Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Jain Atmanand Sabha

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Page 66
________________ ( ५७ ) सर्वानुभूति तथा सुनक्षत्र विगेरे आश्रितोनी पण आपे उपेक्षा करो छे एटले के आ भव संबंधी आपत्तिथो तेमनुं रक्षण कर्यु नथो. आवा आश्चर्यकारक आपना चरित्रने कोण पूछवाने पण उत्साह धारण करे ? आप आq चरित्र केम करो छो ? एम कोइ पूछो पण शके तेम नथी. ६. तथा समाधौ परमे, त्वयात्मा विनिवेशितः। सुखी दुःख्यस्मि नास्मीति, यथा न प्रतिपन्नवान् ॥७॥ हे भगवन् ! आपे आपना आत्माने एवी रीते उत्तम समाधिमां स्थापन को छे के जेथी हुं सुखी छ ? के दुःखो र्छ ? के नथो ? एम जरा पण आपे स्वीकार्यु नथी. अर्थात् आप संकल्प रहित हो. ७. ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं, त्रयमेकात्मतां गतम् । इति ते योगमाहात्म्यं, कथं श्रद्धीयतां परैः ? ॥८॥ हे प्रभु ! ध्याता, ध्येय अने ध्यान आ त्रणे ओपने विषे एकपणाने (अभेदने ) पामेला छे. ओवा प्रकारना ओपना योगमहात्म्यने अन्य जनो (सूक्ष्ममार्गने नहीं जाणनारा लोको ) शी रीते श्रद्धा करे-माने ? ८. इति चतुर्दशप्रकाशः Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org

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