्वान्ति चान्ये वचन, निर्वास्यन्ति तथाऽपरे॥७॥
आ प्रमाणे आपनी आशानी आराधनामां तत्पर थयेला अनंता जीवो पूर्वकाळे मोक्ष पाम्या छे, बीजा केटलाक जीवा वर्तमान समये कोइक ठेकाणे एटले महाविदेहादिकमां मोक्ष पामे छे अने भविष्य काळे पण ( अनंत जोवो) मोक्ष पामशे. ७. हित्वा प्रसादनादैन्यमेकयैव त्वदाज्ञया । सर्वथैव विमुच्यन्ते, जन्मिनः कर्मपञ्जरात् ॥८॥
हे वीतराग ! आपनी प्रसन्नताने माटे जे दीनता करवी तेनो त्याग करीने मात्र एक आपनी आज्ञावडे ज ( आज्ञा आराधवावडे ज ) प्राणीओ सर्वथा कर्मरूपी पंजरथकी मुक्त थोय छे. ८.
इति एकोनविंशतितमः प्रकाशः १९.
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७६ )
अथ विंशतितमः प्रकाशः २०
हवे आशी:स्तव कहे छे एटले इच्छित वस्तुनी प्रार्थना करे के.पादपीठलुठन् मूर्ध्नि, मयि पादरजस्तव । चिरं निवसतां पुण्यपरमाणुकणोपमम् ॥१॥
हे वीतराग ! आपना पादपोठमां मस्तकने नमावतां मारा ललाटने विधे पुण्यता परमा गुना कणोया जेवी आपनो पाइरज चिरकाल ( संसारमा हुँ रहुं त्यां सुधी ) रहो. १. मद्दशौ वन्मुखासक्ते, हर्षवाष्पजलोमिभिः । अप्रेक्ष्यप्रेक्षणोद्भूतं, क्षणात्क्षालयतां मलम् ॥२॥
हे प्रभु ! पूर्वे नहीं जोवा लायक परस्त्रो, कुदेव विगेरेने जोवाथी उत्पन्न थयेला पापरूप मळने अत्यारे आपना मुखमां ओसत थयेला मारां आ नेत्रो हर्षाश्रुना जलतरंगोवडे क्षगवारमा धोइ नांखो. २. त्वत्पुरो लुठनैर्धयान्मदालस्य तपस्विनः ।
कृतासेव्यप्रणामस्य, प्रायश्चित्तं किणावलिः ॥३॥ Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७७ )
हे प्रभु ! प्रथम हरिहरादिक असेव्यने प्रणाम करनारा आ बिचारा ( कृपाना स्थानरूप) मारा ललाटने आपनी पासे आळोटवाथी ( नमवाथो) पडेली क्षतनी श्रेणि ज प्रायश्चितरूप थाओ. ३. मम त्वदर्शनोद्भूताश्चिरं रोमाञ्चकण्टकाः । नुदन्तां चिरकालोत्थामसद्दर्शनवासनाम् ॥४॥
हे वीतराग ! मने आपना दर्शनथी उत्पन्न ययेला रोमांचरूपी कंटको चिरकाळथी एटले अनादि काळना भवभ्रमणथी उत्पन्न थयेली कुशासननी दुर्वासनाने अत्यन्त पीडा करो. ( कांटावडे पीडा पामवाथी बहार नीकळी जाओ). ४. त्वद्वक्त्रकान्तिज्योत्स्नासु, निपीतासु सुधास्त्रिव । मदीयैर्लोचनाम्भोजैः, प्राप्यतां निर्निमेषता ॥५॥
हे प्रभु ! अमृतना जेवी आपना मुखनी कांतिरूपी चंद्रज्योत्सना (चांदनी) नुं पान करवाथी मारा लोचनरूपी कमळो निर्निमेषपणाने पामो. (चंद्रज्योत्सनानुं पान करवाथी कमलो विकस्वरपणाने पामे छे अने अमृतनुं पान करवाथी नेत्रो निमेष ( मटका ) रहितपणाने पामे छे. ) ५. त्वदास्यलासिनी नेत्रे, त्वदुपास्तिकरौ करौ । त्वद्गुणश्रोतृणी श्रोत्रे, भूयास्तां सर्वदा मम ॥६॥
Jain Education Internationat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७८ )
हे प्रभु! मारा नेत्रों सर्वदा आपना मुखने 'जोवामां लालसावाळा थाओ. मारा बे हाथ औपनी पूजा करनारा थाओ अने मारा बे कान ओपना गुण श्रवण करनारा थाओ. ६.
