Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Jain Atmanand Sabha

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Page 63
________________ ( ५४ ) अथ चतुर्दश प्रकाश. १४. हवे योगनी शुद्धि बतावे छे.मनोवचःकायचेष्टाः, कष्टाः संहृत्य सर्वथा । लत्वेनैव भवता, मनःशल्यं वियोजितम् 11211 हे भगवन् ! कष्टकारक एटले पापवाळी मन, वचन अने कायानी चेष्टाने सर्वथा तजीने शिथिलपणावडे ज आपे मनना शल्यने दूर कर्यु छे. ( शरीरमां कोइ ठेकाणे शल्य ( कांटो ) लाग्यो होय तो बाह्य चेष्टानो निरोध करी शरीरने शिथिल कर - वाथी ( ढीलुं मूकवाथी ) तरत ज ते शल्य चीपीया विगेरेथी नोकळी शके छे. ते ज रीते सर्व चेष्टाआने रुंधी मनने शिथिल ( मोकळु ) मूकवाथी ते मन पोतानी मेळे ज शांत थह जाय छे; केमके विपरीत शिक्षावाळा अश्वनी जेम मननुं नियंत्रण करवाथी ते उलटुं वधारे प्रसरे छे- चपळ थाय छे अने शिथिल मूकवाथी पोतानी मेळे ज स्थिर थाय छे. ) १. A संयतानि न चाक्षाणि नैवोच्छृङ्खलितानि च । इति सम्यक्प्रतिपदा, त्वयेन्द्रियजयः कृतः ॥२॥ Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org

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