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________________ ( ६ ) दिक रोगरूपी सर्पनो समूह आपना देहमां व्यापी शकतो नथी, ( आप सदा रोग रहित ज छो. ) ३ त्वय्यादर्शतलालीन- प्रतिमाप्रतिरूपके । क्षरत्स्वेदविलीनत्व - कथाsपि वपुषः कुतः ? ॥ ४॥ आप दर्पानी अंदर प्रतिबिंबित थयेला रूपनी समान निर्मळ होवाथी आपनुं शरीर झरता परसेवाथी व्याप्त थयुं छे एवी कथा पण क्यांथी होय ? ४ न केवलं रागमुक्तं, वीतराग ! मनस्तव । वपुः स्थितं रक्तमपि, क्षीरधारासहोदरम् ॥ ५ ॥ हे वीतराग ! केवळ आपनं मन राग रहित थयेलुं छे एम नथी, परंतु आपना शरीरमां रहेलं रक्त (रुधिर ) दूधनी धारा जेवुं धोळु के, पटले आपना रुधिरमांथी पण स्वाभाविक राग-रंग-रताश जती रही छे. ५ जगद्विलक्षणं किं वा, तवान्यद्वक्तुमीमहे ? | यदविमबीभत्सं, शुभ्रं मांसमपि प्रभो ! ॥६॥ वळी जगतथी विलक्षण एवं आपनुं बीजं वर्णन अमे शुं करी शकीए ? कारण के हे प्रभु! आपनुं मांस Jain Education International Private & Personal Use Onlwww.jainelibrary.org
SR No.003660
Book TitleVitrag Mahadev Stotra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherJain Atmanand Sabha
Publication Year1935
Total Pages106
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size3 MB
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