कुण्ठाऽपि यदि सोत्कण्ठा, त्वद्गुणग्रहणं प्रति । भारती aff, स्वस्त्येतस्यै किमन्यया ? ॥७॥
हे प्रभु ! जा आ मारी वाणी सूक्ष्म अर्थवाळा आगममां स्खलना पाम्या, छतां पण आपना गुण ग्रहण करवामां उत्कंठावाळी होय तो आ ज वाणीं कल्याण हो. बीजी वाणीवडे शुं काम छे ? कांड ज नहीं. ७.
तव प्रेष्योऽस्मि दासोऽस्मि, सेवकोऽस्म्यस्मि किङ्करः । ओमिति प्रतिपद्यस्व, नाथ ! नातः परं ब्रुवे ॥८ ॥
हे नाथ ! हुं आपनो प्रेष्य कुं, दास कुं, सेवक कुं अने किंकर कुं, तेथी आप ' ओम् ' ( आ मारो छे ) ए अक्षरने ज मात्र अंगीकार करो, आथी वधारे धन- सुवर्ण राज्यादिक कांड पण हुं मांगता नथी. आपनो थवाथी मने सर्व सुखनी प्राप्ति छे. ( अहीं प्रेप्य एटले स्वामी जेने पोताना कार्य माटे गमे त्यां मोकले ते, दास एटले वेचातो लोथेलो
अने त्रिशूलादिकना चिह्नवाळा करेला होय ते, सेवक
Private & Personal Use Onl
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७९)
एटले स्वामीनी सेवा करवामां निपुण तथा किंकर एटले मने आज्ञा आपो. हु शुं काम करें ? एम बालवामां कुशळ होय ते. ) ८. श्रीहेमचन्द्रप्रभवाद्, वीतरागस्तवादितः । कुमारपालभूपालः, प्राप्नोतु फलमीप्सितम् ॥९॥
श्रोहेमचन्द्रसूरिए रचेला आ वीतरागना स्तव (स्तोत्र ) थी श्रीकुमारपाल राजो इच्छित फलने पामा. ९.
इति विंशतितमः प्रकाशः २०.
इति श्रीवीतराग स्तोत्रम्.
समाता
Private
#onal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ श्रीमहादेवस्तोत्रम् ।
प्रशान्तं दर्शनं यस्य, सर्वभूताभयप्रदम् । माङ्गल्यं च प्रशस्तं च, शिवस्तेन विभाव्यते ॥१॥
__ जेनुं दर्शन शांत छे, सर्व प्राणोओने अभय आपनारं छे, मांगलिक छे अने प्रशंसापात्र छे, तेथी ते शिव कहेवाय छे. १.
महत्त्वादीश्वरत्वाच, यो महेश्वरतां गतः। राग-द्वेषविनिर्मुक्तं, वन्देऽहं तं महेश्वरम् ॥२॥
मोटाईने लीधे अने ऐश्वर्यने लीधे जे महेश्वरपणाने पामेला छे, ते राग-द्वेषथी रहित महेश्वरने हुं वांदु छु. २. महाज्ञानं भवेद् यस्य, लोकालोकप्रकाशकम् । महादया दमो ध्यान, महादेवः स उच्यते ॥३॥
Jain Education Internationat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
(८२)
जेने लोकालोकने प्रकाश करनाऊँ मोटुं (केवल ) ज्ञान होय, तथा जेने मोटी दया, इंद्रियोर्नु दमन अने शुभ ध्यान होय, ते ज महादेव कहेवाय छे. ३.
महान्तस्तस्करा ये तु, तिष्ठन्तः स्वशरीरके । निर्जिता येन देवेन, महादेवः स उच्यते ॥४॥
पोताना शरीरने विषे जे मोटा चोरो रहेला छ तेमने जे देव जीत्या होय, तेल महादेव कहेवाय हे. ४.
