Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Jain Atmanand Sabha

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Page 20
________________ ( १९ / यत्क्षीयते च दुर्भिक्षं, क्षितौ विहरति त्वयि । सर्वाद्भुतप्रभावाढ्ये, जङ्गमे कल्पपादपे ॥ १० ॥ सर्व अद्भुत प्रभावशाळी अने जंगम कल्पवृक्ष समान आपना पृथ्वी उपर विचरवाथी दुर्भिक्ष दुष्काळ दूर थइ जाय छे. १० 2. यन्मूर्ध्नः पश्चिमे भागे, जितमार्त्तण्डमण्डलम् । मा भूद्वपुर्दुरालोक - मितीवोत्पिण्डितं महः ||११|| सूर्यथी पण अधिक प्रभावाळु भामंडळ आपनुं शरीर जोवामां कोईने अडचण ( आड ) न आवे तेला ज माटे देवोए ते आपना मस्तकनी पाछळ स्थापेलुं छे. १९ स एष योगसाम्राज्य - महिमा विश्वविश्रुतः । कर्मक्षयोत्थो भगवन् !, कस्य नाश्चर्यकारणम् १ ||१२|| ? हे भगवन् ! घाती कर्मना क्षयथी उत्पन्न थयेलो, लोक प्रसिद्ध योगसाम्राज्यनो महिमा कया सचेतन प्राणीने आश्चर्य पमाडतो नथी ? अर्थात् सर्व सचेतन प्राणी वर्गने आश्चर्यकारी थाय छे १२ Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org

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