Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Jain Atmanand Sabha

Previous | Next

Page 64
________________ ( ५५ ) हे वीतराग ! आपे इंद्रियोने बलात्कारे नियंत्रित करी नथी, तेम ज लोलुपताथी छूटी पण मूकी नथी. आ रीते सम्यक प्रकारे वस्तुतत्त्वने अंगीकार करनारा आपे इंद्रियोनो जय कर्यो छे. ( इन्द्रियोने बळात्कारे बांधवाथी ते कौतुकवाळी, थइने बंधनमा रहेतो नथी अने जो केटलोक काळ तेने छूटी मूकवामां आवे तो विषयना स्वरूपने जाणी, अनुभवी, कौतुक रहित थइ पोतानी जाते ज निवृत्ति पामे छे अने फरीथी ते कदापि विकार पामती नथो. आ हकीकत ज्ञानी महात्मा माटे छे, अन्य जनोए तो इन्द्रियोनो जय करवा सर्वथा शक्ति फोरववी जोइए.) २. योगस्याऽष्टाङ्गता नून, प्रपञ्चः कथमन्यथा ? | आबालभावतोऽप्येष, तब सात्म्यमुपेयिवान् ॥३॥ हे प्रभु ! अन्य शास्त्रोमा यम १, नियम २. आसन ३, प्राणायाम ४, प्रत्याहार ५, धारणा ६, ध्यान ७ अने समाधि ८ आ आठ अंग योगना ( समाधिना ) कह्या छे ते मात्र प्रपंच ( आडंबरविस्तार ) हाय तेम भासे छे, कारण के तेम न हाय ता आपने बाल्यावस्थाथी ज आ योग सहजपणाने शो रीते पामे ? (ओसनादिक बाह्य विस्तार विना ज परम ज्ञान-वैराग्यादिकरूप योग आपने स्वाभाविक ज प्राप्त थयो छे.) ३. Jain Education International Private & Personal Use Onlwww.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106