रागद्वेषौ महामल्लौ, दुर्जयो येन निर्जितौ । महादेवं तु तं मन्ये, शेषा वै नामधारकाः
॥५ !!
दुःखे करीने जीतो शकाय तेवा महा मलुरूप रागद्वेषने जेणे जीत्या होय, तेने ज हु महादेव मार्नु छं. बीजा तो मात्र महादेव पवा नामने ज धारण करनारा छे. ५.
शब्दमात्रो महादेवो, लौकिकानां मते मतः । शब्दतो गुणतश्चैवाऽर्थतोऽपि जिनशासने ॥६॥
लौकिक मत( शास्त्र)मा मात्र शब्द(नाम)थी ज महादेव मानेला छे, अने जिनशासनमां शब्दथी, गुणथो अने अर्थथी पण महादेव मानेला छे. ६. Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ८३ ) शक्तितो व्यक्तितश्चैव, विज्ञानं लक्षणं तथा । मोहजालं हतं येन, महादेवः स उच्यते
॥७॥
जेने पोतानो शक्तिथी विज्ञान थयुं होय अने व्यक्तिथी ( प्रगटपणे) जेनुं लक्षण जोवामां आवतुं होय, तथा जेणे मोहजालने हणी होय, ते ज महादेव कहेवाय छे. ७. नमोऽस्तु ते महादेव !, महामदविवर्जित ! " महालोभविनिर्मुक्त !, महागुणसमन्वित ! ॥८॥ __ मोटा मदथी रहित, लोटा लोभथी मुक्त थयेला, अने महान् गुणोए करीने युक्त हे महादेव ! तमने नमस्कार हो. ८. महारागो महाद्वेषो, महामोहस्तथैव च । कषायश्च हतो येन, महादेवः स उच्यते ॥९॥
जणे मोटो राग, मोटो द्वेष, मोटो मोह अने कषायी हण्या होय, तेज महादेव कहेवाय छे. ९. महाकामो हतो येन, महाभयविवर्जितः । महाव्रतोपदेशी च, महादेवः स उच्यते ॥१०॥
जेणे मोटा कामदेवने हण्यो होय, जे महाभय रहित Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
(८४)
होय अने जे महावतोनो उपदेश करनार होय, ते ज महादेव कहेवाय के. १०. महाक्रोधो महामानो, महामाया महामदः । महालोभो हतो येन, महादेवः स उच्यते ॥११॥ * जेणे महाक्रोध, महामान, महामाया, महामद (गर्व ) अने महालोभने हण्या होय, तेज महादेव कहेवाय छे. ११. महानन्दो दया यस्य, महाज्ञानी महातपाः । महायोगी महामौनी, महादेवः स उच्यते ॥ १२ ॥
जेने महानंद अने दयो होय, जे महाज्ञानी, महातपस्वी, महायोगी अने महामौनधारी होय, ते ज महादेव कहेवाय छे. १२. महावीर्य महाधैर्य, महाशीलं महागुणः । महामञ्जुक्षमा यस्य, महादेवः स उच्यते ॥ १३ ॥
जेने महावीर्य, महाधैर्य. महाशील, महागुणो अने मोटी सुन्दर क्षमा होय, ते ज महादेव कहेवाय छे. १३. स्वयम्भूतं यतो ज्ञानं, लोकालोकप्रकाशकम् । अनन्तवीर्यचारित्रं, स्वयम्भूः सोऽभिधीयते ॥१४॥
Jain Education Internationat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
( 64 )
जेनाथी लोकालोकने प्रकाश करनार केवलज्ञान, अनंतवीर्य अने अनंतचारित्र पोतानी मेले उत्पन्न थयुं होय, ते ज स्वयंभू कहेवाय छे. १४.
शिवो यस्माज्जिनः प्रोक्तः, शङ्करच प्रकीर्तितः । कायोत्सर्गी च पर्यङ्की, स्त्रीशस्त्रादिविवर्जितः || १५ ॥
जेथो करीने जिनेश्वर कायोत्सर्गे रहेला, पर्यकासने रहेला अने स्त्री-शस्त्र विगेरेथी रहित छे, तेथी करोने तेने शिव का छे अने शंकर कह्या छे. १५.
