Book Title: Vitrag Mahadev Stotra Author(s): Hemchandracharya, Publisher: Jain Atmanand SabhaPage 69
________________ ( ६० ) अनेडमूका भूयासुस्ते येषां त्वयि मत्सरः । शुभोदाय वैकल्यमपि पापेषु कर्मसु ॥६॥ हे प्रभु ! जेओने आपना उपर इा छे, ते लोको बहेरा ने मुंगा ज हो ( कान अने वचन रहित ज हो), केमके परनिदादिक पापव्यापारमा इंद्रियोनुं विकळपणुं ( रहितपणुं ) पण शुभ परिणामने माटे ज के अर्थात् विकळपणाथकी आपनी निंदादिक न करी शकवाथी तेओ दुर्गतिमां जशे नहों, ए ज तेओने माटे मोटो लाभ छे. ६. । तेभ्यो नमोऽञ्जलिरयं, तेषां तान समुपास्महे । त्वच्छासनामृतरसरात्माऽसिच्यतान्वहम् ॥७॥ जेओए आपना शासनरूपी अमृतरसवडे निरंतर पोताना आत्माने सिंच्यो छे, तेमने अमारो नमस्कार थाओ, तेमने अमे बे हाथ जोडीए छोए अने तेमने अमे सेवीए छीए. ७. भुवे तस्यै नमो यस्यां, तब पादनखांशवः । चिरं चूडामणीयन्ते, महे किमतः परम् ? ॥८॥ हे प्रभु ! जे भूमि पर आपनो पगना नखना Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.orgPage Navigation
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