Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
इन सब बातों को ध्यान में लेने पर यही कहना होगा कि इस कथा का श्रुतकेवली भद्रबाहु और मौर्य चंद्रगुप्त के साथ कोई संबंध नहीं हो सकता । संभव है, गुप्तों के समय में चंद्रगुप्त नामक किसी गुप्तवंशीय व्यक्ति ने वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु नामक जैन आचार्य से जैन दीक्षा ली हो जिसे पिछले लेखकों ने अविवेक से श्रुतकेवली भद्रबाहु और मौर्य चंद्रगुप्त के नाम के साथ लगा दिया ।
चंद्रगुप्त को लेकर भद्रबाहु का दक्षिणापथ की तरफ जाना भी यही
भी यही मत है कि यदि भद्रबाहु ने दक्षिण की यात्रा की हो तो वे द्वितीय भद्रबाहु ही हो सकते हैं, परंतु द्वितीय भद्रबाहु का जो अस्तित्वसमय माना गया है वह ठीक नहीं जंचता । हेमचंद्र के उक्त लेख के अनुसार भद्रबाहु का समय विक्रम की तीसरी सदी का प्रारंभकाल मान लिया जा सकता है परंतु उसमें यह स्पष्ट नहीं लिखा है कि अंगश्रुत का विच्छेद होने के बाद तुरंत ही भद्रबाहु हुए थे । उस उल्लेख का तात्पर्य इतना ही हो सकता है कि अंगश्रुत का अंत होने के बाद के प्रसिद्ध आचार्यों में प्रथम पुरुष भद्रबाहु थे, पर इससे यह मानने में क्या बाधक है कि ये भद्रबाहु अंगश्रुत की प्रवृत्ति-विच्छेद होने के बाद करीब ढाई तीन सौ वर्ष के बाद हुए हों ? इनके नंदि आम्नाय के आदि पुरुष होने की मान्यता से भी यही सिद्ध होता है कि ये भद्रबाहु विक्रम की छठी सदी के पहले के नहीं हो सकते । यद्यपि इन भद्रबाहु को नंदिसंघ की पट्टावली में आचार्य कुंदकुंद का पुरोगामी लिखा है, परंतु इस पट्टावलि-लेख को प्रामाणिक मानने के पहले बहुत सोचने की जरूरत है, क्योंकि प्राचीन लेखों में आचार्य कुंदकुंद को ही मूल संघ का नायक लिखा है । देखो श्रवण वेलगोल की कत्तिले बस्ती के एक स्तंभ पर के शिलालेख का. निम्नलिखित श्लोक
"श्रीमतो वर्द्धमानस्य, वर्द्धमानस्य शासने ।
श्री कोंडकुंद नामाभून्मूलसंघाग्रणीर्गणी ॥३॥"
अर्थात् "श्रीमान् वर्द्धमान स्वामी के शासन में मूल संघ के नायक कोंडकुंद नामक आचार्य हुए ।"
__ और, दूसरे दिगंबरीय संघ गण गच्छ और शाखाएँ इसी मूल संघ का विस्तार होने से नंदि शाखा भी इस मूलसंघ और इसके अग्रणी आचार्य कोंडकुंद के पीछे की ही हो सकती है । और जब नंदि शाखा कुंदकुंद के बाद के समय की है तब इसके प्रवर्तक भद्रबाहु भी कुंदकुंद से अर्वाचीन ही हो सकते हैं । इसलिये हमारे विचार से ये द्वितीय भद्रबाहु विक्रम की छठी या पाँचवीं शताब्दी के पहले के नहीं हो सकते ।
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