साकारोऽपि नाकारो, मूर्त्तामूर्त्तस्तथैव च । परमात्मा च बाह्यात्मा, अन्तरात्मा तथैव च ॥ १६ ॥
जिनेश्वर साकार छतां पण अनाकार छे, मूर्तिमान छतां पण अमूर्त छे, तेम ज परमात्मा, बाह्यात्मा अने अंतरात्मारूपे पण छे. १६.
परमात्माऽयमव्ययः ।
दर्शन - ज्ञानयोगेन परा क्षान्तिरहिंसा च परमात्मा स उच्यते ॥ १७ ॥
दर्शन अने ज्ञानना संयोगवडे करीने आ परमात्मा अव्यय ( नाश रहित ) छे, तेने उत्कृष्ट क्षमा अने अहिंस्ता छे, तेथी ते परमात्मा कहेबाय छे. १७.
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
परमात्मा सिद्धिसम्प्राप्तौ, बाह्यात्मा तु भवान्तरे । अन्तरात्मा भवेद् देह, इत्येषस्त्रिविधः शिवः ॥ १८ ॥
सिद्धिनी प्राप्ति थाय त्यारे परमात्मा कहेवाय छे, भवांतरने विषे बाह्यात्मा कहेवाय अने शरीरने विषे अन्तरात्मा कहेवाय छे. आ प्रमाणे त्रण प्रकारे शिव कहेवाय छे. १८.
सकलो दोषसम्पूणों, निष्कलो दोषवर्जितः । पञ्चदेहविनिमुक्तः, सम्प्राप्तः परमं पदम् ॥१९ ।।
जे कला सहित होय ते झोषथी भरेलो होय हे, अने जे कला रहित होय ते दोष रहित होय छे; परंतु आ जिनेश्वर तो पांचे शरीरथी मुक्त थइने सिद्धिपदने पामेला छ, १९.
एकमूर्त्तित्रयो भागा, ब्रह्म-विष्णु-महेश्वराः । तान्येव पुनरुक्तानि, ज्ञान-चारित्र-दर्शनात् ॥ २० ॥
ब्रह्मा, विष्णु अने महेश्वर ए एक मूर्तिना त्रण विभाग छे. तेने ज ज्ञान, चारित्र अने दर्शन कयां छे. २०. एकमूर्तिस्त्रयो भागा, ब्रह्मा-विष्णु-महेश्वराः । परस्परं विभिन्नानामेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ २१ ॥ Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
(८७)
जो ब्रह्मा, विष्णु अने महेश्वर ए एक मूर्तिना त्रण विभाग के, तो परस्पर जूदानी एक मूर्ति शी रीते होइ शके ? २१.
कार्य विष्णुः क्रिया ब्रह्मा, कारणं तु महेश्वरः । कार्य-कारणसम्पन्ना, एकमूर्तिः कथं भवेत् १ ॥ २२ ॥
__ जो विष्णु कार्य होय, ब्रह्मा क्रिया होय अने महेश्वर कारण होय, तो कार्य अने कारणथी बनेली एक ज मूर्ति केम संभवे ? २२.
प्रजापतिसुतो ब्रह्मा, माता पद्मावती स्मृता । अभिजिजन्मनक्षत्रमेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ २३ ॥
ब्रह्मा प्रजापतिनो पुत्र के अने तेनी ( ब्रह्मानी ) माता पद्मावती कहेली छे, तथा तेनु जन्म नक्षत्र अभिजित् के, तो तेओनी एक मूर्ति केम संभवे ? २३. वसुदेवसुतो विष्णुर्माता च देवकी स्मृता। रोहिणी जन्मनक्षत्रमेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ २४ ॥
विष्णु वसुदेवनो पुत्र छे, तेनी माता देवकी कहेली छे, अने तेनु जन्म नक्षत्र रोहिणी छे, तो तेओनी एक मूर्ति केम संभवे ? २४.
