Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Jain Atmanand Sabha

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Page 14
________________ ५ ) मूळ ४ अतिशय वर्णनरूप बीजा प्रकाश. प्रियङ्ग-स्फटिकस्वर्ण-पद्मरागाञ्जनप्रभः । प्रभो ! तवाधौतशुचिः काय: कमिव नाक्षिपेत् १ ॥ १ ॥ हे प्रभु ! प्रियंगुवत् (नील), स्फटिकवत् ( उज्वळ) स्वर्णवत् ( पीत), पद्मरागवत् ( रक्त ) अने अंजनवत् (श्याम) वर्णनी कांति समान अने धोया विना ज सदा पवित्र थलो आपनो देह, देव मनुप्यादि कोने चकित नथी करतो ? सर्वने करे छे. १ मन्दारदामवन्नित्य--मवासितसुगन्धिनि । तवाङ्गे भृङ्गतां यान्ति, नेत्राणि सुरयोषिताम् ||२॥ कल्पवृक्षनी माळानी जेम सदा स्वभावथी ज सुगंधी युक्त आपना अंग उपर देवांगनाना नेत्रो भ्रमरपणाने पामे के. २ दिव्यामृतरसास्वाद - पोषप्रतिहता इव । समाविशन्ति ते नाथ !, नाङ्गे रोगोरगव्रजाः ॥३॥ हे नाथ ! दिव्य अमृतरसना आस्वादनी पुटिथी जाणे पराभव पामेला होय तेम कास श्वासा Jain Education International Private & Personal Use Onlyww.jainelibrary.org

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