Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Jain Atmanand Sabha

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Page 58
________________ ( ४९ ) अथ त्रयोदश प्रकाशः १३. प्रभु सर्वत्र हेतु विना ज स्वेच्छाए प्रवर्ते छे, से बतावे छे. अनाहूतसहायस्त्वं, त्वमकारणवत्सलः । अनभ्यर्थितसाधुस्त्वं, त्वमसम्बन्धबान्धवः ॥१॥ हे वीतराग ! मुक्तिपुरीना मार्गमां जनारा प्राणीओने आप बोलाव्या विना ज सहायकारक छो, आप कारण ( स्वार्थ ) विना ज हितकारक छो, आप प्रार्थना कर्या विना ज साधु एटले परनुं कार्य करनारा छो; तथा आप संबंध विना ज बांधव छो. १. अनक्तस्निग्धमनसममृजोज्ज्वलवाक्पथम् । अधौतामलशीलं त्वां शरण्यं शरणं श्रये ॥२॥ ममतारूपी स्नेहवडे नहीं चोपडाया छतां स्निग्ध मनवाळा, मार्जन कर्या विना ज उज्वळ वाणीने बोलनारा, धोया विना ज निर्मळ शीलवाळा अने तेथो करीने ज शरण करवा लायक एवा आपनुं हुं शरण लउं छं. २ ४ Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org

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