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८ )
पेढालस्य सुतो रुद्रो, माता च सत्यकी स्मृता । मूलं च जन्मनक्षत्रमेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥२५ ।।
रुद्र (महादेव) पेढालनो पुत्र छे, तेनी माता सत्यकी छे, अने तेनुं जन्म नक्षत्र मूल छे, तो तेओनी एक मूत्ति केम संभवे ? २५. रक्तवर्णो भवेद् ब्रह्मा, श्वेतवर्णो महेश्वरः । कृष्णवर्णो भवेद् विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् १॥ २६ ॥
ब्रह्मानो रक्त वर्ण छ, महेश्वरनो श्वेत छ अने विष्णुनो कृष्ण वर्ण छे, तो तेओनी एक मूर्ति केम संभवे ? २६.
अक्षसूत्री भवेद् ब्रह्मा, द्वितीयः शूलधारकः । तृतीयः शङ्खचक्राङ्क, एकमूर्तिः कथं भवेत् ? ।। २७ ।।
ब्रह्मा अक्षसूत्र(माला)ने धारण करनार छे, बीजा ( महेश्वर ) त्रिशुलने धारण करे छे अने त्रीजा (विष्णु ) शंख-चक्रने धारण करे छ, तो तेमनी एक मूर्ति केम संभवे ? २७. चतुर्मुखो भवेद् ब्रह्मा, त्रिनेत्रोऽथ महेश्वरः । चतुर्भुजो भवेद् विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ २८ ।।
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
ब्रह्माने चार मुख छे, महेश्वरने त्रण नेत्र छे अने । विष्णुने चार भुजा छे, तो तेमनी एक मूर्ति केम संभवे? २८.
मथुरायां जातो ब्रह्मा, राजगृहे महेश्वरः । द्वारामत्यामभूद् विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् ॥ २९ ॥
ब्रह्मानो मथुरा नगरीमा जन्म थयो, राजगृहमा महेश्वरको जन्म थयो अने विष्णुनो जन्म द्वारकामां थयो, तो तेमनी एक मूर्ति केम संभवे ? २९. हंसयानो भवेद् ब्रह्मा, वृषयानो महेश्वरः। गरुडयानो भवेद् विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ ३० ॥
ब्रह्मानुं वाहन हस छे, महेश्वरनुं वाहन वृषभ छे अने विष्णुर्नु वाहन गरड छे, तो तेमनी एक मूत्ति केम संभवे ? ३०.
पद्महस्तो भवेद् ब्रह्मा, शूलपाणिमहेश्वरः । चक्रपाणिर्भवेद् विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ ३१ ॥
के अने विष्णुना हाथ
ब्रह्माना हाथमां पद्म छे, महेश्वरना हाथमा त्रिशुल के अने विष्णुना हाथमां चक्र के, तो तेमनी एक मूर्ति केम संभवे ? ३१.
Private & Personal Use Onl
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ९० )
कृते जातो भवेद् ब्रह्मा, त्रेतायां च महेश्वरः । द्वापरे जनितो विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ ३२ ॥
ब्रह्यानो जन्म कृतयुगमा छे, महेश्वरनो जन्म त्रेतायुगमा छे अने विष्णुना जन्म द्वापर युगमां छे, तो तेमनी एक मूर्ति केम संभवे ? ३२.
ज्ञानं विष्णुः सदा प्रोक्तं, चारित्रं ब्रह्म उच्यते । सम्यक्त्वं तु शिवं प्रोक्तमहन्मूर्तिस्त्रयात्मिका ॥ ३३ ॥
३
सदा ज्ञान ते विष्णु, चारित्र ते ब्रह्मा अने सम्यक्त्व ते शिव एम कर्वा छ, तेथी अरिहंतनी मूर्ति ज त्रण प्रकारनी (ब्रह्मा, महेश्वर अने विष्णुरूप) कही शकाय छे. ३३.
क्षिति-जल-पवन-हुताशन
यजमाना-ऽऽकाश-सोम-सूर्याख्याः । इत्येतेऽष्टौ भगवति, वीतरागे गुणा मताः ॥ ३४ ॥
' पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, यजमान, आकाश, चंद्रअने सूर्य आ आठ गुणो वीतराग भगवानने विषे मानेला छे. ३४.
