Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya,
Publisher: Jain Atmanand Sabha
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( ४२ )
अथ एकादश प्रकाश. ११.
अचिंत्य महात्म्यनुं वर्णन -
निमन्परीषहचमूमुपसर्गान् प्रतिक्षिपन् । प्राप्तोऽसि शमसौहित्यं, महतां कापि वैदुषी ॥१॥
हे वीतराग ! आप परीसहोनी सेनाने हणता अने उपसर्गोनो तिरस्कार करता समतारूप अमृतनी तृप्तिने पाम्या हो, तेथी मोठा पुरुषोनी चतुराई कोह अद्भुत ज होय छे. १.
अरक्को भुक्तवान्मुक्तिमद्विष्टो हतवान्द्विषः । अहो ! महात्मनां कोsपि, महिमा लोकदुर्लभः ||२||
हे वीतराग ! आपे राग रहित छतां मुक्ति-स्त्रीने भोगवी छे अने द्वेष रहित छतां कषायादिक शत्रुओने हण्या छे. अहो ! लोकमां दुर्लभ एवो महात्माओनो महिमा कोई अद्भुत ज छे. २.
सर्वथा निर्जिगीषेण, भीतभीतेन चागसः । त्वया जगत्त्रयं जिग्ये, महतां कापि चातुरी ॥३॥
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