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________________ ( २३ ) विपक्षस्ते विरक्तश्चेत्, स त्वमेवाथ रागवान् । न विपक्षो विपक्षः किं, खद्योतो द्युतिमालिनः १ ॥ ३ ॥ जो कदाच आपनो शत्रु विरागी होय तो ते विरागी आप ज हो ( तेथी तेवो शत्रु होई शके नहीं मित्र ज होय ) अने जो ते आपनो शत्रु रागी होय तो पण ते अणघटतो शत्रु होइ शके नहीं. शुं खद्योत सूर्यनो शत्रु होइ शके ? न ज होय ( कारण के समान पराक्रमी ज शत्रु होइ शके छे ) ३. स्पृहयन्ति त्वद्योगाय यत्तेऽपि लवसत्तमाः । योगमुद्रादरिद्राणां परेषां तत्कथैव का ? 118 11 हे प्रभु ! ते लवसत्तम (अनुत्तरविमानवासी) देवो पण आपना योगनी स्पृहा करे छे. तो योगमुद्राए ( रजोहरणादिके ) करीने रहित अन्य दर्शनीओने ते योगमार्गनी कथा ज शानो होय ? न ज होय. ४. त्वां प्रपद्यामहे नाथं त्वां स्तुमस्त्वामुपास्महे । त्वत्तो हि न परस्त्राता, किं ब्रूमः ? किमु कुर्महे ? ॥ ५ ॥ हे नाथ ! अमे आपने अंगीकार करीए छीए, आपनी स्तुति करीए छीए, आपनी उपासना (सेवा) Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
SR No.003660
Book TitleVitrag Mahadev Stotra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherJain Atmanand Sabha
Publication Year1935
Total Pages106
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size3 MB
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