Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 32
________________ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना हम बौद्धों के प्रस्तुत उल्लेख महावीर के निर्वाण से नहीं पर उनकी उक्त बीमारी और जमालीवाली तकरार से संबंधित मानते हैं । निर्ग्रन्थों के द्वैधीभाव और एक दूसरे की खटपट का बौद्धों ने जो वर्णन दिया है वह भगवती सूत्र में वर्णित जमालि और गौतम इंद्रभूति के विवाद का विकृत स्वरूप है ।१२ विद्वानों की सम्पति है वह केवल आधुनिक दंतकथाओं के ऊपर अवलंबित है । जैन संघ के दक्षिण में जाने का सबसे पुराना उल्लेख पार्श्वनाथ बस्ती के उक्त लेख में है, पर उसमें भद्रबाहु के दक्षिण में जाने का कोई उल्लेख नहीं है । और उसमें उल्लिखित भद्रबाहु श्रुतकेवली नहीं पर उनके परंपराभावी दूसरे नैमित्तिक भद्रबाहु हैं । विक्रम की दशम सदी के बृहत्कथाकोष के ग्रंथकार भद्रबाहु को श्रुतकेवली तो लिखते हैं पर उनके दक्षिण में जाने से साफ इनकार कर देते हैं और वे चंद्रगुप्त को ही विशाखाचार्य के नाम से भद्रबाहु के संघ का मुखिया बनाकर दक्षिण में और रामिल्ल, स्थूलवृद्ध तथा भद्राचार्य को अपने अपने संघ के साथ सिंधु आदि देशों में भेजवाते हैं। भद्रबाहु-चरित्रकार इससे भी आगे बढ़कर स्थूलवृद्ध को स्थूभद्र और भद्राचार्य को स्थूलाचार्य बना लेते हैं और भद्रबाहु को दक्षिण में पहुँचाकर अनशन कराते हैं । राजावली कथाकार रत्ननंदि की सब बातों को स्वीकार कर लेने के उपरांत चंद्रगुप्त को पाटलिपुत्र का राजा ठहराने की चेष्टा करता है । इस प्रकार आगे से आगे बढ़ाई हुई बातों को हम 'प्रमाण ' न कहकर दंतकथा मात्र या मनगढंत कल्पना ही कह सकते हैं । १२. चंपा के पूर्णभद्र चैत्य में महावीर के सामने आकर जिस समय जमालि आप केवली होने की शेखी हाँक रहा था उस समय महावीर के मुख्य शिष्य इंद्रभूति-गोतम ने उससे जो प्रश्नोत्तर किए थे उनका वर्णन भगवती में इस प्रकार है "तएणं भगवं गोयमे जमालि अणगारं एवं वयासी णो खलु जमाली ! केवलिस्स णाणे वा दंसणे वा सेलसि वा थंभंसि वा थूभंसि वा आवरिज्जइ वा णिवारिज्जइ वा जइ णं तुम्मं जमाली उपण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलीअवक्कमणेणं अवक्ते ता णं इमाइं दो वागरणाई वागरेहि सासए लोए जमाली, असासए लोए जमाली? सासए जीवे जमाली, असासए जीवे जमाली ? | तएणं से जमाली अणगारे भगवया गोयमेणं एवं वुत्ते समाणे संकिए कंखिए० जाव कलुससमावण्णे जाए यावि होत्था, णो संचाएइ भगवओ गोयमस्स किंचिवि पामोक्खमाइक्खित्तए तुसणीए संचिट्ठइं ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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