Book Title: Vitrag Mahadev Stotra Author(s): Hemchandracharya, Publisher: Jain Atmanand SabhaPage 41
________________ ( ३२ ) द्वयं विरुद्ध नैकत्रा-सत्प्रमाणप्रसिद्धितः । विरुद्धवर्णयोगो हि, दृष्टो मेचकवस्तुषु ते ज प्रमाणे घटादिक कोइ पण एक वस्तुमा नित्यता अने अनित्यता ए बन्ने मानवाथी कांइ पण विरोध आवतो नथी. केमके तेवो विरोध (कोई पण प्रत्यक्षादिक) विधमान प्रमाणोवडे सिद्ध थई शकता नथी एटले के तेवी काई पण युक्ति नथी के जेनाथी नित्यानित्यने विषे विरोध साधी शकाय. कारण के (कृष्ण अने श्वेत विगेरे) विरुद्ध वर्णनो योग पटादिक शबल ( जूदा जूदा विचित्र वर्णवाळी ), वस्तुने विषे प्रत्यक्ष जोवामां आवे छे. ७. विज्ञानस्यैकमाकारं, नानाकारकरम्बितम् । इच्छंस्तथागतः प्राज्ञो, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ ८ ॥ विज्ञान ( ज्ञान ), एक ज स्वरूप छे अने ते घटादिकना विचित्र आकारे करीने सहित छ एम इच्छता प्राज्ञ बौद्ध अनेकांत ( स्याद्वाद ) ने उत्थापी शकतो नथो. एटले के एक स्वरुपवाळा ज्ञानने विचित्र आकारवाळु मानवाथी अनेकांत मत मान्यो ज कहेवाय छतां तेने नहीं स्वीकारतो बौद्ध खरेखर प्राज्ञ (प्रxअज्ञ-मोटो अज्ञानी) छे. ८. Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.orgPage Navigation
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