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अथ दशम प्रकाश १०.
मत्प्रसत्तेस्त्वत्प्रसादस्त्वत्प्रसादादियं पुनः। इत्यन्योन्याश्रयं भिन्धि, प्रसीद भगवन् ! मयि ॥१॥
हे भगवन् ! मारा मननी प्रसन्नताथी एटले (निर्मळताने अनुसारे) आपनी प्रसन्नता (कृपा)मारा पर थाय छे अने आपना प्रसादथी ( कृपाथी ) आ मारा मननो प्रसन्नता (निर्मळता ) थाय छे. आ प्रमाणे उत्पन्न थयेला अन्योन्याश्रय दोषने आप भेदी नाखो अने मारा उपर आप प्रसन्न थाओ (कृपा करो) एटले के मारी तुच्छ प्रसन्नतानो अनादर करी प्रथमथी ज आप मारा पर कृपा करो के जेथी आपनी प्रसन्नताथी हुं अवश्य प्रसन्न थइश. १.
निरीक्षितुं रूपलक्ष्मी, सहस्राक्षोऽपि न क्षमः । स्वामिन् ! सहस्रजिह्वोऽपि, शक्तो वक्तुं न ते गुणान् ॥२॥
हे स्वामिन् ! आपनी रूपलक्ष्मी जोवाने हजार नेत्रवाळो इंद्र पण समर्थ नथी अने आपनो गुण गोवाने हजार जिहावाळो शेषनाग पण समर्थ नथी. २. Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org