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________________ ( ५६ ) विषयेषु विरागस्ते, चिरं सहचरेष्वपि । योगे सात्म्यमदृष्टेऽपि, स्वामिन्निदमलौकिकम् ॥४॥ हे स्वामी ! घणा काळना परिचयवाला विषयो उपर पण आपना वैराग्य छे अने जन्म पर्यंत नही जोयेला एवा पण योगने विषे एकपणुं - तन्मयपशुं छे. आ आपनुं चरित्र अलौकिक छे. ४. तथा परे न रज्यन्त, उपकारपरे परे । यथाsपकारिणी भवानहो ! सर्वमलौकिकम् ॥५॥ हे वीतराग ! अपकार करनारा कमठ, गौशालक विगेरे उपर पण आप जे प्रमाणे रागी (खुशी) थाओ छो ते प्रमाणे अन्य देवो उपकार करनारा सेवक उपर पण रागी थता नथी. अहा ! आपनुं सर्व चरित्र अलौकिक छे. ( कर्मक्षय करवामां प्रवर्तेला मने कमठ ठीक सहायभूत थयो छे एम धारी आप तेना पर खुशी थाओ छो. ) ५. हिंसका अप्युपकृता, आश्रिता अप्युपेक्षिताः । इदं चित्रं चरित्रं ते, के वा पर्यनुयुञ्जताम् १ || ६ || हे प्रभु ! चंडकौशिक विगेरे हिंसकोने पण सद्गति पमाडवावडे आपे उपकार कर्यो छे, अने Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
SR No.003660
Book TitleVitrag Mahadev Stotra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherJain Atmanand Sabha
Publication Year1935
Total Pages106
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size3 MB
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