Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Jain Atmanand Sabha

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Page 21
________________ अनन्तकालप्रचित-मनन्तमपि सर्वथा । त्वत्तो नान्यः कर्मकक्ष-मुन्मूलयति मूलतः ॥१३॥ अनन्तकाळथी उपार्जन करेल अने अन्त विनानं कर्मवन आप सिवाय बीजो कोइ सर्व प्रकारे मूळथी उच्छेदी शकतो नथी. १३ तथोपाये प्रवृत्तस्त्वं, क्रियासमभिहारतः । यथानिच्छन्नुपेयस्य, परां श्रियमशिश्रियः ॥१४॥ हे प्रभु! चोरित्ररूप उपायमा पुनः पुनः अभ्यासथी आप एटला वधा प्रवृत्त थयेला छो के परमपदनी श्रेष्ठ संपदारूप तीर्थकरपदवीने नहि इच्छता छतां पण आपने प्राप्त थइ छ. १४ मैत्रीपवित्रपात्राय, मुदितामादशालिने । कृपोपेक्षाप्रतीक्षाय, तुभ्यं योगात्मने नमः ॥१५॥ __ मैत्री भावनाना पवित्र स्थानरूप, पुष्ट प्रमोद भावनाथी शोभित तेम ज करुणा अने माध्यस्थ्य (भावना) वडे पूज्य एवा योगस्वरूपी आपने अमारो नमस्कार थाओ. १५ ॥ इति तृतीयप्रकाशः ॥ Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org

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