Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya,
Publisher: Jain Atmanand Sabha
View full book text
________________
( ५९ ) च्युतश्चिन्तामणिः पाणेस्तेषां लब्धा सुधा मुधा। यैस्ते शासनसर्वस्वमज्ञानैर्नात्मसात्कृतम् ॥३॥
जे अज्ञानीओए आपन शासनरूपी सर्वस्व (धन) पोताने आधीन कर्यु नथी तेओ (निर्भागीओ) ना हाथथी चिंतामणि रत्न पडी गयुं छे अने प्राप्त थयेळु अमृत निष्फळ थयुं छे. ३.
यस्त्वय्यपि दधौ दृष्टिमुल्मुकाकारधारिणीम् । तमाशुशुक्षणिः साक्षादालप्यालमिदं हि वा ॥४॥
हे प्रभु ! जे (निर्भागी) मनुष्य निष्कारणवत्सल आपना उपर पण बळता उंबाडीयानी जेवी इावाळी दृष्टिने धारण करे छे, तेने साक्षात् अग्नि (बाळी नांखों ) अथवा तो ओवु वचन बोलवाथी सर्यु ( न बोलवू ज सारुं छे.) ४.
त्वच्छासनस्य साम्यं ये, मन्यन्ते शासनान्तरैः । विषेण तुल्यं पीयूषं, तेषां हन्त ! हतात्मनाम् ॥५॥
हे प्रभु ! खेदनी वात के के जे लोको आपना शासनने बीजा दर्शनोनी साथे तुल्य माने छे, ते अज्ञानथी हणायेला जनोने अमृत पण विष तुल्य छे. (तेओ
अमृतने विष समान गणे छे एम जाणवू. ) ५ -Jain Education Internatiohat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106