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( १० ) त्वत्प्रभावे भुवि भ्राम्य-त्यशिवोच्छेदडिण्डिमे । सम्भवन्ति न यन्नाथ !, मारयो भुवनारयः ॥७॥
हे नाथ ! उपद्रवोनो उच्छेद करवा ढोल वगाडवा जेवो आपनो प्रभाव (प्रताप) भूमी उपर प्रसरवाथी (दुष्ट व्यन्तर, शाकिनी प्रमुखथी उत्पन्न थता) मारी (प्लेग) विगेरे जगतना काळ जेवा रोगो-उपद्रवो पेदा ज थता नथी. ७
कामवर्षिणि लोकानां, त्वयि विश्वकवत्सले । अतिवृष्टिरवृष्टिर्वा, भवेद्यन्नोपतापकृत् ॥८॥
विश्वोपकारी अने लोकोना मनवांछितदायक आप विद्यमान होवाथी लोकोने संतापकरनारी अतिवृष्टि के अनावृष्टि थती नथी. ८
स्वराष्ट्रपरराष्ट्रेभ्यो, यत्क्षुद्रोपद्रवा द्रुतम् । विद्रवन्ति त्वत्प्रभावात् , सिंहनादादिव द्विपाः ॥९॥
स्वचक्र अने परचक्र ( स्वराज्य अने परराज्य) थी थयेला क्षुद्र उपद्रवो सिंहनादथी जेम हाथीओ नाशी जाय छे तेम आपना प्रभावथी तत्काळ नष्ट
थइ जाय छे. ९ Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org