Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya,
Publisher: Jain Atmanand Sabha
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( ३४ )
मति मुंझायेली छे ते चार्वाक (नास्तिक) नी अहीं विमति छे के संमतिछे ते काइ विचारवानी जरुर नथी; केमके बाळ-गोपाळ पर्यंत सर्व कोइ परलोकादिकने माने छे. तेने ज जे मानता नथी एवा चार्वाकनी विमति के संमतिथी शुं फळ ? ११. तेनोत्पादव्ययस्थेम-सम्भिन्नं गोरसादिवत् । त्वदुपज्ञं कृतधियः, प्रपन्ना वस्तुतस्तु सत् ॥ १२ ॥
आथी करीने हे वीतराग ! कुशळ बुद्धिवाळा (ज्ञानी) पुरुषोए गोरसादिकनी जेम उत्पात, व्यय अने ध्रौव्यस्वरूपवाळी सत् वस्तु के जे आपे सौथी प्रथम प्ररूपी के तेने ज अंगीकार करी छे. जेम गोरस (दूध ) दूधपणावडे नाश पामी दहीपणे उत्पन्न थयं ते पण गोरस ज कहेवोय छे. एटले के धरूप द्रव्यना दहीरूप पर्याय थयो. तेज रीते मृत्तिकादिक द्रव्यनो घटादिक पर्याय छे. तेज रोते जोव द्रव्यनो मनुष्यादिक पर्याय छे विगेरे. १२.
इत्यष्ठमप्रकाश
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