Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 186
________________ जैन काल-गणना-विषयक एक तीसरी प्राचीन परंपरा १६७ स्थापना की, पश्चिम पर्वत तथा विंध्याचल आदि में बौद्ध श्रमण श्रमणियों को चातुर्मास्य में रहने के लिये अनेक गुफाएँ खुदवाई और विविध आसनोंवाली बुद्ध की मूर्तियाँ उनमें स्थापित की । गिरनार आदि अनेक स्थानों में अशोक ने अपने नाम से अंकित आज्ञालेख स्तूप तथा खडकों पर खुदवाए; सिंहल द्वीप, चीन, तथा ब्रह्मदेश आदि द्वीपों में बौद्ध धर्म का प्रचार करने के विचार से पाटलिपुत्र में बौद्ध श्रमणों की सभा की और उस सभा की सम्मति के अनुसार राजा अशोक ने अनेक बौद्ध श्रमणों को वहाँ (सिंहलादि द्वीपों में) भेजा । अशोक जैनधर्म के निर्ग्रथ-निग्रंथियों का भी सम्मान करता, पर उनका द्वेष कभी नहीं करता था । अशोक के अनेक पुत्र थे । उनमें कुणाल नामक पुत्र राज्य के योग्य था । वह भावी राजा होने की संभावना से अपनी सौतेली माताओं की आँखों का काँटा था, इसलिये अशोक ने उसको अपने मंत्रियों के साथ उज्जयिनी नगरी में रखा, पर वहाँ पर भी सौतेली माँ के षड्यंत्र से कुणाल अंधा हो गया । यह वृत्तांत सुनकर अशोक बहुत क्रुद्ध हुआ और उसने उस प्रपंची रानी तथा कतिपय नालायक राजकुँवरों को मरवा डाला और पीछे से कुणाल के पुत्र संप्रति को अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाया । महावीरनिर्वाण से २४४ वर्ष के बाद अशोक परलोकवासी हुआ । संप्रति पाटलिपुत्र में राज्याभिषिक्त हुआ, पर वहाँ रहने में अपने विरोधियों की ओर से शंकित होकर उसने राजधानी पाटलिपुत्र का त्याग किया और अपने बाप को जागीर में मिली हुई उज्जयिनी में जाकर वह सुखपूर्वक राज्य करने लगा ।" - इसके बाद थेरावलीकार ने संप्रति का पूर्वभव-संबंधी वृत्तांत और आर्य सुहस्ती द्वारा उसके जैन धर्म स्वीकार करने का हाल लिखा है, जो अति प्रसिद्ध होने से यहाँ नहीं लिखा जाता है। संप्रति ने जैनधर्म के प्रचारार्थ जो काम किया उसका वर्णन थेरावली के ही शब्दों में नीचे दिया जाता है "आचार्यजी (आर्य सुहस्ती जी) ने कहा-हे राजन् ! अब तुम प्रभावनापूर्वक फिर जैन धर्म का आराधन करो जिससे भविष्य में वह तुम्हें स्वर्ग और मोक्ष देने में समर्थ हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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