Book Title: Vitrag Mahadev Stotra Author(s): Hemchandracharya, Publisher: Jain Atmanand SabhaPage 23
________________ ( १४ ) दानशीलतपोभाव-भेदाद्धर्म चतुर्विधम् । मन्ये युगपदाख्यातुं, चतुर्वक्त्रोऽभवद्भवान् ॥४॥ दान, शोल, तप अने भावनारूप चार प्रकारना धर्मने एकी साथे कहेवा माटे आप चतुर्मुख थया छो एम हुँ मार्नु छं. ४ त्वयि दोषत्रयात्रातुं, प्रवृत्ते भुवनत्रयीम् । प्राकारत्रितयं चक्रु-त्रयोऽपि त्रिदिवौकसः ॥५॥ राग, द्वेष अने मोहरूप तथा मन, वचन अने काया संबंधी त्रण दोषथी त्रिभुवनने बचाववाने आप प्रवृत्त थयेल होवाथी त्रण प्रकारना (वैमानिक, ज्यातिषी अने भुवनपति) देवोए रत्न, सुवर्ण अने रूप्यमय त्रण गढनी रचना करी छे. ५ अधोमुखाः कण्टकाः स्यु-र्धात्र्यां विहरतस्तव । भवेयुः सम्मुखीनाः किं, तामसास्तिग्मरोचिषः ? ॥६॥ पृथ्वी उपर आप विचरो छो त्यारे कांटा पण उंधा पडी जाय छे. सूर्य उदय पामे छे त्यारे घूवड अथवा अंधकारनो समूह शुटकी शके खरो ? ६ Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.orgPage Navigation
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