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ९१ )
क्षितिरित्युच्यते शान्तिर्जलं या च प्रसन्नता। निःसङ्गता भवेद् वायु ताशो योग उच्यते ॥ ३५ ।
पृथ्वी एटले क्षमा कहेवाय छे, जल ए प्रसन्नता कहेवाय छे. वायु ए नि:संगपणुं छे, अने अग्नि ए योग कहेवाय छे. ३५. यजमानो भवेदात्मा, तपोदानदयादिभिः । अलेपकत्वादाकाशसङ्काशः सोऽभिधीयते ॥ ३६ ॥
तप, दान अने दयादिकवडे आत्मा ज यजमान कहेवाय छे, अलेपप होवाथी ते आत्मा ज (जिनेश्वर) आकाश जेवा कहेवाय छे. ३६.
सौम्यमूर्तिरुचिश्चन्द्रो, वीतरागः समीक्ष्यते । ज्ञानप्रकाशकत्वेन, आदित्यः सोऽभिधीयते ॥ ३७ ।।
वीतराग भगवान् सौम्य मूत्तिनी कांतिवाला होवाथी चन्द्र जेवा देखाय छ, अने ज्ञाननो प्रकाश करनार होवाथी ते ज सूर्य जेवा कहेवाय छे. ३७. पुण्यपापविनिर्मुक्तो, रागद्वेषविवर्जितः । श्रीअर्हद्भयो नमस्कारः, कर्तव्यः शिवमिच्छता ॥३८॥ मोक्षनी इच्छावाला प्राणीए पुण्य-पापथी मुक्त थयेला
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ९२ )
अने राग-द्वेषथी रहित थयेला श्री जिनेश्वरोने ज नमस्कार करवा लायक छे. ३८ .
अकारेण भवेद् विष्णू, रेफे ब्रह्मा व्यवस्थितः । हकारेण हरः प्रोक्तस्तस्यान्ते परमं पदम् ॥ ३९ ॥
अकारे करीने विष्णु कहेला छे, रेफने विषे ब्रह्मा रहेल छे अने हकारवडे हर (महेश्वर) कहेला छ, तथा तेने अंते अनुस्वार छे ते मोक्षपद छे. ( अर्ह ) ३९.
अकार आदिधर्मस्य, आदिमोक्षप्रदेशकः । स्वरूपं परमं ज्ञानमकारस्तेन उच्यते
।। ४० ।।
अकोर अक्षर आदि धर्मने कहेनार छे, आदि मोक्षने देखाडनार छे अने आत्मस्वरूपने विषे केवलज्ञानने उत्पन्न करनार छे, तेथी ते अकार | अ ) कहेवाय छे. ४०.
रूपिद्रव्यस्वरूपं वा दृष्ट्वा ज्ञानेन चक्षुषा । दृष्टं लोकमलोकं वा रकारस्तेन उच्यते ।। ४१ ।।
,
ज्ञानचक्षुवडे रूपी द्रव्यनुं स्वरूप जोयुं छे, तथा लोक अने अलोकने जोया छे, तेथी ते रकार (र्) कहेवाय छे. ४१.
हता रागाश्च द्वेषाच, हता मोहपरीषहाः ।
॥ ४२ ॥ Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
हतानि येन कर्माणि, हकारस्तेन उच्यते
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
(९३)
जेथी करीने राग-द्वेष हण्या छे, मोह अने परीषहो हण्या छे तथा आठे कर्मोने हण्या छे; तेथी करीने ते हकार ( ह ) कहेवाय छे. ४२. सन्तोषेणाभिसम्पूर्णः, प्रातिहार्याष्टकेन च। ज्ञात्वा पुण्यं च पापं च, नकारस्तेन उच्यते ॥ ४३ ।।
पुण्य-पापमे जाणीने संतोषवडे अने आठ प्रातिहार्यवडे संपूर्ण थया छे तेथी करीने नकार ( न् ) कहेवाय छे. ( अर्हन् ) ४३.
भवबीजागरजनना, रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥४४॥
संसाररूपी बीजना अंकुरने उत्पन्न करनारा रागादिक जेना क्षय पाम्या होय, ते ब्रह्मा होय, विष्णु होय, महेश्वर होय के जिनेश्वरो होय गमे ते होय तेने ज नमस्कार थाओ. ४४.
