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________________ ( ७७ ) हे प्रभु ! प्रथम हरिहरादिक असेव्यने प्रणाम करनारा आ बिचारा ( कृपाना स्थानरूप) मारा ललाटने आपनी पासे आळोटवाथी ( नमवाथो) पडेली क्षतनी श्रेणि ज प्रायश्चितरूप थाओ. ३. मम त्वदर्शनोद्भूताश्चिरं रोमाञ्चकण्टकाः । नुदन्तां चिरकालोत्थामसद्दर्शनवासनाम् ॥४॥ हे वीतराग ! मने आपना दर्शनथी उत्पन्न ययेला रोमांचरूपी कंटको चिरकाळथी एटले अनादि काळना भवभ्रमणथी उत्पन्न थयेली कुशासननी दुर्वासनाने अत्यन्त पीडा करो. ( कांटावडे पीडा पामवाथी बहार नीकळी जाओ). ४. त्वद्वक्त्रकान्तिज्योत्स्नासु, निपीतासु सुधास्त्रिव । मदीयैर्लोचनाम्भोजैः, प्राप्यतां निर्निमेषता ॥५॥ हे प्रभु ! अमृतना जेवी आपना मुखनी कांतिरूपी चंद्रज्योत्सना (चांदनी) नुं पान करवाथी मारा लोचनरूपी कमळो निर्निमेषपणाने पामो. (चंद्रज्योत्सनानुं पान करवाथी कमलो विकस्वरपणाने पामे छे अने अमृतनुं पान करवाथी नेत्रो निमेष ( मटका ) रहितपणाने पामे छे. ) ५. त्वदास्यलासिनी नेत्रे, त्वदुपास्तिकरौ करौ । त्वद्गुणश्रोतृणी श्रोत्रे, भूयास्तां सर्वदा मम ॥६॥ Jain Education Internationat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
SR No.003660
Book TitleVitrag Mahadev Stotra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherJain Atmanand Sabha
Publication Year1935
Total Pages106
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size3 MB
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