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( ७२ ) अथ एकोनविंशतितमः प्रकाशः १९. .
भगवाननी आज्ञा आराधयाथी ज भगवाननी आराधनो थाय छे, तेथी आज्ञास्तवने स्तुतिकार कहे के.
तव चेतसि वर्तेऽहमिति वार्ताऽपि दुर्लभा । मञ्चित्ते वर्तसे चेत्वमलमन्येन केनचित् ॥१॥
हे वीतराग ! हुं आपना चित्तमा वर्तु ( रहुं ) ए वार्ताज दुर्लभ ( असंभवित) छे, परंतु जो आप मारा चित्तमा वर्तों ( रहो ) तो बीजा कोइ पण (प्रभुतादिक आपवा) वडे सयु (आप सिवाय मारे कोइनी जरुर नथी. ) १.
निगृह्य कोपतः कांश्चित्, कांश्चितुष्टयाऽनुगृह्य च । प्रतार्यन्ते मृदुधियः, प्रलम्भनपरैः परैः ॥२॥
लोकोने छेतरवामां तत्पर एवा हरिहरादिक अन्य देवो केटलाक (पोताथी प्रतिकूल रहेनार जनो)ने क्रोधथी शाप-वधादिकवडे निग्रह करीने अने
केटलाक (पोताना भक्तजनो ) ने प्रसन्नतावडे वरJain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org