Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya,
Publisher: Jain Atmanand Sabha
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हे प्रभु! सर्व प्रकारे शत्रुने जीतवानी नही इच्छावाळा अने पापथी अत्यंत भय पामेला छतां पण ओपे त्रण जगत्ने जीती लीधा छे, तो महापुरुषोनी चतुराइ कोइ अद्भुत ज छे. ३. दत्तं न किञ्चित्कस्मैचिन्नात्तं किञ्चित्कुतश्चन ।। प्रभुत्वं ते तथाप्येतत्कला कापि विपश्चिताम् ॥४॥
हे प्रभु ! आपे कोईने कांइ गाम विगेरे आप्यु मथी तेम ज कोइनी पासेथी कांई दंडादिक लीधुं 'नथी, तो पण आपनुं आ (समवसरणादिक लक्ष्मीरूप) ऐश्वर्य छे तो विद्वानोनी कळा कोइक अपूर्व
यदेहस्यापि दानेन, सुकृतं नार्जितं परैः । उदासीनस्य तन्नाथ !, पादपीठे तवालुठत् ॥५॥
हे नाथ ! बीजा बौद्धादिके पोताना देहने आपबावडे पण जे सुकृत उपार्जन कर्यु नथी ते ( उपकारीपणारूप सुकृत) उदासीन भावे रहेला -आपना पादपीठमां आलोटयु छे. ५. रागादिषु नृशंसेन, सर्वात्मसु कृपालुना। भीमकान्तगुणेनोच्चैः, साम्राज्यं साधितं त्वया ॥६॥
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