Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Jain Atmanand Sabha

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Page 37
________________ (२८ ) जो कदाच ते देव क्रीडाथी ज जगतनी सृष्टि विगेरेमा प्रवर्ते छे एम कोइ कहे तो तेने बाळकनी जेम रागवान कहेवो जोइशे, अने जो कृपाथी सर्जे छे एम कहेता हो तो तेणे समग्र जगतने सुखी ज सर्जदूं जोइए. ३. दुःखदौर्गत्यदुर्योनि-जन्मादिक्लेशविह्वलम् । जनं तु सृजतस्तस्य, कृपालोः का कृपालुता ॥४॥ परंतु ते तो इष्ट वियोगादिक दुःख, दरिद्रता, दुष्टयोनि अने जन्ममरणादिक क्लेशवडे व्याप्त एवा जनोने सर्जे छे; तेथी ते कृपाळुनी कइ कृपाळुता समजवी ? ४. कर्मापेक्षः स चेत्तर्हि, न स्वतंत्रोऽसदादिवत् । कर्मजन्ये च वैचित्र्ये, किमनेन शिखण्डिना ? ॥५॥ जो कदाच तमे एम कहेशो के ते देव तो प्राणीओना कर्मने अनुसारे सर्व करे छे, तो ते देव आपणी जेम स्वतंत्र नथी. जो कर्मथी उत्पन्न थयेर्छ विचित्रपणुं मानता हो तो आ नपुंसक जेवा इश्व• रने मानवाथी शुं फळ ? ५. Jain Education International Private & Personal Use Onlwww.jainelibrary.org

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