Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Jain Atmanand Sabha

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Page 31
________________ ( २२) अथ षष्ठप्रकाशः लावण्यपुण्यवपुषि, त्वयि नेत्रामृताञ्जने । माध्यस्थ्यमपि दौःस्थ्याय, किं पुनद्वेषविप्लवः? ॥१॥ हे प्रभु ! तमे लावण्यवडे पवित्र शरीरवाळा होवोथी प्राणीओना नेत्रोने अमृतना अंजन समान छो; कृतां तमारे विषे मध्यस्थपणुं धारण कर (एटले के बीजा हरिहरादिक देव जेवा आप पण देव छो एम जे मानवू) ते पण मोटा खेदने माटे छे तो पछी आपने विषे द्वेषभाव राखवो ते तो अत्यंत खेदने माटे होय तेमां शुं कहेवू ? १. तवापि प्रतिपक्षोऽस्ति, सोऽपि कोपादिविप्लुतः । अनया किंवदन्त्यापि, किं जीवन्ति विवेकिनः?॥२॥ हे नाथ ! आपने पण शत्रु के अने ते पण क्रोधादिक कषायथी व्याप्त छे. आवी वार्ताए करीने पण शुं विवेकी पुरुषो जीवी शके ? न ज जीवे. ( नहीं सांभळवा योग्य वचन सांभळवा करतां मरण ज श्रेष्ठ छे. ) २. Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org

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