Book Title: Vitrag Mahadev Stotra
Author(s): Hemchandracharya,
Publisher: Jain Atmanand Sabha
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( ८ )
कर्मक्षयोत्पन्न ११ अतिशय वर्णनरूप त्रीजो प्रकाश.
सर्वाभिमुख्यतो नाथ !, तीर्थकुन्नामकर्मजात् । सर्वथा सम्मुखीनस्त्व - मानन्दयसि यत्प्रजाः ॥ १॥
तीर्थकर नामकर्मजनित सर्वाभिमुख्य नामना अतिशयथी हे नाथ ! आप केवळज्ञानना प्रकाशवडे सर्वथा सर्व दिशाए सन्मुख छतां देव, मनुष्यादिक प्रजाने प्रतिक्षण (परम) आनंद पमाडो छो. १
यद्योजनप्रमाणेऽपि, धर्मदेशनसद्मनि । संमान्ति कोटिशस्तिर्यग्नृदेवाः सपरिच्छदाः ॥२॥
एक योजनप्रमाण धर्मदेशनाना स्थानरूप समवसरणमां परिवार सहित क्रोडो देवताओ, मनुष्यो अने तिर्यचो आपना प्रभावथी सुखपूर्वक समाइ जाय छे.२
तेषामेव स्वस्वभाषा - परिणाममनोहरम् । अप्येकरूपं वचनं, यत्ते धर्मावबोधकृत् ॥ ३ ॥
आपने एक सरखं वचन - उपदेश देव, मनुष्य अने तिर्यचोने पोतपोतानी भाषामां सुखे समजी शकाय एवो छे अने धर्म संबंधी बोधने करावनार होय छे. ३
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