Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Jain Atmanand Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 60
________________ ( ५१ ) वाथो भव्य प्राणीओनी नरकगतिने छेदनार छे. अराजस एटले कर्मरूपी रज रहित छे अने ब्रह्मा एटले परब्रह्म ( मोक्ष ) ने विषे लय पामेला होवाथी ब्रह्मारूप छे. ) ४. अनुक्षितफलोदग्रादनिपातगरीयसः । असङ्कल्पित कल्पद्रोस्त्वत्तः फलमवाप्नुयाम् ॥५॥ ( सर्व वृक्षो निरंतर जळसिंचन करवाथो ज अमुक समये ज मात्र फळने आये छे, वळी पडवाए करीने ज मोठा भारवाळा होय छे अने प्रार्थना करवाथी ज इच्छित वस्तुने आपनार होय छे, परंतु ) आप तो सिंचन कर्या विना ज उभयलोकना सुखरूपी फळोए करीने परिपूर्ण छो, पड्या विना ज एटले स्वस्वरूपमा रहेवाथो ज गौरवतावाळा को अने प्रार्थना कर्या विना ज इच्छित वस्तुने आपनारा को. तेथी आवा प्रकारना कल्पवृक्षरूप आपनाथी हुं फळने पामुं कुं. ५ असङ्गस्य जनेशस्य, निर्ममस्य कृपात्मनः । मध्यस्थस्य जगत्रातुरनङ्कस्तेऽस्मि किङ्करः ॥६॥ ( आ लोकमां पण परस्पर विरुद्ध छ विशेपणो आ रीते छे-जे संग रहित होय ते जनेशलोकना स्वामी होइ शके नहीं, ममता रहित होय Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106