? इति श्रीमहादेवस्तोत्रम् ॥
Jain Education Internatiohat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीकर्मग्रंथ (४) मूळ छेल्लामां छेल्ली ढबे तैयार करेल श्री देवेन्द्रसूरिकृत स्वोपज्ञ टीकायुक्त बे प्राचीन ताडपत्रीओ अने त्रण प्राचीन हस्तलेखीत प्रतो उपरथी, मुनि महाराज श्रीचतुरविजयजी तथा तेमना विद्वान् शिष्य मुनि महाराज श्रीपुण्यविजयजी महाराजे काळजीपूर्वक संशोधन करी आ ग्रंथ महामहेनते तैयार कर्यो छे एटले अगाउ प्रकट थयेल आवृत्तिनी अशुद्धिओ आमां रहेवा पामी नथी. कर्मग्रंथना अभ्यासीओ माटे आ ग्रंथ अति उत्तम ग्रंथ मनाय छे. मळेल मदद थएल खर्चमांथी बाद करता ओछी किंमते ज आ ग्रंथ वेचवामां आवे छे. एटले मूल्य मात्र रु. २-०-० ज राखेल छे. मात्र नामनी ज नकलो सीलीकमां छे. लखो-श्रीजैन अात्मानंद सभा-भावनगर.
Jain Education Internatiohiat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री बृहतकल्पसूत्रम् मुनिओना धार्मिक आचारो अने रीतरिवाजो शुं छे ? शा कारणथी योजाया ? द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भाव बदलाता दीर्घदर्शी साधु महाराजोए तेमां केवु परिवर्तन करेल छ ? छेदसूत्र माटे जैन समाजनी शुं मान्यता छे ? वगेरे घणी उपयोगी बाबतो आ ग्रंथमां आवेल छे. पुस्तकना आरंभमां विद्वान मुनिराज श्री पुण्यविजयजी महाराजे प्रस्तावना विस्तारथी आपी ग्रंथनी गंभीरता सचोट रीते समजावी छे. निर्णयसागर प्रेसमां छापी सुंदर बाइंडींगथी ग्रंथने शोभाववामां आवेल छे. छतां मूल्य रु. ४-०-० मात्र. लखो--श्रीजैन श्रात्मानंद सभा
भावनगर.
Jain Education Internationat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
0200
mmamtationsaninimumtantinotmaitment श्री वसुदेवहिन्डी खंड पहेलो
पुस्तक १ लुं अने बीजं.
जैनोना प्राचीनमा प्राचीन कथासाहित्य सरीके प्रमाणभूत मनातो आ ग्रंथ चार वर्षना सतत परिश्रमथी विद्वान मुनि श्रीचतुरविजयजी तथा तेमना शिष्य मुनि पुण्यविजयजी महाराजे तद्दन शुद्ध रीते तैयार कर्यो छे. मूल्य नीचे प्रमाणेःवसुदेव हिन्डी. प्रथम खंड पु.१ लु रु. ३-८-०
" " , २ जुं रु.३-८-० लखो- श्रीजैन आत्मानंद सभा
भावनगर. .
[ सर्वेनुं पोस्टेज जुदु.]
Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन आत्मानंद शताब्दि सिरिझ तरफथी. प्रकाशित थयेला-थतां पुस्तको. 1 श्री वीतराग महादेव-स्तोत्र मूल... 0-2-0 2 प्राकृत व्याकरण (अष्टमाध्याय सूत्रपाठ)०-४-० 3 श्रीवीतरागस्तोत्र मूल साथे गुजराती भाषांतर, 4 श्री विजयानंदसूरि जीवन चरित्र. -8 सीरीझना छपाता ग्रन्थो. 1 चारित्र पूजा-पंचतीर्थ पूजा, पंचपरमेष्ठि पूजा, (गुजराती टाइपपां) 2 नवस्मरणादि स्तोत्र सन्दोह. (अपूर्व स्तोत्रोनो खजानो) 3 त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र दशे पर्व. (मूळ) 4 धातुपारायण. 5 वैराग्य कल्पलता. (उ, श्रीयशोविजयजी) Private & Personal use onlaw sainelibrary.org