Book Title: Vitrag Mahadev Stotra Author(s): Hemchandracharya, Publisher: Jain Atmanand SabhaPage 35
________________ ( २६ ) प्रसन्नमास्यं मध्यस्थे, दृशौ लोकम्पृणं वचः । इति प्रीतिपदे बाढं, मूढास्त्वय्यप्युदासते ॥११॥ हे प्रभु! आपनुं मुख प्रसन्न छे, बन्ने नेत्रो मध्यस्थ (विकार रहित ) छे अने आपनुं वचन लोकोने प्रीतिकारक छे. आ प्रमाणे आप सर्वने प्रीति करनार छतां पण मूढ लोको आपना उपर उदासीन रहे छे. ११. तिष्ठेद्वायुवेदद्रि-ज़लेजलमपि कचित् । तथापि ग्रस्तो रागाथै- तो भवितुमर्हति ॥ १२ ॥ दे जिनेन्द्र ! कदाच वायु स्थिर थइ जाय, पर्वत गळी जाय अने पाणी पण अग्निनी जेम जाज्वल्यमान थाय; तो पण जे ( देवो ) रागद्वेषादिकवडे व्याप्त होय ते आप्त ( हितकारक ) थवाने लायक नथी अर्थात् वीतराग सिवाय बीजा कोइ सत्य देव छे ज नहों. ११. इति षष्ठप्रकाशः Jain Education Internationat Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.orgPage Navigation
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