Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
आर्य सुहस्ती तक ये दोनों स्थविरावलियाँ एक मार्ग पर चलती हैं, पर इसके आगे कहीं कहीं भिन्न मार्ग भी पकड़ लेती हैं ।
आर्य रक्षित सूरि पर्यंत इन दोनों स्थविरावलियों का विधान इस प्रकार है
माथुरी आर्य सुहस्ती के पीछे आर्य महागिरि के शिष्य बलिसह और इनके बाद स्वाति नामक आर्य को संघ-स्थविर स्वीकार करती है, पर वालभी इन दोनों की जगह गुणसुंदर नामक किसी अप्रसिद्ध श्रुतस्थविर को यह पद देती है । इन गुणसुंदर का वालभी स्थविरावली के सिवाय कहीं भी नामोल्लेख नहीं मिलता । संभव है, राजा संप्रति की प्रेरणा से दक्षिण में सुदूर तक धर्मप्रचारार्थ जानेवाले आर्य सुहस्ती के किसी शिष्य समुदाय के ये गुणसुंदर मुखिया होंगे ।८२ युगप्रधानत्व ४१ वर्ष का मानकर इनके पीछे जो श्रीगुप्त का नाम लिखा मिलता है उसे निकालकर वालभी गणना में से १३ वर्ष कम कर दिए हैं इस कारण से कालकाचार्य का स्वर्गवास ९८१ में बताया है, अन्यथा प्रचलित वालभी गणनानुसार कालक का अंतिम वर्ष ९९४ में आता । इन सब बातों की चर्चा ऊपर मूल लेख में कर दी गई है इसलिये यहाँ विशेष चर्चा नहीं की जाती ।
८२. आचार्य मेरुतुंग गुणसुंदर के संबंध में टीका करते हुए लिखते हैं कि 'दोनों शाखाओं में आर्य सुहस्ती के बाद गुणसुंदर और श्यामाचार्य के बाद स्कंदिल दृष्टिगोचर नहीं होते तो भी संप्रदाय इसी तरह का होने से इनका यहाँ निर्देश किया गया है।' देखो मेरुतुंग के इस विषय के शब्द
"एवं चाऽत्र शाखाद्वयेऽप्यार्यसुहस्तिनोऽनुगुणसुंदरः श्यामार्यादनु स्कंदिलाचार्यश्च न दृश्यते, तथाऽप्यत्र संप्रदाये दृष्टावतस्तावेव प्रोक्तौ ।"
-विचारश्रेणि पत्र ५ । मेरुतुंग के इस उल्लेख से ज्ञात होता है कि वे माथुरी थेरावली को आर्य महागिरि की शाखा और वालभी थेरावली को आर्य सुहस्ती की शाखा समझते थे । मेरुतुंग जिस संप्रदाय का इशारा करते हैं वह युगप्रधान पट्टावलीकारों का संप्रदाय है । युगप्रधान पट्टावलियों में गुणसुंदर और स्कंदिलाचार्य का नाम है, पर मेरुतुंग के विचार में नंदी थेरावली आर्य महागिरीय शाखा की पट्टावली है और दशाश्रुतस्कंधोक्त थेरावली आर्य सुहस्ती की पट्टावली, इन दोनों शाखाओं की पट्टावलियों में उक्त स्थान पर गुणसुंदर
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