Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
जैनों का विक्रमादित्य'४ है । निर्वाण संवत् ४५३ में गर्दभिल्ल को उठाकर कथावली आदि के मतानुसार वह उज्जयिनी के राज्यासन पर बैठा५ । और इसके बाद १७ वर्षों में (निर्वाण स० ४७०) मालव संवत्सर की प्रवृत्ति हुई, यही घटना पूर्वोक्त गाथा के पूर्वार्द्ध में सूचित की है, पर मौर्यों के राजत्वकाल में से ५२ वर्ष छूट जाने के कारण पीछे से इस स्वाभाविक अर्थ की व्यवस्था असंगत हो गई थी इसी लिये आचार्य मेरुतुंग को अस्वाभाविक कल्पना करने की जरूरत पड़ी ।
मत्स्य ब्रह्मांड और वायुपुराण में कुल ७ गर्दभिल्ल राजा लिखे हैं,९६
९४. संस्कृत भाषा में 'बल' और 'विक्रम' शब्द एकार्थक हैं और 'मित्र' तथा 'आदित्य' भी समानार्थक हैं, इसलिये 'बलमित्र' कहो या 'विक्रमादित्य' दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है । संभव है, बलमित्र ही उज्जयिनी के सिंहासन पर बैठने के बाद "विक्रमादित्य' नाम से प्रख्यात हुआ हो, अथवा उस समय वह 'बलमित्र' और "विक्रमादित्य' इन दोनों नामों से प्रसिद्ध होगा और 'कृतसंवत्सर' के साथ 'विक्रम' नाम प्रचलित होने के बाद पूर्वोक्त ५२ वर्ष की भूल के परिणाम कालभिन्नता से बलमित्र और विक्रमादित्य भिन्न भिन्न मान लिए गए होंगे ।
९५. अनेक चूर्णियों और कालक कथाओं के लेखानुसार उज्जयिनी के गर्दभिल्ल को उठा के वहाँ के राज्यासन पर कालकाचार्य का आश्रयदाता शाहि बिठलाया गया था, पर भद्रेश्वरसूरि को कथावली में एक ऐसा उल्लेख है जो गर्दभिल्ल के अनंतर ही उज्जयिनी के राज्यासन पर कालक के भानजे बलमित्र का अभिषेक हुआ बताता है । देखो कथावली का निम्नलिखित लेख
"साहिप्पमुहराणएहि चाहिसित्तो उज्जेणीए कालगसूरिभाणेज्जो बलमित्तो नाम राया, तक्कणिट्ठभाया य भाणुमित्तो नामाहिसित्तो जुवराया ।"
-कथावली । २ । २८५ । ९६. "सप्तैवांध्रा भविष्यंति, दशाभीरास्तथा नृपाः । सप्त गर्दभिलाश्चापि, शकाश्चाष्टादशैव तु ॥१८॥"
मत्स्य पुराण अ० २७३ । पत्र २९६ । "सप्तषष्टिं च वर्षाणि, दशाभीरास्ततो नृपाः । सप्तगर्दभिनश्चैव भोक्ष्यंतीमां द्विसप्ततिम् ॥७४॥"
-ब्रह्मांडपुराण म० भा० उपो० पा० ३ । अ० ७४
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