Book Title: Vitrag Mahadev Stotra Author(s): Hemchandracharya, Publisher: Jain Atmanand SabhaPage 49
________________ (४०) संशयान नाथ ! हरसेऽनुत्तरस्वर्गिणामपि । अतः परोऽपि कि कोऽपि, गुणः स्तुत्योऽस्ति वस्तुतः१३॥ हे नाथ ! आप अहीं रह्या छतां ज अनुत्तर विमानमा रहेला देवोना पण संशयोने हरो छो, तो शुं आथी बीजो वस्तुतः (परमार्थथी) स्तुति करवा लायक कोइ पण गुण के. ? नथी ज. ३. इदं विरुद्धं श्रद्धत्तां, कथमश्रद्दधानकः । आनन्दसुखसक्तिश्च, विरक्तिश्च समं त्वयि ॥४॥ हे प्रभु ! अनंत आनंदरूप सुखमां आसक्ति अने सर्व संगनी विरक्ति ए बन्ने एकी साथे आपनामां छे. आवी विरुद्ध बाबत श्रद्धा विनानो ( आपना लोकोत्तर चरित्रने नहि जाणनार ) पुरुष शी रीते श्रद्धा करे ( माने )? ४. नाथेयं घट्यमानापि, दुर्घटा घटतां कथम् ?। उपेक्षा सर्वसत्त्वेषु, परमा चोपकारिता ॥५॥ हे नाथ ! आपनी सर्व प्राणीओने विषे उपेक्षा ( मध्यस्थपणुं-राग द्वेष रहितपणुं ) अने ज्ञानादिक मोक्षमार्ग देखाडवाए करीने महा-उपकारीपणुं आ Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.orgPage Navigation
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