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________________ ( २९ ) अथ स्वभावतो वृत्ति - रवितर्क्या महेशितुः । परीक्षकाणां तष, परीक्षाक्षेपडिण्डिमः ॥ ६ ॥ जो कदाच " ईश्वरनो जगत सृष्टि संबंधी स्वभाविक प्रवृत्ति बोजा काइना तर्कमां आवी शके तेवी नथी " एम कहेशा तो परीक्षकाने परीक्षानो निषेध करनार आ डिंडिम (ढोल) वगडाववा जेवुं छे. ६. सर्वभावेषु कर्तृत्वं, ज्ञातृत्वं यदि सम्मतम् । मतं नः सन्ति सर्वज्ञा, मुक्ताः कायभृतोऽपि च ॥ ७ ॥ जो " सर्व पदार्थोनुं जाणवापशुं ए ज कर्तापणं छे" एम तमे मानता हो तो ते वात अमारे पण मान्य ज छे; केमके अमारा जिनशासनमां शरीरधारी अरिहंत सर्वज्ञ ( जीवन मुक्त ) अने शरीर रहित सिद्ध ( विदेह मुक्त ) एम बे प्रकारना सर्वज्ञो छे ७. सृष्टिवादकुहेवाक - मुन्मुच्येत्यप्रमाणकम् । त्वच्छासने रमन्ते ते येषां नाथ ! प्रसीदसि ॥ ८ ॥ > हे नाथ ! जेमना उपर आप प्रसन्न थया छो ते पुरुषो उपर कह्या प्रमाणे प्रमाण रहित सृष्टिवादना कदा ग्रहने छोडीने आपना शासनमां ज आनंद पामे छे. ८. इति सप्तमप्रकाशः Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
SR No.003660
Book TitleVitrag Mahadev Stotra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherJain Atmanand Sabha
Publication Year1935
Total Pages106
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size3 MB
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